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अंधेरे के पार : गजेन्द्र रावत

 

नैतिक मूल्यों को लेकर मनुष्य की भीतरी दुनिया में मचा द्वंद कई बार मनुष्य को अंधेरे की खोह में धकेल देता है तो कई बार अंधेरे के उस पार भी ले जाता है। परिकथा नवंबर दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित गजेंद्र रावत की कहानी "अंधेरे के पार"को पढ़ते हुए, जीवन के कठिन समय में संघर्षरत, एक सर्वहारा मनुष्य के भीतर मचे हुए द्वंद के कई कई दृश्य आंखों के सामने आने जाने लगते हैं। मनुष्य के लिए आज नैतिक पतन सबसे आसान रास्ता है और वह भी उस मनुष्य के लिए जो जीवन के अभावों के बीच नीत संघर्षरत है, जिसके पास गरीबी है, जो तंत्र की अमानवीयताओ का शिकार है। गजेंद्र रावत की कहानी अंधेरे के उस पार "लाली" नामक एक ऐसे ही युवक की कहानी है जो "सत्ता" नामक बिगड़ैल और गुंडेनुमा युवक की संगत में गरीब मजदूरों को राहजनी कर लूटने का काम करता है पर यह काम उसे रास नहीं आता। उसे लगता है कि उसने बहुत गलत काम किया है। उसके भीतर का द्वंद उसे बैचैन और परेशान कर देता है। वह भीतर ही भीतर आत्मग्लानि से भर उठता है। मनुष्य के नैतिक मूल्यों के प्रतिस्थापन को लेकर लिखी गईं इस तरह की मनोवैज्ञानिक कहानियां पाठकों को भी भीतर से बेचैन करती हैं।

गजेन्द्र रावत जी की कहानी को यहाँ आप पढ़ सकते हैं .




पुल बनने से पहले तो किसी के भी ख्वाबों-खयाल में  भी नहीं था कि यहाँ इसी जगह, पुल के नीचे ही नीचे एक नई दुनिया ही बस जाएगी। यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर रेलवे फाटक के साथ-साथ बसी पुरानी झोंपड़-पट्टी ठसा-ठस भरती चली गई तो कुछ खोजी लोगों ने कोलम्बस की तरह यह नई जगह ढूंढ ली।.....और पुल के नीचे किनारे-किनारे बसते चले गये। अब यहाँ भी अच्छी-ख़ासी तादात हो चली थी। शुरुआत में ही गाड़िये-लौहारों के छह-सात परिवार यहाँ के स्थाई बाशिंदे बन चुके थे। वे सालों से यहाँ रह रहे थे उनकी खाना- बदोश रहने की कसम इतिहास के इस कठिन मंजर पर आकर दम तोड़ चुकी थी। उन्होंने ईंट और मिट्टी की छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ बना ली थी जो ऐसी दिखाई पड़ती थी मानों किसी बड़े आर्चिटेक्ट ने प्रदर्शनी में रखने के लिये घरों के छोटे-छोटे मॉडल बनाये हों।

         ........ आदिमकाल से चली आ रही भूख के खिलाफ लड़ाई यहाँ आज भी पेट की आग बुझाने की जद्दो-जहद , जिन्दा रहने की कशमकश,किसी कलात्मक फिल्म सी आँखों के आगे चल रही होती है मानो जीवन के ब्लैक एण्ड व्हाइट पर्दे पर और कोई रंग ही न चढ़ता हो।

         सवाल यह उठता है लोग-बाग यहाँ से उठती आग की  तपिश को क्यूँ महसूस नहीं कर पा रहे ?......सोचना यह है कि कब तक ज़िंदगी के इन संजीदा, जरूरी और न टलने वाले पहलुओं की अनदेखी होती रहेगी।......ये तगाफुल, हर बार का यूं मुकरना आखिर कब तक जारी रहेगा ?

         पौ फट चुकी थी यद्यपि पुल के नीचे उजास देर से पहुँचती थी। मिट्टी की झोंपड़ी में बिन्दा बिस्तर छोड़ चुकी थी। झोंपड़ी के बाहर पड़ी खाट पर उसका बूढ़ा ससुर खों-खों करने लग गया था। न जाने कब और कैसे उसने हुक्का भर लिया था उसी हुक्के को गुडगुड़ाते हुए वो बिन्दा के बाहर आने का इंतजार कर रहा था। उसे गिलास भर चाय की तलब ज़ोर मारने लगी थी। बूढ़ा अपनी उपस्थिती कभी खाँस कर कभी मुंह से निकलने वाली अन्य ध्वनि से जताता। अधिक समय नहीं बीता, बिन्दा गोबर-मिट्टी पुती झोंपड़ी से सिर झुकाकर बाहर आ गई। कुछ देर सिर के पल्लू को ठीक करती सामने ही खड़ी रही। बाहर बैठे बूढ़े ने उसे देखकर गुड़गुड़ की और खांसी की जुगलबंदी तेज कर दी ताकि बिन्दा का ध्यान उस तक जा सके।

          पुल के भारी खम्बे के साथ रखे प्लास्टिक के ड्रम से पानी लेकर बिन्दा ने मुंह धोया और पल्लू से पोंछते हुए बाहर ही अंगीठी के आगे बैठ गई।.....अभी भी बूढ़े की खांसी सुनाई दे रही थी।.....पता है, पता है क्यूँ खाँसे जा रहा है.....वो बड़बड़ाई।

         सामने बूढ़ा बैठा-बैठा मिच्ची-मिच्ची आँखों से बिन्दा के हर छोटी-से-छोटी हरकत पर नज़र रखे हुए था।

        वहाँ साथ के दूसरे घरों में भी छुटपुट गतिविधियां शुरू हो गई थी। सड़क पर इक्का-दुक्का पैदल लोग दिखाई देने लगे थे।

        लोहारों के घरों के पीछे फैक्टरियों का गंदा काला पानी छोटे-से नाले में बदल गया था जिसके किनारे-किनारे पुरानी प्लास्टिक की खाली बोतलें तैर रही थी। साथ ही फैली पीली मिट्टी पर दो औरतें चिल्ला-चिल्ला कर झगड़ रही थी। दो निपट नंगे सिर घुटे बच्चे बड़ी तन्मयता से उनके बीच चल रही गाली-गलौच सुनते रहे फिर अचानक ही उनकी दिलचस्पी खत्म हो गई। वे भागकर घरों के सामने की तरफ आ गये और वहीं दुबकाई पुरानी बोरी बिछाकर सिक्का उछालने लगे......चित कि पट.....ला दे....उनके हाथों में फिल्म-स्टारों की इकट्ठी की गई छोटी-छोटी तस्वीरें थी। वे जीत हार में उन्हीं का आदान-प्रदान करते थे। दोनों बच्चे देर तक दुनियाँ से बेखबर वहीं खेल खेलते रहे।

          दोनों औरतों के बीच गाली-गलौच ने उनके संयम को तोड़ दिया। वे दोनों बुरी तरह से गुत्थम-गुत्था हो गई।

         एक जीवंत तमाशा-सा देख इधर-उधर की छोटी-सी भीड़ तमाशबीन की शक्ल में वहाँ इकट्ठी को गई। वहाँ की अफरा-तफरी देखकर दोनों बच्चे भी हाथ की तस्वीरें मुट्ठियों में दबाये भीड़ की तरफ दौड़ पड़े और पहले वाली जगह पर खड़े होकर उन दोनों औरतों को लड़ते देखने लगे।

        दोनों औरतें मिट्टी में लोट-पोट थी। उनकी उँगलियाँ एक दूसरे के बालों में फंसी थी। उन्होंने एक दूसरे के मुंह नाखूनों से नोंच लिए थे। उनके चेहरों से जगह-जगह खून छलक रहा था। दोनों अभी भी लगातार एक-दूसरे को गालियां दिये जा रही थी। बहुत देर हो गई वे दोनों थकने में नहीं आ रही थी।

           इसी शोरो-गुल से बिन्दा चौंकी और चूल्हे पर चढ़ी चाय छोडकर भागी आई। बड़ी फुर्ती से दोनों को अलग करते हुए चीखी, “ सरम तो है नहीं !  कुत्तों की तरह लड़ती हो.....लोग तमाशा देखते हैं.........”

          वे औरतें खड़ी हो गई। अपने-अपने बाल बांधते हुए हाँफ रही थी। वे अपना पक्ष रखने की स्थिति में नहीं थी, चुप रही, धौंकनियों की तरह उनकी छातियाँ चल रही थी।

         थोड़ी ही देर में मामला सुलटते ही भीड़ धीरे-धीरे न जाने कहाँ गायब हो गई। वे दोनों बच्चे नाली के पानी में तैर रहीं प्लास्टिक की खाली बोतलों को छड़ से निकालने में जुट गये।

         बिन्दा को वहाँ से गायब देख चारपाई पर बैठा बूढ़ा बेचैन हो उठा। वैसे इस तरह की लड़ाइयाँ उसके लिये नई नहीं थी लेकिन चाय में देरी के कारण वो सहज नहीं हो पा रहा था। बस किसी तरह खुद को जब्त किये बैठा रहा आखिर वो अपनी हदें समझता था।

         बिन्दा ने वापस आकर पहले-पहल बूढ़े को गिलास भर चाय थमा दी। बूढ़े की बेचैनी वह भाँप गई थी। चूल्हे तक लौटते-लौटते बड़बड़ाई, “ ये और एक आफत है मेरी जान को......”

            देवा को मरे पूरे नौ साल हो गए थे। आदमी की मौत के वक्त बड़ा बेटा तेरह साल का था और छोटे को दसवां लगा था। इतना लम्बा वक्त बिन्दा ने अपने बच्चों को देखकर ही काट लिया था। अब बड़े बेटे ने भट्टी पर बैठना शुरू कर दिया था और छोटा लाली गर्म लोहे पर धड़ा-धड़ हथौड़े चलाने लग गया था।

          घर के सामने ही कुछ सामान रखने की जगह बना ली जिस पर तसला, फावड़ा, गैती, हथौड़े और छैनियां एक क्रम से लगी होती थी। बिन्दा सुबह से ही वहीं बैठ जाया करती थी और दिनभर ग्राहकों को निपटाया करती थी। वहीं साथ में ही कोने पर गुटके, पान मसाले के पाउच लड़ी में लटके रहते थे। कुछ बीड़ी के बंडल, सिगरेट की डिब्बियाँ आठ बजे तक करीने से लगा दी जाती थी। सुबह आठ बजे ट्रेन का वक्त था तभी से कामगार दूर तक फैले फैक्ट्रियों तक पहुँचने के लिये पुल के नीचे से गुजरते। ट्रेन से उतरे पैदल और कुछ साइकिल सवार कैरियर में टिफिन दबाये मजदूरों के रेले उनके घरों के आगे से गुजरते।

          बूढ़े के हाथों में चाय का गिलास थमा कर बिन्दा अपना गिलास लेकर भीतर से गुटकों, पान-मसालों की छोटी-सी पेटी खोलकर एक-एक कर तार पर लटकाने लगी। बिन्दा से हिला हुआ वहीं आस-पास का एक कुत्ता भी दुम हिलाता हुआ बैठ गया। बिन्दा ने समय निकालकर एक बार उसकी गर्दन पर प्यार से हाथ फेर दिया।

          हर अगले पल मजदूरों की आवाजाही बढ़ती जा रही थी।

          थोड़ा-सा ही आगे बिजली के ट्रांसफार्मर के साथ ही कुर्सी डालकर नाई, चाय का ताम-झाम और साइकिल ठीक करने की दुकान में हलचल शुरू हो गई थी। इस छोटी-सी जगह में कई मजदूर साइकिल रोककर कुछ-न-कुछ काम जरूर कराते।

         चारपाई पर बैठा बूढ़ा सुड़क-सुड़क चाय पीने लगा, उसने हुक्के को एक तरफ रख दिया था।

बिन्दा बार-बार पीछे की चारपाइयों पर सो रहे दोनों लड़कों को देख रही थी। वो जानती थी कि आज काफी काम पड़ा है – चार-पाँच गैतियों भोथरी हो गई थी उन पर धार बनानी थी, कुछ छैनियां और एक-दो छोटे-छोटे काम पड़े थे।.....कब कोयले लाल होंगे और कब काम शुरू होगा।......उसने एक लम्बी साँस खींचकर सोचा। हालांकि ये सब उसे नहीं करना होता फिर भी बेटों को तैयार करना और वक्त पे काम शुरू करवाना उसकी ही ज़िम्मेदारी थी।

गुटके के कुछेक ग्राहक निबटाते हुए बिन्दा ने पीछे मुड़कर देखा और कुछ संतुष्ट हो गई। बड़ा बेटा जगन उठ चुका था और पीछे ड्रम पर मुंह धो रहा था।

          “ चाय ले ले पतीली से.....” बिन्दा तेज आवाज़ में बोली। बड़े की उसे चिंता नहीं थी। वो वक्त पर उठ जाता और काम पर बिना कहे लग जाता। भट्टी जलाता, लोहा गरम करता और हाथ की हथौड़ी से पीट-पीट कर आकार देता। बड़ी और भारी चीज़ के लिये उसे छोटे बेटे लाली का इंतज़ार करना पड़ता – वो बड़ा हथौड़ा चलाता था।

           लाली देर तक सोता रहता। उसका रूटीन अलग ही था। उसे बिन्दा बाल पकड़कर उठाती देख चल भट्टी तैयार है – पूरा महाभारत लड़ता था वो माँ से कहता....मैं नहीं करूंगा। क्या रखा है इसमें ! इतना कहकर फिर सो जाता था। मैं पानी की बाल्टी डाल दूँगी। बिन्दा रोज यह दोहराती थी।......फिर वो उठता और देर तक साज-सज्जा में वक्त लगाता, पुरानी जीन्स पहन लेता फिर झुककर भीतर के दीवार पर लगे टूटे शीशे के सामने जाकर खड़ा हो जाता। सिर उसका छत से टकराने को हो रहा होता। कंघी उठा कर लंबे –लंबे बाल सुलझाने लगता। उसके बाल कंधों तक लटके हुए थे। मगर ये सब करने के बाद, चाय पीकर वो हथौड़ा उठा लेता और एक ताल से लोहे के लाल हिस्से पर दना-दन जड़ता रहता। उसका गुस्सा लाल लोहे को पीटकर ही शान्त हो पाता।

          चाय पीकर जगन भट्टी पर बैठ गया और रुका हुआ काम निबटाकर ही उठा फिर माँ के पास आकर बैठ गया। एक बार पीछे मुड़कर देखा लाली चारपाई से उठकर खड़ा हुआ था। सड़क पर कोई ग्राहक न देखकर वो माँ के कानों से मुंह सटाकर फुसफुसाया, “ माँ ये कल रात सत्ते के साथ घूम रहा था।......इन्होंने एक आदमी को ट्रक के पीछे पकड़ा भी था.......”

         बिन्दा ने सामने फैले सामान को संभालते हुए गर्दन घुमाकर पीछे देखा। मिट्टी पुते घर के भीतर लाली की टांगें दिखाई दे रही थी। वो भीतर दीवार पर लगे आइने के तिकोन टुकड़े के आगे खड़ा अपने लम्बे बालों पर कंघी चला रहा था।

           “ आ.....आ बाहर आ जा बेटा ! ” बिन्दा ने एक बार फिर मुड़कर पुकारा, “ लाली !.....यहाँ आ। ”

           “ क्या है ?” लाली दरवाजे पर ही खड़ा था।

           “ यहाँ तो आ। ”

           लाली थोड़ा और आगे आकर खड़ा हो गया और खीजकर बोला,“ बात क्या है ?”

          “ चल, हथौड़ा.....गरम है.....” बिन्दा के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कान थी जिसे लाली न देख पाया।

         “ पर मेरी तो बाजू सूज रही है.....”

        “ दिखाना, दिखाना......कहाँ सूज रही है मेरे बच्चे की बाजू.....?”

        वो खम्बे-सा लंबूतरा लोहे के स्टूल पर बैठी माँ के आगे खड़ा हो गया।

       “ नीचे हो ! ” बिन्दा बोली।

       लाली ने सिर नीचे झुकाया ही था, झपटकर बिन्दा ने उसकी कमीज की जेब अपनी ओर खींच ली।

       “ क्या है ?.......जेब फट जाएगी। ” लाली जेब पर एक हाथ रखते हुए पीछे की तरफ हटते हुए बोला।

       जेब के सारे रुपये अब बिन्दा की मुट्ठी में थे। लाली ये देखकर माँ की मुट्ठी पर झपटा और खोलने की कोशिश करने लगा, “ छोड़ दे माँ ! ”

       “ लगा ज़ोर, लगा....तुझे मैंने पैदा किया है....लगा, लगा.....”

       साथ में बैठा जगन सामने गुजर रहे मजदूरों के रेले से हटकर निकल रहे इक्का-दुक्का ग्राहकों को गुटका, बीड़ी दे रहा था और उनसे पैसे लेकर वहीं बिछे पौलिथिन के नीचे दबा दे रहा था।

       ख़ासी कोशिश के बाद लाली खीजकर चिल्लाने लगा, दे दे.....हाथ खोल ! ”

       “ चल तू ही खोल......” बिन्दा की मुट्ठी पहले-सी कसी हुई थी। वो तिरछी निगाह कर लाली की तरफ देखती हुई बोली, “ लाया कहाँ से है......इतने रुपये ?

       सात-आठ सौ-सौ के नोट बिन्दा की मुट्ठी में भिंचे हुए थे। लाली फिर झुककर दोनों हाथों से मुट्ठी खोलने में लग गया। समय के उस बिन्दु पर जब बिन्दा को लगा कि अब मुट्ठी खुल जाएगी तो उसने अपने चेहरे के आगे झूलते लाली के बालों को दूसरे हाथ से कसकर खींच लिया।

       “ बाल छोड़ दे.....” लाली दर्द में चीखा।

        “ तू मुट्ठी छोड़ दे......”

        “ पहले बाल छोड़.....टूट जाएंगे ! ”

        लाली ने माँ की मुट्ठी छोड़ दी। बालों पर बिन्दा का नियंत्रण कसा होने के कारण अभी भी उसके चेहरे पर दर्द के अलग-अलग अक्स आ जा रहे थे। वो माँ पर यूं ही झुका हुआ था, “ छोड़ दे री....  माँ। ”

        “ कहाँ से.......?” बिन्दा ने मुट्ठी की तरफ आँख से इशारा किया फिर उसी हाथ से उसे दूर धकेल दिया। बिन्दा के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। उसने एक बार लाली की तरफ देखा फिर हाथ के रूपये गिनने लगी.....

       “ मेरे हैं....दे इधर ला....” वो थोड़ा करीब खिसका।

       “ चल दूर हट......वहाँ खड़ा हो। ” बिन्दा ने झट से फिर मुट्ठी बना ली।

       वो दूर खड़ा हो गया। बिन्दा फिर गिनने लगी।

       “ सुन न माँ......” उसका बहुत धीमा और विनती भरा स्वर था।

       बिन्दा गिनती जा रही थी। इतने ही समय में लाली करीब आकर खड़ा हो गया। माँ को अपनी तरफ से बेध्यानी में देख उसने झपट्टा मारा, सौ-सौ के कुछ नोट उसके हाथ लगे और वो दौड़कर थोड़ी दूरी पर खड़ा हो गया।

       “ चुप-चाप वापस दे दे...मैं बता रही हूँ...देख ले...अगर हाथ लग गया न तो फिर देख ले...” बिंदा का चेहरा भट्टी-सा तमतमा रहा था, आवाज़ कांप रही थी। उसकी खुली मुट्ठी में सौ-सौ के दो नोट ही रह गए थे।

       लाली और थोड़ा पीछे हट गया, बिन्दा की जद से बाहर।

        “ आयेगा तो तू हरामजादे !.....देखना क्या हाल करती हूँ....” बिन्दा ज़ोरों से बोले जा रही थी, “ कुत्ता कभी तो घर आएगा.....हाथ के पैसे खतम हो जाएंगे तो यहीं आके मरेगा.......”

       लाली थोड़ी देर चुप खड़ा रहा फिर पलट कर बालों को ठीक करते हुए बोला, “ मुझे नहीं करना ये काम......तुम रखो अपने पास ......” वो दो कदम चला और बोला, “ बड़ी धौंस देते हो......”

       कुछ देर बड़बड़ा कर लाली आगे तक आ गया। उसका मूड खराब हो गया।......यार सुबह-सुबह न चाय न पानी ! हथौड़ा चलाओ, लोहा पीटो !......ये कोई काम हुआ !.....होता क्या है इससे....वो सारी रात मंगल बाज़ार में बैठी रही, क्या मिला ? दो तवे भी नहीं बिके  .......सौ रूपल्ली नहीं बनी.....फजूल की मेहनत है बेकार में बदन तोड़ो....वो सोचता जा रहा था, बिल्कुल हताश,उदास और अकेला !  सिर भन्ना रहा था उसका।

      .....नज़रोंसे वो ओझल हो चुका था जबकि बिंदा की आँखें  उसी ओर लगी हुई थी। वो कुछ देर तक उसी रिक्त स्थान को देखती रही जो लाली के अदृश्य होने पर शेष था, उसने फिर धीरे-धीरे सिर नीचे कर आँखें मूँद ली। यद्यपि वो गुस्से में थी, भीतर-भीतर उसकी बाजूएँ फड़फड़ा रही थी कि क्या कर दे लेकिन लाली के चले जाने के बाद वो धीरे-धीरे ठंडी पड़ती चली गई।...... हल्की-फुल्की छीना-झपटी थी, गुस्सा उतरा तो फिर आ लगेगा गले से.....माँ, माँ करने लगेगा....वो सोचती रही। वो उसकी उम्र और व्यवहार में आए परिवर्तनों से घबरा रही थी।.....अब वो छोटा नहीं रहा.....इन सब बातों को सोचकर उसका मन अनिश्चितताओं के सायों से घिर गया।

         लाली पैदल-पैदल काफी आगे तक आ गया था। वो रेल की पटरी के पास के चाय के पुराने ठिये पर आकर बैंच पर बैठ गया। चाय वाला उसे नज़रों से पहचानता था। लाली ने उंगली से एक चाय का इशारा किया और फिर सामने बिछी रेल की पटरी को देखने लगा। उसका मन अभी भी उखड़ा हुआ था वो फिर सोचने लगा.....हर समय लगे रहते हैं खुद कमा के दिखा.....काम तो कोई ढूँढना ही पड़ेगा........ दिखा दूँगा रुपये कैसे कमाये जाते हैं !.....अब वो पुराना टाइम नहीं रहा कि पीटते रहो लोहा ! फैक्ट्री एरिये में कई मशीनें लग गई हैं...... बिजली की भट्टियाँ आ गई हैं। यहाँ लोहा पीट-पीट के जिंदगी खराब कर ली हैं।.....बहुत तरह के काम हैं। काम के नाम पर उसे सत्ते की याद आई।....उसकी बहुत जान-पहचान है फैक्ट्री वालों से! लाली ने दिमाग में चल रही धारा से अलग होकर चाय वाले से पूछा, “ सत्ता नहीं आया इधर ?

 चाय वाले को सवाल अच्छा नहीं लगा। वो बुरा-सा मुंह बनाकर चुप रहा फिर सिर हिलाकर मना कर दिया।

           लाली उसके हाव-भाव से समझ गया कि पूछना ठीक नहीं था।......बदमाश है साला सत्ता ! कौन चाहेगा उसके ठिये पर आये....लाली सोचता रहा।

          वहाँ कोई और ग्राहक नहीं था इसलिए चाय वाले ने स्वंय आकर उसे चाय पकड़ा दी और धीरे से कहा, “ गुंडा है वो, नम्बरी है.....उसका नाम मत लिया कर। किसी दिन पुलिस के हत्थे चढ़ गया न तो.....” वो अधूरा कहकर अपनी जगह पर जाकर बैठ गया।

          लाली चाय पीते-पीते सोचने लगा.....कह तो ठीक ही रहा है ये, है तो वो इसी तरह का !.....लेकिन क्या करूँ काम भी वही दिलाएगा.....और मुझे तो कोई जानता तक नहीं......वो फिर उसी सोच के इर्द-गिर्द घूमने लगा।

          चाय का गिलास खत्म कर वो पटरी के समांतर चलने लगा।बचपन में रेल की पटरी का दूसरा सिरा ढूँढने दूर तक निकल जाता था।.....आज पटरी-पटरी चलता जा रहा था।.....कहीं तो खत्म होगी ये पटरी......वो अजीब-सी उधेड़-बुन में था। सुबह, सारी दोपहरी उसने पटरियाँ नापते हुए काट दी। शाम होने पहले ही वो पुल के नीचे मुच्छड़ मोची के ठिकाने पर पहुँच गया। उसने देखा सत्ता वहाँ पहले से ही मौजूद था। दरअसल उसे थोड़ा-थोड़ा याद आ रहा था कि सत्ता मुच्छड़ के ठिकाने पर दारू पीने जरूर आएगा। जंगल के पानी के सोते की तरह था मुच्छड़ का ठिकाना। लाली मुच्छड़ के बराबर रखे पत्थर पर बैठ गया। मोची ने उससे आँखों के इशारे से पूछा और धीरे से कहा, “ पिओगे ? पी लो !......थके हुए लग रहे हो। ”

        लाली कुछ भी न बोल पाया।

        मुच्छड़ मोची ने पुराने जूतों के बक्से के पीछे बना हुआ पैग लाली को पकड़ा दिया और धीरे से कहा, “ थोड़ा छप्पर में.... जल्दी करना ! ”

       लाली ने एक ही सांस में पैग गले से नीचे उतार दिया। खाली गिलास बक्से के पीछे दुबका दिया और सत्ते की तरफ देखकर बोला, “ आज सुबह से ढूंढ रहा हूँ.....दो-तीन जगह देखा, दिखाई नहीं दिये.... कहाँ थे ?

       “ मैं, एक जरूरी काम से गया था। ”

       मुच्छड़ ने बैठे-बैठे आड़ में पैग बना दिया और सत्ते को पकड़ा दिया। सत्ता पैग लेकर थोड़ा-सा घूमा और खम्बे की ओट में पूरा गटक गया।

एक दौर जाम का और चला। बीच-बीच में मुच्छड़ बहाना-सा करके पुराने जूते ही ठोकने लगता।

           लाली तीन पैग पी चुका था। उसे सुरूर हो चला था, वो धीरे-धीरे खुलने लगा....कहने लगा, “ यार आज घर पे भी झगड़ा हो गया......मैं चला आया, “......अब जाऊंगा नहीं.....”

           “ रात में कहाँ रहेगा ? ” सत्ता धीरे से बोला, “ चल फैक्ट्री चल, ऊपर सो जाएंगे सुबह, सुबह निकल जाएंगे......”

           “ अरे नहीं यार ये तेरी लाइन का नहीं है......फैक्ट्री में नहीं सो पाएगा।....तू मेरे साथ चलना,.....दोनों शिकार बनाएँगे...” मुच्छड़ बड़ी आत्मीयता से कह रहा था।

        लाली अभी भी चुप था।

    मुच्छड़ का यद्यपि मोची का काम था, दिन-भर रास्ते की धूल-धक्कड़ के बावजूद भी वो हमेशा साफ-चिट्टे कुर्ते-पाजामे में ही मिलता था। लम्बा-चौड़ा शरीर और उस पर ऊपर की ओर तनी मूछें ! क्या फबती थी।

     लाली को चुप देखकर सत्ते ने इशारे से उसे एक तरफ बुलाया  और उसके कंधे पर हाथ रखकर खंबे के पीछे ले आया और एक आँख दबा कर फुसफुसाया, “साले चला जा मुच्छड़ के साथ...इसकी लड़की है बड़ी टोटा !...जा।”

    कुछ देर दोनों एक दूसरे की तरफ देखते रहे। सत्ता मुस्करा दिया पर लाली चुप रहा, सोचता रहा और बिना कुछ कहे फिर वे दोनों वापस आकर पुरानी जगह पर बैठ गए। लाली बैठे-बैठे सोचने लगा... क्या आदमी है वो मुझे घर ले जा रहा है और ये उसकी लड़की को टोटा बता रहा है, नज़रें गंदी है।...उसे अपने घर के पास की उस लड़की की याद आ गई जो उसे देखकर अक्सर हंस दिया करती है।....उसकी आँखें प्यार भरी है। वो कितनी बार बात करती है मगर न जाने क्यूँ मैं ही नहीं बोल पाता...

     मुच्छ्ड़ ने फिर पैग बनाया और सत्ते को पकड़ाते हुए लाली की तरफ देखकर बोला,“बस अभी चलते हैं,दो-दो पैग मार लें। तू लेगा और ?

    “ न, न...” वो बोला।

    बोतल के खत्म होने तक वे दोनों पीते रहे। मुच्छ्ड़ ने पुराने जूतों के बक्से को जंजीर डाल कर ताला जड़ दिया और बड़े से रंगीन पोलिथिन से ढक कर ऊपर पत्थर रख दिये। पुल के नीचे की गतिविधियां अंधेरे में शिथिल पड़ती जा रही थी। अंधेरे के बढ़ते बढ़ते एक अज्ञात सी उदासी लाली के मन-मस्तिष्क को घेरती जा रही थी। अंत में वे तीनों उसी अंधेरे में वहाँ से चल दिये।

     रात बिन्दा को भूख नहीं लगी। जगन और बूढ़ा कुछ नहीं कह रहे थे, चुप बैठे थे। बिन्दा ने यन्त्रवत खाना बनाया और उन दोनों को खिलाया। लाली के बारे उसने अभी तक कुछ नहीं कहा सब कुछ निबटाने के बाद वो भीतर अपनी चारपाई पर आ गई। रात बढ़ती जा रही थी। समय के साथ-साथ उसकी आँखों में भीतर ही भीतर नमी एकत्र होती गई और छोटे मोतियों की शक्ल में पलकों पर उठती-मिटती रही। वो लेटी थी पर उसके चित्त को चैन नहीं था। आँखों में नींद का नामों-निशान न था।.....क्या टाइम हुआ होगा......उसने अपने आप से सवाल किया। “ नहीं आया....” वो बुदबुदाई, उसके होंठ हिले। ......उसे याद आया.....बचपन में वो ऐसे ही नाराज़ होकर चला गया था। बहुत देर तक नहीं आया फिर बहुत रात न जाने कब बिल्ली की तरह झुग्गी में घुसकर चुपके-चुपके ट्रंक पर रखा खाना खाने लगा। बिन्दा ने उसे कान से पकड़ लिया – वो माँ से चिपक गया.....रोने लगा। रात भर रोती बिन्दा ने उसे गोदमें लेकर कितना चूमा था, कितना प्यार किया था और अपनी कसम दी थी कि अब से कभी नहीं जाएगा।.....उसने रोते-रोते दोहराई थी......इतने बरसों बाद वो फिर चला गया.....फिर से बिन्दा की आँखें नम हो आई। वो अकेली असहाय और भीतर से कमजोर महसूस कर रही थी। पीड़ा में उसके मुंह से निकलने लगा, “......अपना आदमी जिन्दा होता.....”

         भीतर बिन्दा चारपाई पर इस तरह करवट से लेटी थी कि उसकी आंखे दरवाजे पर लगी थी। वो बाहर के ठहरे हुए अंधेरे को देख रही थी वहाँ कोई हलचल नहीं थी पर फिर भी कभी-कभार अंधेरे और रोशनी में अलग-अलग आकृतियों को बनते-बिगड़ते वो खुली आँखों से देखती रही। पुल के ऊपर बड़े वाहनों का शोर दिन की बनिस्पत बढ़ता जा रहा था।

       बिन्दा की रात बड़ी लंबी और बोझिल थी, उसकी छाती पर एक अदृश्य-सा वजन बढ़ता जा रहा था। ढेरों बुरे खयाल, दुस्वप्न और अनिश्चितता ने उसे दबोचे रखा। रात कटी, सुबह की उजास अंधेरे के बिम्बों को मिटाती चली गई और रोज़ की तरह एक चलती-फिरती दुनियाँ वजूद में आने लगी। बूढ़ा उठ बैठा था, बिल्कुल चुप और उदास। जगन साथ की चारपाई पर अभी भी गहरी नींद में औंधा पड़ा था।

      बिन्दा ने बिस्तर छोड़ा और उठ खड़ी हुई। आज उसे बदन टूटा-टूटा महसूस हो रहा था, अंग-अंग में हरारत बनी हुई थी। उसकी पलकें भारी थी और दिल बैठा जा रहा था। उसने जैसे-तैसे इच्छा के खिलाफ मुंह-हाथ धोये और चाय बनाने के लिये चूल्हा जला दिया।

      बूढ़े की नींद भी कब की खुल चुकी थी लेकिन आज न कोई खांसी न खुर्रा और न ही कोई तलब उसे उत्तेजित कर पा रही थी। वो चुपचाप बैठा अपनी छोटी-छोटी आँखों से सामने ठहरे नीम अंधेरे को देख रहा था।

     बिन्दा ने बूढ़े को चाय दी और खुद भी लेकर बैठ गई।.....कुछ मन नहीं कर रहा......वो सोचने लगी और एक बार फिर घूमकर बूढ़े और जगन की तरफ देखने लगी।

    पुल के नीचे, चारों तरफ की दुनिया हरकत में आने लगी। उन घरों से थोड़ा ही आगे बिजली के ट्रांसफार्मर के चारों तरफ लगी जाली के इर्द-गिर्द की दुकानें वजूद में आने लगी। एक तरफ नाई का शीशा टंग गया और बाल काटने की कुर्सी झाड-पोंछ कर उसके आगे सजा दी गई। अब बस ग्राहक का इंतज़ार था। वहीं चाय वाला अपना ठिया चला चुका था, पैन में चाय चढ़ा दी थी। उसी के सामने दो लोग लकड़ी के पुराने बैंच पर बैठे थे। जाली के दूसरी तरफ लटकते टायर यह जता रहे थे कि साइकिल की दुकान अभी खुली नहीं। छोले-भटूरे की जगह भी खाली पड़ी थी और पान वाले का पत्थर वीरान पड़ा था।

         जगन ने लेटे-लेटे माँ को देखा और उठ खड़ा हुआ। आज भट्टी नहीं जलाई। चाय पीकर माँ से बिना कुछ कहे निकल गया। पुल के नीचे-नीचे ही नहीं वो आगे पागलखाने तक एक-एक जगह, एक-एक ठिया दिनभर छानता रहा। भटकता रहा पर लाली का कहीं कोई सुराग न मिला।

          इधर सुबह-सुबह ही मुच्छड़ के घर से निकलकर लाली सत्ते से मिला और दिनभर उसके साथ घूमता रहा। सत्ता फैक्ट्री एरिया में उसे दिखाता रहा। पहले उसकी कुछ चलती थी, कुछ फैक्ट्री मालिकों को उसने डरा रखा था उनसे हफ्ता बंधा हुआ था पर ये सब ज्यादा दिन नहीं चला था। फैक्ट्री मालिकों ने भी गुंडे काम पर रख छोड़े थे। वसूली करीब-करीब बंद हो गई थी। जरा-सी बात पर उनसे लड़ना पड़ता था, उनमें से कुछ तो लाइसेन्स धारी पिस्टल भी लिए हुए थे। ऐसे में गोली लगने, जेल जाने और पुलिस की मार के डर से धन्धा लगभग पिट गया था। अब वो पुल के नीचे की राहजनी पर ही टिका हुआ था।

       दिनभर चलते-चलते वे थककर एक चाय की दुकान में बैठ गए। थोड़ी देर में चाय पीते-पीते सत्ता बोला, “ यार यहाँ छोड़........ फैक्ट्रियों में मुश्किल है।....फिर तुझे कोई काम भी तो नहीं आता।....तू सब छोड़ मेरे साथ रहा कर शाम को। वो काम ठीक है....एक-दो केस कर लो तो ठीक-ठाक कमाई हो जाती है.....”

      लाली चुप था, वह कुछ और सोच रहा था.....कुछ सीख ही लूँ, खराद का काम ?......या कुछ और काम ?..

      “ यहाँ आ, इधर बैठ......” सत्ते ने उसे अपने साथ सटाकर बिठाते हुए धीरे से कहा, “ क्या सोच रहा है ?”

      “ कुछ भी तो नहीं.....”

      सत्ते ने जेब से चाकू निकालकर दोनों के बीच आड़ में खोलते हुए कहा, “ ये देख अपना बिजनिस, अरे हाँ तू तो था ना साथ में....वो परसों। उस दिन इसका काम नहीं पड़ा।  ” सत्ते ने अपनी आँखें लाली के चेहरे पर टिका दी। लाली ने पहली बार इस तरह का चाकू देखा था। अपनी भट्टी पर उसने कई बार दाव बनाई थी पर इस चाकू की चमक ही अलग थी।

      “ तू रख इसको ! चाकू बन्द कर उसके हाथ पर रखता हुआ  सत्ता बोला।

      लाली हैरत से उसे देखने लगा, फिर इधर-उधर देखते हुए धीरे से फुसफुसाया, “ मैं......”

      “ अबे मारना थोड़े ही है......अपनी सेफ़्टी के लिए......जेब में रख ले। ” एक बार सत्ते ने चारों तरफ देखा।

      वहाँ ढाबे में इक्के-दुक्के लोग थे जो अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। किसी का भी ध्यान इनकी ओर नहीं था। कुछ देर लाली ने दोनों हाथों से बन्द चाकू को ढके रखा फिर बिना कुछ बोले पतलून की जेब में रख दिया।

 पश्चिम में सूरज ढल रहा था। बिना कुछ निश्चित किये दोनों के कदम मुच्छड़ के ठिये की तरफ चलने लगे। रास्ते में सत्ते ने लाली को समझा दिया कि आज जल्दी निकल लेंगे वहाँ से.....अपना काम करेंगे कुछ कमाई करेंगे, पैसे बनायेंगे....ठीक है न !

      हाँ, नहीं की उलझन में लाली कुछ न बोल सका, बस साथ-साथ चलता रहा। बहुत चलने के बाद धीरे से बोला, “ एक बात बता यार ये लोग होते कौन हैं जिनसे हम रुपये छीनते हैं ?

      “ कौन मतलब ?.....यही फैक्ट्री में काम करने वाले, कुछ रास्ता भटके लोग, नहीं तो पुल के नीचे से गुजरना कोई पसंद नहीं करता।

     “ गरीब-गुरबे होते हैं क्या ?

     “ हमें क्या लेना.....काम से मतलब रख।.....ऐसे सोचेगा तो हो लिया। ” सत्ता बोला, “ दिल पे मत ले। ”

     लाली चुप रहा, चलते-चलते सोचता रहा.....कैसे न लूँ अगर मेहनत से कमाये रुपये कोई मुझसे छीन ले.......

      “ चल छोड़ यार ये बता मुच्छ्ड़ की लड़की कैसी लगी ?” सत्ते के कदमो की गति धीमी पड़ गई, वो लाली की तरफ देखते हुए मुस्करा रहा था।

       लाली कुछ न बोला। उसे सवाल ही अच्छा नहीं लगा।

       सत्ते ने उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव देखकर सवाल नहीं दोहराया।

      लाली का विपरीत मन होने के बावजूद मुच्छ्ड़ की लड़की उसकी आँखों में धूम गई...क्या बनावट थी !...फिल्मी हिरोइने भी क्या होगी, जो वो थी।...आज अगर अकेली मिली तो बात करूंगा...उसने सोचा।

      मुच्छ्ड़ के ठिये पर सत्ते ने सिर्फ अंधेरा होने तक इंतज़ार किया, लाली को चलने का इशारा कर वहाँ से निकल आया।पुल के नीचे ही ट्रक-टेम्पो की पार्किंग के साथ ही वे आड़ में खड़े हो गये। वहाँ आने-जाने वाले निकट से ही गुजर रहे थे। इस नीम-अंधेरे में ही आदमी को पहचानना पड़ता था कि काबू तो आ जाएगा। सत्ता चलते रास्ते से सटकर खड़ा था। उसका दरमियाने कद का गठा हुआ शरीर था। लाली दोनों ट्रकों के बीच की खाली जगह में टहल रहा था और इंतजार कर रहा था कि कब सत्ता किसी चलते आदमी को बाजू पकड़कर भीतर खींचे और वो उसे गिरा दे।

        बहुत समय नहीं लगा। एक दुबले-पतले आदमी को सत्ते ने खींचकर भीतर धकेल दिया। लाली ने उसे दोनों हाथों से नियंत्रित कर लिया। पलटकर सत्ते ने अड़ंगी देकर उसे गिरा दिया और उसके ऊपर चढ़ गया। एक हाथ से उसने उसका गला दबा दिया तथा दूसरे हाथ से वो उसकी जेबें झाड़ने लगा।.......चाकू मार साले को। ये सत्ते की आवाज़ थी। चाकू मारने की बात पर लाली को खयाल आया कि चाकू तो उसकी जेब में है एक झुरझुरी सी उसके बदन में दौड़ गई। अंगूठी, थैला और जेब के रुपये लेकर वे दोनों उस व्यक्ति को वहीं गिरा छोड़ भाग खड़े हुए।

      आधे घंटे बाद वे दोनों पुल के ऊपर एकांत में मिले। सत्ता रुपये गिनने लगा। फिर थैले में रखा सामान। सोने की अंगूठी सत्ते ने लाली से भी छुपा ली।

       “ रुपये बहुत कम निकले ! ” सत्ता रुपये गिनता हुआ बोला, “ चार सौ और तीस ! उस दिन सही हाथ मारा था तीन हज़ार से ऊपर थे।......ये थैले में कुछ नहीं है......ये खाली टिफिन, आलू-प्याज और ये साफा.....ये सब बेकार की चीजें हैं। ” उसने थैला पुल से नीचे फेंक दिया। दो सौ रुपये लाली को देते हुए बोला, “ ले पार्टनर आज इतना ही......एक बार और चलें ?”

       “ न, न बाबा....” लाली के हाथ में दो सौ-सौ के नोट थे। वो अभी भी उस कमजोर आदमी के बारे में सोच रहा था जिसे वे चित्त पड़ा छोड़ आये थे ट्रकों के बीच ! क्या उसे होश आया होगा ?....कहीं मर तो नहीं गया ?......ये सीन लाली की आँखों के आगे से हट नहीं रहा था।

       “ मैं चलता हूँ। ” सत्ता जल्दी से बोला,“ अरे हाँ, मुच्छड़ के अड्डे मत जाना अगर वो आदमी थाने पहुँच गया तो पुलिस आ सकती है.....ठीक है.....” इतना कहकर वो लोकल ऑटो में चढ़ गया।

       लाली देर तक पुल पर घूमता रहा। उसके दिमागमें आने लगा कि एक बार वहाँ जाकर देखा जाय !.....नहीं-नहीं यार कहीं पुलिस ?... वो देर तक सोचता रहा और फिर पैदल ही मुच्छड़ की झुग्गी की तरफ चल दिया।

       उस रात मुच्छड़ के बहुत कहने पर भी लाली ने शराब को छुआ तक नहीं। उसके गले से कुछ भी नीचे नहीं उतर रहा था। रात भर वो करवटें बदलता रहा। कच्ची-पक्की नींद में उनींदा-सा पड़ा रहा।...सत्ते ने उस आदमी की गरदन एक हाथ से दबा रखी  थी।...उसकी आवाज़ भी नहीं निकल पाई...वो तड़फ रहा था...बेचारा ! मजदूर रहा होगा किसी फ़ैक्टरी में ! लाली को उसकी छटपटहट और पकड़ से छूटने की जद्दोजहद सपनों के अहसास-सी रात भर दिखाई देती रही।                                               

 सुबह भारी बेचैनी और थकान भरी थी। वो असहज महसूस कर रहा था। मुच्छड़ को कोई जरूरी काम बता कर वो बाहर निकल आया। मन अच्छा नहीं था, एक बोझ सिर पर बना हुआ था। वो रुक गया, कान पकड़ कर सूरज की ओर देख कर तौबा करने लगा, “ अब कभी नहीं ! भूखा मरना मंजूर है लेकिन ये लूट-मार का धंधा बिलकुल नहीं। ” नफरत, डर और घिन उसके भीतर इकट्ठी हो गई।  चलते-चलते वो एकांत में रेल की पटरियों के समांतर पहुँच गया फिर खड़े होकर जेब से चाकू निकाला और पूरी ताकत से पटरियों की तरफ फेंक दिया। उसे थोड़ी राहत महसूस हुई, वो दूर तक जाती पटरियों को देखने लगा, कभी उसे ऐसे देखना बहुत सुहाता था लेकिन आज उसे अपने घर की याद सताने लगी...... उसका अपना घर, वो धुंधला, अस्पष्ट और धूल भरी आकृतियाँ उसकी आँखों में बनती जा रही थी......आस-पास सब कुछ ठप्प-सा ! न पान मसालों के गुटकों की लड़ियाँ लटकी थी, न लोहे के औज़ार, ईंटों के बने थड़े पर रखे थे। बूढ़ा बाबा अपनी जगह से गायब था....... भट्टी ठंडी पड़ी थी।......कल्पना मात्र से वो डर गया, उसकी धड़कनें बढ़ गई। वो रुक कर स्वंय को संयमित करने में लगा रहा।.......फिर चलने लगा.....चलता गया.....रेल की पटरियाँ पीछे छूट चुकी थी। उसने खड़े होकर जगह का जायजा लिया। ये बॉर्डर था,वो वहाँ बेसबब दो दिन तक घूमता रहा।

 

.....बिंदा का शरीर आग-सा तप रहा था। चारपाई के साथ नीचे कनस्तर पर बैठा जगन पाँव दबा रहा था। बिंदा की आँखें बंद थी। उसके होंठ कभी फड़फड़ाते और एक अदद आह भीतर की हवा में घुल जाती।

     घर के बाहर बूढ़ा गहरी उदासी लिए चुप-चाप बैठा था। फैक्ट्रियों से निकलता जहरीला धुआँ पुल के नीचे की हवा पर बुरी तरह काबिज हो रहा था।

     कई दिनों से बुखार में पड़ी बिंदा को देखने कल जगन एक झोला डाक्टर को लाया था लेकिन चार-पाँच खुराक दवाई लेने के बावजूद बुखार था कि उतरने का नाम नहीं ले रहा था। घर में खाने की किल्लत बन गई थी। काम तो ठप्प ही हो गया था। एक पैसे की कमाई नहीं रह गई थी। जगन कभी चूल्हे पर कुछ पका लेता, कभी बाहर सेले आता। सुबह मुशकिल से कुछेक गुटके और बीड़ी के बंडल ही बिक पाते।

     जगन ने कल बिंदा को अस्पताल ले जाने की सोच रखी थी लेकिन वो निराशा से भर रहा था। आखिर जेब में कुछ तो पैसे होने ही चाहिए। आजकल हर छोटी-छोटी बात में पैसा लगता है।

    ........यहाँ, सब कुछ ठहर गया था। बीमारी,पीड़ाऔर भुखमरी ने डेरा डाल लिया था। जीवन अपंग-सा जमीन पर रेंग रहा था।

 

 दोपहर भारी पड़ रही थी।...लाली के कदम स्वाभाविक ही मुच्छड़ के ठीये की ओर बढ्ने लगे, वो बलात स्वंय को रोकते हुये बुदबुदाया, “ अबे साले ! वहाँ तो सत्ता होगा ? उसकी सूरत नहीं देखनी मुझे।......पता नहीं वो आदमी मर तो नहीं गया....” उसने आँखें मूँद ली, “ हाँ, हाँ.....ओ !” उसके मुँह से इस प्रकार की ध्वनि उठी। भीतर का एक और खौलता हुआ सवाल उसके पपड़ी बने होठों पर ठिठक गया, “ माँ कैसी होगी ? ”....वो माँ को याद करता रहा, गाहे-बगाहे उसकी आँखें आंसुओं से तर होती रही.....अपना ही काम ठीक है, वही करूंगा। हथौड़ा चलाऊँगा....काम की कमी नहीं है, बहुत लोग आते हैं औज़ार सही करवाने......

     उस शाम सोच-विचार कर लाली ने घर का रुख किया। वो पुल  की घुमावदार सीढ़ियों से उतरने लगा। अंतिम सीढ़ी तक आते-आते ठिठक गया। सामने बुलडोजर चल रहा था,उखाड़ता चला जा रहा था, ईंटों और मिट्टी की झोपड़ीनुमा आकृतियों को !......थोड़ी ही देर में वो सब मिट्टी-ईंटों के ढेर में तब्दील हो गया। ये सब पुलिस के घेरे के बीच  चल रहा था। वहीं जगह-जगह लोग भी भीड़ लगाये खड़े थे।

      बुखार में तप रही बिंदा, बहुत बोली थी लेकिन अब पस्त होकर फुटपाथ पार की चारपाई पर निढाल लेटी थी। उसी चारपाई  पर बैठा जगन चुपचाप तमाशा सा देख रहा था। शायद कोई चारा न बचा था।

     वहाँ सब कुछ उजड़ चुका था। सरकारी मास्टर प्लान में उस जगह से सड़क जाती थी जो नये बने अंडरपास से जुड़ती थी।

     लाली देर तक सीढ़ियों की जड़ में खड़ा रहा। उसका दिल कर रहा था कि बुलडोजर पर हथौड़े बजा दूँ !.......लेकिन परिस्थितियों के दबाव में वो अपने-आप को जब्त किये रहा। कुछ देर बाद वो धीरे-धीरे चलने लगा और भीड़ के पीछे से होता हुआ फुटपाथ पार की उस चारपाई पर बैठ गया, ठीक बिंदा के पाँव की ओर। जगन ने मुड़ कर देखा, उसे थोड़ी हैरानी हुई लेकिन सामने बुलडोजर कुचलता जा रहा था किसी भी तरह की बनावट को.......इस विनाश लीला के सामने कुछ भी नहीं था वो छोटा सा विस्मय ! बूढ़ा जो वहीं सामान पर बैठा था उसने लाली को पहचान लिया। शायद बिंदा को उसकी उपस्थिती की भनक लग गई लेकिन बिना प्रतिक्रिया किये वो चुप पड़ी रही।

     लाली अपने सामने सब कुछ टूटते देखता रहा। उजड़ने का सदमा वो झेल चुका था.... वहीं से पैदा नए सवाल, क्या करेंगे ? कहाँ जाएंगे ? उसे झकझोर रहे थे।

     भीड़, पुलिस, और बुलडोजर जा चुके थे। हल्ला-गुल्ला, धूल के कणों-सा नीचे धरती की सतह पर बैठ गया। वे तीनों बुत-से अपनी-अपनी जगह पर जस-के-तस बने हुए थे। सामने उजड़ा हुआ मंजर था जिस के चारों तरफ से अंधेरा घिरने लगा। यहाँ-वहाँ छोटे-छोटे बल्ब जल उठे थे। पुल के नीचे, सड़क पर इक्के-दुक्के लोगों का आना-जाना रह गया था। “....मंगल है आज ? अंधेरे को देखते हुए लाली बुदबुदाया। “....हाँ मंगल !” उसने स्वमं दोहराया। फिर कुछ सोचकर उसने सवाल किया, “ सामान कहाँ है? ” बिंदा, जगन ने सवाल से उठे आश्चर्य से उसकी तरफ देखा और पीछे की ओर इशारा कर दिया।

     उसने पीछे आकर वहीं से बोरी ढूँढी और एक-एक कर सामान भरने लगा......तवे, चिमटे, खुर्पियां......

     उस भरे बोरे को पीठ पर लाद लाली अंधेरे को लांघते हुए उन तारों-से टिमटिमाते बल्बों की रोशनियों की ओर चल दिया जहां मंगल बाज़ार अभी लग ही रहा था।

    बिंदा, जगन और बूढ़ा उसे अंधेरा पारकरते हुए देख रहे थे। 

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टिप्पणियाँ

  1. कहानी जीवन के कई परतों को खोलती है। कहानी के लिए गजेंद्र रावत जी को बहुत-बहुत बधाई

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गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

कहानी : तोहफा : परिधि शर्मा / KAHANI:TOHAFA : PARIDHI SHARMA

    परिधि की कहानी तोहफा छत्तीसगढ़ में औद्योगिकरण से उपजी भीषण समस्याओं की ओर इशारा करती है। उद्योगों से निकले गर्म राख के निदान की ओर उद्योगों के मालिकों का कोई ध्यान नहीं रहता क्योंकि इसके समुचित निदान में बहुत अधिक खर्च होने की संभावना बनी रहती है। उद्योगों के मालिक गर्म राख को जहां जगह मिलती है वहीं डंफ कर देते हैं । छत्तीसगढ़ में खेल के मैदान और किसानों की जमीनें भी इससे बर्बाद हो रही हैं क्योंकि वहां भी जोर जबरदस्ती यह गर्म राख आए दिन डंफ कर दिया जाता है। तोहफा कहानी में जन्म से अंधी एक लड़की बबली भी इसी गर्म राख से जलने का शिकार होती है । बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं। उनकी आवाज सुनकर जन्म से अंधी लड़की बबली भी एक लाठी के सहारे मैदान की तरफ बढ़ती है और गर्म राख से झुलस कर उसकी मृत्यु हो जाती है । इस मृत्यु पर नोटिस लेने वाला गांव में कोई नहीं मिलता। उद्योग मालिकों के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठती । यहां तक कि लड़की के पिता की ओर से भी चुप्पी साध ली जाती है क्योंकि फेक्ट्री का मैनेजर लड़की के पिता के घर आकर अपने बिरूद्ध बन रही सारी परिस्थितियों को पैसे के बल पर मैनेज कर लेता है।

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

असमर्थ युग के समर्थ लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं"

मैक्सिम गोर्की असमर्थ युग के समर्थ लेखक के रूप में पहचाने जाते हैं। जन्म के समय अपनी पहली चीख़ के बारे में मैक्सिम गोर्की ने एक जगह स्वयं लिखा है- 'मुझे पूरा यकीन है कि वह चीख घृणा और विरोध की चीख़ रही होगी।' इस पहली चीख़ की घटना 1868 ई. की 28 मार्च की 2 बजे रात की है लेकिन घृणा और विरोध की यह चीख़ आज इतने वर्ष बाद भी सुनाई दे रही है।मैक्सिम गोर्की ऐसे क्रांतिकारी और युगद्रष्टा लेखक थे जिन्होंने लेखन के माध्यम से ऐसा रच दिया कि आजतक कोई रच नहीं पाया। जीते जी उन्हें जो कीर्ति मिली , जो सम्मान मिला वह किसी अन्य को नहीं मिल पाया।   पीड़ा और संघर्ष उनकी रचनाओं का मुख्य कथानक है। यह सब उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता बढ़ई थे जो लकड़ी के संदूक बनाया करते थे । उनकी माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के बिरूद्ध विवाह किया था। यह दुर्भाग्य रहा कि मैक्सिम गोर्की सात वर्ष की आयु में ही  अनाथ हो गए। वे माँ की ममता से वंचित रह गए।  माँ की ममता की लहरों से वंचित हुए गोर्की को वोल्गा की लहरों द्वारा ही बचपन से संरक्षण मिला। शायद इसलिए उनकी 'शैलकश' और अन्य कृतियों में वोल्गा का सजीव चित्र