20 अगस्त को जन्मीं अंजना सरोज छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर में रहती हैं और गांव के सरकारी विद्यालय में छोटे बच्चों को पढ़ाती हैं।जीव शास्त्र में स्नातक उपाधि उपरांत अंजना ने हिन्दी, इतिहास और समाजशास्त्र जैसे मानवीय विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि लेकर अपने को समाज विमर्श की मुख्य धारा से जोड़ते हुए अब तक सक्रिय रखा है। वे कविताएं भी लिखती हैं और समाज के वैचारिक प्रवाह में संलग्न होकर समय समय पर फेसबुक जैसे विभिन्न संचार माध्यमों से स्वतंत्र टिप्पणियाँ भी करती रहती हैं।
कविता के क्षेत्र में उनका पदार्पण यूं तो नया ही है पर उनकी कविताओं में शाब्दिक सहजता और उस सहजता से उपजी तीक्ष्णता ध्यान खींचतीं है। इन कविताओं के भीतर का जो कथ्य है उस कथ्य में जन प्रतिबध्दता के साथ लोकजीवन के लिए ब्यापक स्पेस है। गांव के छोटे-छोटे बच्चों के बीच रहकर उनका जो जीवन अनुभव है, वह अनुभव उनकी कविताओं के भीतर बिना किसी लाग लपेट के सहजता के साथ इस तरह समाविष्ट है कि वह कहीं से आयातित नहीं लगता। बहरहाल अंजना की ये प्रारंभिक दौर की कविताएं हैं , आगे उनसे और भी अच्छी कविताओं की उम्मीद हम करते हैं । उनकी कविताओं को पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवगत कराएं।
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०१मई मजदूर दिवस पर कुछ कविताएं
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०१
धरती पर...
जहाँ भी लाल फूल खिले हैं...
मेरे लहू हैं...!
०२
मेरी बनाई सड़कों पर
ऊग आये हैं
मेरे हाथों और पैरों के छाले...
इसके मोड़ों पर
धँस गयी है
मेरी भूख और प्यास...
वहीं
आधे रास्ते...
जब उखड़ने लगी साँस ...
तब भी अपनी गठरी में बचाकर रखी थी
उम्मीद...
कि तुम आकर बचा लोगे
अपनी मिट्टी तक पहुंच पाने की
हमारी आस...!!
०३
'क' से पढ़ा कबूतर
'म' से मछली
'भ' से भालू
नहीं पढ़ा
'क' से किसान
'म' से मजदूर
'भ' से भूख
जो गढ़ सके इंसान
ऐसी वर्णमाला ही नहीं बनी ?
०४
मेरे बच्चे ...
अपनी किताबों में ढूंढते हैं...
कविता...
तीर की
कमान की
आरी की
कुल्हाड़ी की...
सरई की
कटहल की
कटते जंगलों की...
छिनते खेतों की...
मरती नदियों की
बंजर होती जमीनों की
भूख की...
आग की...
पसीने की ...
राख की... !
उन्हें
ऐसी कोई कविता मिलती ही नहीं...
फिर ...
वे अपने हाथों में हल और कुदाली लेकर गढ़ने लगते हैं धरती...!
रचते हैं श्रम की कविता...!
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तेरी यादें
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टूटना...
बिखरना...
मिल जाना...
हवाओँ में...
रंगों की मानिंद...
तेरी यादें भी ना...
गुलमोहर सी होती है...!!!
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हिस्सा
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अनाज...
तुम्हारे हिस्से...
और फांके...
इन्हें उगाने वालों के हिस्से !
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माथे पर चांद कैसा?
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वो चाँद...
जो आसमान से उतरकर
तुम्हारे माथे पर ऊग आया था
अब नजर नहीं आता
जब थाली में रोटी नहीं
आँसू हो
तो माथे पर चाँद कैसा ?
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क्या करूं इसका?
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ये जो दर्द का...
लावा सा बहता है...
क्या करूँ इसका ?
बुहार कर फेंक दूँ ?
खूंटी में टांग दूँ ?
या चूल्हे में जलाकर
दो रोटी ही पका लूँ...?
क्या करूं इसका?
◆
अंजना सरोज जी की संवेदनाएं सूक्ष्म किंतु कविता की खिड़की से देखें तो हमें एक विस्तृत आकाश दिखाई देता है। वे संभावनाओं की कवयित्री हैं, जिनकी कविताओं में ताजगी है।
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