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अब कोई मंटो क्यों पैदा नहीं होता ?

 


मंटो एक बड़े कथाकार हैं इसलिए उन पर जिक्र हो यह जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी बात यह है कि समाज और सत्ता तंत्र की बुराईयों के साथ लाभ-हानि की बिना कोई परवाह किये पूरी  निडरता के साथ दो-दो हाथ करने वाला एक कथाकार के लोक धर्मी आचरण के कारण मंटो का जिक्र जरूरी जान पड़ता है |

 


मंटो पर जिक्र करने के पहले उद्भावना में प्रकाशित मुहम्मद हसन अस्करी के आलेख का यह  अंश  यहाँ मैं उधृत करना चाहूँगा जिसमें वे लिखते हैं --

"जिस दिन मंटो मरा था उस दिन भी मैंने यही कहा था कि मंटो जैसे आदमी की जिंदगी या मौत के बारे में भावुक होने की जरूरत नहीं। हमें तो उसकी जिंदगी और मौत दोनों के अर्थ सुनिश्चित करने चाहिए। मंटो तो उन लोगों में से था जो सिर्फ एक व्यक्ति या एक रचनाकार से कुछ ज्यादा होते हैं। हमारे लिए यह सवाल ज्यादा अहम हो गया है कि उर्दू अदब में या कम से कम पिछले 20 साल के उर्दू अदब में मंटो की जगह क्या है? बाज लोगों के ख्याल में मंटो उर्दू का सबसे बड़ा कहानीकार है । बाज लोग कहते हैं कि मंटो चाहे वो मोपासां वगैरा की पंक्ति में ना आ सके लेकिन यूरोप के अच्छे खासे कथाकारों से उसका मुकाबला किया जा सकता है। मैं इन दोनों बातों से सहमत हूं बल्कि मैं तो यह कहता हूं कि मंटो अगर मोपासां वगैरह के बराबर नहीं पहुंच सका तो इसमें कुसूर खुद मंटो का ना था जितना उस साहित्यिक परंपरा का जिसमें वह पैदा हुआ। जिस बात में मंटो मोपासां से पीछे रह जाता है वह मोपासां का गद्य है और मंटो को जिस किस्म के गद्य की दरकार थी वह फ्रांस में और कुछ नहीं तो 200 साल से विकसित हो रहा था। मोपासां के पीछे रोश फूको था, वालेयर था,असतांदाल था, फ्लाबेयर था।मंटो के पीछे कौन था? मेरी बात का यह मतलब न समझिए जो उर्दू के एम ए समझेंगे। मैं यह नहीं कहता कि उर्दू गद्य बिल्कुल फिजूल है उसमें भी बहुत सी कमियां हैं लेकिन मंटो को जिन चीजों की जरूरत थी वह उर्दू गद्य की परंपरा में मौजूद नहीं थी । मंटो को पानी पीने के लिए अपने आप कुआँ खोदना पड़ा। अंतर्वस्तु और रूप दोनों में मंटो की हैसियत एक अग्रगामी की थी इसलिए मंटो के विषय में कोई अंतिम निर्णय लेने से पहले हमें यह देखना पड़ेगा कि उससे पहले उर्दू में क्या था?उसके बाद समकालीन रचनाकार क्या कर रहे थे? मंटो क्या कर सका और क्या नहीं कर सका ? यह बातें देखे बगैर हम मंटो को अच्छा या बुरा तो कह लेंगे मगर उर्दू अदब में मंटो की हैसियत हमारी समझ में ना आएगी । मंटो ने जो कुआं खोदा था वह टेढ़ा मेढ़ा सही और उसमें जो पानी निकला वह गंदला या खारा सही मगर दो बातें ऐसी हैं जिन से इंकार नहीं किया जा सकता। एक तो यह कि मंटो ने कुआं खोदा जरूर दूसरे यह कि उसमें से पानी निकला। अब जरा गिनिए तो सही कि उर्दू के कितने अदीबों के मुताल्लिक यह दोनों बातें कही जा सकती हैं ?"

 

आलेख के इस अंश में मंटो को लेकर जितनी बातें कही गयी हैं , ये बातें उनके जीवन के कुछेक  सन्दर्भों को पूरी तरह आख्यायित करती हैं पर  मंटो जैसे कथाकार के  जीवन की  लिखी कहानियों की  व्यापकता  इससे भी  कहीं अधिक है | मंटो की कहानियों पर जितनी भी बातें हों, वह हमेशा कम ही क्यों  लगती हैं ? यह सवाल अक्सर मेरे मन में उठता है |

क्या इसलिए कि मंटो ने अपने समय से बहुत आगे जाकर अपनी कहानियों को रचा ? क्या इसलिए कि मंटो ने समाज के भीतर दफ्न बुराईयों को उघाड़ने के लिए श्लील-अश्लील होने की कभी परवाह नहीं की? क्या इसलिए कि साम्प्रदायिक शक्तियों से जूझने की शक्ति मंटों के भीतर बैठे कथाकार के भीतर नैसर्गिक रूप से नाभिनाल बद्ध रही ? क्या इसलिए कि मंटो ने सत्ता या समाज से कुछ पाने या कुछ खोने की परवाह कभी नहीं की? क्या इसलिए कि औरत को ज़िंदा गोश्त भर समझने वाले इस समाज को उसके इस नजरिये पर मंटो के भीतर बैठे कथाकार ने ठेंगे पर रखकर उसे आइना दिखाया ?

हाँ ये सभी बातें मंटो को मंटो की तरह समझने के लिए विमर्श की मांग करती हैं | मंटो का समय दृश्य से  कभी नहीं गया , मंटो का समय दृश्य से  कभी नहीं जाता , वह तो हमेशा उपस्थित रहकर हमारी छाती पर मूंग दलता रहता है | आज के इस समय को ही देख लीजिए , चारों तरफ किस तरह आसुरी शक्तियाँ हाहाकार मचा रही हैं | समाज और सत्ता तंत्र का चेहरा पहले से भी  कितना विद्रूप हो उठा है | ऐसे में मंटो बहुत याद आते हैं | मन में जिज्ञासा होती है कि वे होते तो अभी क्या लिखते ? वे अभी वह लिख जाते जो उनके न  होने के कारण हम पढने से वंचित हो रहे हैं | उनके लिखे का कोई विकल्प हमें दूर दूर तक अभी नहीं नजर नहीं आता | न मंटो जैसा साहसी और त्याग से ओतप्रोत कोई  लेखक हमारे बीच जन्म ले रहा , न उस तरह की दृष्टि अब किसी के भीतर जन्म ले पा रही | देखा जाए तो इसका एक कारण यह भी है कि बाज़ार  सत्ता और तंत्र की छाया के  ग्रहण ने लेखकों को निगल लिया | मंटो अपने आप में मुकम्मल थे | कथा जगत में मंटों की कोई जगह ले ले ऎसी संभावना फिलहाल कहीं  नजर नहीं आती |

 

रमेश शर्मा    

 

 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. मुखौटा मंटो का आभूषण कभी नहीं रहा। इसलिए मंटो के जीवन और साहित्य में कोई दोहरापन, किसी तरह की फाँक, चालाकी और धूर्तता की कोई वर्णमाला या उसको शासित करने वाले व्याकरण आपको नहीं मिलेंगे। बाज़दफ़ा नहीं हरदफ़ा जो कुछ भी है बेबाक और बेलौस। मंटो की मंटोईयत यही है।

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    1. जी बिल्कुल। आपने मंटो को लेकर वाजिब बातें कहीं हैं।

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