सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कहानी : तोहफा : परिधि शर्मा / KAHANI:TOHAFA : PARIDHI SHARMA

 


 

परिधि की कहानी तोहफा छत्तीसगढ़ में औद्योगिकरण से उपजी भीषण समस्याओं की ओर इशारा करती है। उद्योगों से निकले गर्म राख के निदान की ओर उद्योगों के मालिकों का कोई ध्यान नहीं रहता क्योंकि इसके समुचित निदान में बहुत अधिक खर्च होने की संभावना बनी रहती है। उद्योगों के मालिक गर्म राख को जहां जगह मिलती है वहीं डंफ कर देते हैं । छत्तीसगढ़ में खेल के मैदान और किसानों की जमीनें भी इससे बर्बाद हो रही हैं क्योंकि वहां भी जोर जबरदस्ती यह गर्म राख आए दिन डंफ कर दिया जाता है।

तोहफा कहानी में जन्म से अंधी एक लड़की बबली भी इसी गर्म राख से जलने का शिकार होती है । बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं। उनकी आवाज सुनकर जन्म से अंधी लड़की बबली भी एक लाठी के सहारे मैदान की तरफ बढ़ती है और गर्म राख से झुलस कर उसकी मृत्यु हो जाती है । इस मृत्यु पर नोटिस लेने वाला गांव में कोई नहीं मिलता। उद्योग मालिकों के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठती । यहां तक कि लड़की के पिता की ओर से भी चुप्पी साध ली जाती है क्योंकि फेक्ट्री का मैनेजर लड़की के पिता के घर आकर अपने बिरूद्ध बन रही सारी परिस्थितियों को पैसे के बल पर मैनेज कर लेता है। बाकी लोग सिर्फ खुसुर फुसुर करते हुए देखते रह जाते हैं।

यह कहानी उद्योगों से उपजी भीषण समस्या की ओर तो इशारा करती ही है साथ ही साथ जन्म से अंधी एक विकलांग लड़की के अस्तित्व की समाज द्वारा की गई उपेक्षा को भी सामने लाती है। उद्योगों द्वारा अवैध तरीके से खेल मैदान में डंफ किये गए गर्म राख में जलकर आठ साल की किसी अंधी लड़की के अस्वाभाविक मौत का जब समाज विरोध नहीं करता तब उसे संवेदनहीन समाज ही कहा जा सकता है। यह कहानी समाज की इस संवेदनहीनता को भी सामने लाकर एक प्रश्न खड़ा करती है।

 


कहानी : तोहफा

शायद नाली में बहने वाला पानी नाली से बाहर सड़क पर आकर बहना चाहता था पर सड़क उसके स्तर से थोड़े ऊंचे स्थान पर थी और उस स्तर तक पहुंचने के लिए उस पानी का अस्तित्व काफी नहीं था । पर यह चमत्कार था या ईश्वर ने उस काले कलूटे पानी की कामना सुन ली थी कि नाली के ठीक सामने बने खप्पर की छत वाले कच्चे मकान में रहने वाली राधा बाई ने एक बाल्टी गंदा पानी छपाक से नाली में उड़ेल दिया और पाने की इच्छा पूरी हो गई। करीब एक हाथ गहरी नाली से बाहर निकलकर वह सड़क पर बहने लगा। कुछ ही देर में वह सड़क पर बने गड्ढों में अपना आशियाना बनाने लगा तभी धड़ धड़ की आवाज आई। सामने से एक ऑटो रिक्शा तेजी से आया और गड्ढे से गुजरते हुए अपने पीछे फव्वारा छोड़ता चला गया और फिर पानी छिटकता हुआ कुछ ही दूर खड़े एक आवारा कुत्ते पर पड़ा जो अचानक हुए इस प्रहार से थोड़ा सकपका गया और दुम हिलाता हुआ भाग खड़ा हुआ।

हर रोज की तरह आज की सुबह भी अखबार वाला निश्चित घरों में अखबार फेंकता निकला। पर आज ठेकेदार के घर से अखबार लेने कोई बाहर नहीं आया। ठेकेदार के घर में एक अजीब सी शांति छाई हुई थी जिसकी वजह सारे मोहल्ले में हो रही खुसफुसाहट ही थी। अंदर ही अंदर चल रही इस खुसफुसाहट की वजह सारे मोहल्ले वासियों के लिए एक गरमा गरम खबर थी। पर ठेकेदार के घर में बिछी शांति उन लोगों को जरा उदास कर देती जो इस नए मसले पर बहस बाजी के लिए तैयार बैठे थे। पर वह शांति अगले कई महीनों तक बिछी रहने वाली थी और लोग कुछ दिनों तक लोक चर्चा करने के बाद उस रहस्यमई शांति के आगे माथा टेक कर खुद भी शांत हो जाने वाले थे। जो लोग कुछ चंचल थे वे किसी और मसले की तलाश में भिड़ जाने वाले थे।

सब कुछ फिर से सामान्य हो जाने वाला था मानो कुछ हुआ ही नहीं । मानो यहां कुछ असामान्य होता ही नहीं। मानो इस दुनिया में घुटनों के ऊपर तक की फ्रॉक पहनने वाली और दिन और रात में फर्क न कर पाने वाली बबली नाम की किसी लड़की का कभी कोई अस्तित्व रहा ही ना हो। घोड़ा को घोला और टीम टीम को तिम तिम कहने वाली किसी जन्मांध लड़की का आना या जाना या फिर किसी एक जगह पर स्थिर रहना या घोड़ा को घोला कहना किसी के भी काम का नहीं था। जैसे वह कोई गैर जरूरी अस्तित्व रखती थी या फिर रखती ही नहीं थी।

सब कुछ सामान्य हो जाना सामान्यतया मुमकिन नहीं था। सब कुछ के फिर से सामान्य बन जाने के पीछे कुछ लोगों के अथक प्रयास थे। सब कुछ फिर से पहले की तरह सामान्य बनाने के लिए कुछ लोगों ने कोशिश की थी जिससे कुछ और लोग लोकचर्चा के लिए मसाला ना मिल पाने की शिकायत लेकर उदास हो जाने वाले थे। ठेकेदार को शायद यह मालूम था पर अमुक ढंग से की गई लोगों की इस शिकायत के प्रति उसकी उदासीनता ने महज आठ वर्ष की बबली के अस्तित्व को सिर्फ इतना ही हक दिया कि वह जाते जाते लोगों के बीच से चोरी चोरी थोड़ी सी खुसफुसाहट बटोर सके और किसी लोकल अखबार में अपनी नन्ही उंगलियों के जितनी बड़ी लंबाई और अपने अंगूठे के बराबर की चौड़ाई वाले एक कोने के कालम की ताजा खबर बन सके । वह खबर जो न्यूनतम लोगों का ध्यान खींच सकती थी, जिसमें किसी बच्चे के खिलौने और एक अधजले डंडे के पीछे छूट जाने का कोई जिक्र नहीं था । जिससे किसी लड़की की चीखें सुनाई नहीं पड़ती थीं।

ठेकेदार के घर के सामने से होकर गुजरने वाले एक बार घर के अंदर झांकने का कष्ट जरूर करते और फिर निराश होकर निकल जाते और जब राधाबाई की झोपड़ी के सामने से गुजरते तब राधाबाई का तोता टैं टैं करता, जिसे देख कर कोई उसके पास जाकर उससे बात करने की चेष्टा करता, कोई गाली बकता हुआ निकल जाता और कोई ऐसे गुजरता की कोई तोता वहां है ही नहीं, मानो उन्होंने किसी की टैं टैं सुनी ही नहीं। वैसे ही जैसे ठेकेदार के घर के आंगन में बने एक छोटे से झूले के नीचे (जिसमें झूलने वाला अब कोई नहीं) पड़ी एक गुड़िया को लोग नजरअंदाज कर जाते। वह गुड़िया जिस की दोनों आंखें फोड़ दी गई थीं और जिसकी एक तरफ की चोंटी बंधी थी और दूसरी तरफ का बाल खुला हुआ था जिससे आखिरी बार उसकी मालकिन ने दिशा मैदान जाने से पहले खेला था और जिसे कुछ समय बाद घर की नौकरानी कचरे के साथ फेंकने वाली थी। बबली के सबसे प्रिय खिलौने को कचरे में फेंकने वाली थी, उस कचरे में जो आंगन के एक कोने में जमा था। वह कचरा जिसमें चेरी के उस पेड़ से टपक टपक कर गिरे फलों का ढेर था, जिसमें वह झूला टंगा था , जिसके फलों को खाने का कष्ट कोई नहीं करता था। जिसके दानों पर खाने वाले का नामोनिशान नहीं था और उसके फल सड़ जाने को बाध्य थे।

सचमुच सबकुछ सामान्य हो जाने वाला था। घर में बिछी शांति कुछ ही दिनों में दम तोड़ देने वाली थी। चहल पहल फिर से घर में शुरू होने वाली थी पर बबली का जिक्र अब नहीं होने वाला था। अन्य चीजें जस की तस रहने वाली थीं। बबली की मां रोज की तरह स्नान के बाद एक बार फिर आंगन में लगे एक छोटे से तुलसी के नन्हे से पौधे में लोटा भर पानी डालने वाली थी। सब कुछ अन्य दिनों की तरह होने वाला था सिवाय एक दिन के जब वह अपना सब्र खो कर तुलसी के आगे घुटनों के बल पड़ कर दहाड़ें मारकर रोने वाली थी और घर के अन्य लोग उन्हें दिलासा देने को आने वाले थे। ठेकेदार की आंखों में दुख था या नहीं यह कोई नहीं कह सकता क्योंकि बिना सच जाने कोई निर्णय लिया नहीं जा सकता था और ना ही किसी निर्णायक या उसके निर्णय की कोई आवश्यकता यहां थी पर कोई बात थी जिसका प्रमाण किसी के पास नहीं था। जिनके पास था भी उनके तो मुंह बंद थे।

महीनों बीतने लगे थे। अप्रैल खत्म हो चला था। मई की आखिरी चंद शामें भी बीतने लगी थीं। कुछ दिनों बाद शायद बारिश भी होने वाली थी या शायद महीनों बाद भी नहीं होने वाली थी। दूर के छोटे से घर में रहने वाली वृंदा का बेटा अपनी मां के हाथों पिट रहा था। कारण वह पढ़ने लिखने के बजाय खेलने कूदने में मगन था और उसकी मां उसे यह कहकर धमकी देते हुए मार रही थी कि यदि उसने पढ़ाई नहीं की तो वह उसे गांव में छोड़ आएगी जहां वह बकरियां चराएगा। मार खाता हुआ वह सोच रहा था कि उसके दादाजी की तो ढेरों बकरियां हैं , वह इतनी सारी बकरियों को अकेले कैसे चरा पाएगा। जिनकी बकरियां नहीं होतीं वे क्या चराते होंगे? क्या बकरियां खुद नहीं चर सकतीं या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि टीवी के रिमोट की तरह बटन दबाते ही बकरियां चरने चली जाएं और फिर बटन दबाते ही दौड़ कर वापस आ जाएं । तभी उसके सिर पर प्रहार हुआ, चटाक! और वह बकरियों को भूल कर रोने लगा।

ठेकेदार के घर में अब अखबार पड़ते ही वह बाहर कुर्सी लगाकर बैठ जाता और अखबार में ही आंखें गड़ा लेता। अपनी बेटी की मौत का जिक्र वह नहीं करना चाहता था । वह सब कुछ भूलना चाहता था। उसका मुंह बंद था। मुंह बंद कराने का यह शुभ कार्य खुद मैनेजर साहब ने उसके घर पधार कर किया था जहां करीब दो घंटे तक घर के लोगों से वार्तालाप करने के बाद वह अपनी तोंद हिलाता हुआ बाहर निकला था और उनके पीछे-पीछे खुद ठेकेदार निकला था और उन्हें विनम्रता पूर्वक विदा कर रहा था। उसकी विनम्रता ही दर्शा रही थी कि धन की शक्ति आज भी बरकरार है। उस घटना से हर कोई अपना पल्ला झाड़ लेना चाहता था जैसे किसी का कोई दोष ही नहीं था । और समय के हिसाब से शायद सचमुच ही किसी का कोई दोष नहीं था। ना उस तोंद हिलाने वाले मैनेजर का, ना उस ठेकेदार का, ना ही दहाड़ें मारकर रोने वाली उस मां का और ना ही खुसुर फुसुर करने वाले लोगों का।

शायद दोष उस रोशनी का भी नहीं था जो कभी बबली को रास्ता नहीं दिखा पाई। शायद दोष उस शोरगुल का भी नहीं था जिसे मैदान में खेल रहे बच्चों ने मचाया था और जिसे सुनकर बबली उस ओर आकर्षित होकर चली गयी थी।

शायद दोष उस डंडे का था जिसके सहारे चलती हुई वह मैदान की तरफ लपकी थी । वह डंडा जो आधा जल जाने वाला था और अगले कई दिनों तक मैदान में यूं ही तनहा पड़ा रहने वाला था और अपनी सजा काटने वाला था। शायद दोष कहीं ना कहीं उस गुड़िया का भी था जिसकी आंखें उसकी मालकिन ने फोड़ डाली थीं और जो कई दिनों तक चेरी के सड़ रहे फलों के बीच मुंह छुपाकर पड़ी रहने वाली थी।

क्योंकि यहां दोषी वही होता है जो सजा पाता है। कि सच्चाई का पता लगने के बाद और सब कुछ पानी की तरह साफ होने पर भी लोगों को सिर्फ बबली का दोष ही नजर आने वाला था । उसका दोष यह था कि अपने अंधेपन के बावजूद वह मैदान में खेलने निकली थी। उस मैदान में जहां खतरा है , उस खतरे में जो उसके लिए मौत का तोहफा लिए खड़ा है। यहां छत्तीसगढ़ के औद्योगिक नगरों में स्थित मैदान खतरों से खाली नहीं होते।वहां कहीं भी गर्म राख डंफ कर दिया जाता है।वे बबली जैसे बच्चों के लिए मौत का तोहफा लिए खड़े होते हैं और उनके डंडों को आधा जलाकर तन्हा छोड़ सकते हैं। उन मैदानों में किसी बच्चे के खेलने की जगह नहीं होती क्योंकि वहां तो कारखानों के मालिक गैरकानूनी रवैय्या अपनाते हुए गर्म राख का ढेर बिछा देते हैं जिसमें बबली के बाद उसके जैसे और कई बच्चे भी झुलस कर मौत की गोद में सो सकते हैं और जिसके लिए सिर्फ वे और उनके खिलौने, डंडे और झूले ही दोषी ठहरते हैं । कि यहां टीम टीम को तिम तिम और घोड़ा को घोला कहने वाले बच्चों को कोई याद नहीं रखता।

-----------------

डॉ. परिधि पेशे से दंत चिकित्सक हैं और इन दिनों दंत चिकित्सा में मास्टर डिग्री MDS  की पढ़ाई कर रही हैं।

 

 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहान...

ज्ञान प्रकाश विवेक, तराना परवीन, महावीर राजी और आनंद हर्षुल की कहानियों पर टिप्पणियां

◆ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी "बातूनी लड़की" (कथादेश सितंबर 2023) उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।  ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी। लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है। अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है। लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर ...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

फादर्स डे पर परिधि की कविता : "पिता की चप्पलें"

  आज फादर्स डे है । इस अवसर पर प्रस्तुत है परिधि की एक कविता "पिता की चप्पलें"।यह कविता वर्षों पहले उन्होंने लिखी थी । इस कविता में जीवन के गहरे अनुभवों को व्यक्त करने का वह नज़रिया है जो अमूमन हमारी नज़र से छूट जाता है।आज पढ़िए यह कविता ......     पिता की चप्पलें   आज मैंने सुबह सुबह पहन ली हैं पिता की चप्पलें मेरे पांवों से काफी बड़ी हैं ये चप्पलें मैं आनंद ले रही हूं उन्हें पहनने का   यह एक नया अनुभव है मेरे लिए मैं उन्हें पहन कर घूम रही हूं इधर-उधर खुशी से बार-बार देख रही हूं उन चप्पलों की ओर कौतूहल से कि ये वही चप्पले हैं जिनमें होते हैं मेरे पिता के पांव   वही पांव जो न जाने कहां-कहां गए होंगे उनकी एड़ियाँ न जाने कितनी बार घिसी होंगी कितने दफ्तरों सब्जी मंडियों अस्पतालों और शहर की गलियों से गुजरते हुए घर तक पहुंचते होंगे उनके पांव अपनी पुरानी बाइक को न जाने कितनी बार किक मारकर स्टार्ट कर चुके होंगे इन्हीं पांवों से परिवार का बोझ लिए जीवन की न जाने कितनी विषमताओं से गुजरे होंगे पिता के पांव ! ...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...