सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अपरूपा पंडित की कविताएँ

 

"क्योंकि दुःख घुल जाता है उसके जल में" 

अपरूपा पंडित की कवितायेँ पहली बार मैंने परिकथा में पढ़ी थीं | वे वर्तमान में लामडिंग असम में रहती हैं और वहां के एक विश्वविद्यालय में हिन्दी बिषय में पीएचडी स्कॉलर हैं | अपरूपा बाहरी दुनियां को अपने भीतर जिस संवेदना के साथ गहराई में जाकर महसूस करती हैं उस महसूसने को उनकी कवितायेँ भलीभांति रिप्रेजेन्ट करती हैं | जीवन यात्रा और उससे उपजे अनुभव और स्मृतियों को अपने अतीत और वर्तमान की आँखों से देखने परखने का एक अलहदा नजरिया अपरूपा के पास है , वह नजरिया उनकी कविताओं में घुला मिला है | प्रकृति और मनुष्य के अंतर्संबंधों से उपजी संवेदनाएं, जीवन के सुख दुःख को सहजता से भांप लेती हैं , तभी तो वे अपनी कविता नदी उदास नहीं होती में कहती हैं ---- "क्योंकि दुःख घुल जाता है उसके जल में" ! अपरूपा का अनुग्रह के इस मंच पर हार्दिक स्वागत है !





 1.नदी उदास नहीं होती
--------------------------------
नदी
बहती रहती पुल के नीचे
अपनी धुन में
दायें - बाएं किनारों से
गले मिलती ,बहती रहती
उसे कहाँ पता होगा
कि पुल पर खड़ा आदमी
कब से देख रहा उसे
अपलक
कुछ कौतूहल
कुछ बेजार सा
मगर नदी बहती रहती
क्या कभी ठहरकर
पुल पर खड़े आदमी से
उसने पूछा होगा
कि क्या सोच रहे भाई
कौन हो , कहाँ से आये
किनारे जल रही चिता
और उसके पास कुछ खड़े कुछ बैठे लोग
हवा में उठती जलते तन की चिराइन्ध गंध
मन को जाने कैसा बना देती है
क्या नदी को भी महसूस होता होगा
कभी क्षण भर के लिए रूककर पूछा होगा उसने
कि किसकी चिता जल रही
बच्चे , बूढ़े या नौजवान की?
असल में नदी को कुछ भी नहीं मालूम
वह तो बहती जाती
सदियों से जलती चिताओं के धुएं
और उनके परिजनों के चेहरे पर फैले
अपार दुःख को
अपने अथाह जल में समेटे
नदी अपना दुःख जाहिर नहीं करती
क्योंकि  दुःख घुल जाता है उसके जल में !
2.अप्रत्याशित जीवन
-------------------------
जो भी घटा इस  जीवन में
वह अप्रत्याशित है?
मगर मैंने तो खुद चुना है इसे
अतीत  वाह  है
जितनी बार आया वो करीब
हाथ छुड़ा लिया मैंने  
हमेशा करती रही प्रतिवाद
एक बार तो खुदा
भी देता होगा मौका प्रायश्चित का
पर न दिया इस अभिमानी मन ने
अहम के विकट बोध ने
सुला दिया गहरी नींद में
एक अनसुनी तड़प को
जिसमें आज जल रही हूँ मैं
मिथ्या बोध के
मुर्दा क्षण  में
आज क्यूँ लगा हो रहा
उसकी नफरत से
उससे मुक्ति चाहने वाला यह मन
आज क्यूँ चाह रहा है
फिर से कैद होना ?
 
3.एकांत
---------------------
एकांत एकांत और एकांत
क्या खुद को सबसे
अलग करके रखने का नाम है एकांत?
दूर कहीं पहाड़ की चोटी पर
बैठे आसमान की ओर देखना है एकांत ?
भरी महफिल का उल्लास छोड़कर
खुद को अंधेरे कोने में समेट लेना
ही एकांत ?
हाँ.... हाँ
तुम नहीं समझोगे
तुम तो रहते हो उस वर्तमान में
जो शाश्वत से है कोसों दूर
हाँ मैंने जानना चाहा
शुरू से शेष प्रांत तक
गहरी निस्तब्धता के
उन उन्मादी ख़यालों में
जहां तुम्हारी मौजूदगी
हरेक क्षण मेरे साथ थी !
 
व्यस्तता भरे जीवन के
भाग दौड़ से क्लांत होकर भी
एक ही चीज ढूंढती हूँ
तुमसे खयालों में मिलना
प्यार, नाराजगी और विषाद
हर दशा में अविरल धारा सी
क्या अब भी तुम कहोगे
एकांत सिर्फ और सिर्फ एकांत !
 
 
4.भूली बिसरी यादें
---------------------------------
भूली बिसरी यादें
पता नहीं क्यूँ
आज फिर  ताजा
हो गयीं  
मेरी आँखों के कोनों से
झरती बूंदों में
बरसों बाद आज मैंने
फिर से नहा लिया
धुंधली यादों के साये में !
 
आज आसमान देखो
कितना सौम्य दिखता है
न अमानिशा
न ही पूर्णिमा
आज मेरी दृष्टि जा रही है
उस पहली बरसात की ओर
जहां से शुरू हुई थी
प्रथम प्रणय की पहली यात्रा
एक बाली लड़की
जिसे न वर्तमान की चिंता
न भविष्य का डर
बस एक छोटी सी चाहत लिए
जी रही थी अपनी छोटी सी दुनिया
इतिहास गवा है
कि समझदारी प्रेम की भाषा नहीं
फिर क्यों प्रताड़ित हो रही थी
बार बार !
 
जिसे वह अब तक प्यार
ही समझ बैठी थी
फिर उसके बाद  
वह धीरे धीरे सब कुछ खो बैठी थी
मित्र, परिवार
यहाँ तक कि
अपनी आत्मा को भी !
 
आत्मा  क्षत विक्षत होती है
तब  ढूंढने लगती  है
सहारे का हाथ
मिला हाथ ऐसा
जैसे मुरझाए हु पौधे को
कुछ बूंद पानी मिला हो  !
 
धीरे धीरे वह ढूंढने लगी
बोध , आत्मसम्मान की परिभाषा और एक पहचान
और साथ में समझ रही थी
ढाई आखर प्रेम की एक अलौकिक परिभाषा
फिर वह दिन आ ही गया
जिस दिन उतार फेका
अपने मन,  अपनी चिंता पर पड़ी बेड़ियों को !
 
आज नदी शांत है
फिर भी लहरें मानो बीच बीच में
किनारे को डुबो देती हैं
भूले बिसरी यादों के साथ!
 
5.जाने कहां छुप गया
---------------------------------
कहां छुप गया मेरा
उल्लसित शैशव
खोज रही हूं वही शोर
जो बंद आँखों की
स्मृतियों में अब भी किरकिराता है
और भर आता है खारा जल
जाना चाहते हैं पांव
पीछे की ओर
पर उस तरफ तो धुंधला सा है
अब एक महाशून्य
मेरी खोई
वीरान आंखों की नींद को
यादों ने निर्वासित कर दिया है
रह गहैं बादल के फाहे की तरह
उड़ती उदासियां
खाकर हवा के झोंके
इन्हीं के बीच ढूंढ़ती हूं
अपने बचपन के साए
कहां छुप गयीं बचपन की वो रंग बिरंगी किताबें
जिनमें दर्ज है मेरी अपनी कहानी
हरे भरे बचपन की
मैं ही हूं मुख्य पात्र
और मैं ही
वह गूंगा दर्शक जो
स्थिर चित्त से देख रहा !
 
याद है वह चंदा मामा
जिसे भर लेने को
जी मचलता था
कुछ भी नहीं रहा
सब फिसल गया
मुठ्ठी में भरी रेत की तरह
जिनमें ढूंढ़ती हूं
बचपन के छोटे छोटे
पैरों के निशान
कमरे में भरा है अनसुना सा कोलाहल
एकांत सन्नाटा पसरा है
मुझे घेरकर
साथी बनकर
पर जाने कहां खो गए
बचपन के साथी के
वो छोटे छोटे हाथ
जो मचल उठते थे आलिंगन के लिए
आज क्यों नहीं देख पाती
खींच रहा पीछे
न जाने कौन
शायद शैशव की
स्मृतियां
और क्या मैं यही नहीं ढूंढ़ रही  
वर्षों से
सदियों से
शायद अनन्त काल से !
-------------------------
संपर्क :  aparupapandit100@gmail.com 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

रायगढ़ के एक विरले पाठक से जुड़ीं स्मृतियाँ रतन सिंह विरदी (21 सितम्बर 1933-26 अप्रेल 2015)

रतन सिंह विरदी (21 सितम्बर 1933-26  अप्रेल 2015) --------------------------------------- रतन सिंह विरदी जी को गुजरे 9 साल हो गए। आज  उनका जन्म दिवस है । वे रायगढ़ के उन विरले लोगों में से रहे जिन्हें किताबें पढ़ने का शौक जीवन के अंत तक  रहा। वे नई नई किताबें ढूंढकर पढ़ते थे और कई बार खरीदकर डाक से मंगवाते भी थे।अच्छी वैचारिक और साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक ही उन्हें भीड़ से अलगाता था। कई बार उनसे जिला लाइब्रेरी में मुलाकातें हो जातीं थीं। कई बार उनके नवागढ़ी राजापारा स्थित घर पर मिलने भी जाना होता। उनकी प्रेरणा से कई बार हम जैसे आलसी लोगों के माध्यम से रायगढ़ में वैचारिक  गोष्ठियां भी हुईं और उनके विचारों की दुनियां के करीब जाने का हमें अवसर भी मिला। कम संसाधनों के बावजूद किताबों से प्रेम करने वाले व्यक्ति मुझे बाहर और भीतर से हमेशा सुंदर लगते हैं । रतन सिंह उन्हीं लोगों में से थे जिनकी पूंजी किताबें हुआ करती हैं। ज्यादा कुछ तो नहीं, खुले शेल्फ में उनके घर में बस किताबें ही दिखाई देती थीं। उन्हें कहानी एवं कविताओं की बेहतर समझ थी। वे कहानी, कविता एवं अन्य वैचारिक मुद्दों पर भी अक्सर चर्चा

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

गांधी पर केंद्रित कुछ कविताएँ - रमेश शर्मा

गांधी पर केंद्रित रमेश शर्मा की कुछ कविताएँ आज गांधी जयंती है । गांधी के नाम को लेकर हर तरफ एक शोर सा उठ रहा है । पर क्या गांधी सचमुच अपनी नीति और सिद्धांतों के स्वरूप और प्रतिफलन में राजनीति , समाज और आदमी की दुनियाँ में अब भी मौजूद हैं ? हैं भी अगर तो किस तरह और  किस अनुपात में ? कहीं गांधी अब एक शो-केस मॉडल की तरह तो नहीं हो गए हैं कि उन्हें दिखाया तो जाए पर उनके बताए मार्गों पर चलने से किसी तरह बचा जाए ? ये ऐसे प्रश्न हैं जो इसी शोर शराबे के बीच से उठते हैं । शोर इतना ज्यादा है कि ये सवाल कहीं गुम होने लगते हैं। सवालों के ऊत्तर ढूंढ़तीं इन कविताओं को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी ब्लॉग पर ही टिप्पणी के माध्यम से व्यक्त करें--  १. हर आदमी के भीतर एक गांधी रहता था कभी  ---------------     एक छाया की तरह है वह तुम चलोगे तो आगे जाएगा  पकड़ने की हर कोशिशों की  परिधि के बाहर ! बाहर खोजने-पकड़ने से अच्छा है  खोजो भीतर उसे तुम्हारी दुनियाँ के  किसी कोने में मिल जाए दबा सहमा हुआ मरणासन्न ! कहते हैं  हर आदमी के भीतर  एक गांधी रहता था कभी किसी के भीतर का मर चुका अब तो किसी के भीतर  पड़ा हुआ है मरणा

विष्णु खरे की पुण्य तिथि पर उनकी कविता "जो मार खा रोईं नहीं" का पुनर्पाठ

विष्णु खरे जी की यह कविता सालों पहले उनके कविता संग्रह से पढ़ी थी। अच्छी  कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं तो भीतर भी उतर जाती हैं। उनमें से यह भी एक है। कविता के भीतर पसरे भाव को पिता के नज़रिए से देखूं या मासूम बेटियों के नज़रिए से,दोनों ही दिशाओं से चलकर आता प्रेम एक उम्मीद  जगाता है।अपने मासूम बेटियों को डांटते ,पीटते हुए पिता पर मन में आक्रोश उत्पन्न नहीं होता। उस अजन्मे आक्रोश को बेटियों के चेहरों पर जन्मे भाव जन्म लेने से पहले ही रोक देते हैं। प्रेम और करुणा से भरी इस सहज सी कविता में मानवीय चिंता का एक नैसर्गिक भाव उभरकर आता है।कोई सहज कविता जब मन को असहज करने लगती है तो समझिए कि वही बड़ी कविता है।  आज पुण्य तिथि पर उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि ! जो मार खा रोईं नहीं  【विष्णु खरे】 ----------------------------- तिलक मार्ग थाने के सामने जो बिजली का एक बड़ा बक्‍स है उसके पीछे नाली पर बनी झुग्‍गी का वाक़या है यह चालीस के क़रीब उम्र का बाप सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ नाराज़ हो रहा था अपनी पांच साल और सवा साल की बेटियों पर जो चुपचाप

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना