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'अंगूठे पर वसीयत' शोभनाथ शुक्ल के उपन्यास की समीक्षा

 

ग्रामीण समाज में नई चेतना का स्थापन

ग्रामीण समाज का जिक्र आते ही हमारे मनो मस्तिष्क में रिश्तों की सहजता और लोगों का भोलापन सहज रूप से घर करने लगता है | यह कुछ हद तक सच के करीब भी है पर शहरीकरण और बाजार की घुसपैठ ने इस समाज में भी समय के साथ विकृतियाँ उत्पन्न की हैं | कथाकार शोभनाथ शुक्ल जी का नवीनतम उपन्यास 'अंगूठे पर वसीयत' ग्रामीण समाज के भीतर पसरतीं जा रहीं अनपेक्षित विकृतियों के अनेकानेक रंगों को घटनाओं के माध्यम से चलचित्र की भांति रखता चला जाता है |ग्रामीण समाज में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर घटित होने वाली घटनाओं का विवरण कुछ इस तरह सिलसिलेवार मिलता है कि उपन्यास के साथ हम एक जिज्ञासु पाठक की हैसियत से जुड़ते हैं और फिर आगे बढ़ने लगते हैं |उपन्यास का केन्द्रीय पात्र 'रामबरन गरीब' समाज के उस आदमी का प्रतिनिधित्व करता है जो समाज में फैली विसंगतियों को लेकर चिंतातुर है| सामाजिक वर्ग भेद जैसी विसंगतियों से बाहर निकल  समाज की बेहतरी जैसी सोच रखना,  यूं तो मानवीय चेतना से संपन्न व्यक्ति का गुण है  जिसकी दुर्लभता से आज का समाज चिंतन के स्तर पर लगातार विपन्न होता जा रहा है ऐसे में 'रामबरन गरीब' जैसा चेतना संपन्न और चिन्तनशील पात्र पाठक के मन के भीतर जिज्ञासा की गति को बनाए रखने में बड़ी अहम् भूमिका निभाता है |इस उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस होता है कि  भाषा शिल्प और  साहित्यिक लय की विरलता, कथ्य की एकरेखीय गति के बावजूद घटना प्रधान प्रसंगों की रोचकता के सहारे ही यह उपन्यास पाठक के मन के भीतर पाठकीय रूचि को अन्त तक जीवित किये रहता है.

 

ग्रामीण समाज में कुछ ऐसे पात्रों की उपस्थिति से भी यह उपन्यास हमें परिचित कराता है जिनकी करतूतों से ग्रामीण समाज की वह छवि जो हमारे मन में सदियों से बसी हुई है, उस छवि को आघात पहुंचता है | नोहरी चाचा नामक पात्र इनमें से ही एक पात्र है, जो वासना में डूबा हुआ है और  अपने स्वयं की भतीजी को हवश का शिकार बनाने पर आमादा है |कई बार सच कल्पना की तरह महसूस होता है और कोई कल्पना सच की तरह लग सकता है | नोहरी चाचा जैसे पात्रों से जुड़े प्रसंग पाठकों के मन में कुछ इसी तरह के अनुभविक प्रश्न उत्पन्न कर सकते हैं कि कोई ब्यक्ति अपनी बेटी समान भतीजी के साथ भी यह सब कुछ कैसे कर सकता है ? दरअसल यह उपन्यास ग्रामीण समाज में आये विचलन की कहानी को साफगोई से रख देने के लेखकीय दुस्साहस का एक दस्तावेज जैसा भी कुछ है जिसे पढ़ते पढ़ते हम महसूस करने लगते हैं |इसी क्रम में चौधराइन भी एक ऎसी महिला पात्र है जो देह की भूख मिटाने को सारी वर्जनाएं तोडती प्रतीत होती है | किशोरों के संग देह की भूख मिटाने की घटनाएँ ग्रामीण समाज के उसी विचलन की कथा सुनाती हैं जो अमूमन हमारे मन में कहीं नहीं है | लेखक ग्रामीण समाज की वर्तमान छवि को उसके सही रूप में इस उपन्यास के माध्यम से दिखाने की कोशिश करता है जो कि बहुत हद तक लोक मर्यादा के भय से ढंका छुपा होता है | शहरों में जिस खुलेपन को हम महसूस करते हैं उस खुलेपन को आज भी ग्रामीण समाज में अस्वीकृति मिलती है | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि ग्रामीण समाज बुराईयों से अछूता है | ग्रामीण समाज में भी वह सारी बुराईयाँ देर सवेर घर कर चुकी हैं जिसकी कल्पना वहां की सहजता को लेकर  हम नहीं कर पाते | यह उपन्यास बाजार और राजनीति की घुसपैठ के चलते ग्रामीण समाज में पसरती जा रही तमाम बुराईयों की सूक्ष्म पड़ताल करता है | इसे हम लोक को उसके विचलन से आगाह करने के अर्थ में भी ले सकते हैं जो कि किसी कृति का बेहतर उद्देश्य हो सकता है |

परधानिन बुआ जो कि एक विधवा स्त्री है और गाँव की प्रधान है उसके जीवन में आए उतार-चढाओं के माध्यम से भी ग्रामीण समाज में स्त्री की स्थिति को जाना समझा जा सकता है | चौबे नामक पुरुष के साथ उसके प्रेम और दैहिक संबंधों की कहानी, सरपंच चुनाव पूर्व से शुरू होकर सरपंच बनने के बाद भी किस तरह पितृ सत्तात्मक समाज के तंग रास्तों से होकर गुजरने लगती है उसका एक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है | पुरूष के लिए स्त्री  देह आकर्षक जरूर है पर स्त्री को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करने के लिए चौबे जैसे कायर पुरूष के पसीने छूटने लगते हैं | परधानिन बुआ जैसी स्त्री के संघर्ष के माध्यम से ग्रामीण समाज में एक नयी चेतना के संचार का स्थापन संभव हो सकता है , उस संभावना को यह उपन्यास कुछ हद तक जन्म देने का एक लिखित दस्तावेज बन सकता है ऐसा हम कह सकते हैं |

आज बाजार की घुसपैठ ग्रामीण समाज में भी सघन हो चली है | बाजार जहां साधन संपन्न लोगों को प्रभावित करता है वहीं अभावग्रस्त लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित करता है | यह उपन्यास ग्रामीण जीवन के उन जगहों की भी सैर कराता है जहां अभावग्रस्त लोग बुनियादी जरूरतों के साथ साथ बाजारू जरूरतों के आकर्षण में विकृतियों के शिकार होते चले जाते हैं |

इन तमाम पात्रों की कथाओं के संग चलते हुए यह उपन्यास अपने केंद्रीय पात्र रामबरन गरीब की कथा भी सुनाता है ।

यह कथा मनुष्य जीवन में आए भीषण संकट और रिश्तों की विकृतियों को हमारे सामने रखती है ।

रामबरन गरीब जो एक चेतना संपन्न सीधा-साधा ग्रामीण किसान है, जो समाज की सामूहिक बेहतरी का सपना देखता है और जिस में राजनीतिक चेतना के साथ साथ अन्याय का विरोध करने का भी एक मानव सुलभ गुण मौजूद है वही रामबदन अपने बेटे बलराम की चालबाजियों का शिकार होता है। बलराम रामबदन गरीब का इकलौता बेटा है और शहर में रहकर सरकारी अफ़सर है। मां-बाप की उपेक्षा करना उसकी आदत में शामिल है। वह कभी कभार मां-बाप की बीमारी के बहाने गांव आता रहता है और इस प्रतीक्षा में रहता है कि कब पिता की मृत्यु हो तो सारी संपत्ति उसके हाथ लगे । एक बार जब पिता रामबरन गरीब हस्पताल में मरणासन्न अवस्था में रहते हैं और उनकी मृत्यु जल्दी नहीं हो रही होती है तो झुंझलाकर उनसे वह जबरदस्ती वसीयत पर अंगूठे का निशान लगवाने की कोशिश करता है। बेटे के इस अमर्यादित और क्रूरता पूर्ण व्यवहार पर उसकी मां झुंझला उठती है। पति के इस अपमान पर वह बेटे पर क्रोधित होकर चीख पड़ती है। पत्नी के इस दारुण चित्कार से कोमा में पड़े रामबरन गरीब की देह भी जैसे जीवंत हो उठती है। इस घटना का असर यह होता है कि हफ्तों से कोमा में पड़े रामबरन गरीब के बदन में हलचल होती है। वे उठ बैठते हैं और चीखते हुए वसीयत छीन कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं । वे उन कागज के टुकड़ों पर थूकते हुए अपने इकलौते बेटे से कहते हैं -- 'जा आज से तू मेरे लिए मर गया। मैं तेरी इच्छा पूर्ति के लिए नहीं मरूंगा तो नहीं मरूंगा।' यह इस उपन्यास का सबसे विहंगम और द्रवित कर देने वाला दृश्य है जो समाज में दिनों दिन सघन रूप लेने लगा है |

 पत्नी जसुमति के सहारे अपने कदमों पर चलते रामबरन गरीब भाई का अस्पताल से बाहर निकलना सचमुच हैरत में डालने वाला दृश्य है जो हमें भीतर से झकझोर देता है। हमारे आसपास फैले ग्रामीण पात्रों पर केंद्रित यह उपन्यास अपनी रोचक किस्सागोई के कारण पठनीय बन पड़ा है।

यद्यपि इस उपन्यास को पढ़ते हुए किसी साहित्यिक उपन्यास में समाहित विविध कलात्मक रसों का सम्पूर्ण आनंद हमें नहीं मिल पाता, इसके बावजूद हम कह सकते हैं कि लेखक ने विभिन्न घटनाओं को अपने स्तर पर जोड़कर उसे कथा का विस्तृत रूप देने का जो अथक प्रयास किया है, वह उल्लेखनीय है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए, पाठक ग्रामीण समाज में घटित हो रहे विभिन्न रूपाकारों का, घटनाओं का आस्वादन ले सकते हैं।

 

उपन्यास: 'अंगूठे पर वसीयत'

लेखक : शोभनाथ शुक्ल

प्रकाशक : साक्षी प्रकाशन संस्थान सुल्तानपुर उ.प्र.

मूल्य : 300 रूपये सजिल्द

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रमेश शर्मा

92, श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) - 496001

मो. 7722975017   

 

 

 



 

 

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