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इला सिंह की कहानी 'अम्मा'

इतने खराब हालातों में भी वो दिल की हमेशा अमीर रहीं 

इला सिंह जीवन की अनदेखी अनबुझी सी रह जाने वाली अमूर्त सी घटनाओं को भी कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से हैं| अम्मा कहानी में भी एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशीलता , धीरज और उसकी उदारता को सामान्य सी घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह उन्होंने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति हमारा ध्यान आकर्षित करती है | अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग हैं पर अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है | कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री के ऐसे रंग ही एक घर की खूबसूरती को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं |कहानी यह कहने में सफल है कि घर और समाज की धुरी अम्मा जैसी स्त्री के ऊपर ही टिकी है | कथादेश के किसी पूर्व अंक में प्रकाशित इस कहानी की लेखिका इला सिंह जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है |  



अम्मा 

आज हमसे खाना नही बनेगा भाई !”

भाभी ने रोटी सेकते-सेकते झटके से आटे की परात अपने आगे से सरका दी और झल्लाते हुए लकड़ी के पटरे को पैर से ठेल कर चूल्हे के पास से उठ खड़ी हुईं

 अम्मा धीरे से भाभी के ठेले गए पटरे को आगे खिसका कर बैठ गईं  और हौले से परात आगे करके आटे की लोई  तोड़ रोटी बनाने लगीं

पाँच सेकंड के इस एकांकी को अम्मा ने दर्शकहीन समझ लिया था ।इसी से बड़ी सफाई से अपने पल्लू से आँखें पोंछते   -पोंछते उनकी नजर रसोई की चौखट पार करती मुझ पर पड़ी ।वो अनायास खिसियाती -मुस्काती बोल पड़ीं ,”अरी अन्नू,तू तइयार हो गई ।जा जरा जल्दी से अपने बापू को थाली तो दे

ये भाभी को क्या हुआ ,अम्मा !”थाली उठाते-उठाते पूछ ही लिया

का हुआ ?”अम्मा सकपका कर प्रतिप्रश्न कर उठीं

शायद उन्होंने नही देखा था ,भाभी चौखट पार करते-करते मुझसे झटके से टकराकर  तीर -सी निकल गई थीं।और मैं समय की साक्षी बनी चौखट पर पहले ही खड़ी थी जब अम्मा भाभी से कह रही थीं, “बिटिया ,तनि जल्दी -जल्दी हाथ चलाऔ...तुमरे बाबू जी बिरकुल तय्यार खड़े हैं।और भाभी झटके सेआज हमसे खाना नहीं बनेगा ,भाई कहते हुए चौखट पर मुझे हल्का सा धकियाते हुए निकल गईं थीं

        अम्मा की यह पुरानी आदत थी ।अपने को जज्ब करना उन्हें खूब आता था ।भाभी की झल्लाहट पर पर्दा डालते हुए बोलीं ,“आज लकड़ी बड़ी गीली है ।उपलऊ ना आए ...।रोटी सिकें  तौ कैसै ...बताऔ ?”

    गीली लकड़ियों का धुँआ पूरी रसोई में फैला था ।चूल्हे में फूँकनी से फूँक मारते-मारते अम्मा की गले की नसें उभर आईं थीं ।चेहरा लाल हो उठा था ।लेकिन आँच थी कि जरा सी भकभकाकर फिर धुँआ बनकर रह जाती ।बापू की चार रोटी सिकना मुहाल हो रहा था और अभी खाने वालों की लाइन लगी थी

 अचानक अम्मा झटके से उठीं औरजरा देख तौकहते हुए सीढ़ियों से ऊपर चलीं  गईं मैं रसोई के धुँए में हतबुद्धि -सी खड़ी थी तभी ध्यान आया दादी ने कुछ रद्दी कागज इकट्ठा करके रखे हुए थे डल्ले बनाने के लिए  ये डल्ले बड़े काम के हुआ करते थे ।उनमें शादी-ब्याहों में मिठाई,नमकीन ,मठ्ठियां ,बायना आदि भेजा जाता था ।रसोई में भी बड़े काम आते अनाज वगैरा रखने के लिए तो काफी बड़े -बड़े डल्ले बनाए जाते थे ।गाँवों में रद्दी कागज से डल्ले (डलिया) बनाने का काम औरतें खूब किया करती थीं ।कई दिनों तक कागजों को पानी में  भिगोकर रखा जाता ,फिर आँगन में बनी खरल में उन गीले  कागजों को  कूटा जाता  ।कूटने की प्रक्रिया कई दिन चलती थी ।कूटने के दौरान उन कागजों में मुल्तानी मिट्टी मिलाई जाती थी ।और कूट- कूट कर लुगदी जैसी बना लेते थे और काफी चिकना कर लिया जाता था ।फिर जिस आकार के डल्ले बनाने होते उसी आकार की टोकरी -बरतन कुछ भी ले लिया जाता ।और उस पर एक पतला कपड़ा डालकर उसके ऊपर चिकनी की गई कागज की लुगदी को फैलाया जाता और थपथपा-थपथपा कर उसे वही आकार देने की कोशिश की जाती ।धूप में सुखाकर उन डल्लों को सावधानी से उन आकार देने के लिए लगाई टोकरी से उतारा जाता। और फिर शुरू होता उन डल्लों की सजावट का काम।सफेद रंग से पोत कर विभिन्न रंगों से उनपर कलाकारी होती ।दादी  शुरू की प्रक्रियाओं में बहुत लगन और मेहनत करतीं लेकिन सजावट का काम शुरू होते ही जैसे उनका धैर्य समाप्त हो जाता।और वो नए सिरे से कागज इकट्ठा करने में लग जातीं।लेकिन दी इस कार्य को बड़े मनोयोग से करती थीं उन डल्लों के ऊपर सुन्दर-सुन्दर फूल-पत्तियाँ ,किनारे ,आकृतियाँ उकेरा करती और दादी की क्रियेशन को एक मास्टरपीस बना देतीं।खैर... दादी के उस कागजों के ढेर का ख्याल आते ही पैरों में बिजली दौड़ गई और बिना ये ख्याल किए कि बाद में दादी मेरा क्या हाल करने वाली हैं मैंने उन कागजों की होली जला दी ।पर भई ...वाह ….क्या लपालप आग जली  ,और इतने कागज में बापू के लिए चार काली-काली रोटियाँ मैंने सेक ही दीं।

          बापू भी समझ गए रोटियाँ देखकर कि आज फिर वही ईंधन का तमाशा है ।सो बिना नानुकूर खा लिए


तभी देखा अम्मा सीढ़ियों से चारपाई की एक पाटी उठाए चली रहीं हैं ।मैं अंदर तक काँप गई ।आगत युद्ध की कल्पना ही भयानक थी ।आज फिर एक महाभारत होगा ।और युद्ध भी ऐसा …...जिसका एक योद्धा तो जबानी तीरांदाजी में माहिर…. जो बिना थके ,अनवरत् वाकबाण छोड़ेगा और दूसरे छोर पर खड़ा योद्धा जबरदस्त चुप्पा ,सहनशीलता का अवतार ...अपनी चुप्पी से अपने सीनीयर योद्धा का  मनोबल गिराएगा ।लगातार शब्दों के बाण छूटेंगे और अगले की चुप्पी से टकरा-टकरा कर गिरेंगे।थककर योद्धा गालियों का सहारा लेगा लेकिन अफसोस ….दूसरे छोर का योद्धा तो बना ही कुछ खास मिट्टी का है ।असर होता देख योद्धा अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ ही देगा ,झुँझला कर मायके की परिधि में प्रवेश कर जाएगा और वहाँ की लाटसाहबी के चिथडे़ ऐसे उधेड़े जाएंगे कि दूसरे छोर के योद्धा का मनोबल गिर ही जाएगा ।लेकिन गजब…..इतने सबके बाद भी जबाबी कार्यवाही में जबानी बाण नहीं चला पाएगा बस...अपनी निरीह जनता को कूट डालेगा और जनता भी कौन …..हम दो बहनें ।भाई उस क्षेत्र से बाहर थे।और कई बार ऐसा भी होता हम बहनें वहाँ अम्मा के गुस्सा निकलने का जरिया बनकर  उपलब्ध  नहीं होती थीं और दादी के भयंकर जहर बुझे बाणों से घायल अम्मा कमरे में अंदर जाकर दीवार में अपना सिर मार देतीं और अपने को लहूलुहान कर लेतीं


    अम्मा ने पाटी चूल्हे में लगा दी थी ।कुछ तो कागजों की आँच   से गीली लकड़िया  भी गरम हो चुकी थीं ,सो पाटी, लकड़ियों और कागजों की संगत से मजे से लाल-पीली हो उठी


थी तो  पाटी पुरानी चारपाई की ही और छत की कबाड़े वाली कोठरी में पड़ी थी कि कभी दिन बहुरेंगे उसके ।हमारी दादी भी ऐसी जाने कितनी पुरानी ,बेकार पड़ी चीजों को आसक्ति की सीमा तक चाहती थीं पुरानी चीजों से उनका लगाव कभी-कभी आश्चर्य से भर देता था ।हर पुरानी चीज उनके लिए अनमोल थी ।अपने पुराने वैभव ,जमींदारी की शान को वे उन चीजों के माध्यम से ही याद करती थीं

कितना कुछ था वहाँ...पीतल के नक्काशीदार बरतन ,पानदान, हुक्के जिनकी पॉलिश खत्म हुए जमाना हो चुका और जिनका पीलापन अजीब काले-हरे रंग में बदल चुका था।अनगिनत टूटे-फूटे ,जंग लगे कनस्तर ,बक्से ,लकड़ी के बड़े-बड़े संदूक , कुछ टूटे  कुछ साबुत  नक्काशी वाले पलंग ,चारपाईंयाँ ,अनगिनत टूटा-फूटा लोहे का सामान ,बड़े-बड़े पंखे जिन्हें ,दादी बताती हैं कि झलने के लिए ही दो आदमी लगते थे ।लाल कपड़ों में बँधे अनेकों दस्तावेज जिनमें गरीबों के द्वारा लिए कर्जे,जमीन गिरवी के कागज ,जिनकी आज कोई कीमत नही थी लेकिन दादाजी के जमाने में नजाने कितनी जिंदगियाँ इन में कैद थीं।और भी इसी तरह का जाने कितना कुछ अनमोल ,जो हम, जाने कब की जा चुकी जमींदारी के गुरुर में रह रहे काहिलों के लिए कबाड़ था ।और दादी के लिए पुरखों की धरोहर ….जिसकी वो जी-जान से सुरक्षा करती थीं ।हालात उस विशाल कोश के अब ये थे कि घर के हर टूटे-फूटे ,पुराने खराब हो चुके सामान को वहाँ फेंक दिया जाता था उनके साथ जो वहाँ अमूल्य निधियाँ पड़ी थीं उनका भी कोई मोल रहा था ।एक दादी थीं जो उस सब का  इतनी  शिद्दत से देखभाल करती कि मजाल वहाँ कोई घुस तो जाए ।हाँ ,धूल-धक्कड़,मकड़ियों के जालों का वहाँ पूरा राज था

 

               खैर दादी जब तक मंदिर से लौटतीं ,भाभी वापस अपने स्थान पर अच्छी आँच जलती देखकर चुकी थीं ।और पाटी भी जलकर थोड़ा अपना रूप खो चुकी थी ।कुछ होशियारी भाभी ने भी दिखाई ,पाटी को गीली लकड़ियों के नीचे अच्छी तरह से ढ़ाँप दिया जिससे दादी की नजर पड़े।

    भाभी कार्य अपना पूरी मुस्तैदी से करती थीं बस कार्यक्षेत्र की सुविधा -व्यवस्था उनके अनुरूप होनी चाहिए वहीं अम्मा थोड़ा ढीला रूख अपनाती थीं ,काम तो करना ही है ।तो वो कोई इसी तरह का फौरी -सॉल्यूशन निकाल लेती थीं और इस फौरी-सॉल्यूशन की गाज कभी-कभी दादी के उस विराट कोश पर भी जा पड़ती

      रोजमर्रा की समस्याएँ अनन्त थीं ।कभी सब्जी को पैसे नही तो कभी रात में ढिबरी -लाल्टैन जलाने के लिए मिट्टी का तेल नहीं ,कभी मिर्च -मसाला खत्म तो कभी चाय-चीनी ।मेहमान आँगन में बैठे हैं और पता चलता घर में एक धेला नही कि बनिए के यहाँ से कुछ नाश्ता का इंतजाम हो सके ।भाभी अपने घर की इकलौती थीं और नया-नया खाता -पीता परिवार था उनका ।सो ऐसी विकट परिस्थितयों से उनका कभी पाला नहीं पड़ा था ।जब नई-नई आईं थीं तो आश्चर्य से भर उठती थीं और हल्के स्वर में बुदबुदा उठती थीं….नाम बड़े और दर्शन छोटे ।ऐसा नहीं था कि अम्मा छोटे घर की थीं या उन्हें ये सब सहने की आदत थी ।मगर उन्हें बनाते वक्त भगवान उनमें शिकायत डिपार्टमेंट डालना भूल गए थे शायद ।कभी परिस्थितयों से घबरा कर उन्हें रोते-धोते नही देखा था ।हमेशा समस्याओं का हल लिए खड़ी होती ।इतने खराब हालातों में भी वो दिल की हमेशा अमीर रहीं एक स्त्री के लिए उसका जेवर-कपड़ा सबसे ज्यादा बहुमूल्य होता है ।लेकिन अम्मा को अपने मायके से मिली बहूमूल्य साड़ियों को बड़ी सरलता से बुआ को देते देखा था ।जब कभी बापू आर्थिक संकट ,(जो वहाँ रोजमर्रा की बात थी ) में होते तो अम्मा  सहज भाव से अपने जेवर गिरवी रखने या बेचने के लिए दे देतीं।बापू हमेशा अम्मा से हालात सुधरते ही उनका सब कुछ मय ब्याज -सूद के लौटाने की बात करते थे और यह जानते हुए भी कि वो दिन भविष्य में दूर-दूर तक नजर नहीं आता अम्मा मुस्करा कर उनका हौंसला बढ़ा देती ।और बापू  अम्मा की इन्हीं अदाओं पर मिटे रहते ।दादी के लिए सबसे बड़ा कारण यही था अम्मा से दुश्मनी का

ससुराल-मैके का मिला सैंकड़ों तोले सोना अम्मा ऐसे ही गवां चुकी थीं ।यहाँ तक कि भाभी को विवाह में चढ़ाने के लिए

अम्मा को अपनी बहन से जेवर उधार लेने पड़े ।बाद में वह जेवर भाभी से लेकर लौटा दिया गया तो भाभी के मन में मलाल रहना स्वाभाविक था।


अम्मा का ऐसा  स्वभाव देख कर भाभी भी अपने को नियंत्रित करने की काफी कोशिश करतीं और हालातों से समझौता करना चाहती ।हालाँकि उन्हें अच्छे से  तैयार होना खूब भाता था ।अच्छी साड़िया ,साज-श्रंगार मगर यहाँ तो हमेशा रोज की जरुरतों का ही रोना था ।अपने सारे शौक वो मायके से ही पूरा कर पाती थीं लेकिन जब देखती  दाल-रोटी बनाना -खाना तक मुहाल है ,तो झल्ला जातीं और मैदान छोड़कर भाग लेतीं, मगर अम्मा डटकर मुकाबला करती ।ज्यादातर कवायद मेरी ही होती -जा भूरा बनिए से अब ये ले ,अब वो ले ।अब ये खत्म ,अब वो खत्म ।और जाहिर था वह सब उधार ही आना होता था ।भूरा बनिया भी बेचारा ….कब तक आपकी पुरानी शाहगीरी की शर्म करे ।उधार चुकता होने में वर्षों का सिलसिला था ।सो वह मुझसे तुनककर ही बात करता था ।मैं भी स्वाभिमान की मारी …..आँख में आँसू लाकर अम्मा को पकड़ा देती ।अम्मा के पास तब दो ही उपाय होते और दोनों ही खतरनाक ।अगर घर में अनाज उपलब्ध होता तो अम्मा एक बोरी अनाज की तैयार करतीं और मुझे हवेली के पीछे वाली गली में जाकर खड़े होने की हिदायत देतीं ।और वहाँ होता था जबरदस्त  रोमांच ,सस्पैन्स ,भय का माहौल गली में हवेली के बारजे के नीचे मैं चोरों की तरह इधर-उधर ताकती खड़ी अम्मा का इंतजार करती ।अम्मा की देरी मेरी साँस अटकाए रखती ।कोई छोटा कुत्ता भी उस सुनसान गली से उस वक्त निकल जाता तो चौंक कर मेरी चीख निकलने को हो जाती ।लगता बापू या दादी अभी सामने आकर खड़े हो जाएंगे ।लेकिन हिम्मती अम्मा ऊपर बारजे से अनाज की बोरी नीचे गली में टपका देतीं और मैं काँपती -सहमती पसीने से तरबतर, बोरी को पीठ पर लाद लेती ।उस वक्त मेरी सबसे बड़ी प्रार्थना ईश्वर से यही होतीं कि सूरज कहीं जाकर छिप जाए और उस वक्त  गाँव के किसी आदमी का काम गली से पड़े ।भूरा बनिए की दुकान गली के दूसरे छोर पर थी और वह रास्ता उस वक्त जैसे सदियों लम्बा हो जाता ।और गजब तो तब होता जब उसकी दुकान बंद होती उस बोरी को उठाए-उठाए भूरा बनिए की दुकान से श्रीराम बनिए की दुकान तक जाना एक काल से दूसरे काल में जाना होता ।खैर  ...पता नही कैसे मिशन सदैव ही सक्सेसफुल रहता था।याद नही पड़ता कभी पकड़ी गई ।या ….शायद बापू जानकर भी अनजान बने रहते थे ?वरना एक बार ऐसे ही खतरनाक मिशन पर मैंने गली के उस छोर से बापू को आते देखा था लेकिन पलक झपकते ही बापू गायब थे ।उन कुछ पलों  में ही मेरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था ।हालाँकि अम्मा  बहुत ध्यान रखती थीं यह सब सरंजाम देते हुए ।जब बापू या तो गाँव से बाहर होते या घर के अंदर अपनी किताबों में लगे होते ।घर के अंदर होने के बाबजूद इतनी बड़ी हवेली में कहाँ ,क्या हो रहा है पता लगना मुश्किल था ।असली खतरा दादी से ही होता था , वो कब ...कहाँ अवतरित हो जाएँ भगवान भी नही जान सकता था ।वैसे तो दादी की व्यस्तता का अन्त था ,कभी डल्ले बन रहे हैं,कभी अनाजों का कूटना- पीसना चल रहा है ,तो कभी अचार-बड़ी ,और कुछ नही तो, बाबा ने अपनी जमींदारी के जमाने में गड़रियों-नाईयों को बसाने के लिए हवेली के बगल में जो जमीनें दे दी थीं ,उन दी गई जमीनों पर  ही जाकर अपनी धौंस-पट्टी  दिखाना ।बाबा जबतक थे तब तक तो वे लोग शाहजी ,हुजूर ,सरकार कहते नहीं थकते थे ।बाबा के जाने के बाद भी सालों उन्होंने जमींदारी की इज्जत रक्खी ।लेकिन अब वो भी थक चुके थे ।खुद उन लोगों के यहाँ हर चीज के लाले पडे थे ,आपको कहाँ तक उपला ,लकड़ी देते रहें।दादी की उगाही पर वो कसमसाने लगे थे।कभी-कभी दादी हमें भी भेजती थीं इस महान कार्य के लिए ।और जो वश दादी पर नही चलता था ,वो हम पर चलाते थे वो लोग।और कुछ इस तरह के व्यंग बाण छोड़ते थे जिसे समझने के लिए बड़ी अकल लगानी पड़ती थी ।दी उन बातों पर ध्यान नहीं देती थीं या लड़ाई कर लेती थी ।पर मैं उस आहत स्वाभिमान का बोझ हमेशा सर पर लेकर चलती रहती ।भाई तो इस महती कार्य के लिए कभी तैयार नहीं होते थे, गाज दी और मुझ पर ही गिरती थी ।भाईयों के लिए दादी भी बहुत उदार रहीं बल्कि अम्मा से ज्यादा रहीं

ज्यादातर अम्मा बोरी सप्लाई का वही समय चुनतीं जब दादी भी घर में ही अपने किसी पसंदीदा काम में व्यस्त होतीं ।पसंदीदा इसलिए कि दादी पसंदीदा काम को पूरी शिद्दत से करती थीं ।और ध्यान इधर-उधर नहीं भटकता था ।या गर्मी की टीक दुपहरी में जब दादी मजबूर होकर दुबारी में झपकी ले रही होतीं ...और उन्हें भरोसा होता कि चिड़िया भी उनकी नजरों से बचकर हवेली के अंदर -बाहर नहीं जा सकती ,क्यूँकि दुबारी में उनकी चारपाई कुछ ऐसी पोजीशन में होती कि उनकी चारपाई हिलाए बिना आप वहाँ से निकल नहीं सकते ।लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि उनकी नाक के नीचे ऐसी कारगुजारियाँ भी हो  जाएगी ।हवेली के पीछे वाले बारजे और उस गली का ऐसा अभिनव उपयोग भी किया जा सकता है वो दादी की ठेठ बुद्धि से बहुत दूर की चीज थी शायद


दूसरे उपाय की नौबत तभी आती थी जब अनाज की टंकिया खाली हो चुकती थीं और नया अनाज आने में समय होता था ।और हम लोगों को रोज खाने के लिए दो किलो आटे के इंतजाम  के लिए भी कोई उपाय नहीं रह जाता था।कितने दिन ऐसे होते थे जब  केवल आलू उबाल कर खाया जाता था ,लेकिन हम लोग इतने मस्त थे कि उबला आलू बनना भी हमारे लिए पर्व बन जाता ।भले ही थोड़े से तेल में बनते लेकिन ढेर हरी मिर्च डाल ,खूब भूनकर भाभी उन्हें इतना स्वादिष्ट बना देतीं  कि उसके आगे सारे पकवान फीके थे।


अम्मा भी उस कबाड़ की कीमत तो समझती थीं ,मगर जब दूर-दूर तक कोई उपाय नही नजर आता था और समस्या तुरन्त अपना हल चाहने वाली हो ,तो उन्हें कदम बढ़ाना ही पड़ता था ।बनिया कभी-कभी  उधार के लिए  साफ ही मना कर देता था और उसे देने के लिए अनाज की बोरी भी होती।तो अम्मा मजबूर होकर ,लेकिन बिना झुंझलाए ,उस कबाड़ कोठरी की तरफ बढ़ जातीं और थोड़ी-सी सब्जी ,थोड़े से आटा-दाल या कुछ भी थोड़े से के लिए ,उस शाही दौलत से कुछ खींच लातीं और बिना यह सोचे कि बाद में दादी उनका क्या हाल करेंगी, एक गहरी साँस के साथ वे मुझे आदेश दे देतीं -” जा तो ,अन्नू !जरा उस कल्लू कबाड़ी को बुलाकर तो ला …...

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परिचय

शिक्षा : एम..(इतिहास) ,बी.एड.

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जन्म :  1967

गृहणी

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रुचि  : साहित्य अध्ययन-लेखन ,संगीत

 

कथादेश ,परीकथा,अक्षरपर्व  में कहानी प्रकाशित। लघुकथा.काम में लघुकथा। परिवर्तन   पत्रिका, प्रतिलिपि, मातृभारती आनलाइन पत्रिकाओं में रचनाएं ।के बी प्रकाशन दिल्ली से दलित संदर्भ पर संयुक्त कहानी संग्रह में कहानी शीघ्र प्रकाश्य

 

संपर्क Email: ilasingh1967@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 




टिप्पणियाँ

  1. शानदार कहानी के लिए इला जी को हार्दिक बधाई। स्त्री की भीतरी दुनियाँ की सुंदरता जिस सहजता के साथ कहानी में चित्रित है वह आकर्षित करती है।

    सत्यप्रकाश सिंह
    इलाहाबाद

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  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

जगन्नाथपुरी में होली उत्सव

जीवन में कई चीजें बहुत परम्परागत तरीकों से चला करती हैं । ज्यादातर लोग होली या दीवाली जैसे त्योहारों को घर में ही मनाना पसंद करते हैं या यूं कहा जाए कि परम्पराओं से बाहर निकलने की दिशा में वे बहुत अधिक नहीं सोचते । इस तरह न सोचने की निरंतरता में कई बार ऐसा भी होने लगता है कि आदमी इन त्योहारों से ऊबने भी लगता है और इन्हें महज औपचारिकताओं की तरह निभाता चलता है । जीवन में ताजगी बनाये रखने के लिए कई बार हमें परम्पराओं से परे भी जाना पड़ता है । ऐसा हम कभी क्यों नहीं सोचते कि इस बार की दीवाली पिंक सिटी जयपुर में मनाया जाए । इस बार की होली कृष्ण की नगरी  जगन्नाथपुरी जैसे खूबसूरत शहर में मनाया जाए । जीवन को खुशनुमा बनाये रखने के लिए इस तरह सोचा जाना भी बहुत आवश्यक है ।  इस बार की होली में जब रायगढ़ के पर्यटकों को पुरी के समुद्र तट पर होली खेलते हुए देखा तो मेरे मन में इस तरह के कई कई विचार उठने लगे। मन ही मन मैं कल्पना करने लगा कि पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जहाँ कृष्ण स्वयं बसते हैं वहां होली के दृश्य कितने लोक लुभावन होंगे । रायगढ़ से इस बरस की होली मनाने अपने परिवार के साथ गए हमारे मित्...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

दिव्या विजय की कहानी: महानगर में एक रात, सरिता कुमारी की कहानी ज़मीर से गुजरने का अनुभव

■विश्वसनीयता का महासंकट और शक तथा संदेह में घिरा जीवन  कथादेश नवम्बर 2019 में प्रकाशित दिव्या विजय की एक कहानी है "महानगर में एक रात" । दिव्या विजय की इस कहानी पर संपादकीय में सुभाष पंत जी ने कुछ बातें कही हैं । वे लिखते हैं - "महानगर में एक रात इतनी आतंकित करने वाली कहानी है कि कहानी पढ़ लेने के बाद भी उसका आतंक आत्मा में अमिट स्याही से लिखा रह जाता है।  यह कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हम कैसे सभ्य संसार का निर्माण कर रहे जिसमें आधी आबादी कितने संशय भय असुरक्षा और संत्रास में जीने के लिए विवश है । कहानी की नायिका अनन्या महानगर की रात में टैक्सी में अकेले यात्रा करते हुए बेहद डरी हुई है और इस दौरान एक्सीडेंट में वह बेहोश हो जाती है। होश में आने पर वह मानसिक रूप से अत्यधिक परेशान है कि कहीं उसके साथ बेहोशी की अवस्था में कुछ गलत तो नहीं हो गया और अंत में जब वह अपनी चिंता अपने पति के साथ साझा करती है तो कहानी की एक और परत खुलती है और पुरुष मानसिकता के तार झनझनाने लगते हैं । जिस शक और संदेह से वह गुजरती रही अब उस शक और संदेह की गिरफ्त में उसका वह पति है जो उसे बहुत प्...

"जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की।आशुतोष को उनके शब्दों के साथ अलविदा..

  "जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की। आज भी यह बदस्तूर जारी है। लेकिन कभी निराश नहीं हुआ। सच तो यह है कि आज भी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। दुनिया के बदलने की, उसके आने की। जब भी चिड़ियों को तिनकों को चोंच में लेकर उड़ते देखता हूँ, बच्चों को किलकते देखता हूँ, लगता है मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। बड़ी उम्र की कमर झुकी वयस्का स्त्री को जब आज सुबह-सुबह काम पर निकलते देखा तो लगा दुनिया को बदलना ही होगा।" ये प्रोफेसर आशुतोष के आखिरी शब्द हैं । अपने मृत्यु के छः दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर यह लिखा था। इन शब्दों को पढ़कर ही उन्हें कुछ हद तक जाना समझा जा सकता है कि वे कितने संवेदनशील, कितने सुलझे हुए, कितने परिपक्व और चेतना संपन्न  इंसान थे।यह सब उन्होंने लिखने भर के लिए लिखा था, जैसा कि आजकल ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर करते हैं,ऐसा भी नहीं है। एक उम्रदराज और कमर झुकी बूढ़ी स्त्री को काम पर जाते हुए देखकर उन्हें भीतर से जो तकलीफ पहुंची  वही शब्दों के रूप में बाहर निकल कर आई। तब उस स्त्...