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'वह उस्मान को जानता है' रमेश शर्मा की चर्चित कहानी

 

 

आज रविवार का दिन था और जनवरी का महीना | आँगन में खड़ा अमरूद का पेड़ इनदिनों अमरूदों से लदा हुआ था जिस पर सुबह से चिड़ियाँ आकर शोर मचा रही थीं | चिड़ियों का शोर उसे अच्छा लगता था | वे कुतर-कुतर कर अमरूद से अपना हिस्सा अलग कर पेट भर लेतीं और बचे हिस्से को आँगन में टपका कर उड़ जातीं | कुतरे हुए टपके अमरूदों को देखकर उसका बेटा कहता "वो देखो पापा चिड़ियों का पेट कितना छोटा होता है | उनका आहार कितना कम है |" कुतरे हुए हिस्सों को देखकर ही वह उनके आहार का अंदाजा लगाता | उसकी बातें उसे अच्छी लगतीं | कभी कभी वह उससे जान बूझ कर पूछ बैठता " इंसान के आहार के बारे में पता करना हो तो कैसे पता करेंगे ?" वह कुछ देर सोचता फिर तपाक से कह उठता - " इंसान के आहार के बारे में इंसान भला खुद कैसे बता सकता है? उसे तो धरती के दूसरे प्राणी ही ठीक-ठीक बता पाएंगे | जैसे आप हमारी अनिच्छा के बिरूद्ध एक बार पेड़ का पूरा अमरूद तोड़वाकर बाजार में बेचवा दिए थे तो उस वक्त चिड़ियाँ सोची होंगी कि इंसान को कुछ भी नहीं पूरता | उस वक्त उसकी बातें सुनकर वह शर्मिन्दगी से भर उठा था | उसे लगा था कि अलग-अलग समय में अलग-अलग आदमी इस तरह की हरकतों को हर घड़ी अंजाम देते होंगे और धरती के प्राणियों को लगता होगा कि इंसान हर वक्त कैसे भूखा ही रहता है | उसे कुछ भी नहीं पूरता | आज बेटा भी सुबह-सुबह उसके साथ जाग गया था  और उसने जिद की कि पापा आज घूमाने ले चलो न ! अमूमन वह जिद करता नहीं था इस बात को राघव हमेशा महसूस करता  आया  है | उसे लगा अगर वह कह रहा है तो उसे उसकी बात मान लेनी चाहिए | आज मौसम भी बड़ा साफ़ और खुशगवार था | बहुत दिनों बाद उसे छुट्टी भी मिली थी , तो वह खुश था, वरना नौकरी की ब्यस्तता इतनी थी कि कहाँ क्या हो रहा  है उसे इस बात की खबर ही नहीं रहती थी|




अचानक दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी | वह अपनी पत्नी की ओर प्रश्न भरी निगाह से कुछ देर देखता रहा| देखा देखी और उहापोह के बीच राघव दरवाजे की ओर जा ही रहा था कि पत्नी ने आवाज दी-  "रुकिए मैं आ रही हूँ !"

"क्यों भला ?" उसे थोड़ा अचरज हुआ | वह उसकी ओर अचरज भरी निगाह से फिर देखने लगा |

इस दरमियान दो मिनट देखा-देखी में ही गुजर गए | दरवाजा न खुलता देख दस्तक की जगह अब दरवाजे पर एक जनानी आवाज उभर आयी  - "मैं 93 नंबर वाली पड़ोस की मेहजबीन बोल रही हूँ ! वह फिर से पत्नी की ओर देखने लगा | 93 नंबर वाली पड़ोस की मेहजबीन को न जान पाने की हैरानी राघव के चेहरे पर साफ़ नजर आ रही थी | उसने पत्नी की ओर इशारा किया कि वह जल्दी जाकर उनसे रुबरू हो ले |

"सुबह-सुबह भला क्या बात हो गयी  !" कीचन से बाहर निकलते हुए पत्नी के चेहरे पर थोड़ी हैरानी उभर आयी |

नयी नौकरी और नया मोहल्ला | इस नए मोहल्ले में आस-पड़ोस और आस-पड़ोस के रिश्तों के मनोविज्ञान को जानने से वह उसी दिन विलग हो गया जिस दिन से वह यहाँ रहकर नयी नौकरी पर जाने लगा था | मोहल्ले की समिति की बैठकों में भी कभी वह जा नहीं पाता था | धीरे-धीरे आस-पड़ोस से वह विदा होता चला गया | जो कुछ होता उस दुनियाँ दारी को पत्नी संभालती | जब जरूरत समझती तो राघव से कभी चर्चा कर लेती | पत्नी समझ रही थी कि नौकरी के नाम पर राघव कम्पनी के लिए सिर्फ एक मुनाफे का प्रतिनिधि भर रह गया है | केवल मुनाफ़ा पहुँचाओ और बदले में तनख्वाह लेते रहो | पुरानी नौकरी को भी वह इसी संजीदगी से पहले करता रहा था, पर एक दिन अचानक जब उसे नौकरी से निकाले जाने का आदेश हुआ और उस आदेश में जो कारण बताए गए , उन कारणों ने उसे सकते में डाल दिया था | उसे समझ में न आया कि उसके कामों से जब कभी कोई नुकसान कम्पनी को न हुआ फिर ये सब कैसे हो गया ?

"आप अपने समय का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर बिताते हैं | आप सरकार के बिरूद्ध टिप्पणियाँ करते रहते हैं | कम्पनी के काम के बजाय आपकी रूचि दीगर बातों में अधिक है |" -ये ऐसे कारण थे जिसके अर्थ राघव को बड़ी देर से समझ में तब आए जब वह नयी नौकरी पर आ गया | मुनाफे का सम्बन्ध सरकार को खुश रखने से भी है, और कम्पनी का कोई कर्मचारी जब सरकार के बिरूद्ध टिप्पणी करने लगे तो सरकार की ओर से कम्पनी को नुकसान उठाना पड़ सकता है | पता नहीं कब कौन सी कोयले की खदान सरकार छीन ले और दूसरे को बाँट दे | सरकार की कौन सी एजेंसी कब कम्पनी पर छापा डाल दे |और इस समझ के साथ फिर धीरे धीरे राघव ने अपने को बाहरी दुनियां की गतिविधियों से एकदम विलग कर लिया |  

राघव को  इस बात का गहरा एहसास था कि जिस दिन कम्पनी घाटे में आयी उसकी नौकरी पर खतरे के बादल फिर मंडराने लगेंगे | यह एहसास दिनोंदिन उसके भीतर एक गुब्बारे की तरह फूल रहा था कि किसी दिन कोई सुई चुभी कि यह गुब्बारा धड़ाम से फट पड़ेगा  | यह गुब्बारा कभी फूटे न, महज इसी फ़िक्र ने कभी उसे आस-पड़ोस का होने न दिया | ये 93 नम्बर वाली मेहजबीन कौन होगी भला ? क्योंकि उसने कभी देखा भी नहीं था उन्हें | उनकी आवाज भी उसे अनजानी सी लगी | इसलिए इस सवाल ने आज उसे ठहरकर सोचने को मजबूर कर दिया था | यह सवाल उसके जेहन में इस वक्त तैरने लगा, जिसका जिक्र वह पत्नी से करने से बच रहा था |  

वह किस किस को आखिर यहाँ जानता है ? उसके मन में यह सवाल भी अचानक चलने लगा | इसी बीच बच्चे की जिद थोड़ी और बढ़ गयी कि आज तो पापा के साथ घूमने जाना ही है, इसके बावजूद यह सवाल उसके भीतर मरा नहीं ..एक ज़िंदा सवाल जो पड़ोस की मेहजबीन को न जानने के प्रसंग से अचानक उसका पीछा करने लगा  |

"वह अपने पड़ोसी तक को क्यों नहीं जानता ?" इस तरह के सवाल यूं तो कामकाजी आदमी के भीतर आजकल जन्मते नहीं पर किसी दिन कोई सवाल आ ही गया तो मन में फिर कई बातें आने-जाने भी लगती हैं | इस सवाल ने उसे थोड़ा-थोड़ा मनुष्य होने का आभास इस तरह करा दिया कि अचानक उसे याद आया कि उसके बच्चे के जन्म दिन पर उसने गमले में ऑफिस से लाकर एक गुलाब का पौधा भी रोपा था | पत्नी दरवाजे की ओर मुड़ी और गुलाब के पौधे की याद आते ही वह दौड़कर छत पर चढ़ गया | छत पर चढ़ते ही उसे लगा कि छत पर चढ़े भी तो उसे महीनों हो गए | छत से आसपड़ोस और शहर का कुछ हिस्सा उसे बड़ा मनमोहक लग रहा था | देखते देखते उसकी नजर कुछ दूर पर एक मकान के ऊपरी हिस्से में चली गयी | उसे अचानक याद आया कि यह तो उस्मान का मकान है | जिस सवाल से वह जूझ रहा था उसका एक उत्तर यह भी उसे मिला कि हाँ वह तो उस्मान को जानता है | उस्मान को जानने की बात पर उसे भीतर से बड़ी खुशी मिली | पर उसके मकान को यह क्या हुआ ? एकदम ठूँठ की तरह दिख रहा है | वह थोड़ा परेशान हुआ | वह याद करने लगा कि कितने दिनों पहले घर की इस छत पर वह आया था? और उस्मान से वह कब मिला था ? दिमाग पर जोर चलता रहा और उसकी नजर गुलाब के उस पौधे पर पड़ी जिसे ऑफिस से गनीराम ने गीली मिटटी और प्लास्टिक की पन्नी के साथ बड़े जतन से सम्भाल कर उसे दिया था | चीजों को याद करने के लिए इसी बीच वह याद करने लगा कि गनीराम की मौत कब हुई थी |हाँ उसे याद आया ... लगभग चार माह पहले | अगस्त के महीने में | उस दिन भारी तेज बारिश हो रही थी |गनी राम अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने जा रहा था और वे तेज बारिश में फंसकर एक जगह रुक गए थे | स्कूल शहर से थोड़ी दूर पर था| जिस जगह वे बारिश से बचने ओट पाने को रूकने की सोच रहे थे, वह एकदम सुनसान जगह थी | उस दिन खूब बिजली कड़क रही थी | तीन युवक वहां बारिश से बचने पहले से ही खड़े थे| उनका हुलिया थोड़ा अजीब लग रहा था | बात बात पर उनकी जुबान फिसल रही थी | उन तीनों ने उन्हें जिस नजर से देखा गनी राम को समझ में न आया कि वे वहां रुकें कि न रूकें | बारिश चूंकि तेज हो गयी थी इसलिए उन्हें वहां रूकना पड़ा |

पूरा वाकया जिसे कितनी आसानी से वह भूल चुका था इस गुलाब के पौधे को देखने मात्र से उसे याद आने लगा था | उसे सब कुछ याद आ गया था | उस्मान ने ही उस घटना की रिपोर्टिंग की थी | गनीराम के सम्बन्ध में कुछ जानकारी जुटाने कई बार इस सिलसिले में वह उनके ऑफिस आया था और वहीं उस्मान से उसकी मुलाक़ात हुई थी | बात बात में उससे उसे यह भी जानकारी मिली थी कि वह उसी के मोहल्ले में रहता है| और आते जाते उसने उस्मान के घर को पहचान भी लिया था | गनी राम की सत्रह साल की बेटी के साथ उस दिन बर्बर तरीके से जो रेप हुआ और गनी राम की जिस तरह हत्या हुई वह घटना यद्यपि उनके ऑफिस में चर्चा का बिषय कई दिनों तक बनी रही पर धीरे धीरे यह घटना भी गनी राम के जाने के बाद और वहां के काम के बोझ तले जमींदोज हो गयी| वह ऑफिस के काम के घोड़े पर इस तरह सवार हुआ कि उस्मान तक को भूल गया | उस घटना के बाद फिर कभी उस्मान से उसकी मुलाकात न हो सकी | 

अचानक उसे आज एक झटका सा लगा | वह सचमुच कितना जल्दी जल्दी चीजों को भूल रहा है | वह गमले में लगे पौधे को एकटक देखता रहा| उसमें दो सुन्दर सुन्दर फूल खिले हुए थे | उन फूलों को देखते देखते उसकी आँखों में गनीराम और उसकी बेटी का मासूम चेहरा उतर आया | उसे अचानक एक झटका सा लगा कि हाँ उस्मान के साथ साथ वह तो गनीराम और उसकी बेटी को भी कितने अच्छे से जानता है | अचानक उसे याद आया ...कितना अच्छा हँस लेता था गनीराम | कितनी मीठी मीठी बातें करता था | घर परिवार बच्चे की खैर-खबर पूछने की उसकी आदत आज उसे भीतर से परेशान करने लगी | और उसकी बेटी .... उससे बस एक बार मिला था वह |उस दिन वह कह रही थी कि वह उनके बेटे से कभी जरूर मिलने आएगी | उसका आना फिर कभी संभव न हुआ | उसे अचानक इस बात का एहसास हुआ कि कैसे कुछ चीजें एकदम अधूरी रह जाती हैं जीवन में | जैसे कि गनीराम की बेटी का उसके बेटे से मिलने की इच्छा का अधूरा रह जाना | इस एहसास ने उसे भीतर से थोड़ा और मनुष्य बना दिया |  गनी राम की बेटी का चेहरा उसके सामने फिर एकबार घूम गया | वह भी बिलकुल गनीराम जैसी हंसमुख थी  | उसे याद कर लगा जैसे उसका सीना दर्द से फट रहा है | कई बार ऐसा होता है कि ज़िंदा चीजें किस तरह बाक़ी चीजों को ज़िंदा कर सामने ला खडा करती है , गुलाब के उन ज़िंदा फूलों ने उसके भीतर मर चुकीं कई-कई चीजों को आज ज़िंदा कर दिया था | उसके भीतर सवाल दर सवाल आने लगे |

"क्या कभी उसने सोचा कि गनीराम और उसकी बेटी के मर जाने के बाद उसकी अकेली पत्नी का क्या हुआ? कभी उससे मिलकर उसकी सुध लेने की चिंता क्या उसके भीतर कभी जगी ? जो गनीराम उसके घर परिवार की खैर-खबर उससे नित्य पूछ लेता था उस गनीराम की भलमनसाहत का कभी उसे खयाल आया ?"

जिस उस्मान ने गनीराम और उसकी बेटी के अपराधियों को जेल के सीखचों तक पहुंचाया उससे भी तो वह और कभी नहीं मिला | आखिर क्यों ?

उसे लगा ये फूल नहीं हैं | ये तो फूल के रूप में साक्षात गनीराम और उसकी बेटी हैं जो अचानक उसके सामने ज़िंदा हो उठे हैं | वह लगभग पांच महीने बाद इस छत पर आया था और छत पर आने भर से उसे याद आने लगा था कि वह आखिर किसको-किसको जानता है | उसने दूर-दूर तक नजर फेरी | उसकी आँखों में कुछ और भी जले हुए घर दिखने लगे | वह दिमाग पर जोर डालने लगा कि इन जले हुए घरों में रहने वाले किन-किन लोगों को आखिर वह जानता है पर उसे उस्मान के अलावा और किसी का चेहरा याद नहीं आया | उसे आश्चर्य हुआ कि इन जले हुए घरों के बारे में उसे कोई जानकारी नहीं है | अगर वह किसी से इस बात को कहे भी तो कोई उसकी बातों पर विश्वास कैसे करेगा ? पर सच तो यही था कि उसे सचमुच इन जले हुए घरों के बारे में जानकारी  नहीं थी | वह कहे कि वह पिछले चार-पांच महीनों से टीवी और अखबारों की खबरों से एकदम बेखबर है तो उसकी बातों पर भला कौन विश्वास करे? पर आज उसे यह एहसास हो रहा था कि सचमुच उसके लिए ये बातें कितनी सच हैं | आज उसे अचानक याद आया कि पत्नी ने एक बार उसे मोहल्ले की घटनाओं को लेकर कुछ बताने का प्रयास किया था पर उसने उसे यह कहकर झिड़क दिया था कि मेरा दिमाग न खाओ अभी....मुझे बहुत काम है |

"तो क्या पत्नी के पास इन जले हुए घरों के सम्बन्ध में सारी जानकारियाँ हैं ?" उसके मन में यह सवाल भी आने जाने लगा | उसे लगा ...छत पर आते ही वह सवालों के पिटारे पर अचानक बैठ गया है | अपना छुटटी का दिन भला कौन बर्बाद करे..यह सोचकर इन सवालों के पिटारे से उठ जाना ही उसने बेहतर समझा |छत की सीढियां नापते उसे घर के बरामदे तक उतरने में समय न लगा | पड़ोस की महजबीन जा चुकी थी, पत्नी भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त थी | वह भी अपनी दिनचर्या में लीन होने लगा |   

बेटे को घुमाना आज उसकी पहली प्राथमिकता में थी | उसने सोचा शाम चार से छः इसके लिए उपयुक्त होगा | वह सेविंग करने की तैयारी करने लगा | टीवी पर इस बीच खबरें आने लगीं थीं कि आर्थिक मन्दी का बुरा असर इस वर्ष की जी डी पी पर पड़ेगा और हजारों नौकरियों के जाने का खतरा भी मंडराता रहेगा | यह खबर उसे अच्छी नहीं लगी| सेविंग करने की इच्छा उसके भीतर जाती रही पर किसी तरह मन को तसल्ली देकर उसने सेविंग तो कर लिया पर खबर का असर दिमाग में बना रहा | उसने चेनल बदल लिया | इस चेनल पर हिन्दू मुस्लिम पर जबर्दस्त डिबेट चल रहा था | इस डिबेट पर उसकी रूचि नहीं थी | कहाँ दंगा हुआ? कौन मरा ? कौन बचा? उसकी जगह नौकरी की चिंता उसके लिए बड़ी चिंता थी | उसने टीवी ऑफ कर दिया और बाथ रूम की ओर नहाने चला गया | सर पर शावर की ठण्डी बूँदें टपक रहीं थीं पर मन को नौकरी जाने का खतरा गर्म कर खौलाता रहा | एक अजीब तरह का द्वन्द उसके भीतर ही भीतर चलने लगा |

जब नोटबंदी हुआ था तो गनी राम अक्सर उससे कहा करता था कि नौकरी का कोई भरोसा नहीं, इसलिए मन में कुछ अलग सोचकर भी रखो सर ! आज उसे उसकी कुछ बातें जिसको उसने हवा में ही उस वक्त उड़ा दिया था सच लगने लगीं थीं | वह कहता था "टीवी मत देखा करो सर! टीवी में बुनियादी मुद्दों से भटकाने वाली बातें प्लांड होकर अधिक आ रही हैं | टीवी खोलो कि वही लव जेहाद , हिन्दू-मुस्लिम, फलाना-ढिकाना !"  आज वह गनी राम को थोड़ा ठीक तरीके से और जानने लगा था |

गनीराम और उसमें न जाने कितनी समानताएं और असमानताएं थीं| उन सब पर वह सोचने को आज विवश था | वह भी तो एक छोटी सी ही नौकरी करता था, उसकी भी चिंताएं उसके जैसी ही तो थीं पर उसकी तरह उसने अपने आपको अपने परिवार तक ही तो नहीं समेट लिया था कि आस पड़ोस की चिंता से आदमी अपने को एकदम विलग कर ले | गनी राम की चिंता में हर वह आदमी शामिल था जो उसके निकट और आसपड़ोस में रहकर उसकी दुनियां से बावस्ता रखता था | उसमें और गनीराम में यही एक बुनियादी फर्क था जिसका एहसास पाकर वह अपने भीतर शर्म महसूस करने लगा था |

अमूमन वह छुटटी के दिन जब घर पर होता है तो प्रसन्न रहता है पर उसके चेहरे पर आज थोड़ी उदासी चढ़ आयी थी | 93 नम्बर की पड़ोस की महजबीन को न जान पाने की घटना से उपजी स्मृतियों ने उसे धीरे धीरे मनुष्य होने की ओर आज अभिमुख किया था |

पत्नी आम तौर पर उसे दुनियां दारी में नहीं ढकेलती | उससे आसपड़ोस की घटनाओं का जिक्र भी नहीं करती पर न जाने उसे आज क्या सूझा कि वह उससे बोल बैठी - " आज आप उदास लग रहे हैं थोड़ा ! बाबू को बाहर घुमा लाइए तो मन अच्छा हो जाएगा | वापसी में उस्मान के बेटे के संस्कार में भी शामिल हो आइए, मेहजबीन उसी का दावत देने आयी थी | उस्मान आज ज़िंदा होता तो कितना खुश होता | रिजवाना की फूटी किस्मत देखिए कि बेचारी ने उस्मान के जाने के बाद बेटे को जना | ये हिन्दू-मुस्लिम दंगे भी आदमी को कितने दुःख के अंधेरों में धकेल देते हैं न राघव  !"

पत्नी की बातें सुन उसे काठ मार गया |

"तो क्या उस्मान भी ?"

"हाँ उस्मान भी !"

" आपको यह सब कब पता होगा ? क्या तब, जब हमारा खुद का बेटा किसी दिन दंगों की भेंट चढ़ जाएगा?  

बोलते-बोलते पत्नी का गला भर आया | कुर्सी पर सामने बैठी पाकर उसे , राघव को उस वक्त उसका चेहरा दुनियां का सबसे उदास चेहरा नजर आया | 

 

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 92 श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) मो. 9752685148         

 

 

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  डॉ. चंद्रिका चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल में उनकी एक कहानी ' घास की ज़मीन ' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में हैं। उनकी लिखी इस शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो , चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो , ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं। सवालों को लेकर एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है। घटनाओ...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन ।  विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चे हुए पुरस्कृत रायगढ़। 16 दिसम्बर। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्व विधायक रामकुमार की स्मृति में उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर शहर के अनेक संस्थानों में आयोजन हो रहे हैं। इसी कड़ी में जन्म शताब्दी आयोजन समिति के सहयोग से स्वामी आत्मानन्द शासकीय उ मा वि चक्रधरनगर में भी बच्चों के लिए स्लोगन,निबंध एवं भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। इन प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चों को पुरस्कृत करने के लिए सोमवार 16 दिसम्बर को स्कूल में एक गरिमामय आयोजन सम्पन्न हुआ ।  मुख्य अतिथि नगर निगम पार्षद पंकज कंकरवाल, विशिष्ट अतिथि नगर निगम पार्षद कौशलेश मिश्र , वरिष्ठ रंगकर्मी अनुपम पाल एवं पूर्व विधायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामकुमार के परिवार से सुनील कुमार अग्रवाल की उपस्थिति में बच्चों ने अपनी स्पीच कला का बखूबी प्रदर्शन किया। स्लोगन प्रतियोगिता अंतर्गत कनिष्ठ वर्ग में शगुफ्ताह  प्रथम,नन्दिता मेहर द्वितीय एवं रितिका पाऊले तृतीय स्थान पर रहीं।क्षमा देवांगन को ...

दिव्या विजय की कहानी: महानगर में एक रात, सरिता कुमारी की कहानी ज़मीर से गुजरने का अनुभव

■विश्वसनीयता का महासंकट और शक तथा संदेह में घिरा जीवन  कथादेश नवम्बर 2019 में प्रकाशित दिव्या विजय की एक कहानी है "महानगर में एक रात" । दिव्या विजय की इस कहानी पर संपादकीय में सुभाष पंत जी ने कुछ बातें कही हैं । वे लिखते हैं - "महानगर में एक रात इतनी आतंकित करने वाली कहानी है कि कहानी पढ़ लेने के बाद भी उसका आतंक आत्मा में अमिट स्याही से लिखा रह जाता है।  यह कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हम कैसे सभ्य संसार का निर्माण कर रहे जिसमें आधी आबादी कितने संशय भय असुरक्षा और संत्रास में जीने के लिए विवश है । कहानी की नायिका अनन्या महानगर की रात में टैक्सी में अकेले यात्रा करते हुए बेहद डरी हुई है और इस दौरान एक्सीडेंट में वह बेहोश हो जाती है। होश में आने पर वह मानसिक रूप से अत्यधिक परेशान है कि कहीं उसके साथ बेहोशी की अवस्था में कुछ गलत तो नहीं हो गया और अंत में जब वह अपनी चिंता अपने पति के साथ साझा करती है तो कहानी की एक और परत खुलती है और पुरुष मानसिकता के तार झनझनाने लगते हैं । जिस शक और संदेह से वह गुजरती रही अब उस शक और संदेह की गिरफ्त में उसका वह पति है जो उसे बहुत प्...