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'भूरी आँखें घुंघराले बाल' अनुपमा तिवाड़ी के कहानी संग्रह की समीक्षा

जिन्दगी की ठोस सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज◆

कहानियों को पढ़ते हुए पाठकों को अपनी बाहरी और भीतरी दुनियां से साक्षात्कार होने जैसा कुछ न कुछ अनुभव होना चाहिए अर्थात कहानी को पढने के पूर्व और पढने के उपरान्त मानसिक अनुभवों का जो अंतर है, उस अन्तर का इन दोनों ही दुनियाओं से ठहरकर सीधा संवाद होना चाहिए |अनुपमा तिवाड़ी की कहानियों को पढ़ने के उपरान्त उपरोक्त वर्णित इस शर्त की कसौटी पर उन्हें कसे जाने की अगर बात हो, तो मेरा खुद का अपना  अनुभव यह कहता है कि उनके संग्रह 'भूरी आँखें घुंघराले बाल' की ज्यादातर कहानियाँ हमारी भीतरी और बाहरी दुनियाओं से  भरपूर संवाद करती हैं | इन कहानियों को पढ़कर हम यूं ही आगे नहीं बढ़ जाते बल्कि एक लम्बे समय तक इन कहानियों के भीतर रंगे-घुले जिन्दगी के असल पात्रों के दुःख दर्द और उनके संघर्ष को हम करीब से महसूस करते हैं | ये कहानियाँ कहीं से भी कहानी न लगते हुए जिन्दगी की ठोस सच्चाइयों का एक जीवंत दस्तावेज लगती हैं जिसे लेखिका ने सामाजिक जिम्मेदारियों से भरे अपने यायावरी जीवन के बीच से खोज निकाला है | 

बहुत करीब से देखी परखी गयीं सामाजिक घटनाओं को लेकर जब संवेदना की आँख से कहानियाँ लिखी जाती हैं तब उन कहानियों में जीवन के दर्दनाक पहलुओं की स्वाभाविकता बची रह जाती है| यही स्वाभाविकता कहानी और पाठकों के मध्य एक सेतु की तरह है जहां से होकर ही कहानी और पाठक एक दूसरे के करीब पहुँच पाते हैं |कहानी के कथ्य की स्वाभाविकता जीवन की ठोस सच्चाइयों के करीब पहुंचकर ही अपनी अर्थवत्ता ग्रहण कर पाती है | अनुपमा की कहानियों को पढ़ते हुए कथ्य की उसी स्वाभाविकता को हम बराबर महसूस करते हैं|  कथ्य की स्वाभाविकता को महसूसने के साथ कहानी में प्रयुक्त सरलरेखीय भाषा शिल्प जैसे आज के गैर जरुरी मुद्दे दिलोदिमाग से दूर जाने लगते हैं | अनुपमा ने घटनाओं की एकरेखीय प्रस्तुति और  सरलरेखीय भाषा शिल्प का प्रयोग करते हुए भी कथ्य की गहराई के सहारे कहानियों को जिस तरह पठनीय बनाया है , यह पठनीयता ही कहानियों के साथ बची रह जाने वाली असल पूंजी है जिसे आज के समय में एक तरह से जान बूझ कर नजर अंदाज करने की कोशिशें हुई हैं |  कहानी "एक थी कविता" स्त्री जीवन से जुड़ी ऎसी कहानी है जिसे पढ़कर समाज और परिवारों के दमन की हौलनाक तस्वीरें एक ठोस सच्चाई के साथ आँखों के सामने चलचित्र की तरह आने लगती हैं | एक दमित स्त्री जिसे हर हाल में संघर्ष करना है, कभी अपने अस्तित्व के लिए तो कभी  पारिवारिक अत्याचारों के खिलाफ ! कहानी में इस स्त्री  संघर्ष को एक ब्यापक स्पेस मिला है | कहानी  की मुख्य पात्र  'कविता' जिस तरह  अपनी मुक्ति के लिए परिवार और समाज की सभी वर्जनाओं को तोड़कर बाहर निकलती है और तमाम कठिनाईयों के बाद भी अपने लिए एक स्वतन्त्र जीवन जीने का विकल्प चुनती है,ऐसे निर्णय बहुत मुश्किल प्रतीत होते हुए भी उसे चुने जाने की मांग कहानी के भीतर से उठती है जो आज के सन्दर्भ में सही भी है |अनुपमा ने जिन पात्रों को लेकर जीवन की कहानियाँ बुनी हैं वे पात्र समाज के ठुकराए हुए वंचित और दमित पात्र हैं | वंचित और दमित पात्र होते हुए अगर वह पात्र एक स्त्री हो तब उसकी कहानी दमन के कई रंगों को लिए हुए होती है | ऎसी कहानियों को खोजती हुईं अनुपमा की नजरें उन जगहों तक भी गयी हैं जिन्हें कई बार पितृ सत्ता में डूबा हुआ समाज जान बूझकर नजर अंदाज करने का आदी होता है | एक लड़की को उसकी  देह से परे देखने की दृष्टि जब समाज के पास न हो, उसे केवल एक स्त्री के रूप में ही देखे जाने की आदत सी पड़ गयी हो  तो आखिर ऐसे समाज की नजर में घर से निकली अकेली लड़की की क्या स्थिति होती है? ऐसे ही ज्वलंत हालातों की पड़ताल   "ओ लड़की तू कहाँ है" कहानी के माध्यम से अनुपमा ने की है |रेल में सफ़र कर रही एक सर्वहारा वर्ग की दमित लड़की जो रेल के दरवाजे के पास बैठी है , उसे हरेक पुरूष द्वारा यौनिक दृष्टि से देखा जाना और उसी यौनिक दृष्टि से उनकी ओर से उसे छूने की कोशिशों का घटित होना  आज हमारी आँखों के सामने आम घटना है जिसे हमारा समाज बड़ी आसानी से स्वीकार भी चुका है |ऎसी घटनाएँ अब लोगों का ध्यान नहीं खींचती, बल्कि लोग अब उसे सहज मान चुके हैं | समाज की इसी सहज स्वीकार्यता पर यह कहानी प्रहार करती हुई जायज सवाल खड़ा करती है |

एक सशक्त स्त्री कई बार कमजोर कही जाने वाली स्त्री का भी दमन कर बैठती है | फैसला कहानी में एक स्त्री द्वारा ही जब एक अन्य स्त्री सुकन्या को यह कहकर उपेक्षित किया जाता है कि गाँव की लडकियां बहुत झूठ बोलती हैं तब यह प्रसंग पाठकों के मन को कचोटने लगता है | अनुपमा की कहानियों में दमन के विविध रंगों को सामने रखने की कोशिश जिस तरह हुई है , वह उनके अनुभव संसार की प्रामाणिकता को हमारे सामने रखती है |संग्रह की कुछ कहानियाँ स्त्री मुक्ति के अनछुए  रास्तों को भी टटोलने की कोशिश करती हैं | स्त्री जीवन में पसरे हुए लोभ लालच और कपट पूर्ण व्यवहार भी स्त्री मुक्ति के मार्ग में बाधक होते हैं | "गुट्टन चाची" कहानी की पात्र गुट्टन चाची ऎसी ही महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिनके अस्वीकार्य और असामान्य व्यवहारों से परिवार कई बार विघटन की राह पर आ जाते हैं | अनुपमा ने ऎसी कहानियों के माध्यम से एक स्त्री को सचेत एवं जागरूक करने का प्रयास किया है | आचरण की  सकारात्मकता किसी भी मनुष्य को समाज में स्वीकार्यता की ओर ले जाती है चाहे वह कोई  स्त्री ही क्यों न हो| स्त्री की  स्वीकार्यता ही तो उसकी मुक्ति का एक साधन है जिसे अनुपमा भली भांति समझती हैं और उसे इस कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं |

सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के  साथ साथ  शैक्षिक गतिविधियों के निर्वहन में संलग्नता ,कई बार किसी कथाकार को कुछ अधिक सचेत कर जाती है | अनुपमा भी उन्हीं कथाकारों में से हैं जिनकी सचेतनता उनके द्वारा चुने हुए पात्रों के दुःख दर्द के  माध्यम से सामने आती है |'टपोरी' कहानी का 'मुन्ना' , 'तारे' कहानी का 'फ़तेह सिंह' सहित 'एक मई' कहानी का 'फन्नी' , ये सभी ऐसे पात्र हैं जो हमारे आसपास सघन रूप में मौजूद हैं जिन्हें अपने जीवन संघर्ष में समाज ने बिलकुल अकेला छोड़ दिया है  | ये सभी पात्र अपने अकेलेपन में जीने को अभिशप्त हैं जिन्हें लोगों का साथ चाहिए पर यह साथ कहीं से भी उन्हें मिलता हुआ नहीं दिखता | जीतना उनके नसीब में कहीं नहीं लिखा , वे बस जीने के लिए ही जूझ रहे हैं | तारे कहानी का पात्र फ़तेह सिंह जब यह कहता है कि भीड़भाड़ वाले शहरों में भाग्य की चाबी एक बार खो जाती है तो बड़ी मुश्किल से मिलती है , तो उसका एकान्तिक संघर्ष ध्वनित होता है जिसे कोई संवेदनशील मनुष्य ही सुन सकता है | ऎसी कहानियाँ  लोक के प्रति समाप्त हो चुकी संवेदना को पुनः पुनः दोबारा अपने साथ लौटाकर लाती हैं | संवेदना का पुनर स्थापन भी कहानी का एक उद्देश्य है , इस नजरिये से अगर  देखा जाए तो ये कहानियाँ प्रेमचंद युगीन कहानियों की याद ताजा करने लगती हैं |

ऐसे अकेले और वंचित लोग जिनके भाग्य की चाबी कहीं खो गयी है, उसे खोजने में हमारी भी सामूहिक भूमिका तय हो , हम उनकी कुछ  सहायता कर सकें , इस तरह का भाव लिए इन कहानियों का कथ्य अपनी लोक उपयोगिता साबित करने में सफल दिखती है |

इस संग्रह में कुल तेरह कहानियाँ हैं | शीर्षक कहानी 'भूरी आँखें घुंघराले बाल' भी स्त्री जीवन के उतार चढ़ाव पर बुनी गयी कहानी है | इस कहानी में भी स्त्री जीवन की विभीषिकाएँ उसी रूप में मौजूद हैं जिसे कई बार हम अपने आसपास घटित होता हुआ देखते तो हैं पर देखकर भी उसे एक स्त्री की नियति मानकर चुप्पी साध लेते हैं |

अपनी कहानियों में अनुपमा समाज की ओर से बरती जाने वाली हर उस चुप्पी पर बैचैन नजर आती हैं जो स्त्री को एकान्तिक कर  हाशिये की ओर धकेलने के लिए जिम्मेदार है |

एक पुरूष के प्रेम में पड़ी और उसके द्वारा छली गयी स्त्री का दुःख असहनीय होता है |उसे महसूसने के लिए एक नाजुक सा दिल , नाजुक सा  मन चाहिए पर वह अब शायद ज्यादातर लोगों के पास नहीं |अपनों के पास भी नहीं |  उसके दुःख को महसूसने के बजाय उससे पिंड छुडाने के लिए जब उसका परिवार ही किसी बूढ़े से उसकी शादी करा दे तो उसका दुःख कई गुना बढ़ जाता है |जब वर्षों बाद किसी बच्चे में जिसकी आँखें भूरी हैं और जिसके बाल घुंघराले हैं , वह अपने उसी प्रेमी की प्रतिछवि को महसूस करती है तो पुरूष का वही छल उसके सीने को छलनी कर जाता है | स्त्री पीड़ा का यह चरम उत्कर्ष है जिसे संवेदना की आँख से ही देखा समझा जा सकता है |

'सफेदपोश' , 'किरायेदार' , 'बड़े सरकार' इत्यादि भी अनुपमा के अनुभव संसार से उपजीं कहानियाँ हैं जहां स्त्री दमन अपनी स्वाभाविकता में मौजूद है |दमन की यह स्वाभाविकता संवेदनशील पाठकों को दमन के बिरूद्ध  उद्वेलित होने को प्रोवोक भी कर सकती है, यही इन कहानियों का निकष भी है जिसे ध्यान में रखकर इन्हें एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए | अपने पहले संग्रह के साथ, अनुपमा अपने पाठकों में कथा लेखन का प्रभाव छोड़ पाने में सफल होती लगती हैं,उन्हें बधाई!

कहानी संग्रह : भूरी आँखें घुंघराले बाल, कथा लेखिका :अनुपमा तिवाड़ी ,प्रकाशक :शिवना प्रकाशन, बस स्टेंड,सीहोर (मध्यप्रदेश)मूल्य :150 रूपये

रमेश शर्मा 

92,श्रीकुंज,बोईरदादर,रायगढ़(छत्तीसगढ़)मो.9752685148, 7722975017     

  

टिप्पणियाँ

  1. यह समीक्षा हंस पत्रिका के जून 2021 अंक में प्रकाशित हुई थी। एक कहानी की किताब पर इतनी सुंदर समीक्षा पढ़ने को मिली, बहुत अच्छा लगा।

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