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अच्युतानंद मिश्र युवा कवि आलोचक का वक्तब्य: छत्तीसगढ़ साहित्य एकेडमी का आयोजन

प्र भात त्रिपाठी का उपन्यास "किस्सा बेसिर पैर" वस्तुकृत हो रहे मनुष्य के भीतर गैर वस्तुकृत चेतना और प्रेम को स्थापित करता है- युवा कवि आलोचक अच्युतानंद मिश्र
 

 
अच्युतानंद मिश्र 
प्रभात त्रिपाठी की आलोचना और उनके रचनात्मक लेखन को केंद्र में रखकर मेरे जेहन में एक प्रश्न है और जहां से मैं अपनी बात शुरू करने जा रहा हूँ ।  हम सरलीकरण के लिए दो कोटि लेखकों की बनाएं ... एक वो जो किसी ख़ास विधा में पूरे जीवन लिखते हैं और एक उस तरह के लेखक जो विधाओं के बीच आवाजाही करते हैं ।  वे लेखक जो विधाओं के बीच आवाजाही करते हैं मसलन प्रभात त्रिपाठी जो आलोचना भी लिखते हैं , कविता भी लिखते हैं, कहानी और उपन्यास भी लिखते हैं । यह विधाओं के अतिक्रमण का जो मामला है उसमें इस बीच क्या लेखक की कोई केन्द्रीय प्रवृत्ति मौजूद रहती है जो उसकी आलोचना में भी हो, उसके रचनात्मक लेखन  में भी हो ? क्या इस तरह की किसी केन्द्रीयता की खोज कोई अर्थ रखती है? या वहां से उस लेखक को जानने समझने में कोई मदद मिल सकती है ? 
फर्ज कीजिए कि इस सवाल को मैं इसलिए भी उठा रहा हूँ कि हमारे सामने इस तरह के कई उदाहरण हैं कि प्रसाद ने भी ऐसा किया, निराला ने भी ऐसा किया ।  आजादी के आसपास दो लेखक हमारे सामने हैं अज्ञेय और मुक्तिबोध , जिनके यहाँ बहुत सारी विधाओं में लिखने का उदाहरण हमारे सामने है । मुक्तिबोध को लेकर तो बहुत सारे सवाल भी उठाये गए कि क्या उनकी आलोचना  और कविता में कोई सम्बन्ध है या उनकी आलोचना और कहानी में कोई सम्बन्ध है और इस तरह के बहुत सारे सूत्र भी निकाले गए ।  प्रभात त्रिपाठी को पढ़ते हुए मैं ये महसूस करता हूँ कि उनके अन्दर परस्पर अंतर बाह्य संवाद की एक केन्द्रीयकृत चेतना है जो उनके उपन्यासों में भी है, उनकी कविताओं में भी है और उनकी आलोचना में भी है। प्रभात त्रिपाठी ने जिन विधाओं में लिखा है उनका  लेखन उन विधाओं की जमीन से कई बार अलग भी दिखने लगता है। पारंपरिक आलोचना का जो फ्रेम है उस फ्रेम से प्रभात त्रिपाठी की आलोचना अलग दिखाई पड़ती है और यह बात उनके कविताओं के बारे में और उनके उपन्यासों के बारे में तो निश्चित रूप से कही जा सकती है। हिंदी में उपन्यास को पढ़ने, देखने या बात करने का जो हमारा चलन है हम उसे ढांचें के अंतर्गत ही देखते सोचते हैं । ढाँचे के बाहर तो हम कोई चीज नहीं सोच सकते पर  प्रभात त्रिपाठी के उपन्यास ढांचे का अतिक्रमण करते हैं । हिंदी में उपन्यास लेखन का जो चलन है उससे भिन्न किस्म का लेखन प्रभात त्रिपाठी का है । वह क्यों है या उसके पीछे कौन से कारण हैं उन्हें लेकर कुछ बातें मेरे जेहन में हैं और उनके उपन्यास 'किस्सा बेसिर पैर' को लेकर कुछ बातें मैं यहाँ रखूँगा ।  उपन्यास , आलोचना और आधुनिकता ये तीनों पिछले तीन सौ सालों में विकसित हुए हैं ।


इनके मूल में यह बात है कि जो आधुनिक मनुष्य है उसके भीतर एक सतत आलोचना का विवेक विकसित हुआ है। उपन्यास भी कमोबेश वही काम करता है जो आलोचना का काम है और वह यह है कि व्यक्ति और समाज के अंतर्विरोधों को बार बार नए संदर्भों में नए सिरे से देखने की कोशिश उनके माध्यम से होती है । व्यक्ति के निर्माण का जो मामला है वह तीन सौ साल पहले का है । इस दरमियान हमने व्यक्ति को एक आइडेंटिटी या एक चेतना के रूप में विकसित किया है और हिन्दी में पढ़ते हुए ये सवाल मेरे जेहन में बार बार आता है कि अगर हम निराला और मुक्तिबोध की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला के सामने व्यक्ति और समाज का अंतर्द्वंद नहीं है । ऐसा इसलिए है क्योंकि कृषि जीवन का जो बोध है वह व्यक्ति को महत्त्व नहीं देता उसमें जो कुछ है वह सामूहिक है । अभी कुछ दिनों पहले किसी ने मुझसे पूछा कि क्या हम सामूहिक परिवार में नहीं रहते ? मैंने इस सवाल के जवाब में ये सोचा कि क्या मेरे दादाजी जहाँ काम करते हैं वहां वे अपने बेटे को और मुझे साथ लेकर वर्किंग प्लेस बना सकते हैं ?मैं जहाँ यूनिवर्सिटी में काम करता हूँ क्या वहां तीन पीढियां एक साथ काम कर सकती हैं ?यह जो सामाजिक जीवन में परिवर्तन आया है उस परिवर्तन ने व्यक्ति और समाज के बीच अंतरसम्बन्ध को महत्वपूर्ण बना दिया है । यह जो अंतर्संबंध है हिंदी उपन्यासों में भी उभर कर सामने आया है ।जैनेन्द्र के मामले में भी यही सवाल है कि सामाजिक रूपाकारों में हम व्यक्ति की भूमिका को किस तरह देखें ? मानवीय विचलन को या उसके नहीं हो सके प्रारूप को कैसे देखें ?पिछले 50 से 60 सालों में व्यक्ति और समाज का जो सम्बन्ध है यह सम्बन्ध बदल दिया गया है और यह जो बदलाव है इस बदलाव को प्रभात त्रिपाठी के उपन्यास किस्सा बेसिर पैर से समझा जा सकता है । इस अर्थ में आप यह देखें कि निराला के साहित्य में प्रकृति जो है वह एरोटीसाइज करती है ये कमोबेश प्रसाद की कविताओं में भी है लेकिन क्या मुक्तिबोध की कविताओं में प्रकृति एरोटीक है ? ऐसा न होकर वह उसकी जगह एक भूतहा किस्म का सायकोसिस जगाती है। यह भय उत्पन्न करने का जो मसला है यह दिखाता है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का जो वर्तमान सम्बन्ध है वह पुराने अर्थ में बचा नहीं रह गया है । प्रभात त्रिपाठी के उपन्यासों में इसके अगले संकेत की सूचना है कि मनुष्य और समाज का पुराना सम्बन्ध लगभग नष्ट हो चुका है जिस अर्थ में हम ये कहते थे कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उस वाक्य या उसके अर्थ को पूरी तरह निरर्थक बता दिया गया है और इस अर्थ में उपन्यास किस्सा बेसिर पैर को पढ़ें तो उसके केंद्र में एक व्यक्ति है जो कथा वाचक भी है । इसमें इस तरह का भ्रम लगता है कि कोई व्यक्ति अपनी आत्म कथा कह रहा है ।कथा में व्यक्ति और समाज के बीच जो कार्यकारण सम्बन्ध हैं , उनके बीच जुड़ने का जो सिलसिला है, वे सारे यथार्थ बोध अब नष्ट हो चुके हैं । ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह जो सत्तर या अस्सी के आसपास का जो मनुष्य है, उसका समय बोध, उसका आत्म बोध पूरी तरह नष्ट हो चुका है । इसलिए किसी चीज तक पहुँचने का हमारा जो तरीका है फर्ज कीजिए कि देखने सुनने और जानने का कोई तरीका है अगर और उनके बीच सारे सम्बन्ध टूट जाएं तो आप उसे कैसे देखेंगे ?एक उदहारण से अपनी बात मैं रखूँगा । हम लोगों ने जब 90 के आसपास पढ़ना लिखना शुरू किया तो केरल भारत का हिस्सा है इस बात को प्रमाणित करने के लिए समाज शास्त्र की किताबों में पी टी उषा की एक जीवनी पढ़ाई जाती थी। उस जीवनी में एक वाक्य लिखा रहता है कि पी टी उषा सेकण्ड के सौवें हिस्से से हार गयीं । सेकेण्ड का सौवां हिस्सा क्या हो सकता है यह मनुष्य की चेतना से बाहर  है । दुनिया का कोई ज्ञान इस बात को नहीं बता सकता है कि सेकेण्ड का सौवां हिस्सा क्या है ।न हम उसे अनुभव के स्तर पर समझ सकते हैं न बुद्धि के स्तर पर समझ सकते हैं । तो यह जो अनुभव और बुद्धि से परे की चेतना का जो विकास है, यह 1980-90 के आसपास शुरू होता है और इसे प्रभात त्रिपाठी के इस उपन्यास किस्सा बेसिर पैर में हम देख सकते हैं । इस उपन्यास में बहुत सारे सिनिकल चरित्र हैं जिनके जीवन में अनेक तरह की विचित्रताएं हैं और इन विचित्रताओं से लगता है कि उनके जीवन में कोई कार्यकारण तंतु नहीं बचा है ।ये कार्यकारण तंतु कैसे नष्ट होते हैं उसकी अगर पड़ताल करें तो हम पाते हैं कि पिछले तीस चालीस सालों में ज्ञान के माध्यमों ने , सूचना के माध्यमों ने हमारी चेतना में उसे नष्ट किया । एक उदाहरण इस उपन्यास से लें कि एक प्रसंग में एक जगह लेखक कहता है कि उसके यहाँ जो काम करने वाली है वह एक दिन अनुपस्थित है और उसकी जगह उसकी ननद या भौजाई काम पर आयी है । वह उससे पूछता है कि वह क्यों नहीं आई तो ननद बताती है कि आज उसके बेटे की छट्ठी है और वह उसकी पार्टी मना रही है । तो लेखक कहता है कि छट्ठी की पार्टी तो होती नहीं थी । प्रसंग में घर के दृश्य और पार्टी के खाने पीने की चीजों से भरी प्लेटों को लेकर जो दृश्य बनते हैं, उन दृश्यों में एक भयानक किस्म का यथार्थ बनता है और उससे यथार्थ बोध के नष्ट होने का आभास होता है । यथार्थ बोध के विघटन के बाद का जो सामाजिक यथार्थ है, उस सामाजिकता की पड़ताल यह उपन्यास करता है ।उपन्यास को पढ़ते हुए एक बात और उभरती है कि लेखक जिस समय वर्तमान में है ठीक उसी समय वह स्मृति में भी है । समय के बीच जो अंतराल हैं वे नष्ट हो गए हैं और हम इसे सूचना माध्यमों से भी समझ सकते हैं । 60 के दशक में अमेरिका में फूटबाल मैच जब हो रहा था, टीवी पर उसे दिखाया भी जा रहा था उसी समय टीवी पर खबर आयी कि राष्ट्रपति की हत्या कर दी गयी । फिर थोड़ी देर के लिए फूटबाल मैच रोक दिया गया । उदासी का धुन बजने लगा, फिर कुछ समय बाद प्रोड्यूसरों ने दवाब बनाया कि हो गया , सूचना मिल गयी ।  अंततः टीवी पर फिर से मैच का प्रसारण चालू कर दिया गया । उस दरमियान लोगों को यह समझ में नहीं आया कि इस समय वे मैच का आनंद लें कि उत्तेजित हों कि मृत्यु का शोक मनाएं। यह जो विरोधाभास से भरी स्थितियां एक जगह आ गयी हैं, इस तरह की स्थितियां इस उपन्यास में भरी हुई हैं ।स्मृति के कोलाज के बाद यथार्थ के शून्यता बोध तक पहुँचने की जो एक त्रासदी है , यह उपन्यास वहां तक पहुँचने का एक महत्वपूर्ण रास्ता है ।


रमेश शर्मा, महेश वर्मा के साथ अच्युतानंद मिश्र 

इस उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें एक आदमी पहले चाय का ठेला लगाता था, अब वह अपराधियों के लिए जमानतदार  ढूँढ़ रहा है । यह जो परिवर्तन है, अमीर गरीब हरेक वर्गों में सामाजिक बोध के एक भयानक क्षरण को प्रदर्शित करता है। कोरोना के समय एक बात की सूचना मिल रही थी कि भारत के एक बड़े उद्योगपति की प्रति मिनट आमदनी 90 लाख रूपये है । उसी दरमियान दिल्ली में रहते हुए मैंने ये अंदाज लगाया कि बारह हजार प्रति माह वेतन पाने वाले व्यक्ति की आय प्रति मिनट 90 पैसे है। हम जिस समाज में रह रहे हैं उसका एक अर्थ 90 पैसे से लेकर 90 लाख के बीच में है और यहाँ सेकेण्ड के सौवें हिस्से वाला तर्क ही काम कर रहा है जिसकी आप कोई व्याख्या नहीं कर सकते । इस वस्तुकृत  होते समाज में जहाँ हर जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई न कोई वस्तु मौजूद है , यह उपन्यास इस बात को भी व्याख्यायित करता है । मैं छत्तीसगढ़ के औद्योगिक शहर रायगढ़ में प्रभात जी के साथ घूम रहा था तो मुझे लगा कि यहाँ हर जगह ऑब्जेक्ट्स हैं जहाँ मनुष्य को वस्तु के रूप में भी आप देख सकते हैं। अगर कोई बताए कि यह मनुष्य नहीं बल्कि वस्तु है तो उसे मानने के लिए लगभग हम तैयार हैं । मुझे मोबाईल से बात करते हुए कई बार लगता है जैसे कि हम किसी मशीन से बात कर रहे हों या वो मशीन हमारे सवालों का जवाब दे रहा हो। तो धीरे धीरे मनुष्य और मशीन या मनुष्य और वस्तु के बीच का अंतर खत्म होता जा रहा है।

बोद्रिया ने एक वाक्य लिखा है .. 'आज से पहले का मनुष्य , मनुष्यों के बीच जीता मरता था , अब मनुष्य की यह नियति है कि वह वस्तुओं के बीच जी रहा है और मर  रहा है।'

तो यह उपन्यास वस्तुकृत  हो रहे मनुष्य के भीतर गैर वस्तुकृत चेतना और प्रेम को स्थापित करता है ।यह उपन्यास बताता है कि इह्लौकिक प्रेम  , भौतिक प्रेम , उत्कंठ प्रेम ही मनुष्य की मुक्ति का एक मात्र रास्ता है।

यह उपन्यास बताता है किस तरह एक अपरिभाषित किस्म के संकट से मनुष्य बचा रह सकता है । यह उपन्यास एक कामज किस्म की कल्पना ... प्रेम  करूणा और वासना , इन तीनों को एक धरातल पर ला देता है और इस अर्थ में वस्तुओं के प्रति जो वासना है , स्त्री और पुरुष के बीच जो वासना है, उनमें भेद करने की बात यह उपन्यास हमें बताता है । यह उपन्यास बताता है कि वासना करूणा से भिन्न नहीं है । वासना, प्रेम और करूणा के त्रिकोण मिलकर ही जीवन में एक उम्मीद पैदा करते हैं ।यह उपन्यास बताता है कि एक ऐसे समय में जब कहा जाने लगा है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी के रूप में बचा नहीं रह गया है , मनुष्य के लिए प्रेम ही एकमात्र संभावना है ।

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【कवि आलोचक अच्युतानंद मिश्र का जन्म  27 फरवरी 1981 को बोकारो झारखंड में हुआ। अच्युतानंद मिश्र कविता और आलोचना के क्षेत्र में बराबर सक्रिय हैं । प्रेमचंद पर एकाग्र किताब - प्रेमचंद समाज,संस्कृति और राजनीति का संपादन करने वाले मिश्र ने चिनुवा अचेबे की कविताओं का हिंदी अनुवाद देवता का बाण शीर्षक संग्रह में किया है ।  आंख में तिनका उनका कविता संग्रह है और नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता उनकी आलोचना की किताब है । भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से पुरस्कृत अच्युतानंद मिश्र की कविता हमारे समय और समाज पर सार्थक हस्तक्षेप की तरह सामने आती है और उनका काव्य फलक बहुत व्यापक है । कोलाहल में कविता की आवाज़ संग्रह के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान भी उन्हें मिला है। उनका आलोचनात्मक लेखों का संग्रह बाजार के अरण्य में भी उल्लेखनीय है 】


(वक्तब्य का सार संकलन और प्रस्तुति- रमेश शर्मा)

टिप्पणियाँ

  1. आलेख बहुत महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालता है। मनुष्य के किसी वस्तु में बदलने की जो बात है, आज के संदर्भ में एकदम सच के करीब लगती है। उपन्यास किस्सा बेसिर पैर के बहाने एक बड़े फलक पर बातचीत हुई है जिसके माध्यम से बदलते समाज में मनुष्य की स्थिति को देखा समझा जा सकता है।

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  2. इस आलेख में एक उपन्यास के बहाने बहुत सूक्ष्म सामाजिक संदर्भों का विश्लेषण किया गया है कि किस तरह एक मनुष्य तेजी से अपनी चेतना और अपनी संवेदना खोता जा रहा है और वह एक प्रोडक्ट में बदल दिया गया है। आलेख को पढ़ने के बाद कई चीजों को लेकर बहुत चिंता सी होने लगती है कि सचमुच हम आज कहां पहुंच गए हैं। 90 पैसे से लेकर 9000000 रुपयों के बीच फैला यह समाज अपने यथार्थ बोध को खो चुका है

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समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

फादर्स डे पर परिधि की कविता : "पिता की चप्पलें"

  आज फादर्स डे है । इस अवसर पर प्रस्तुत है परिधि की एक कविता "पिता की चप्पलें"।यह कविता वर्षों पहले उन्होंने लिखी थी । इस कविता में जीवन के गहरे अनुभवों को व्यक्त करने का वह नज़रिया है जो अमूमन हमारी नज़र से छूट जाता है।आज पढ़िए यह कविता ......     पिता की चप्पलें   आज मैंने सुबह सुबह पहन ली हैं पिता की चप्पलें मेरे पांवों से काफी बड़ी हैं ये चप्पलें मैं आनंद ले रही हूं उन्हें पहनने का   यह एक नया अनुभव है मेरे लिए मैं उन्हें पहन कर घूम रही हूं इधर-उधर खुशी से बार-बार देख रही हूं उन चप्पलों की ओर कौतूहल से कि ये वही चप्पले हैं जिनमें होते हैं मेरे पिता के पांव   वही पांव जो न जाने कहां-कहां गए होंगे उनकी एड़ियाँ न जाने कितनी बार घिसी होंगी कितने दफ्तरों सब्जी मंडियों अस्पतालों और शहर की गलियों से गुजरते हुए घर तक पहुंचते होंगे उनके पांव अपनी पुरानी बाइक को न जाने कितनी बार किक मारकर स्टार्ट कर चुके होंगे इन्हीं पांवों से परिवार का बोझ लिए जीवन की न जाने कितनी विषमताओं से गुजरे होंगे पिता के पांव ! ...