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परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है।उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में विधायक, सांसद, मंत्री, संत्री इत्यादि सभी पूंजीवादी ताकतों का साथ देते आ रहे हैं और उन ग्रामीणों को जिनके माध्यम से वे चुनकर आते हैं , उन्हें ही बरगलाकर ठगने का काम कर रहे हैं। इस कहानी में दादी विवेक और विरोध का एक प्रतीक है । ऐसे प्रतीक  आज ग्रामीण समाज से गुम हो रहे हैं ।आज की सत्ता में बैठे लोग विरोध के इन स्वरों को कैसे मद्धम करते हैं इस कहानी में बहुत सहज ढंग से इसे उठाया गया है । विधायक दादी को शॉल ओढ़ाकर जिस तरह सम्मान करते हैं और उस सम्मान को पूरा ग्रामीण समाज सम्मान की नजर से देख कर खुश होता है, दादी को इसी बात का दुख है कि लोग आज एकदम बेसुध हैं। उनमें षड्यंत्रों को समझने का हुनर ही नहीं है।गांव के खेतों को बर्बाद करके पावर ग्रिड कारपोरेशन बिजली के बड़े-बड़े खंभे लगा देता है। गांव की गलियों  में भी खंभे लगते हैं पर उनमें बिजली नहीं आती।गांव में उजाले का जो सपना दिखाया गया होता है वह सच नहीं हो पाता इसलिए दादी इन खंभों पर पच्च से थूकती है और खेत में गड़े दैत्याकार खंभों के नीचे जाकर ओढ़ाए गए शॉल को जला देती है। खेत खलिहान सब बर्बाद हो जाने के बाद भी किसान के जीवन में ना दीया है न बाती है । बस अंधेरा ही अंधेरा। अपनी कहानी में परदेशी राम वर्मा इस बात को रखने में पूरी तरह कामयाब हुए हैं । उनकी कहानियों में ठेठ देशज शब्दों का प्रयोग इतनी स्वाभाविकता के साथ होता रहा है कि उनकी कहानियों की प्रभाव उत्पादकता बढ़ जाती है और पाठक उनकी कहानियों से जुड़ जाता है। 



दीया न बाती 

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बात बात में पचास और छप्पन का जिक्र आज भी इस क्षेत्र के लोग कर बैठते हैं । रामखेलावन की दादी छप्पन और पचास के बिना चार वाक्य भी नहीं बोल सकती। रामखेलावन के दोस्त ठठ्ठा दिल्लगी में तुक मिलाकर उसे छेड़ते हैं...

 'काम बुता म अगुवाती छप्पन पचास के नाती' 

काम के मामले में रामखेलावन अव्वल तो था ही, गांव भर में इसलिए यह तुकबंदी सबको जंचती भी थी । मित्रों को भी कभी कभार जिज्ञासा हो जाती कि आखिर यह छप्पन और पचास है क्या ? रामखेलावन के मित्र भी उसी की तरह छोटे किसान हैं चौथी पांचवी तक पढ़कर सब अपनी खेती संभालने लगे। सब गांव की रामायण मंडली के संगी भी हैं। रतिराम ने कहा कि 'रामखेलावन एकलख पूत सवालख नाती, ताके घर में दिया ना बाती'

 यह बात पंडित जी रावण के लिए कहते हैं अहंकार में डूबा रामायण सब कुछ होते हुए भी अंधकार में समा गया लेकिन तुम्हारा पचास और छप्पन क्या है। आजकल मोदी जी भी छप्पन इंच की छाती की बात कर रहे हैं। प्रियंका बहन अलग व्याख्या कर रही हैं कि देश चलाने के लिए छप्पन इंच की छाती नहीं दरियादिली चाहिए। भाई बात तो ठीक है छाती से मामला थोड़े ही ना सुलझता है। रामखेलावन को रति भाई की लंबी छलांग कभी अच्छी लगती है ।कभी वह झुंझला भी पड़ता है, उसने सूत्र रूप में समझाया कि रति भाई हमारी दादी हैं सियान डोकरी, तुम नहीं समझोगे ।

सुनो सन पचास में चकबंदी हुई दादाजी तो बीमार रहते थे दादी ने चकबंदी इंस्पेक्टर से कहा कि मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं मुझे गांव से लगी जमीन दो । इंस्पेक्टर ने कहा कि मंडलिन तुम्हारे पास पंद्रह एकड़ जमीन है, इधर-उधर बिखरी हुई है तुम्हारी जमीन, खेत एक जगह नहीं है, चकबंदी में अगर गांव के पास जमीन लोगी तो सात एकड़ मिलेगी नहीं तो रिंगनिखार में दूर ले लो पूरे पन्द्रह एकड़ एक जगह दे दूंगा ।सोच लो। दादी ने कह दिया कि साथ ही सही। गांव के पास चाहिए। जीने के लिए सात एकड़ बहुत है ।दो ही तो मेरे बेटे हैं कमा खा लेंगे ।रिंगनिखार दूर है मैं नहीं संभाल पाऊंगी ।इस तरह गांव के पास सात एकड़ जमीन मिली दादी को सन पचास की चकबंदी में । दाऊ लोगों के परिवारों ने तो भाठा चरागाह भरी तालाब जाने क्या कुछ लिखवा लिया अपने नाम, मगर कमजोर लोग इसी तरह ठगे गए ।वही सात एकड़ जमीन है जिस पर अब गाज गिर गई। दादी तो बहुत बूढ़ी हो गई हैं मगर चल फिर लेती हैं ।आज भी अपनी जमीन तक चल देती हैं ।गांव के पास ही जमीन है लेकिन दादी बिजली विभाग के नए तमाशे से बहुत दुखी हैं ।पावर ग्रिड कारपोरेशन ने बिना पूछे पांच सौ और सात सौ केवी का डबल सर्किट लाइन बिछाकर किसानों को बर्बाद करने का काम शुरू कर दिया है। दादी तो पगला ही गई है रोज शाम को रोती है कि अंग्रेज से भी बड़े दुश्मन हो गए देसी सरकार के हाकिम । अब क्या समझाऊं मैं।

 रतिराम को इस तरह पचास का मर्म तो समझ में आ गया मगर छप्पन अभी बचा था । बात हो रही थी कि लाठी टेकते मंगल वही आ डटे। सत्तर के ऊपर के मंगल ने बिना पूछे ही बता दिया कि संवत छप्पन में अकाल पड़ा था ।लोग दूसरे प्रांतों में रोजी मजदूरी करने गए थे वैसा अकाल फिर कभी नहीं पड़ा इसलिए अकाल दुकाल को हम छप्पन पड़ना भी कहते हैं । रतिराम को इन दो जानकारियों से खुशी तो हुई मगर उसने डोकरा मंगल को छेड़ते हुए कहा कि तुम्हारी छाती छप्पन इंच की है कि नहीं बाबा जी । मंगल ने उसकी टीमाली के जवाब में उसे गरियाते हुए कहा - साले हो छाती मजबूत चाहिए ।कमजोर छप्पन इंच से बेहतर है मजबूत छत्तीस इंच ।बाबाजी के जवाब से सब सदैव हंसते हुए निःशब्द हो जाते हैं। इस बार भी जीत बाबा मंगल की ही हुई 

रामखेलावन दोस्तों को विदा कर घर लौटने लगा । घर के भीतर से दादी के रोने की आवाज आ रही थी। वह दौड़कर घर के भीतर गया । घर में अंधेरा था। रामखेलावन ने अपनी पत्नी से पूछा क्या बात है ?बिजली चली गई है क्या। रामवती ने रोते हुए बताया कि दादी ने अपने हाथों से घर के सभी बल्ब तोड़कर पटक दिए हैं ।हाथ उनका कट भी गया है ।रोती हैं और कहती हैं कि आग लगे ऐसी रोशनी में ।सरकार जग अंधियार करने बिजली ला रही है । रामखेलावन ने दादी के पास जाकर देखा हाथ से खून बह रहा था। डेटॉल और रूई से रामखेलावन ने दादी के हाथ को साफ किया फिर पट्टी बांधते हुए उसने पूछा- दादी क्या हो गया ?उसे लगा कि दादी कहीं सचमुच पगला तो नहीं गई है ।दादी ने राम खिलावन को पोटार कर रोते हुए कहा -बेटा तुम्हारा दादा जल्दी चला गया। अपने बेटों को भी मैंने जल्दी खो दिया। मैं अभागन तुम्हारे सहारे देख रही हूं दुनिया। यह क्या आजकल खेतों में खम्भा गड़ गया खिलावन ? हम लोग तो बर्बाद हो गए बेटा । मेरे छोटे बेटे को खेत में काम करते हुए सांप ने काट लिया था। यह बिजली का बड़ा खम्भा सांप है बेटा ।बिजली का खंभा तुम्हें काटने के लिए खेत तक चला आया है।

 रामखेलावन  भी आसा हो गया । उसने अपने लड़के से कहा कि जाकर दो बल्ब ले आ। घर का अंधेरा तो भगा। दादी ने कहा बेटा जब तक खंभा नहीं हटेगा घर में बिजली नहीं जलेगी। अगर बिजली जली तो समझ लो मैं नहीं रहूंगी ।रामखेलावन डर सा गया। उसने अपनी पत्नी से कहा लालटेन को निकाल लो ।आज उसी से काम चलेगा। रामखेलावन दूसरे दिन सुबह गांव के सरपंच को लेकर खेत की ओर गया ।पावर ग्रिड कारपोरेशन के लोग 500 पावर का खंभा गाड़ने के बाद 700 पावर के लिए चार गड्ढा खोद चुके थे। दो गड्ढे तो रामखेलावन के खेत में पहले से ही थे ।दो और गड्ढे खोदे गए पड़ोसी रतीराम के खेत में । अभी वे खेत पहुंचे ही थे कि रतीराम अपने साथियों के साथ आ गया। सबने गड्ढा खोद चुके मजदूरों को ललकारा। काम रुक गया ।तब तक विभाग का अफसर भी आ चुका था ।उसने गाड़ी से उतरते हुए गांव वालों को धमकाया कि सीधे लाल बंगले की हवा खाओगे। जाओगे जेल ।यह राष्ट्र विरोधी काम है ।काम को रोको मत ,बिजली जरूरी है, देश की तरक्की जरूरी है ,देश की सभी जमीन सरकार की है ,तुम्हें मुआवजा मिल रहा है यही बहुत है, चले जाओ यहां से वरना फंसा दूंगा ।खेत से लौटकर गांव में सब सरपंच के घर एकत्र हो गए ।कुछ और लोग भी आ गए। गांव का पटवारी भी आ गया। गांव का कोतवाल भी खड़ा हो गया। रामखेलावन ने कहा कि सन् पचास में जब चकबंदी हुई तब दादी ने पन्द्रह एकड़ के बदले सात एकड़ जमीन गांव के पास मांग ली थी। अब आजकल पैंसठ साल बाद बिजली की नई मुसीबत आई है। मेरी दादी तो यह सब देख कर खाना पीना छोड़ चुकी हैं ।अब आप सब लोग न्याय करवा दीजिए । पांच सौ केवी का खंभा तो पहले ही खड़ा है ,यह सात सौ का नया खटराग आ गया है ।अब हमें नहीं देखना है यह खेल। जबरदस्ती सरकार क्यों खेत को बर्बाद कर रही है ।छाती पर चढ़कर खून पी रही है यह सरकार ।सरकार कहती है कि वह बिजली बेचेगी ।अरे पूंजीपतियों के हाथों बिकी  सरकार क्या बिजली बेचेगी , बेचेगी हमारी इज्जत ! 

गुस्साते हुए रतिराम ने कहा कि गड्ढे ऐसे खोद रहे हैं कि दो गड्ढों में ही आधा एकड़ खेत बिगड़ जाता है । ऊपर से पत्थर भी निकल रहा है ।आधा बांस का गड्ढा खोदते हैं। अंधेर है अब उस खेत में क्या होगा? ना नागर चलेगा ना बमखर। पानी भी गड्ढों में भरेगा ।जगह-जगह मिट्टी की ढेरी छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं। हम सब देख रहे हैं। पड़ोसी गांव के किसानों की दुर्दशा। कई लोग बिजली के खंभे के कारण गांव छोड़कर भाग गए ।कमाने खाने निकल गए। सरकार इसे बंद करे । पहले 500 पावर की लाइन आई वही बर्बाद करने के लिए काफी है ।अब 700 की लाइन के लिए जबरदस्ती कर रहे हैं ।अभी बात चल ही रही थी कि वही अफसर पुनः आ गया ।सरपंच ने उसको अपने पास बिठाकर गांव वालों की भावनाओं के बारे में बताया ।रास्ता बताने का आग्रह भी किया सरपंच ने। अफसर ने लंबी सांस लेते हुए कहा -- मैं ईमानपूर्वक बताता हूं आपको , मैं भी किसान का बेटा हूं मगर मेरी नौकरी कसाई की है। मैं कुछ नहीं कर सकता, कोई कुछ नहीं कर सकता, सरकार का हुक्म है ।विकास के लिए बिजली जरूरी है इसलिए यह खेल रुक नहीं सकता ।आप लोग मरिये मत ,समुद्र मंथन से निकले हलाहल को तो भगवान शंकर ने पी लिया था और दुनिया विनाश से बच गई थी। आज कोई हलाहल पीने के लिए तैयार नहीं है। हलाहल को अब समाज का गरीब तबका पिएगा और मरेगा तो जब मरोगे तब मरोगे अभी कानून को हाथ में मत लो। सरपंच और सभी लोग बिजली विभाग के साहब की बात से प्रभावित हो गए ।रामू ने पूछा किस गांव के हो बाबू ? साहब ने उलट कर पूछा-- क्यों भाई ऐसा क्या हो गया कि मैं गांव वाला लगने लगा। रामू ने कहा साहेब सहरिया मनखे ऐसी बात नहीं कर सकता ।पले बढ़े  हो गांव में तभी हमें सुहा रहे हो ।रामू की बात से सब चिंता भरे माहौल में भी हंस पड़े। 

साहब ने कहा आप लोगों ने ठीक पहचाना मैं भिलाई के गांव कुटेला भाटा का रहने वाला हूं ।अब तो हमारा गांव भिलाई कारखाने में समा गया है मगर एक समय था कि हमारा गांव 200 घरों का शानदार गांव था ।हमारे पिताजी बताते हैं कि दस तो तालाब थे गांव में ।घर घर कुआं था। आज भी हमारे गांव का पुराना मंदिर वहां खड़ा है। अब उसे बिहारी पंडितों ने कब्जे में कर लिया है ।खूब चढ़ावा चढ़ता है ।प्रचार के दम पर मंदिर कई गुना बड़ा बन गया है। कुछ लोगों की दुकान बनकर रह गया है मंदिर। मंदिर में चल रहा है व्यापार ।बाहर नारियल की दुकानें हैं भीतर लाल कपड़े और प्रसाद की दुकानें सज गई हैं ।रामू ने कहा -- साहिब जी हम भी जानते हैं ।हमारा ससुराल गांव था आमदी। अब उजड़ गया। हमारे ससुर बताते थे कि 1956 में ₹500 प्रति एकड़ मुआवजा मिला ।वहीं जमीन अब 5 करोड़ एकड़ में बिक रही है ।सरकार ने अनाप-शनाप जमीन पर कब्जा कर लिया। आज स्थानीय आदमी बसुन्दरा हो गया ।देशभर के लोग आकर घर वाले और दुकानदार हो गए, ऐसा कहीं हमारे साथ तो नहीं करने जा रहे हैं आप ?बिजली वाले साहब ने कहा- आप लोग दुख में जीने के आदी हैं ।पलायन यहां का चरित्र है ।घुड़क देने से लोग मूत मारते हैं ।लड़ना आपके स्वभाव में होता तो दूसरे प्रांत के नक्सली लोग आकर छत्तीसगढ़ के जंगलों की रक्षा क्यों करते ?

घर जाइए और फोकट में मिला चावल खाइए ।जो मुफ्त का खाएगा वह क्या अपनी जमीन बचा पाएगा? साहब की बात से सन्नाटा खिंच गया ।सब एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे ।सरपंच ने कहा --सब बात के एक्केठन। लड़ो मत ।

होई है सोई जो राम रचि राखा ।अब आगे कुछ ना बोलो ना सोचो ना करो होने दो जो हो रहा है ।बात खत्म हो गई रामखेलावन के साथ सभी लोग चुपचाप सरपंच के घर से निकल गए ।भीतर ही भीतर धीरे-धीरे गांव सुलगने लगा ।आसपास के 20 गांव के किसान छटपटाने लगे ।खबर मुख्यमंत्री तक पहुंची ।क्षेत्रीय विधायक को बुलाकर उन्होंने डपटा। क्षेत्रीय विधायक राजनीतिज्ञ था। सामने चुनाव भी था ।विधायक सतर्क हो गया ।आग बुझाने का उसका अपना तरीका था ।

गांव के बाहर छोटा सा नाला है वहां गांव भर के पशु चरवाहे पशु लेकर चराने जाते हैं ।नाले के पास 40 एकड़ का चारागाह है छोटा सा जंगल ही कहिए ।पहले जंगल नहीं था। आजादी के बाद जब चकबंदी हुई तब गांव वालों ने आम महुआ बेल आंवले के पेड़ों का जंगल वहां खड़ा कर लिया। इमली के 25 ऐसे पेड़ है कि एक एक पेड़ से सैकड़ों बोरी इमली निकल आती है ।गंगा इमली के भी पेड़ लगे हैं ।नींबू के 20 पेड़ भी लगाए गए हैं ।किनारे-किनारे सौ पेड़ सागौन के भी लगे हैं ।

इस पूरे क्षेत्र में यह जंगल आजादी का जंगल कहलाता है ।यह नाम गांव के जागरूक पंडित गंगाप्रसाद ने दिया था। वे प्रतिवर्ष इस जंगल में 1 सप्ताह का भागवत प्रवचन भी करते थे ।

10 गांव के लोगों को न्योता देकर आजादी के जंगल में एक दिवसीय बैठक करने का निर्णय सरपंच ने विधायक के निर्देश पर लिया ।विधायक जी ने अपने राजनीतिक गुरु के कहने पर यह सम्मेलन रखवा दिया। खाना खर्चा चाय पानी सब विधायक जी की ओर से मिला ।बैठक रखी गई ।जंगल में ही भात दाल और तरकारी बनाकर हजारों लोगों को परोसा गया। पहली बार पानी के पाउच बांटे गए ।पोंगा लगा ।सामने चुनाव था, विधायक जी की टिकट पक्की थी। विधायक जी ने रामखेलावन और उसकी दादी को भी बुलवाया था। विधायक जी ने अपने हाथों से साल ओढ़ाकर दादी का सम्मान किया और कहा कि देश आजाद है, यह जंगल आजाद है, सबको अपनी बात कहने की आजादी है ।सरकार अपना काम करे।रोशनी लाने वाले लाएंगे। हम सब रोशनी के साथ रहे हैं और रहेंगे ।मुख्यमंत्री जी गरीबों के दाता हैं। वे विकास पुरुष हैं। धरती पर स्वर्ग उतारने के लिए जन्मे हैं। अंधकार का पक्ष हम नहीं लेंगे ।अंधकार को क्यों धिक्कारें? अच्छा है एक दीप जला दें। तो भाइयों अब तय हो गया कि दादी जी तथा आप सब ने रोशनी के खंभों के लिए हां कर दी है। चुनाव भर हो जाने दीजिए फिर देखिए विकास ।

यह नया खेल था ।चुनाव की तैयारी शुरू हो गई ।खंभों को खड़ा करने की तैयारी भी हो गई। काम तो भला क्या रुकता देखते ही देखते 700 पावर के खंभे भी खड़े हो गए। रामखेलावन की दादी को भी खबर लगी। रामखेलावन देख रहा था कि दादी गुमसुम रहती थी। दादी किसी से कुछ नहीं कहती थी ।गांव के लोग ही बेसुध थे तो भला बूढ़ी दादी की क्या बिसात ।एक पहर रात दादी लोटा लेकर दिशा मैदान के लिए निकल पड़ती थी। 

आज कुछ पहले ही सटर पटर करती हुई दादी निकली। घर के बाहर दादी ने देखा गलियों की बत्तियां नहीं जल रही थीं। खम्भे तो खड़े थे मगर कभी गलियों में रोशनी नहीं हो पाई ।दादी ने एक खंभे पर पच्च से थूक दिया ।धीरे-धीरे दादी अपने खेत की ओर निकल पड़ी ।जड़काले के दिन थे। गांव के कुत्ते अनावश्यक कभी नहीं भोंकते। वे अपने गांव के लोगों को पहचानते हैं। एक कुत्ता दादी के पीछे पीछे चल पड़ा। दादी के कंधे पर शॉल था जिसे विधायक ने उसे सम्मान पूर्वक ओढ़ाया था। दादी ने एक बार शॉल को नजर भर देखा। वह मुस्कुरा कर रह गई। दादी धीरे-धीरे आगे बढ़ी। खेत में पावर ग्रिड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया का विराट खंभा राक्षस की तरह खड़ा था। दादी खंभे को ऊपर तक देखना भी नहीं चाहती थी ।चार पांव पर खड़े राक्षस नुमा खंभे को उसने फिर धरातल पर देखा। खंभे के कारण पूरा खेत बिगड़ गया था ।चार-पांवों से ही खंभे ने पूरे खेत को तबाह कर दिया था  ।खेत खेत न रहकर ऊसर जमीन की तरह निढाल पड़ा सांसें गिन रहा था ।दादी ने इसी खेत में दुबराज धान और खैरी चना की फसलों को बोकर मन भर काटा था। खेत की मेड़ों में अरहर की फसल देखते ही बनती थी। दादी को खेत की दुर्दशा देखकर रोना सा आया मगर पता नहीं क्यों वह ताली पीट कर हंसने लगी। साथ गए कुत्ते ने देखा दादी ने सम्मान में मिले शॉल को खंभे के नीचे रखकर आग के हवाले कर दिया और शॉलविहीन दादी सपाटे से घर की ओर लौट चली।

टिप्पणियाँ

  1. खम्भे तो खड़े थे मगर कभी गलियों में रोशनी नहीं हो पाई ।दादी ने एक खंभे पर पच्च से थूक दिया ...कहानी का यह कहन समकालीन समाज व व्यवस्था को आइना दिखाने के लिए पर्याप्त है। पर खम्भे लग रहे हैं तब कभी उनसे गलियाँ रोशन होंगी ।फिर इन उपक्रमों से हमारा जीवन भी रोशन होगा। यह उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं।
    बधाई कहानीकार और प्रस्तोता को !

    रामनाथ साहू

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  2. परदेशी राम वर्मा की कहानी "दीया न बाती" पर आपकी सारगर्भित समीक्षा बहुत अच्छी लगी। परदेशी राम वर्मा जी छत्तीसगढ़ के बड़े कथाकारों में समादृत किये जाते रहे हैं। परदेशी राम वर्मा जी का लिखा गया
    उपन्यास "आवा" विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल है। आपके माध्यम से 'दीया न बाती' (कहानी) पढ़ने को मिली, इसके लिए साधुवाद।

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  3. परदेशी राम वर्मा की कहानी "दीया न बाती" बहुत ही अच्छी कहानी है जो फणीश्वरनाथ नाथ रेणु लेखनी की स्मृति दिला गई।....परदेशी राम वर्मा जी की लेखनी ऐसी ही अनवरत चलती रहे।..साधुवाद...

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  4. परदेशी राम वर्मा की कहानी "दीया न बाती" बहुत ही अच्छी कहानी है जो फणीश्वरनाथ नाथ रेणु लेखनी की स्मृति दिला गई।....परदेशी राम वर्मा जी की लेखनी ऐसी ही अनवरत चलती रहे।..साधुवाद...

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  5. वरिष्ट साहित्यकार डा० परदेशी राम वर्मा जी की बेहतरीन कहानी।

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  6. सुंदर कथानक और भाषा शैली ‌
    आजादी के औद्योगिक विकास के नाम पर गाँव की कृषि संस्कृति को निगलती वृतांत चाहकर नहीं रोक सकने की बेबसी का मर्मान्तक वर्णन ।
    कथाकार डाॅ परदेसीराम वर्मा जी को बधाई।

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गांधी पर केंद्रित रमेश शर्मा की कुछ कविताएँ आज गांधी जयंती है । गांधी के नाम को लेकर हर तरफ एक शोर सा उठ रहा है । पर क्या गांधी सचमुच अपनी नीति और सिद्धांतों के स्वरूप और प्रतिफलन में राजनीति , समाज और आदमी की दुनियाँ में अब भी मौजूद हैं ? हैं भी अगर तो किस तरह और  किस अनुपात में ? कहीं गांधी अब एक शो-केस मॉडल की तरह तो नहीं हो गए हैं कि उन्हें दिखाया तो जाए पर उनके बताए मार्गों पर चलने से किसी तरह बचा जाए ? ये ऐसे प्रश्न हैं जो इसी शोर शराबे के बीच से उठते हैं । शोर इतना ज्यादा है कि ये सवाल कहीं गुम होने लगते हैं। सवालों के ऊत्तर ढूंढ़तीं इन कविताओं को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी ब्लॉग पर ही टिप्पणी के माध्यम से व्यक्त करें--  १. हर आदमी के भीतर एक गांधी रहता था कभी  ---------------     एक छाया की तरह है वह तुम चलोगे तो आगे जाएगा  पकड़ने की हर कोशिशों की  परिधि के बाहर ! बाहर खोजने-पकड़ने से अच्छा है  खोजो भीतर उसे तुम्हारी दुनियाँ के  किसी कोने में मिल जाए दबा सहमा हुआ मरणासन्न ! कहते हैं  हर आदमी के भीतर  एक गांधी रहता था कभी किसी के भीतर का मर चुका अब तो किसी के भीतर  पड़ा हुआ है मरणा

विष्णु खरे की पुण्य तिथि पर उनकी कविता "जो मार खा रोईं नहीं" का पुनर्पाठ

विष्णु खरे जी की यह कविता सालों पहले उनके कविता संग्रह से पढ़ी थी। अच्छी  कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं तो भीतर भी उतर जाती हैं। उनमें से यह भी एक है। कविता के भीतर पसरे भाव को पिता के नज़रिए से देखूं या मासूम बेटियों के नज़रिए से,दोनों ही दिशाओं से चलकर आता प्रेम एक उम्मीद  जगाता है।अपने मासूम बेटियों को डांटते ,पीटते हुए पिता पर मन में आक्रोश उत्पन्न नहीं होता। उस अजन्मे आक्रोश को बेटियों के चेहरों पर जन्मे भाव जन्म लेने से पहले ही रोक देते हैं। प्रेम और करुणा से भरी इस सहज सी कविता में मानवीय चिंता का एक नैसर्गिक भाव उभरकर आता है।कोई सहज कविता जब मन को असहज करने लगती है तो समझिए कि वही बड़ी कविता है।  आज पुण्य तिथि पर उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि ! जो मार खा रोईं नहीं  【विष्णु खरे】 ----------------------------- तिलक मार्ग थाने के सामने जो बिजली का एक बड़ा बक्‍स है उसके पीछे नाली पर बनी झुग्‍गी का वाक़या है यह चालीस के क़रीब उम्र का बाप सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ नाराज़ हो रहा था अपनी पांच साल और सवा साल की बेटियों पर जो चुपचाप

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना