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अपरूपा पंडित की कविताएँ

 

"क्योंकि दुःख घुल जाता है उसके जल में" 

अपरूपा पंडित की कवितायेँ पहली बार मैंने परिकथा में पढ़ी थीं | वे वर्तमान में लामडिंग असम में रहती हैं और वहां के एक विश्वविद्यालय में हिन्दी बिषय में पीएचडी स्कॉलर हैं | अपरूपा बाहरी दुनियां को अपने भीतर जिस संवेदना के साथ गहराई में जाकर महसूस करती हैं उस महसूसने को उनकी कवितायेँ भलीभांति रिप्रेजेन्ट करती हैं | जीवन यात्रा और उससे उपजे अनुभव और स्मृतियों को अपने अतीत और वर्तमान की आँखों से देखने परखने का एक अलहदा नजरिया अपरूपा के पास है , वह नजरिया उनकी कविताओं में घुला मिला है | प्रकृति और मनुष्य के अंतर्संबंधों से उपजी संवेदनाएं, जीवन के सुख दुःख को सहजता से भांप लेती हैं , तभी तो वे अपनी कविता नदी उदास नहीं होती में कहती हैं ---- "क्योंकि दुःख घुल जाता है उसके जल में" ! अपरूपा का अनुग्रह के इस मंच पर हार्दिक स्वागत है !





 1.नदी उदास नहीं होती
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नदी
बहती रहती पुल के नीचे
अपनी धुन में
दायें - बाएं किनारों से
गले मिलती ,बहती रहती
उसे कहाँ पता होगा
कि पुल पर खड़ा आदमी
कब से देख रहा उसे
अपलक
कुछ कौतूहल
कुछ बेजार सा
मगर नदी बहती रहती
क्या कभी ठहरकर
पुल पर खड़े आदमी से
उसने पूछा होगा
कि क्या सोच रहे भाई
कौन हो , कहाँ से आये
किनारे जल रही चिता
और उसके पास कुछ खड़े कुछ बैठे लोग
हवा में उठती जलते तन की चिराइन्ध गंध
मन को जाने कैसा बना देती है
क्या नदी को भी महसूस होता होगा
कभी क्षण भर के लिए रूककर पूछा होगा उसने
कि किसकी चिता जल रही
बच्चे , बूढ़े या नौजवान की?
असल में नदी को कुछ भी नहीं मालूम
वह तो बहती जाती
सदियों से जलती चिताओं के धुएं
और उनके परिजनों के चेहरे पर फैले
अपार दुःख को
अपने अथाह जल में समेटे
नदी अपना दुःख जाहिर नहीं करती
क्योंकि  दुःख घुल जाता है उसके जल में !
2.अप्रत्याशित जीवन
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जो भी घटा इस  जीवन में
वह अप्रत्याशित है?
मगर मैंने तो खुद चुना है इसे
अतीत  वाह  है
जितनी बार आया वो करीब
हाथ छुड़ा लिया मैंने  
हमेशा करती रही प्रतिवाद
एक बार तो खुदा
भी देता होगा मौका प्रायश्चित का
पर न दिया इस अभिमानी मन ने
अहम के विकट बोध ने
सुला दिया गहरी नींद में
एक अनसुनी तड़प को
जिसमें आज जल रही हूँ मैं
मिथ्या बोध के
मुर्दा क्षण  में
आज क्यूँ लगा हो रहा
उसकी नफरत से
उससे मुक्ति चाहने वाला यह मन
आज क्यूँ चाह रहा है
फिर से कैद होना ?
 
3.एकांत
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एकांत एकांत और एकांत
क्या खुद को सबसे
अलग करके रखने का नाम है एकांत?
दूर कहीं पहाड़ की चोटी पर
बैठे आसमान की ओर देखना है एकांत ?
भरी महफिल का उल्लास छोड़कर
खुद को अंधेरे कोने में समेट लेना
ही एकांत ?
हाँ.... हाँ
तुम नहीं समझोगे
तुम तो रहते हो उस वर्तमान में
जो शाश्वत से है कोसों दूर
हाँ मैंने जानना चाहा
शुरू से शेष प्रांत तक
गहरी निस्तब्धता के
उन उन्मादी ख़यालों में
जहां तुम्हारी मौजूदगी
हरेक क्षण मेरे साथ थी !
 
व्यस्तता भरे जीवन के
भाग दौड़ से क्लांत होकर भी
एक ही चीज ढूंढती हूँ
तुमसे खयालों में मिलना
प्यार, नाराजगी और विषाद
हर दशा में अविरल धारा सी
क्या अब भी तुम कहोगे
एकांत सिर्फ और सिर्फ एकांत !
 
 
4.भूली बिसरी यादें
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भूली बिसरी यादें
पता नहीं क्यूँ
आज फिर  ताजा
हो गयीं  
मेरी आँखों के कोनों से
झरती बूंदों में
बरसों बाद आज मैंने
फिर से नहा लिया
धुंधली यादों के साये में !
 
आज आसमान देखो
कितना सौम्य दिखता है
न अमानिशा
न ही पूर्णिमा
आज मेरी दृष्टि जा रही है
उस पहली बरसात की ओर
जहां से शुरू हुई थी
प्रथम प्रणय की पहली यात्रा
एक बाली लड़की
जिसे न वर्तमान की चिंता
न भविष्य का डर
बस एक छोटी सी चाहत लिए
जी रही थी अपनी छोटी सी दुनिया
इतिहास गवा है
कि समझदारी प्रेम की भाषा नहीं
फिर क्यों प्रताड़ित हो रही थी
बार बार !
 
जिसे वह अब तक प्यार
ही समझ बैठी थी
फिर उसके बाद  
वह धीरे धीरे सब कुछ खो बैठी थी
मित्र, परिवार
यहाँ तक कि
अपनी आत्मा को भी !
 
आत्मा  क्षत विक्षत होती है
तब  ढूंढने लगती  है
सहारे का हाथ
मिला हाथ ऐसा
जैसे मुरझाए हु पौधे को
कुछ बूंद पानी मिला हो  !
 
धीरे धीरे वह ढूंढने लगी
बोध , आत्मसम्मान की परिभाषा और एक पहचान
और साथ में समझ रही थी
ढाई आखर प्रेम की एक अलौकिक परिभाषा
फिर वह दिन आ ही गया
जिस दिन उतार फेका
अपने मन,  अपनी चिंता पर पड़ी बेड़ियों को !
 
आज नदी शांत है
फिर भी लहरें मानो बीच बीच में
किनारे को डुबो देती हैं
भूले बिसरी यादों के साथ!
 
5.जाने कहां छुप गया
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कहां छुप गया मेरा
उल्लसित शैशव
खोज रही हूं वही शोर
जो बंद आँखों की
स्मृतियों में अब भी किरकिराता है
और भर आता है खारा जल
जाना चाहते हैं पांव
पीछे की ओर
पर उस तरफ तो धुंधला सा है
अब एक महाशून्य
मेरी खोई
वीरान आंखों की नींद को
यादों ने निर्वासित कर दिया है
रह गहैं बादल के फाहे की तरह
उड़ती उदासियां
खाकर हवा के झोंके
इन्हीं के बीच ढूंढ़ती हूं
अपने बचपन के साए
कहां छुप गयीं बचपन की वो रंग बिरंगी किताबें
जिनमें दर्ज है मेरी अपनी कहानी
हरे भरे बचपन की
मैं ही हूं मुख्य पात्र
और मैं ही
वह गूंगा दर्शक जो
स्थिर चित्त से देख रहा !
 
याद है वह चंदा मामा
जिसे भर लेने को
जी मचलता था
कुछ भी नहीं रहा
सब फिसल गया
मुठ्ठी में भरी रेत की तरह
जिनमें ढूंढ़ती हूं
बचपन के छोटे छोटे
पैरों के निशान
कमरे में भरा है अनसुना सा कोलाहल
एकांत सन्नाटा पसरा है
मुझे घेरकर
साथी बनकर
पर जाने कहां खो गए
बचपन के साथी के
वो छोटे छोटे हाथ
जो मचल उठते थे आलिंगन के लिए
आज क्यों नहीं देख पाती
खींच रहा पीछे
न जाने कौन
शायद शैशव की
स्मृतियां
और क्या मैं यही नहीं ढूंढ़ रही  
वर्षों से
सदियों से
शायद अनन्त काल से !
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संपर्क :  aparupapandit100@gmail.com 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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