कविता की आँख से खगेंद्र ठाकुर के अमूर्त संसार को देखना
- रमेश शर्मा
(आलेख : परिकथा खगेन्द्र ठाकुर विशेषांक मई - अगस्त 2020 से साभार)
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बस ऐसे ही रहने दो मुझे
अनदेखा, अनजाना
मरने दो मुझे बिना शोक , बिना रोए
छुपा लो इस दुनिया से
जहाँ एक पत्थर भी न बताए
कि मैं कहाँ हूँ लेटा
कहाँ सोया !
-एलेकजेंडर पोप
कई बार कविता की पंक्तियां कवि को देखने का एक सुनहरा अवसर देती हैं । कविताओं के माध्यम से कवि को देखना उसकी भीतरी दुनिया से गुजरने का एक सुखद सा अनुभव भी देता है । मैं खगेंद्र ठाकुर से बस एक बार मिला था । छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सितंबर 2016 में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के 16वें राष्ट्रीय अधिवेशन में । तब वे वहां आए हुए थे। अपनी बाहरी दुनिया में धोती कुर्ता पहना हुआ बिल्कुल एक साधारण सा आम आदमी , जिसे मेरी आँखें उत्सुकता से ठहरकर उस दिन देखती रहीं। मैंने मिलकर उनसे बात भी की । ऐसा बहुत कम होता है कि जो हम बाहर देखते हैं वह भीतर भी महसूस करते हैं , पर उनसे मिलकर मैंने जो बाहर से देखा वह भीतर से भी महसूस हुआ । यह एक छोटी मुलाकात थी । एक छोटी सी मुलाकात में किसी रचनाकार के बारे में सब कुछ जान पाना संभव नहीं होता ।इस छोटी सी मुलाकात के बाद उन्हें और जानने की जिज्ञासा मेरे भीतर बढ़ती गयी । आगे चलकर उनकी भीतरी दुनियाँ को देखने समझने का माध्यम उनके आलोचकीय वक्तब्य और उनकी कविताएं ही बन सकीं।
‘‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही‘‘ बकौल शमशेर किसी व्यक्ति की कही गई और लिखी गई बातें ही उस व्यक्ति को जानने और समझने का सबसे जरूरी और सशक्त माध्यम होती हैं ! उस मुलाकात में अपनी खुली आंखों से जब मैंने उन्हें देखा तो उन्हें, गहराई में जाकर जानने के लिए मेरे भीतर की बढ़ती जिज्ञासा को शांत करने का एक ही सुलभ माध्यम था .....उनकी कविताएं ! खगेंद्र ठाकुर जिन्होंने साहित्य आलोचना कर्म में बतौर लेखक-विचारक बड़ा नाम कमाया , वे एक कवि के रूप में मुझे भीतर तक प्रभावित कर गए। यह प्रभाव उनकी भीतरी दुनियाँ का मेरी (अर्थात एक पाठक की )भीतरी दुनियाँ में आत्मसात्मीकरण जैसी घटना थी ।
खगेंद्र ठाकुर की कविताओं से जब हम गुजरते हैं तो लोक के जुड़ाव की सार्थकता का बोध होने लगता है।
उनकी एक कविता है ‘‘रक्त कमल धरती पर‘‘
इस कविता की हर पंक्ति जैसे हमसे कुछ कहना चाहती है । यह बोलती कविता
दुनियाँ में पूंजी द्वारा गढ़ी गयी गहरी खाई और सर्वहारा के संघर्ष का वह जीवन्त चित्र रचती है कि जैसे आंखें फटी रह जाती हैं । कविता जैसे खगेंद्र ठाकुर की अमूर्त वैचारिक दुनिया को मूर्त कर देती है । वहां उनकी बाहरी और भीतरी दुनिया एकाकार होने लगती हैं ।वेशभूषा रहन-सहन जीवन शैली को जीने की उनकी जो साधारणता है और भीतरी वैचारिक दुनिया में लोक की पक्षधरता और उसका जो सौंदर्य है, दोनों ही मिलकर कवि की विश्वसनीयता को स्थापित करते हैं । चर्चा के क्रम में ‘‘रक्त कमल धरती पर‘‘ कविता की पंक्तियों को देखें और ऊपर लिखे को परखने की कोशिश करें -
वहाँ हर तरफ
उठे हैं अनगिनत हाथ
हर तरफ से अनगिनत कदम
चल पड़े हैं एक साथ
ये कदम चले हैं वहाँ
बीहड़ पर्वत के पार से
ये कदम चले हैं
गहरी घाटी के अंधियार से
पहाड़ों पर दौड़ कर
चढ़े हैं ये मजबूत कदम
धुएं की नदी पार कर के
बढ़े हैं ये जंगजू कदम
रोशनी के बिना
घोर जंगल है जिन्दगी जहाँ
ये कदम बना रहे हैं
किरणों के लिए द्वार वहाँ
अनगिनत हाथ
उठे हैं जंगल से ऊपर
ये हाथ उठे हैं
पूँजी के दानव से लड़ कर
ये हाथ हैं जो
कोयले की आग में तपे हैं
लोहे जैसा गल कर जो
इस्पात-से ढले हैं
इन हाथों ने
अपनी मेहनत की बूंदों से
सजाया है
पथरीले जीवन को फूलों से
हमने देखा हर हाथ
यहाँ एक सूरज है
हर कदम यहाँ
अमिट इतिहास-चरण है
इन्होंने गढ़ डाला है
एक नया सूरज धरती पर
उगाये हैं यहाँ अनगिन
रक्त कमल धरती पर !
कवि की कविताओं के माध्यम से कवि पर लिखे को परखना आसपास की दुनिया के राजनैतिक और सामाजिक द्वन्द को करीब से देखने समझने का एक माध्यम भी है । आज की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में ज्यादातर लोग एक द्वंद में फंसे हुए दिखते हैं। उनका राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं होता। उनका द्वंद उनके दृष्टिकोण को धुंधला बना देता है । ऐसे में कविता का यह धर्म है कि वह पाठक के सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण को स्पष्टता प्रदान करे। खगेंद्र ठाकुर की ‘‘हम काले हैं‘‘ जैसी कविता पाठक को लोक के करीब ले जाकर उसे उसी द्वंद से बाहर निकालने का काम करती है । यह कविता श्रमिक और श्रम की महत्ता को न केवल स्थापित करती है बल्कि उसके साथ-साथ उसके संघर्ष की ताकत का भी एहसास कराती है । वह अगर काला कोयला है तो समय आने पर आग के गोले में भी बदल सकता है -
हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे कोयला
जब जलता है तो
हो जाता है बिलकुल लाल
आग की तरह
गल जाता है लोहा भी
जब उसमें पड़ जाता है।
हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे कोयला
जब जलता है तो
हो जाता है बिलकुल लाल
आग की तरह
चमड़ी खींच लेता है
जब कहीं कोई भिड़ता है।
हाँ, हम काले हैं
काला होता है जैसे बादल
जब गरजता है तो
बिजली चमक उठती है
कौंध जाती है
जिससे दुनिया की नजर।
हाँ, हम काले हैं
काली होती है जैसे चट्टान
फूटती है जिसके भीतर से
निर्झर की बेचैन धारा
जिससे दुनिया की प्यास बुझती है।
हाँ, हम काले हैं
काली होती है जैसे मिट्टी
जब खुलता है उसका दिल
तो दुनिया हरी-भरी हो उठती है।
जब जलता है तो
हो जाता है बिलकुल लाल !
खगेंद्र ठाकुर की कविताओं में उनका राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण सुस्पष्ट है । उनकी यह वैचारिक सुस्पष्टता उनके बाह्य जीवन की मूर्तता से भी गहरा मेल खाती है ।
अपनी कविता ‘‘मेरा सीना हाजिर है‘‘ के जरिए लोकतंत्र में लोक की विवशता को चित्रित करते हुए अपनी भीतर की चिंता और विवशता को दिखाने से भी वे नहीं चूकते । यह चिंता,यह विवशता जनमानस के लिए आज सबसे बड़ी समस्या है , जिससे चाह कर भी छुटकारा पाना आज संभव नजर नहीं आता । समस्याओं के प्रति आगाह करना कविता का निकष है ।कविता इससे ज्यादा कर भी तो नहीं सकती। समाज को वैचारिक गति प्रदान करना कवि और कविता दोनों का धर्म है और इस धर्म को खगेंद्र ठाकुर अपनी भीतरी अमूर्त दुनियाँ में भली-भांति निभाते हुए दिखाई पड़ते हैं । ‘‘मेरा सीना हाजिर है‘‘ कविता से गुजरना लोक की उसी विवशता का भयावह चित्र रचती है जिसे आज हम खुली आँखों से देख भी रहे हैं-
नहीं, नहीं
इसे किसी तरह नहीं समझें
मेरा विद्रोह आप
बात इतनी-सी है कि
इस पूरे शहर में कहीं भी
जहाँ मैं पैदा हुआ और पला बढ़ा
अपने पसीने के मोती से कितने कंगूर सजाये
वहाँ मेरा कोई घर नहीं है
इसीलिए सो गया हूँ मैं
सड़क पर ही
रात का समय जान कर,
मुझे क्या पता महाराज कि
निकल आएँगे आप रात में भी,
आपके रास्ते में अवरोध हो गया है,
नहीं, नहीं,
ऐसा नहीं हो सकता
चले आइये आप
कदम बढ़ाइए आगे
मेरा सीना हाजिर है
आप पाँव उस पर
रखिये और बढ़ जाइए
नहीं कोई खतरा नहीं है
मैं शांतिप्रिय नागरिक आपका मतदाता हूँ
जनतंत्र है यह
और यह जनता का सीना है
संकोच मत कीजिए
किसी से नहीं कहूँगा मैं
आप तो अपने आदमी हैं
फिर अभी तो घुप्प अँधेरा है
कोई देखेगा भी नहीं
कि आपने पाँव रखा मेरे सीने पर
लेकिन जरा जल्दी कीजिए
रात का अंतिम पहर है यह
कुछ ही देर में
माहौल बदलने वाला है
कुछ ही देर बाद
आ धमकेगा सूरज
फिर तो दुनिया देख लेगी
मेरे सीने पर आपके पैर
फिर करवट बदलूंगा
आपके गिर जाने का
खतरा पैदा हो जाएगा तब
अभी कोई बात नहीं है
चले आइये आप
मेरे सीने पर कदम रख बढ़ जाइए,
हाँ, जरा जल्दी कीजिए !
रिश्तो में संवेदना का जो फैलाव है वह पारिवारिक रिश्तों तक ही सीमित नहीं रहता। वह आगे भी फैलता है। एक संवेदनशील मनुष्य, एक संवेदनशील रचनाकार की संवेदना बहुत व्यापक होती है। उसकी व्यापकता उसे लोक से जोड़ती है। खगेंद्र ठाकुर की मां जैसी कविता को पढ़ते हुए मेरे भीतर यह जो धारणा बनी है भीतर जन्मे एहसास ही उसके प्रमाण हैं।
प्रगतिशीलता का मूल्य इस अर्थ में है कि लोक में जो जनहितैषी मान्यताएं हैं उन मान्यताओं के प्रति आस्था भी बनी रहे । उन लोक मान्यताओं में समाज की सुंदरता बनी रहती है । जब ये मान्यताएं टूटती हैं तो समाज थोड़ा विद्रूप होने लगता है। ‘‘पुरानी हवेली‘‘ जैसी कविता ऐसे ही अर्थ गढ़ती है-
इस हवेली से
गाँव में आदी-गुड़ बंटे
सोहर की धुन सुने
बहुत दिन हो गए
इस हवेली से
सत्यनारायण का प्रसाद बंटे
घड़ी-घंट की आवाज सुने
बहुत दिन हो गए
इस हवेली से
किसी को कन्धा लगाए
राम नाम सत है- सुने
बहुत दिन हो गए
इस हवेली की छत पर
उग आई है बड़ी-बड़ी घास
आम, पीपल आदि उग आये हैं
पीढ़ियों की स्मृति झेलती
जर्जर हवेली का सूनापन देख
ये सब एकदम छत पर चढ़ गए हैं.
इस हरियाली के बीच
गिरगिटों, तिलचिट्टों के सिवा
कोई नहीं है, कोई नहीं है !
खगेंद्र ठाकुर की कविताएं जीवन के हर पक्ष पर जीवंत संवाद करती हैं । इन कविताओं के माध्यम से खगेंद्र ठाकुर की भीतरी दुनिया को साफ-साफ देखा जा सकता है कि वह कितना स्वच्छ और कितना निर्मल है, कि उसमें लोक का निवास बहुत सघनता में है । कि वे बाहर से जिस तरह दिखाई देते हैं भीतर से भी वे वैसे ही हैं। उनकी साधारणता ही उन्हें असाधारण रचनाकार का दर्जा देती है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !
वाह बहुत सुंदर आलेख। बधाई
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