मैं लौट आया बस्तर से बच्चों की हँसी लेकर
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12 से 15 जनवरी 2019 तक बस्तर की चार दिनों की
यात्रा में न जाने कितने अनुभवों से होकर गुजरना हुआ | बस्तर के बीहड़ जंगलों के
बीच से होकर गुजरने वाली कालतोर की सडकों पर हमारी बस जब-जब गुजरी ,घाटियों का
अद्भुत सौन्दर्य हमें आकर्षित करता रहा | सुकमा शहर स्थित ज्ञानोदय नामक बालकों के
आवासीय विद्यालय में हमने अपनी पहली रात बितायी | यद्यपि यहाँ किसी तरह के डर का
एहसास हमें नहीं हुआ पर रात में विद्यालय के बाहर पसरा सन्नाटा जरूर अपनी उपस्थिति
का एहसास कराता रहा | जब मैं रात में लगभग साढ़े दस बजे भवन के अंदर दूर पर बने वाश
रूम की ओर गया तो अधिकांश बच्चे लाइन से बने वाश रूम में अपने कपडे धोते हुए मिले
| पता नहीं यह समय उन्होंने क्यों चुना था , मेरे मन में खयाल आया कि कपड़े धोने के
लिए शायद यही समय उनके रूटीन में रहा हो | ये सारे बच्चे ड्राप आउट बच्चे थे जो नक्सल प्रभावित ग्रामीण
इलाकों से थे और जिनके स्कूल नक्सली आक्रमण से ध्वस्त हो गए थे और उनकी पढ़ाई छूट
गई थी | ज्ञानोदय ऐसे ही बच्चों का बसेरा था | सुबह लगभग चार किलोमीटर दूर
मुरतोंडा नामक गाँव में स्थित पोटा केबिन आवासीय विद्यालय की तरफ जब हम बढ़े तो शहर
से कुछ ही दूरी पर बीहड़ जंगलों के उन्हीं ऊँचे ऊँचे पेड़ों से फिर हमारा सामना हुआ |
नक्सल हिंसा से पीड़ित परिवारों की बच्चियों के बीच हमने अपना कुछ समय बिताया |
उनसे मिलकर लगा कि ये बच्चे अपनी पिछली दुनियां को भूल कर जीवन की मुख्य धारा में
आने की जद्दोजहद में लगे हैं | उनके चेहरे की हँसी इसका एहसास बराबर मुझे कराती
रही | इसी स्कूल के बाहर लगभग 40 वर्ष उम्र के मुसाकिजो जोगा से मेरी मुलाक़ात हुई |
उसे थोड़ी बहुत हिन्दी आती थी | उसने बताया कि वह दोरनापाल नामक गाँव से है और अपनी
दोनों बच्चियों से मिलने आया है | कभी उसकी गाँव में अच्छी खासी खेती बाड़ी भी थी ,
पिता भी थे जिनकी जान नक्सलियों ने इसलिए ले ली क्योंकि उनको यह शक था कि उन्होंने
उनके विरूद्ध सी आर पी एफ के जवानों को कोई जानकारी दी है | शक का कोई इलाज नहीं
है और हम पर उसकी मार दो तरफा पड़ती है | दो पाटे के बीच पीस रहे लोगों का दर्द कोई
नहीं समझ सकता | उसे तो बस्तर के भोले भाले आदिवासी ही समझ सकते हैं | उसके मन के
जख्म बहुत गहरे थे और इसी तरह की परेशानियों से अब वह उस गाँव से विस्थापित हो चुका था |वह किसी
दूसरी जगह जाकर अब ईंट जोड़ने वगेरह का काम करके अपना गुजर बसर करता है | हिंसा ने
उसके जीवन की कहानी को काले रंग से रंग दिया था | लगभग सात आठ साल की पद्मा तथा
लक्ष्मी नामक बेटियाँ ही अब उसके जीवन का आसरा थे जिन्हें पढ़ा लिखा कर अपने जीवन
के काले रंग को वह उतारना चाहता था | इसी स्कूल के बाहर बीड़ा नामक बृद्ध ग्रामीण
से मेरी मुलाक़ात हुई जो हंसमुख था और एक पन्नी
में कुछ कपड़े रखे हुए था जिसे एक पांच साल की बच्ची आकर ले गई | उसे हिन्दी नहीं
आती थी पर मेरे साथ फोटो खिचाने को वह सहर्ष तैयार हो गया | सुकमा जिले के कुछ और
आवासीय स्कूलों में भी हमें ले जाया गया | यह जानकारी भी दी गई कि इस तरह के 16
स्कूल जिले में संचालित हो रहे हैं | आकार नामक दिब्यांग बच्चों के आवासीय स्कूल
में भी हम गए जहां अविनाश सिंह ने विस्तार से कई जानकारियाँ साझा करीं | दंतेवाडा
जिले में एक अलग तरह के आवासीय विद्यालय देखने को मिले | आस्था नामक केम्पस का
जिक्र न करूं तो यह अधूरा होगा | आस्था जो कई एकड़ में फैला हुआ है और यहाँ भी
नक्सली हिंसा से प्रभावित बच्चे पढ़ते हैं , वहां की विशेषता यह थी कि स्वच्छ होने
के साथ साथ संसाधनों से यह परिपूर्ण तो था ही , साथ ही यहाँ के बच्चे बहुत हाजिर
जवाबी , और प्रतिभाशाली जान पड़े | इसका एहसास मुझे नवमीं कक्षा के बच्चों से रुबरू
होकर हुआ | ये बच्चे न केवल अच्छी हिन्दी बोल रहे थे बल्कि अंग्रेजी भी उन्हें ठीक
तरह से आती थी | कई बच्चे तो बेहद अच्छे तरीके से गणित के सवालों का जवाब दे रहे
थे | किसी संस्था का सही मूल्यांकन उसके बच्चों के माध्यम से ही ठीक ढंग से हो
पाता है | बस्तर के प्रति यद्यपि लोगों की धारणा बहुत अच्छी नहीं है फिर भी यहाँ
आकर मुझे लगा कि ये बच्चे एक दिन आगे जाकर बस्तर के प्रति लोगों की धारणाओं को
जरूर बदल देंगे | दंतेवाडा से दोपहर बारासुर होते सप्तधारा दर्शन के लिए
इन्द्रावती नदी के पुल से भी गुजरे ,पर आगे अबुझमाड़ क्षेत्र के आदमकद पोस्टर ने
हमारा रास्ता रोक लिया | जगह जगह बटालियन के जवान बंदूक थामे चलते नजर आए | उस पार
जाने के अपने खतरे थे | खतरों ने हमारा रास्ता रोक लिया था | गहराती शाम के साथ यह
क्षेत्र बेहद खूबसूरत होते हुए भी हमें डराने लगा था और हम लौटकर बीजापुर के लिए निकल
पड़े |
बस्तर का सुदूर वनांचल बीजापुर जहां की साक्षरता
40 फीसदी के आसपास है वहां भी हमने 14 जनवरी को मुख्यमंत्री डी ए वी स्कूल में रात
बितायी | रात के 9 बजते ही आसपास की सड़कें सूनी हो चुकीं थीं | शहर से बाहर स्थित
स्कूल के कमरों की पारदर्शी खिडकियों के बाहर पसरा सन्नाटा और आसपास स्थित ऊँचे
ऊँचे पेड़ उसी बीहड़ता का एहसास कराते रहे | पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि यहाँ रहते
हुए एक हल्का सा भय मेरे भीतर तारी होने लगा है , मैं गहराती रात के साथ उसी भय को
लिए नींद में चला गया | अगली सुबह पोटा केबिन चिनाकोड़ेपाल के लिए जब हम निकले तो
बीजापुर से कुछ ही दूरी पर बीहड़ जंगलों का
वही कारवाँ शुरू हो गया | इस बार साथ साथ एक नदी भी चलती रही | बेहद सुनसान और
बीहड़ जंगलों के बीच बहती नदी के साथ हम पोटा केबिन चिनाकोड़ेपाल पहुंचे | वहां छोटी बड़ी कई प्यारी बच्चियां मिलीं जो गुड
मोर्निंग तो कहना जानती थीं पर हिन्दी के जरिये ठीक ढंग से संवाद कर पाना थोड़ा
संभव नहीं हो पा रहा था | एक किस्म का संकोच भी उनके चेहरों पर साफ़ साफ़ दीख रहा था
जो मुझे थोड़ा अंखर रहा था | इस पोटा केबिन में मुझे एक लाईब्रेरी भी दिखी जिसमें
आलोक धन्वा जैसे क्रांतिकारी कवियों से लेकर अनेक महत्वपूर्ण लेखकों की किताबें भी
नजर आयीं | मन में सवाल आया कि इन किताबों को यहाँ आखिर कौन पढ़ता होगा ? खयाल
आया कि अभी न सही , बाद में किसी दिन इन
बच्चों में से ही कुछ बच्चे इन्हें पढ़ें और बस्तर के प्रति लोगों के मन में गहरायी
धारणाओं को ध्वस्त करें | एक और पोटा केबिन की ओर भी हम गए जहां लडकियाँ डांस कर
रहीं थीं | परमिन्दर,ज्योति,किरण और गीतांजली मेडम ने उनके ताल में ताल मिलाकर उन
बच्चियों का हौसला बढ़ाया| उन बच्चियों की प्रतिभा सूरज की रोशनी में जैसे खिल उठी
थी | हम बीजापुर से दोपहर रायपुर के लिए
रवाना हुए | रास्ते में चित्रकूट जलप्रपात में हमनें वोटिंग का आनंद लिया | रात
में जगदलपुर में हमनें एक साथ खाना खाया फिर हमारी बस रायपुर के लिए चल पड़ी | चलती
बस में ज़िंदा दिल ज्योति मेडम ने सबको हँसा कर इतना लोट पोट कर दिया कि हमारी नींद
और थकान जाती रही | हम सबने मिलकर खूब गाने भी गाए | हमारी झोली बस्तर के बच्चों
की हँसी और सपनों से भर उठी थी जिसे अभी समय के साथ और खिलना है |
रमेश शर्मा व्याख्याता
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चक्रधरनगर
रायगढ़ छ.ग.
बतौर शिक्षक आपने बस्तर यात्रा का बहुत शानदार चित्रण किया है | बधाई |
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