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मलकानगिरी यात्रा संस्मरण: बीहड़ जंगलों के बीच गुजरते हुए लगा जैसे यात्राएं भी जीवन की कहानियाँ सुनाती हैं


रायगढ़ से निकल कर हम ओड़िशा के एक ऐसे शहर में पहुंचे थे जिसे माल्यवंत गिरी के नाम से जाना जाता रहा है ।अब इस शहर का नाम मलकानगिरी है । कोरापुट जिले से अलग होकर नए जिले के रूप में इसकी खुद की पहचान अब तेजी से बन रही है। छत्तीसगढ़ और आंध्रा के बॉर्डर इलाके में स्थित माओवादी इलाके के रूप में जो इसकी खुद की पहचान अब तक रही थी , तेजी से विकसित हो रहे इस शहर ने उस पहचान को एक तरह से अब धूमिल किया है। अब यह शहर तेजी से मुख्यधारा की ओर बढ़ने लगा है।

हरी-भरी सुंदर पहाड़ियों की गोद में बसा यह शहर अपने शुद्ध पर्यावरण के लिए भी लोगों का पसंदीदा शहर बनता जा रहा है। यहां का सतिगुड़ा डैम और चित्रकुंडा डैम पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। अगस्त माह के बारिश के दिनों में जब हम यहां कुछ समय के लिए रुके थे तो घनी पहाड़ियों की वजह से जब चाहे बारिश हो जाया करती थी। शहर से पांच किलोमीटर दूर सतीगुड़ा डैम में टहलते हुए हमें लग रहा था कि हरी-भरी वादियों और अथाह जल सागर की गोद में हम आ बैठे हैं।यद्यपि डेम तक पहुंचने का रास्ता बारिश के कारण अस्त व्यस्त सा है पर वहां पहुंचने के बाद हरी भरी वादियों की खूबसूरती मन की इस शिकायत को दूर कर देती है।यहां का इको रेस्टोरेंट और छोटा सा गेस्ट हाउस भी अत्यंत मनोहारी है।

इस शहर का स्वागत रेस्टोरेंट और लॉज भी लाज़बाब है जहां हम सबने दोपहर का लंच लिया। लगभग 36 घण्टे बिताकर जब शनिवार 6 अगस्त को मलकानगिरी ओड़िशा से हम निकले तो रात के दस बज रहे थे।अमूमन रात में सड़क मार्ग की यात्रा मुझे पसंद नहीं पर हमें रायपुर सुबह तक पहुंचना जरूरी था इसलिए पसंद नापसंद की बातें उस वक्त स्थगित थीं ।सुकमा से न होकर तोंगपाल होते हुए जगदलपुर तक पहुंचने का रास्ता बीहड़ जंगलों के बीच से होकर गुजरता है इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था।बारिश का समय , उस पर जवान होती रात का एकदम घुप्प अंधेरा।ड्राइवर गुड्डू कह रहा था कि छत्तीसगढ़ कम जाना होता है। इस रास्ते के बारे में मुझे कोई ज्यादा जानकारी नहीं । मैं ज्यादातर मलकानगिरी से भुवनेश्वर की ओर जाता रहा हूँ।

पिछली सीट पर बैठे डॉक्टर नित्या उसे आश्वस्त कर रहे थे " चिंता की बात नहीं ! मैं हूँ न... मैं इस रास्ते पर आ चुका हूँ। बिल्कुल जीरो ट्रैफिक वाला रास्ता है यह।" मलकानगिरी से तोंगपाल तक लगभग 45 किलोमीटर के इस रास्ते में न कोई चार पहिया गाड़ी दिखी न कोई दुपहिया वाहन वाला आदमी दिखा।सचमुच जीरो ट्रैफिक वाला एकदम सुनसान रास्ता।

इन्हीं दृश्यों को लांघते हुए नित्या की डस्टर कार स्पीड के साथ सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। मैं आगे की सीट पर बैठे बैठे इस बात की चिंता में डूबा हुआ था कि ड्राइवर कहीं झपकी मारने न लग जाए ,पर गुड्डू यंग लड़का था और बार बार यह कहकर आश्वस्त कर रहा था कि उसे कार चलाते समय कभी नींद नहीं आती।वह मजे से ब्लू टूथ कनेक्ट कर कभी ओड़िया तो कभी हिंदी गाने सुन रहा था।बज रहे गानों के साथ उसका गुनगुनाना , उस वक्त सुनसान , डरावने और बीहड़ रास्तों की जड़ता को तोड़ने की उसकी एक कोशिश सी लग रही थी। कुछ किलोमीटर चल लेने के बाद अचानक उसे गुटका खाने की तलब होने लगी । इस सुनसान रास्ते पर कोई दुकान खुली हुई मिले इसकी कोई संभावना ही नहीं थी।रात में इंसानों की बात तो छोड़िए एक चिड़िया के फड़फड़ाने की आवाज़ भी जंगल में गुम थी।

गुड्डू कह रहा था कि ओड़िसा के इस ट्राइबल जोन में रात के 8 बजते ही लोग गहरी नींद में चले जाते हैं। फिर रात और घने डरावने जंगल आदमी की जगह ले लेते हैं। पीछे बैठी प्रतिमा को इस बात का भय सता रहा था कि सड़क पर अचानक दृश्यमान होकर माओ हमारी कार को कहीं रोक न दें। उनके मन में यह बात बैठी हुई थी कि यह घोर माओवादी इलाका है।

उनके मन के भीतर बैठे इस बात को और बल मिला था क्योंकि मलकानगिरी से बाहर निकलते निकलते शहर के बॉर्डर पर पुलिस वालों ने हमारी कार को रोककर फिर हमें आगे बढ़ने दिया था। नित्या को इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि डॉक्टरी पेशे में आकर वे इन इलाकों की संस्कृति के अभ्यस्त हो चुके हैं और ऐसे बीहड़ रास्तों पर आने जाने का उन्हें पर्याप्त अनुभव भी है। मैंने गुड्डू से कहा कि अब तो केशलूर ढाबा में ही तुम्हें गुटका पाउच मिल पाएगा।मेरी बातों से प्रतिमा को आश्चर्य हो रहा था कि आधी रात में इस माओ इलाके में कौन सा ढाबा खुला हुआ मिलेगा। इस रास्ते पर आने का उनका पहला अनुभव था इसलिए उनका संशय लाज़िमी भी था।

तोंगपाल तक आते आते रात में हमें सचमुच न कोई वाहन दिखा न कोई आदमी। वहां से निकलकर हम फिर उसी डरावने माहौल की जद में आने लगे थे। आधी रात के बाद दरभा और झीरम घाटी की डरावनी पहाड़ियाँ हमारा इंतजार कर रहीं थीं। सचमुच के भय से अधिक मन का भय हावी होने लगा था ।

इन जगहों से जुड़ी जानी-सुनी दुर्दांत घटनाएं यहां से गुजरते वक्त आंखों के सामने एक नया दृश्य रच रहीं थीं।इन घाटियों से गुजरते वक्त लग रहा था मानो घने जंगलों के बीच से निकल अचानक सड़क पर कुछ लोगों का झुंड आकर हमें रोक लेगा। यह जानते हुए भी कि ऐसा कुछ होना-जाना नहीं है, फिर भी इस सुनसान और डरावनी घाटियों से होकर आधी रात को गुजरना मेरे लिए एक अप्रिय अनुभव था। कई जगहें अपने इतिहास को पीठ पर लादकर साथ लिए चलती हैं । झीरम और दरभा घाटियां भी ऐसी ही जगहों में से हैं जो इतिहास में हमेशा के लिए काले रंगों से रंग दी गयी हैं।

रात गहरा चुकी थी। घड़ी की सुईयाँ 12 के कांटे को पारकर एक पर पहुंचने को थीं। आधी रात केशलूर ढाबा पहुंचने पर हमारी चाय की तलब पूरी हो सकी और ड्राइवर को नींद भगाने की दवा के रूप में गुटका का पाउच भी आसानी से मिल गया। चाय पीने के बाद हमें थोड़ी ताज़गी मिली।

मैं सोच रहा था.... कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ रात और दिन में फर्क नहीं होता। केशलूर ढाबा भी उन जगहों में से एक है। केशलूर ढाबा से निकल कर हम फिर उसी रौ में आ गए थे।

केशकाल की आठ से दस की संख्या वाली घुमावदार घाटियों में आती जाती नाईट बसों, कारों और ट्रकों ने माहौल को थोड़ा सहज किया था। प्रतिमा थोड़ा आश्चर्य होकर कह रही थीं कि रात में भी लोग अपनी कारों से इस रास्ते पर आना जाना कर रहे हैं । मैंने कहा कि वे लोग हम जैसे लोगों की तरह ही हैं जिन्हें न चाहकर भी रात में यात्रा करनी पड़ रही है।जीवन बिना यात्रा के चलता कहाँ है?वह जब भी कह दे हमें यात्रा पर निकल जाना पड़ता है। कहते कहते मुझे महसूस होने लगा कि नींद मुझ पर तारी होने लगी है।



मैं सामने की सीट पर बैठे बैठे नींद के विरूद्ध जूझने की कोशिश करता रहा। कांकेर के बाद माकड़ी ढाबा में उतरकर हमने दोबारा चाय पी । यहां लगभग रात के तीन बजे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां रात के 3 बजे भी कुछ लोग खाना खा रहे हैं।

पास के टेबल पर एक लड़की और दो लड़के जो कम से कम यात्री तो नहीं ही लग रहे थे बल्कि वहीं आसपास के थे, चटपटे चायनीज भोजन का लुफ्त उठाते हुए दिखे। उनके मध्य हो रहे हल्के-फुल्के आपसी संवादों से ऐसा लग रहा था कि वे भी इस जगह अपने अपने जीवन से दूर हो रहे शुकून को ढूंढने निकले हैं। माकड़ी ढाबा नाम की यह जगह भी रात और दिन के फर्क को दरकिनार करने वाली उन जगहों में से एक है जहां यात्री रुककर थोड़ा शुकून महसूस करते हैं। यहां का माहौल भी पारिवारिक होता है जो मन को हल्का करता है।

जगदलपुर, केशकाल,कांकेर,चारामा और धमतरी होते हुए जब करीब 5 बजे हम रायपुर पहुंचे तो रायपुर की खुशनुमा सुबह हमारा स्वागत करती हुई मिली। रात भर चली लगभग 450 किलोमीटर की लंबी यात्रा के पड़ाव पर पहुंचते पहुंचते बीहड़ रास्तों का कारवां अब छूट चुका था।ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मलकानगिरी से तोंगपाल के बीच के सुनसान बीहड़ रास्ते, झीरम और दरभा की घाटियाँ फिर से हमें बुला रही हैं। 


रमेश शर्मा 

अगस्त 2022

टिप्पणियाँ

  1. यात्रा संस्मरण बहुत रोमांचक भी है और शानदार भी।ओड़िसा की एक नई जगह मलकानगिरी और सुदूर बस्तर के कई क्षेत्रों को लेकर कई प्रकार की नई बातें पढ़ने को मिलीं।अनुग्रह ब्लॉग पाठकों के लिए बहुत अच्छी सामग्री ला रहा है। इसके संपादक को बहुत-बहुत बधाई ।

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