सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अच्युतानंद मिश्र युवा कवि आलोचक का वक्तब्य: छत्तीसगढ़ साहित्य एकेडमी का आयोजन

प्र भात त्रिपाठी का उपन्यास "किस्सा बेसिर पैर" वस्तुकृत हो रहे मनुष्य के भीतर गैर वस्तुकृत चेतना और प्रेम को स्थापित करता है- युवा कवि आलोचक अच्युतानंद मिश्र
 

 
अच्युतानंद मिश्र 
प्रभात त्रिपाठी की आलोचना और उनके रचनात्मक लेखन को केंद्र में रखकर मेरे जेहन में एक प्रश्न है और जहां से मैं अपनी बात शुरू करने जा रहा हूँ ।  हम सरलीकरण के लिए दो कोटि लेखकों की बनाएं ... एक वो जो किसी ख़ास विधा में पूरे जीवन लिखते हैं और एक उस तरह के लेखक जो विधाओं के बीच आवाजाही करते हैं ।  वे लेखक जो विधाओं के बीच आवाजाही करते हैं मसलन प्रभात त्रिपाठी जो आलोचना भी लिखते हैं , कविता भी लिखते हैं, कहानी और उपन्यास भी लिखते हैं । यह विधाओं के अतिक्रमण का जो मामला है उसमें इस बीच क्या लेखक की कोई केन्द्रीय प्रवृत्ति मौजूद रहती है जो उसकी आलोचना में भी हो, उसके रचनात्मक लेखन  में भी हो ? क्या इस तरह की किसी केन्द्रीयता की खोज कोई अर्थ रखती है? या वहां से उस लेखक को जानने समझने में कोई मदद मिल सकती है ? 
फर्ज कीजिए कि इस सवाल को मैं इसलिए भी उठा रहा हूँ कि हमारे सामने इस तरह के कई उदाहरण हैं कि प्रसाद ने भी ऐसा किया, निराला ने भी ऐसा किया ।  आजादी के आसपास दो लेखक हमारे सामने हैं अज्ञेय और मुक्तिबोध , जिनके यहाँ बहुत सारी विधाओं में लिखने का उदाहरण हमारे सामने है । मुक्तिबोध को लेकर तो बहुत सारे सवाल भी उठाये गए कि क्या उनकी आलोचना  और कविता में कोई सम्बन्ध है या उनकी आलोचना और कहानी में कोई सम्बन्ध है और इस तरह के बहुत सारे सूत्र भी निकाले गए ।  प्रभात त्रिपाठी को पढ़ते हुए मैं ये महसूस करता हूँ कि उनके अन्दर परस्पर अंतर बाह्य संवाद की एक केन्द्रीयकृत चेतना है जो उनके उपन्यासों में भी है, उनकी कविताओं में भी है और उनकी आलोचना में भी है। प्रभात त्रिपाठी ने जिन विधाओं में लिखा है उनका  लेखन उन विधाओं की जमीन से कई बार अलग भी दिखने लगता है। पारंपरिक आलोचना का जो फ्रेम है उस फ्रेम से प्रभात त्रिपाठी की आलोचना अलग दिखाई पड़ती है और यह बात उनके कविताओं के बारे में और उनके उपन्यासों के बारे में तो निश्चित रूप से कही जा सकती है। हिंदी में उपन्यास को पढ़ने, देखने या बात करने का जो हमारा चलन है हम उसे ढांचें के अंतर्गत ही देखते सोचते हैं । ढाँचे के बाहर तो हम कोई चीज नहीं सोच सकते पर  प्रभात त्रिपाठी के उपन्यास ढांचे का अतिक्रमण करते हैं । हिंदी में उपन्यास लेखन का जो चलन है उससे भिन्न किस्म का लेखन प्रभात त्रिपाठी का है । वह क्यों है या उसके पीछे कौन से कारण हैं उन्हें लेकर कुछ बातें मेरे जेहन में हैं और उनके उपन्यास 'किस्सा बेसिर पैर' को लेकर कुछ बातें मैं यहाँ रखूँगा ।  उपन्यास , आलोचना और आधुनिकता ये तीनों पिछले तीन सौ सालों में विकसित हुए हैं ।


इनके मूल में यह बात है कि जो आधुनिक मनुष्य है उसके भीतर एक सतत आलोचना का विवेक विकसित हुआ है। उपन्यास भी कमोबेश वही काम करता है जो आलोचना का काम है और वह यह है कि व्यक्ति और समाज के अंतर्विरोधों को बार बार नए संदर्भों में नए सिरे से देखने की कोशिश उनके माध्यम से होती है । व्यक्ति के निर्माण का जो मामला है वह तीन सौ साल पहले का है । इस दरमियान हमने व्यक्ति को एक आइडेंटिटी या एक चेतना के रूप में विकसित किया है और हिन्दी में पढ़ते हुए ये सवाल मेरे जेहन में बार बार आता है कि अगर हम निराला और मुक्तिबोध की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला के सामने व्यक्ति और समाज का अंतर्द्वंद नहीं है । ऐसा इसलिए है क्योंकि कृषि जीवन का जो बोध है वह व्यक्ति को महत्त्व नहीं देता उसमें जो कुछ है वह सामूहिक है । अभी कुछ दिनों पहले किसी ने मुझसे पूछा कि क्या हम सामूहिक परिवार में नहीं रहते ? मैंने इस सवाल के जवाब में ये सोचा कि क्या मेरे दादाजी जहाँ काम करते हैं वहां वे अपने बेटे को और मुझे साथ लेकर वर्किंग प्लेस बना सकते हैं ?मैं जहाँ यूनिवर्सिटी में काम करता हूँ क्या वहां तीन पीढियां एक साथ काम कर सकती हैं ?यह जो सामाजिक जीवन में परिवर्तन आया है उस परिवर्तन ने व्यक्ति और समाज के बीच अंतरसम्बन्ध को महत्वपूर्ण बना दिया है । यह जो अंतर्संबंध है हिंदी उपन्यासों में भी उभर कर सामने आया है ।जैनेन्द्र के मामले में भी यही सवाल है कि सामाजिक रूपाकारों में हम व्यक्ति की भूमिका को किस तरह देखें ? मानवीय विचलन को या उसके नहीं हो सके प्रारूप को कैसे देखें ?पिछले 50 से 60 सालों में व्यक्ति और समाज का जो सम्बन्ध है यह सम्बन्ध बदल दिया गया है और यह जो बदलाव है इस बदलाव को प्रभात त्रिपाठी के उपन्यास किस्सा बेसिर पैर से समझा जा सकता है । इस अर्थ में आप यह देखें कि निराला के साहित्य में प्रकृति जो है वह एरोटीसाइज करती है ये कमोबेश प्रसाद की कविताओं में भी है लेकिन क्या मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति एरोटीक है ? ऐसा न होकर वह उसकी जगह एक भूतहा किस्म का सायकोसिस जगाती है। यह भय उत्पन्न करने का जो मसला है यह दिखाता है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का जो वर्तमान सम्बन्ध है वह पुराने अर्थ में बचा नहीं रह गया है । प्रभात त्रिपाठी के उपन्यासों में इसके अगले संकेत की सूचना है कि मनुष्य और समाज का पुराना सम्बन्ध लगभग नष्ट हो चुका है जिस अर्थ में हम ये कहते थे कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उस वाक्य या उसके अर्थ को पूरी तरह निरर्थक बता दिया गया है और इस अर्थ में उपन्यास किस्सा बेसिर पैर को पढ़ें तो उसके केंद्र में एक व्यक्ति है जो कथा वाचक भी है । इसमें इस तरह का भ्रम लगता है कि कोई व्यक्ति अपनी आत्म कथा कह रहा है ।कथा में व्यक्ति और समाज के बीच जो कार्यकारण सम्बन्ध हैं , उनके बीच जुड़ने का जो सिलसिला है, वे सारे यथार्थ बोध अब नष्ट हो चुके हैं । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह जो सत्तर या अस्सी के आसपास का जो मनुष्य है, उसका समय बोध, उसका आत्म बोध पूरी तरह नष्ट हो चुका है । इसलिए किसी चीज तक पहुँचने का हमारा जो तरीका है फर्ज कीजिए कि देखने सुनने और जानने का कोई तरीका है अगर और उनके बीच सारे सम्बन्ध टूट जाएं तो आप उसे कैसे देखेंगे ?एक उदहारण से अपनी बात मैं रखूँगा । हम लोगों ने जब 90 के आसपास पढ़ना लिखना शुरू किया तो केरल भारत का हिस्सा है इस बात को प्रमाणित करने के लिए समाज शास्त्र की किताबों में पी टी उषा की एक जीवनी पढ़ाई जाती थी। उस जीवनी में एक वाक्य लिखा रहता है कि पी टी उषा सेकण्ड के सौवें हिस्से से हार गयीं । सेकेण्ड का सौवां हिस्सा क्या हो सकता है यह मनुष्य की चेतना से बाहर  है । दुनिया का कोई ज्ञान इस बात को नहीं बता सकता है कि सेकेण्ड का सौवां हिस्सा क्या है ।न हम उसे अनुभव के स्तर पर समझ सकते हैं न बुद्धि के स्तर पर समझ सकते हैं । तो यह जो अनुभव और बुद्धि से परे की चेतना का जो विकास है, यह 1980-90 के आसपास शुरू होता है और इसे प्रभात त्रिपाठी के इस उपन्यास किस्सा बेसिर पैर में हम देख सकते हैं । इस उपन्यास में बहुत सारे सिनिकल चरित्र हैं जिनके जीवन में अनेक तरह की विचित्रताएं हैं और इन विचित्रताओं से लगता है कि उनके जीवन में कोई कार्यकारण तंतु नहीं बचा है ।ये कार्यकारण तंतु कैसे नष्ट होते हैं उसकी अगर पड़ताल करें तो हम पाते हैं कि पिछले तीस चालीस सालों में ज्ञान के माध्यमों ने , सूचना के माध्यमों ने हमारी चेतना में उसे नष्ट किया । एक उदाहरण इस उपन्यास से लें कि एक प्रसंग में एक जगह लेखक कहता है कि उसके यहाँ जो काम करने वाली है वह एक दिन अनुपस्थित है और उसकी जगह उसकी ननद या भौजाई काम पर आयी है । वह उससे पूछता है कि वह क्यों नहीं आई तो ननद बताती है कि आज उसके बेटे की छट्ठी है और वह उसकी पार्टी मना रही है । तो लेखक कहता है कि छट्ठी की पार्टी तो होती नहीं थी । प्रसंग में घर के दृश्य और पार्टी के खाने पीने की चीजों से भरी प्लेटों को लेकर जो दृश्य बनते हैं, उन दृश्यों में एक भयानक किस्म का यथार्थ बनता है और उससे यथार्थ बोध के नष्ट होने का आभास होता है । यथार्थ बोध के विघटन के बाद का जो सामाजिक यथार्थ है, उस सामाजिकता की पड़ताल यह उपन्यास करता है ।उपन्यास को पढ़ते हुए एक बात और उभरती है कि लेखक जिस समय वर्तमान में है ठीक उसी समय वह स्मृति में भी है । समय के बीच जो अंतराल हैं वे नष्ट हो गए हैं और हम इसे सूचना माध्यमों से भी समझ सकते हैं । 60 के दशक में अमेरिका में फूटबाल मैच जब हो रहा था, टीवी पर उसे दिखाया भी जा रहा था उसी समय टीवी पर खबर आयी कि राष्ट्रपति की हत्या कर दी गयी । फिर थोड़ी देर के लिए फूटबाल मैच रोक दिया गया । उदासी का धुन बजने लगा, फिर कुछ समय बाद प्रोड्यूसरों ने दवाब बनाया कि हो गया , सूचना मिल गयी ।  अंततः टीवी पर फिर से मैच का प्रसारण चालू कर दिया गया । उस दरमियान लोगों को यह समझ में नहीं आया कि इस समय वे मैच का आनंद लें कि उत्तेजित हों कि मृत्यु का शोक मनाएं। यह जो विरोधाभास से भरी स्थितियां एक जगह आ गयी हैं, इस तरह की स्थितियां इस उपन्यास में भरी हुई हैं ।स्मृति के कोलाज के बाद यथार्थ के शून्यता बोध तक पहुँचने की जो एक त्रासदी है , यह उपन्यास वहां तक पहुँचने का एक महत्वपूर्ण रास्ता है ।


रमेश शर्मा, महेश वर्मा के साथ अच्युतानंद मिश्र 

इस उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें एक आदमी पहले चाय का ठेला लगाता था, अब वह अपराधियों के लिए जमानतदार  ढूँढ़ रहा है । यह जो परिवर्तन है, अमीर गरीब हरेक वर्गों में सामाजिक बोध के एक भयानक क्षरण को प्रदर्शित करता है। कोरोना के समय एक बात की सूचना मिल रही थी कि भारत के एक बड़े उद्योगपति की प्रति मिनट आमदनी 90 लाख रूपये है । उसी दरमियान दिल्ली में रहते हुए मैंने ये अंदाज लगाया कि बारह हजार प्रति माह वेतन पाने वाले व्यक्ति की आय प्रति मिनट 90 पैसे है। हम जिस समाज में रह रहे हैं उसका एक अर्थ 90 पैसे से लेकर 90 लाख के बीच में है और यहाँ सेकेण्ड के सौवें हिस्से वाला तर्क ही काम कर रहा है जिसकी आप कोई व्याख्या नहीं कर सकते । इस वस्तुकृत  होते समाज में जहाँ हर जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई न कोई वस्तु मौजूद है , यह उपन्यास इस बात को भी व्याख्यायित करता है । मैं छत्तीसगढ़ के औद्योगिक शहर रायगढ़ में प्रभात जी के साथ घूम रहा था तो मुझे लगा कि यहाँ हर जगह ऑब्जेक्ट्स हैं जहाँ मनुष्य को वस्तु के रूप में भी आप देख सकते हैं। अगर कोई बताए कि यह मनुष्य नहीं बल्कि वस्तु है तो उसे मानने के लिए लगभग हम तैयार हैं । मुझे मोबाईल से बात करते हुए कई बार लगता है जैसे कि हम किसी मशीन से बात कर रहे हों या वो मशीन हमारे सवालों का जवाब दे रहा हो। तो धीरे धीरे मनुष्य और मशीन या मनुष्य और वस्तु के बीच का अंतर खत्म होता जा रहा है।

बोद्रिया ने एक वाक्य लिखा है .. 'आज से पहले का मनुष्य , मनुष्यों के बीच जीता मरता था , अब मनुष्य की यह नियति है कि वह वस्तुओं के बीच जी रहा है और मर  रहा है।'

तो यह उपन्यास वस्तुकृत  हो रहे मनुष्य के भीतर गैर वस्तुकृत चेतना और प्रेम को स्थापित करता है ।यह उपन्यास बताता है कि इह्लौकिक प्रेम  , भौतिक प्रेम , उत्कंठ प्रेम ही मनुष्य की मुक्ति का एक मात्र रास्ता है।

यह उपन्यास बताता है किस तरह एक अपरिभाषित किस्म के संकट से मनुष्य बचा रह सकता है । यह उपन्यास एक कामज किस्म की कल्पना ... प्रेम  करूणा और वासना , इन तीनों को एक धरातल पर ला देता है और इस अर्थ में वस्तुओं के प्रति जो वासना है , स्त्री और पुरुष के बीच जो वासना है, उनमें भेद करने की बात यह उपन्यास हमें बताता है । यह उपन्यास बताता है कि वासना करूणा से भिन्न नहीं है । वासना, प्रेम और करूणा के त्रिकोण मिलकर ही जीवन में एक उम्मीद पैदा करते हैं ।यह उपन्यास बताता है कि एक ऐसे समय में जब कहा जाने लगा है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी के रूप में बचा नहीं रह गया है , मनुष्य के लिए प्रेम ही एकमात्र संभावना है ।

-----------------------------------------------------   

【कवि आलोचक अच्युतानंद मिश्र का जन्म  27 फरवरी 1981 को बोकारो झारखंड में हुआ। अच्युतानंद मिश्र कविता और आलोचना के क्षेत्र में बराबर सक्रिय हैं । प्रेमचंद पर एकाग्र किताब - प्रेमचंद समाज,संस्कृति और राजनीति का संपादन करने वाले मिश्र ने चिनुवा अचेबे की कविताओं का हिंदी अनुवाद देवता का बाण शीर्षक संग्रह में किया है ।  आंख में तिनका उनका कविता संग्रह है और नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता उनकी आलोचना की किताब है । भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से पुरस्कृत अच्युतानंद मिश्र की कविता हमारे समय और समाज पर सार्थक हस्तक्षेप की तरह सामने आती है और उनका काव्य फलक बहुत व्यापक है । कोलाहल में कविता की आवाज़ संग्रह के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान भी उन्हें मिला है। उनका आलोचनात्मक लेखों का संग्रह बाजार के अरण्य में भी उल्लेखनीय है 】


(वक्तब्य का सार संकलन और प्रस्तुति- रमेश शर्मा)

टिप्पणियाँ

  1. आलेख बहुत महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालता है। मनुष्य के किसी वस्तु में बदलने की जो बात है, आज के संदर्भ में एकदम सच के करीब लगती है। उपन्यास किस्सा बेसिर पैर के बहाने एक बड़े फलक पर बातचीत हुई है जिसके माध्यम से बदलते समाज में मनुष्य की स्थिति को देखा समझा जा सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  2. इस आलेख में एक उपन्यास के बहाने बहुत सूक्ष्म सामाजिक संदर्भों का विश्लेषण किया गया है कि किस तरह एक मनुष्य तेजी से अपनी चेतना और अपनी संवेदना खोता जा रहा है और वह एक प्रोडक्ट में बदल दिया गया है। आलेख को पढ़ने के बाद कई चीजों को लेकर बहुत चिंता सी होने लगती है कि सचमुच हम आज कहां पहुंच गए हैं। 90 पैसे से लेकर 9000000 रुपयों के बीच फैला यह समाज अपने यथार्थ बोध को खो चुका है

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

स्वामी आत्मानंद शा. हायर सेकेंडरी स्कूल चक्रधर नगर में एनुअल फंक्शन का हुआ उद्घाटन । तात्कालिक भाषण ,विविध वेशभूषा,पपेट शो एवं नृत्य से विद्यार्थियों ने अपनी कला का किया प्रदर्शन

स्वामी आत्मानंद शा. हायर सेकेंडरी स्कूल चक्रधर नगर में एनुअल फंक्शन का हुआ उद्घाटन मुख्य अतिथि कौशलेष मिश्र ने अपने आशीर्वचन से बच्चों को किया प्रेरित     रायगढ़। स्वामी आत्मानंद शा. हायर सेकेंडरी स्कूल चक्रधर नगर में दो दिवसीय एनुअल फंक्शन का उद्घाटन हुआ। प्राचार्य राजेश डेनियल की अध्यक्षता एवं मुख्य अतिथि पूर्व पार्षद कौशलेश मिश्र की उपस्थिति में सरस्वती माता की पूजा अर्चना के साथ  कार्यक्रम की  विधिवत शुरुआत हुई ।  गुलाब के फूल के साथ मुख्य अतिथि का स्वागत प्राचार्य एवं स्कूल स्टाफ के सदस्यों की ओर से किया गया ।  अध्यक्ष एवं मुख्य अतिथि के संबोधन उपरांत बच्चों ने सरस्वती एवं गणेश वंदना की प्रस्तुति दी। बच्चों के बीच फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता रखी गई थी जिसमें बच्चों ने विभिन्न वेशभूषाओं के माध्यम से अपनी शानदार प्रस्तुति दी। कार्यक्रम में तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता भी रखी गई थी जिसमें विद्यार्थियों को तत्काल विषय दिया गया और उन विषयों पर छह विद्यार्थियों ने बहुत शानदार तरीके से अपने अभिव्यक्ति कौशल का परिचय दिया। जल संरक्षण को केंद्र में रखकर एक पपेट शो का भ...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

पुरस्कार वितरण के साथ चक्रधर नगर स्कूल में तीन दिवसीय स्नेह सम्मेलन का समापन । नृत्य , तात्कालिक भाषण,निबंध, वाद-विवाद एवं नाटक प्रतियोगिता में बच्चों ने दी प्रस्तुति

पुरस्कार वितरण के साथ चक्रधर नगर स्कूल में तीन दिवसीय स्नेह सम्मेलन का समापन. नृत्य , तात्कालिक भाषण,निबंध, वाद-विवाद एवं नाटक प्रतियोगिता में बच्चों ने दी प्रस्तुति  रायगढ़। स्वामी आत्मानंद शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चक्रधर नगर रायगढ़ में तीन दिवसीय वार्षिक स्नेह सम्मेलन का समापन 20 दिसम्बर को पार्षद पंकज कंकरवाल के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हो गया।  विद्यार्थियों की सोच, उनका विवेक  और उनकी वैचारिक दृष्टि को समृद्ध करने के लिए निबंध प्रतियोगिता, तात्कालिक भाषण एवं वाद विवाद प्रतियोगिता जैसे बौद्धिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में क्रम अनुसार अंतिम दिवस  वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन बच्चों के बीच रखा गया था। वाद विवाद का विषय इस सदन की राय में सोशल मीडिया विद्यार्थियों के लिए वरदान है, के पक्ष में तीन विद्यार्थी अन्नू बेहेरा, शाहीन शाहनवाज और राधिका यादव जबकि विपक्ष में कीर्ति यादव , संजना सबर एवं लीसा चौहान ने अपने मजबूत तर्कों के साथ अपनी वैचारिक प्रस्तुति देकर वाद विवाद प्रतियोगिता को सफल और बहुत रोचक बना दिया। इस अवसर पर इन तीनों बौद्धिक प्रतियोगिता निबंध, तात्...

डॉक्टर परिधि शर्मा की कहानी - ख़त

  शिवना नवलेखन पुरस्कार 2024 अंतर्गत डॉक्टर परिधि शर्मा के कहानी संग्रह 'प्रेम के देश में' की पाण्डुलिपि अनुसंशित हुई है। इस किताब का विमोचन फरवरी 2025 के नयी दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में शिवना प्रकाशन के स्टाल पर  किया जाएगा । यहाँ प्रस्तुत है उनकी कहानी  'ख़त' कहानी:    ख़त डॉ . परिधि शर्मा _______________ रात की सिहरन के बाद की उदासी ठंडे फर्श पर बूंद बनकर ढुलक रही थी। रात के ख़त के बाद अब कोई बात नहीं बची थी। खुद को संभालने का साहस भी मात्र थोड़ा-सा बच गया था। ख़त जिसमें मन की सारी बातें लिखी गईं थीं। सारा आक्रोश , सारे जज़्बात , सारी भड़ास , सारी की सारी बातें जो कही जानी थीं , पूरे दम से आवेग के साथ उड़ेल दी गईं थीं। ख़त जिसे किसी को भी भेजा नहीं जाना था। ख़त जिसे किसी को भेजने के लिए लिखा गया था। कुछ ख़त कभी किसी को भेजे नहीं जाते बस भेजे जाने के नाम पर लिखे जाते हैं। खिड़की के कांच के उस ओर खुली हवा थी। हवा के ऊपर आकाश। पेड़ पौधे सबकुछ। आजादी। प्रेम में विफल हो जाने के बाद की आजादी की तरह। खिड़की के पास बैठे हुए आकाश कांच के पार से उतना नंगा नहीं...

चित्रकला प्रतियोगिता में सेंट टेरेसा स्कूल रायगढ़ के कक्षा सातवीं के छात्र आयुष साहू को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। पुरस्कार स्वरूप उन्हें 50,000 पचास हजार रूपये का चेक प्रदान किया गया।

रायगढ़ ।  केन्द्रीय विद्युत मंत्रालय भारत सरकार की देखरेख में ऊर्जा संरक्षण राज्य स्तरीय चित्रकला प्रतियोगिता 27 नवंबर को दुर्ग जिले के कुम्हारी स्थित पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन परिसर में संपन्न हुआ। पेंटिंग कॉम्पटीशन में छत्तीसगढ़ राज्य से विभिन्न स्कूलों के बच्चों ने भाग लिया। रायगढ़ जिले के सेंट टेरेसा कान्वेंट स्कूल बोईरदादर रायगढ़ के छात्रों की भी इस प्रतियोगिता में सहभागिता रही।इस स्कूल के विद्यार्थियों की कला को समर्पित कल्पना शीलता का उल्लेखनीय प्रदर्शन यहां देखने को मिला।         चित्रकला प्रतियोगिता में सेंट टेरेसा स्कूल रायगढ़ के कक्षा सातवीं के छात्र आयुष साहू को ग्रुप A में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। पुरस्कार स्वरूप उन्हें 50,000 पचास हजार रूपये का चेक प्रदान किया गया। इसी स्कूल के विद्यार्थी सुशांत शुक्ला (सातवीं), नावेद अनवर खान (दसवीं), शेख सनाउल्लाह (आठवीं) को सांत्वना पुरस्कार प्राप्त हुआ।सांत्वना पुरस्कार के तहत इन तीनों छात्रों में प्रत्येक को 7,500 (सात हजार पांच सौ)रूपये के चेक प्रदान किये गए। स्कूल के चित्रकला शिक्षक तोष कुमार साहू की क...

साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2024 की घोषणा हिंदी के लिए गगन गिल और अंग्रेजी के लिए ईस्टरिन किरे पुरस्कृत

गगन गिल जी को उनके कविता संग्रह "मैं जब तक आयी बाहर” के लिए केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार  साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2024 की घोषणा हिंदी के लिए गगन गिल और अंग्रेजी के लिए ईस्टरिन किरे पुरस्कृत बांग्ला, डोगरी और उर्दू में पुरस्कारों की घोषणा बाद में 8 मार्च 2025 को पुरस्कृत होंगे लेखक नई दिल्ली। 18 दिसंबर 2024; साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित एक प्रेस कान्फ्रेंस में साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2024 की घोषणा की गई। साहित्य अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने प्रेस कान्फ्रेंस को संबोधित करते हुए बताया कि पुरस्कार 21 भाषाओं के लिए घोषित किए गए हैं, जिनमें आठ कविता-संग्रह, तीन उपन्यास, दो कहानी संग्रह, तीन निबंध, तीन साहित्यिक आलोचना, एक नाटक और एक शोध की पुस्तकें शामिल हैं। बाड़्ला, डोगरी और उर्दू में पुरस्कारों की घोषणा बाद में की जाएगी। पुरस्कारों की अनुशंसा 21 भारतीय भाषाओं की निर्णायक समितियों द्वारा की गई तथा साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष श्री माधव कौशिक की अध्यक्षता में आयोजित अकादेमी के कार्यकारी मंडल की बैठक में आज इन्हें अनुमोदित किया गया। पुरस्कार प्राप्त पुस्तकें हैं (कविता-संग्र...

इला सिंह की कहानी 'अम्मा'

इतने   खराब   हालातों   में   भी   वो   दिल   की   हमेशा   अमीर   रहीं   इला सिंह जीवन की अनदेखी अनबुझी सी रह जाने वाली अमूर्त सी घटनाओं को भी कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से हैं| अम्मा कहानी में भी एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशीलता , धीरज और उसकी उदारता को सामान्य सी घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह उन्होंने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति हमारा ध्यान आकर्षित करती है | अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग हैं पर अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है | कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री के ऐसे रंग ही एक घर की खूबसूरती को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं |कहानी यह कहने में सफल है कि घर और समाज की धुरी अम्मा जैसी स्त्री के ऊपर ही टिकी है | कथादेश के किसी पूर्व अंक में प्रकाशित इस कहानी की लेखिका इला सिंह जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है |   अम्मा  “ आज हमसे खाना नही बनेगा भाई !” भाभी ने रोटी सेकते - सेकते झ...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

परिधि शर्मा की कहानी : मनीराम की किस्सागोई

युवा पीढ़ी की कुछेक   नई कथा लेखिकाओं की कहानियाँ हमारा ध्यान खींचती रही हैं । उन कथा लेखिकाओं में एक नाम परिधि शर्मा का भी है।वे कम लिखती हैं पर अच्छा लिखती हैं। उनकी एक कहानी "मनीराम की किस्सागोई" हाल ही में परिकथा के नए अंक सितंबर-दिसम्बर 2024 में प्रकाशित हुई है । यह कहानी संवेदना से संपृक्त कहानी है जो वर्तमान संदर्भों में राजनीतिक, सामाजिक एवं मनुष्य जीवन की भीतरी तहों में जाकर हस्तक्षेप करती हुई भी नज़र आती है। कहानी की डिटेलिंग इन संदर्भों को एक रोचक अंदाज में व्यक्त करती हुई आगे बढ़ती है। पठनीयता के लिहाज से भी यह कहानी पाठकों को अपने साथ बनाये रखने में कामयाब नज़र आती है। ■ कहानी : मनीराम की किस्सागोई    -परिधि शर्मा  मनीराम की किस्सागोई बड़ी अच्छी। जब वह बोलने लगता तब गांव के चौराहे या किसी चबूतरे पर छोटी मोटी महफ़िल जम जाती। लोग अचंभित हो कर सोचने लगते कि इतनी कहानियां वह लाता कहां से होगा। दरअसल उसे बचपन में एक विचित्र बूढ़ा व्यक्ति मिला था जिसके पास कहानियों का भंडार था। उस बूढ़े ने उसे फिजूल सी लगने वाली एक बात सिखाई थी कि यदि वर्तमान में हो रही समस्याओं क...