सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मलकानगिरी यात्रा संस्मरण: बीहड़ जंगलों के बीच गुजरते हुए लगा जैसे यात्राएं भी जीवन की कहानियाँ सुनाती हैं


रायगढ़ से निकल कर हम ओड़िशा के एक ऐसे शहर में पहुंचे थे जिसे माल्यवंत गिरी के नाम से जाना जाता रहा है ।अब इस शहर का नाम मलकानगिरी है । कोरापुट जिले से अलग होकर नए जिले के रूप में इसकी खुद की पहचान अब तेजी से बन रही है। छत्तीसगढ़ और आंध्रा के बॉर्डर इलाके में स्थित माओवादी इलाके के रूप में जो इसकी खुद की पहचान अब तक रही थी , तेजी से विकसित हो रहे इस शहर ने उस पहचान को एक तरह से अब धूमिल किया है। अब यह शहर तेजी से मुख्यधारा की ओर बढ़ने लगा है।

हरी-भरी सुंदर पहाड़ियों की गोद में बसा यह शहर अपने शुद्ध पर्यावरण के लिए भी लोगों का पसंदीदा शहर बनता जा रहा है। यहां का सतिगुड़ा डैम और चित्रकुंडा डैम पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते हैं। अगस्त माह के बारिश के दिनों में जब हम यहां कुछ समय के लिए रुके थे तो घनी पहाड़ियों की वजह से जब चाहे बारिश हो जाया करती थी। शहर से पांच किलोमीटर दूर सतीगुड़ा डैम में टहलते हुए हमें लग रहा था कि हरी-भरी वादियों और अथाह जल सागर की गोद में हम आ बैठे हैं।यद्यपि डेम तक पहुंचने का रास्ता बारिश के कारण अस्त व्यस्त सा है पर वहां पहुंचने के बाद हरी भरी वादियों की खूबसूरती मन की इस शिकायत को दूर कर देती है।यहां का इको रेस्टोरेंट और छोटा सा गेस्ट हाउस भी अत्यंत मनोहारी है।

इस शहर का स्वागत रेस्टोरेंट और लॉज भी लाज़बाब है जहां हम सबने दोपहर का लंच लिया। लगभग 36 घण्टे बिताकर जब शनिवार 6 अगस्त को मलकानगिरी ओड़िशा से हम निकले तो रात के दस बज रहे थे।अमूमन रात में सड़क मार्ग की यात्रा मुझे पसंद नहीं पर हमें रायपुर सुबह तक पहुंचना जरूरी था इसलिए पसंद नापसंद की बातें उस वक्त स्थगित थीं ।सुकमा से न होकर तोंगपाल होते हुए जगदलपुर तक पहुंचने का रास्ता बीहड़ जंगलों के बीच से होकर गुजरता है इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था।बारिश का समय , उस पर जवान होती रात का एकदम घुप्प अंधेरा।ड्राइवर गुड्डू कह रहा था कि छत्तीसगढ़ कम जाना होता है। इस रास्ते के बारे में मुझे कोई ज्यादा जानकारी नहीं । मैं ज्यादातर मलकानगिरी से भुवनेश्वर की ओर जाता रहा हूँ।

पिछली सीट पर बैठे डॉक्टर नित्या उसे आश्वस्त कर रहे थे " चिंता की बात नहीं ! मैं हूँ न... मैं इस रास्ते पर आ चुका हूँ। बिल्कुल जीरो ट्रैफिक वाला रास्ता है यह।" मलकानगिरी से तोंगपाल तक लगभग 45 किलोमीटर के इस रास्ते में न कोई चार पहिया गाड़ी दिखी न कोई दुपहिया वाहन वाला आदमी दिखा।सचमुच जीरो ट्रैफिक वाला एकदम सुनसान रास्ता।

इन्हीं दृश्यों को लांघते हुए नित्या की डस्टर कार स्पीड के साथ सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। मैं आगे की सीट पर बैठे बैठे इस बात की चिंता में डूबा हुआ था कि ड्राइवर कहीं झपकी मारने न लग जाए ,पर गुड्डू यंग लड़का था और बार बार यह कहकर आश्वस्त कर रहा था कि उसे कार चलाते समय कभी नींद नहीं आती।वह मजे से ब्लू टूथ कनेक्ट कर कभी ओड़िया तो कभी हिंदी गाने सुन रहा था।बज रहे गानों के साथ उसका गुनगुनाना , उस वक्त सुनसान , डरावने और बीहड़ रास्तों की जड़ता को तोड़ने की उसकी एक कोशिश सी लग रही थी। कुछ किलोमीटर चल लेने के बाद अचानक उसे गुटका खाने की तलब होने लगी । इस सुनसान रास्ते पर कोई दुकान खुली हुई मिले इसकी कोई संभावना ही नहीं थी।रात में इंसानों की बात तो छोड़िए एक चिड़िया के फड़फड़ाने की आवाज़ भी जंगल में गुम थी।

गुड्डू कह रहा था कि ओड़िसा के इस ट्राइबल जोन में रात के 8 बजते ही लोग गहरी नींद में चले जाते हैं। फिर रात और घने डरावने जंगल आदमी की जगह ले लेते हैं। पीछे बैठी प्रतिमा को इस बात का भय सता रहा था कि सड़क पर अचानक दृश्यमान होकर माओ हमारी कार को कहीं रोक न दें। उनके मन में यह बात बैठी हुई थी कि यह घोर माओवादी इलाका है।

उनके मन के भीतर बैठे इस बात को और बल मिला था क्योंकि मलकानगिरी से बाहर निकलते निकलते शहर के बॉर्डर पर पुलिस वालों ने हमारी कार को रोककर फिर हमें आगे बढ़ने दिया था। नित्या को इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि डॉक्टरी पेशे में आकर वे इन इलाकों की संस्कृति के अभ्यस्त हो चुके हैं और ऐसे बीहड़ रास्तों पर आने जाने का उन्हें पर्याप्त अनुभव भी है। मैंने गुड्डू से कहा कि अब तो केशलूर ढाबा में ही तुम्हें गुटका पाउच मिल पाएगा।मेरी बातों से प्रतिमा को आश्चर्य हो रहा था कि आधी रात में इस माओ इलाके में कौन सा ढाबा खुला हुआ मिलेगा। इस रास्ते पर आने का उनका पहला अनुभव था इसलिए उनका संशय लाज़िमी भी था।

तोंगपाल तक आते आते रात में हमें सचमुच न कोई वाहन दिखा न कोई आदमी। वहां से निकलकर हम फिर उसी डरावने माहौल की जद में आने लगे थे। आधी रात के बाद दरभा और झीरम घाटी की डरावनी पहाड़ियाँ हमारा इंतजार कर रहीं थीं। सचमुच के भय से अधिक मन का भय हावी होने लगा था ।

इन जगहों से जुड़ी जानी-सुनी दुर्दांत घटनाएं यहां से गुजरते वक्त आंखों के सामने एक नया दृश्य रच रहीं थीं।इन घाटियों से गुजरते वक्त लग रहा था मानो घने जंगलों के बीच से निकल अचानक सड़क पर कुछ लोगों का झुंड आकर हमें रोक लेगा। यह जानते हुए भी कि ऐसा कुछ होना-जाना नहीं है, फिर भी इस सुनसान और डरावनी घाटियों से होकर आधी रात को गुजरना मेरे लिए एक अप्रिय अनुभव था। कई जगहें अपने इतिहास को पीठ पर लादकर साथ लिए चलती हैं । झीरम और दरभा घाटियां भी ऐसी ही जगहों में से हैं जो इतिहास में हमेशा के लिए काले रंगों से रंग दी गयी हैं।

रात गहरा चुकी थी। घड़ी की सुईयाँ 12 के कांटे को पारकर एक पर पहुंचने को थीं। आधी रात केशलूर ढाबा पहुंचने पर हमारी चाय की तलब पूरी हो सकी और ड्राइवर को नींद भगाने की दवा के रूप में गुटका का पाउच भी आसानी से मिल गया। चाय पीने के बाद हमें थोड़ी ताज़गी मिली।

मैं सोच रहा था.... कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ रात और दिन में फर्क नहीं होता। केशलूर ढाबा भी उन जगहों में से एक है। केशलूर ढाबा से निकल कर हम फिर उसी रौ में आ गए थे।

केशकाल की आठ से दस की संख्या वाली घुमावदार घाटियों में आती जाती नाईट बसों, कारों और ट्रकों ने माहौल को थोड़ा सहज किया था। प्रतिमा थोड़ा आश्चर्य होकर कह रही थीं कि रात में भी लोग अपनी कारों से इस रास्ते पर आना जाना कर रहे हैं । मैंने कहा कि वे लोग हम जैसे लोगों की तरह ही हैं जिन्हें न चाहकर भी रात में यात्रा करनी पड़ रही है।जीवन बिना यात्रा के चलता कहाँ है?वह जब भी कह दे हमें यात्रा पर निकल जाना पड़ता है। कहते कहते मुझे महसूस होने लगा कि नींद मुझ पर तारी होने लगी है।



मैं सामने की सीट पर बैठे बैठे नींद के विरूद्ध जूझने की कोशिश करता रहा। कांकेर के बाद माकड़ी ढाबा में उतरकर हमने दोबारा चाय पी । यहां लगभग रात के तीन बजे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां रात के 3 बजे भी कुछ लोग खाना खा रहे हैं।

पास के टेबल पर एक लड़की और दो लड़के जो कम से कम यात्री तो नहीं ही लग रहे थे बल्कि वहीं आसपास के थे, चटपटे चायनीज भोजन का लुफ्त उठाते हुए दिखे। उनके मध्य हो रहे हल्के-फुल्के आपसी संवादों से ऐसा लग रहा था कि वे भी इस जगह अपने अपने जीवन से दूर हो रहे शुकून को ढूंढने निकले हैं। माकड़ी ढाबा नाम की यह जगह भी रात और दिन के फर्क को दरकिनार करने वाली उन जगहों में से एक है जहां यात्री रुककर थोड़ा शुकून महसूस करते हैं। यहां का माहौल भी पारिवारिक होता है जो मन को हल्का करता है।

जगदलपुर, केशकाल,कांकेर,चारामा और धमतरी होते हुए जब करीब 5 बजे हम रायपुर पहुंचे तो रायपुर की खुशनुमा सुबह हमारा स्वागत करती हुई मिली। रात भर चली लगभग 450 किलोमीटर की लंबी यात्रा के पड़ाव पर पहुंचते पहुंचते बीहड़ रास्तों का कारवां अब छूट चुका था।ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मलकानगिरी से तोंगपाल के बीच के सुनसान बीहड़ रास्ते, झीरम और दरभा की घाटियाँ फिर से हमें बुला रही हैं। 


रमेश शर्मा 

अगस्त 2022

टिप्पणियाँ

  1. यात्रा संस्मरण बहुत रोमांचक भी है और शानदार भी।ओड़िसा की एक नई जगह मलकानगिरी और सुदूर बस्तर के कई क्षेत्रों को लेकर कई प्रकार की नई बातें पढ़ने को मिलीं।अनुग्रह ब्लॉग पाठकों के लिए बहुत अच्छी सामग्री ला रहा है। इसके संपादक को बहुत-बहुत बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

Blooming Buds स्कूल रायगढ़ का एनुअल कल्चरल मीट 2023-24 ने जाते दिसम्बर को यादगार बनाया

दिसम्बर रहा Blooming Buds School रायगढ़ के इन प्यारे प्यारे बच्चों के नाम "प्रेम के बिना ज्ञान टिकेगा नहीं। लेकिन प्यार अगर पहले आता है तो ज्ञान का आना निश्चित है।"  - जॉन बरोज़ स्कूल के आयोजनों में शरीक होना भला कौन पसंद न करे।आयोजन में छोटे बच्चों की कला प्रतिभा से रूबरू होना हो फिर तो क्या कहने। तो जाते साल के आखरी महीने दिसम्बर की एक बहुत खूबसूरत सी शाम मेरे हिस्से आयी, जब गुलाबी ठंड के बीच लोचन नगर स्थित Blooming Buds School Raigarh के एनुअल कल्चरल मीट में स्कूल प्रबंधन के सौजन्य से बतौर मुख्य अतिथि मुझे शामिल होने का अवसर मिला। 23 दिसम्बर शाम 5 से 6.30 के मध्य छोटे छोटे, प्यारे प्यारे बच्चों के पेरेंट्स की भरपूर उपस्थिति थी।उनमें भरपूर उत्साह था। एक हेल्दी और सकारात्मक वातावरण से पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति लिए हुए गुलज़ार हो उठा था। श्रीमती जागृति प्रभाकर मेडम , जो स्कूल संचालन में डायरेक्टर की भूमिका का निर्वहन करती हैं, उनके निर्देशन में विद्यालय के सम्मानित टीचर्स द्वारा बच्चों के माध्यम से जो प्रस्तुतियाँ करवायीं गईं,उन नृत्य कला की प्रस्तुतियों न...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

अख़्तर आज़ाद की कहानी लकड़बग्घा और तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन पर टिप्पणियाँ

जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आती होंगी कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। (हंस जुलाई 2023 अंक में अख्तर आजाद की कहानी लकड़बग्घा पढ़ने के बाद एक टिप्पणी) -------------------------------------- हंस जुलाई 2023 अंक में कहानी लकड़बग्घा पढ़कर एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। लॉकडाउन में मजदूरों के हजारों किलोमीटर की त्रासदपूर्ण यात्रा की कहानियां फिर से तरोताजा हो गईं। दास्तान ए कमेटी के सामने जितने भी दर्द भरी कहानियां हैं, पीड़ित लोगों द्वारा सुनाई जा रही हैं। उन्हीं दर्द भरी कहानियों में से एक कहानी यहां दृश्यमान होती है। मजदूर,उसकी गर्भवती पत्नी,पाँच साल और दो साल के दो बच्चे और उन सबकी एक हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। कहानी की बुनावट इन्हीं पात्रों के इर्दगिर्द है। शुरुआत की उनकी यात्रा तो कुछ ठीक-ठाक चलती है। दोनों पति पत्नी एक एक बच्चे को अपनी पीठ पर लादे चल पड़ते हैं पर धीरे-धीरे परिस्थितियां इतनी भयावह होती जाती हैं कि गर्भवती पत्नी के लिए बच्चे का बोझ उठाकर आगे चलना बहुत कठिन हो जाता है। मजदूर अगर बड़े बच्चे का बोझ उठा भी ले तो उसकी पत्नी छोटे बच्चे का बोझ उठाकर चलने में पूरी तरह असमर्थ हो च...

ज्ञान प्रकाश विवेक, तराना परवीन, महावीर राजी और आनंद हर्षुल की कहानियों पर टिप्पणियां

◆ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी "बातूनी लड़की" (कथादेश सितंबर 2023) उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।  ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी। लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है। अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है। लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर ...

पूजा कुमारी की कवितायेँ

  पूजा कुमारी नई पीढ़ी की प्रतिभाशाली कवयित्रियों में से एक हैं । उनकी कविताओं में स्त्री चेतना की अनुभूतियां इस तरह घुलमिलकर आती हैं कि मनुष्य जीवन के अनुभवों से उनकी तारतम्यता का एहसास सहज ही होने लगता है। एक स्त्री के भीतर उठती इन अनुभूतियों में विवेक और भावनाओं का सम्यक संतुलन पूजा की कविताओं को पुष्ट करता है। अपनी भावनाओं और विचारों के मिले जुले आवेगों के साथ एक लड़की को जिस तरह जीवन को देखना चाहिए , वह सम्यक दृष्टि पूजा के भीतर नैसर्गिक रूप में विद्यमान है और वही दृष्टि उनकी कविताओं के माध्यम से हम तक पहुंचती भी है । एक लड़की  का संघर्ष इन कविताओं में गुंजित होता हुआ भी हमें सुनाई देता है। कविताएं जीवन और समाज की बेहतरी को ध्यान में रखकर ही रची जाती हैं , उस बेहतरी में एक स्त्री की भूमिका का स्थापन किस तरह सुस्पष्ट हो, पूजा की ज्यादातर कविताएं इसी भूमिका के स्थापन की ओर आगे बढ़ती हैं। उनकी कविताओं में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था बहुत सहज तरीके से शामिल होती चली जाती है, जो एक तरह से किसी कवयित्री के लिए कविता धर्म का निर्वहन भी है।पूजा की कविताओं में सहजता भले दिखाई प...