रंगों की तलाश
शाम गहरा रही थी। क्षितिज पर घिर आए ’बादलों की वजह से शाम के घिरने और उजाले के जाने के क्रम में थोड़ी शीघ्रता दिखी। विभा खिड़की के पास कुर्सी डालकर डूबते सूर्य, फिर उसकी किरणों के सिमटने, आकाश में फैलने वाली विभिन्न नीली-लाल आभाओं और फिर संध्या के निःशब्द पहुँचने का आनंद ले रही थी चाय की चुस्कियों के साथ...। यह उसकी दैनिक-चर्या का हिस्सा थी। उसे बचपन से ही शाम के ये सारे रंग मोहित करते रहे हैं। प्रकृति की यह कारीगरी उसे अपने मोह पाश में बाँध सी लेती है। नीले रंग के ही न जाने कितने ’शेड’... ऐसा लगता है मानो कलाकर बार-बार अपनी कूची को रंगो में डुबोकर कभी गाढ़े तो कभी हल्के रंगो को बनाने की कोशिश में लगा हो और किसी भी रंग से संतुष्ट न होकर बार-बार प्रयास कर रहा हो मनपसंद रंग को पाने का ।
विभा को इन रंगो में जीवन की परछाई नज़र आती है।आखिर जीवन है ही क्या, इसी शाम के आसमां-सा चित्ताकर्षक और नितान्त अस्थिर। पलक झपकते ही पट के रंग बदल जाते हैं। आदमी जब तक किसी एक रंग को नज़रों में भरने की कोशिश करता है तब तक दूसरा ही रंग उभर आता है। वह चाहे या न चाहे एक अनजाना अपरिचित सा कलाकार जीवन-पट पर अपनी कूची चलाता रहता है।
उसी कलाकार की ही तो इच्छा थी शायद कि एक भरे-पूरे सोलह सदस्यीय परिवार की विभा आज नितान्त अकेली थी। यह अकेलापन भी तो पलक झपकते ही आ खड़ा हुआ था। आ खड़ा हुआ था या फिर...?, अन्दर से ही एक आवाज़़ ने उसकी विचार श्रृंखला को अबाध और स्व अनुसार बहने से रोक डाला। एक सवाल खड़ा कर दिया ...। एक झंझावात! जो पिछले कई महीनों से उसके जीवन में चली आ रही थी ...। ’’वह चला नहीं आया तुम खुद उसे लेकर आई हो’’ उसी आवाज़ ने फिर टोका।
’’हाँ मैं खुद ही उसे लाई हूँ’’ विभा जैसे बरस पड़ी...। मैं लाई हूँ क्योंकि इस शांति के लिए मैं आँखें नहीं मूँद सकती। और आँखें मूँद भी लेती, तो क्या मेरे कान-दिमाग सब मुँद जाते, नहीं ना।
कभी-कभी उसे लगता है, कि जीवन के इन रंगों के लिए किसी अज़नबी-अनजान चित्रकार को दोषी ठहराना उचित है क्या? आखिर किसी भी इंसान के जीवन में वही रंग तो आते हैं, जिन्हें वह सबसे ज्यादा पसन्द करता है। उसकी पसन्द नापसन्द ही तो उसके जीवन पट के रंगो को तय करती है। उसे भी तो हमेशा से लाल रंग पसन्द रहा है। सब कहते हैं, लाल रंग प्रतीक है- अग्नि तत्व का, भावों का, गर्मजोशी का, प्रेम का, ऊर्जा का, पैशन का, क्रोध, हिंसा और भूख का।
और इस बात से वह कतई इन्कार नहीं कर सकती कि इस रंग ने उसके जीवन को आक्रान्त नहीं किया है। विभोर से उसके रिश्तों का आधार भी तो यही रंग था। प्रेम और पैशन में वह इस कदर रंगी कि उसने विभोर से मिलने के बाद कभी एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि रूढ़िवादी इस समाज में जहाँ बेटियाँ आज भी सजीव न होकर परिवार की ’इज्जत’हुआ करती हैं, जहां उसे प्राणिन मानकर सिर्फ एक भाव मान लिया जाता है वहाँ वह अपने में और विभोर के बीच की सामाजिक खाइयों को पाट नहीं पायेगी। उसका पैशन ही था कि ब्राम्हणों के परिवार में जन्मी गौर-वर्णीय, तीखे नैन-नक्स, गृहकार्य में दक्ष और सरकारी नौकरीशुदा लड़की ने एक वैश्य परिवार में जन्मे साधारण कद-काठी और सामान्य व्यवसायी से शादी कर ली। माता-पिता की धमकियों, चेतावनियों और आग्रहों को दरकिनार कर वह अपने चहेते लाल रंग में लिपटी पहुँच गई थी ससुराल।
लेकिन ससुराल में पहुँचकर उसे पता चला कि दुनियाँ में एक ही रंग के सहारे जीवन नहीं जिया जा सकता। वह सतरंगी दुनिया थी या कहें कि सात रंगों के अतिरिक्त भी दुनिया में जितने रंग होते हैं या हो सकते हैं सभी तो साक्षात् आ गये थे उसके सामने। सास को भी सम्भवतः लाल रंग से ही प्रेम था, किन्तु यहाँ प्रेम, ऊर्जा और उत्साह के अतिरिक्त सब कुछ था पैशन, भूख क्रोध ऊष्णता। उसने स्वयं को समझाया कि आज जो लाल रंग उसके लिए प्रेम, और ऊर्जा है, कौन कह सकता कि सास की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उसके मायने उसके लिए भी न बदल जाएँ? ससुर, जेठ, जेठानी, देवर, देवरानी, ननद, बच्चे, नौकर और कुत्ते सब मिलाकर चौदह लोग थे। या कहें कि सात रंग द्विगुणित होकर परिवार का निर्माण कर रहे थे तो गलत नहीं था। ख़ैर और रंगों से तो उसे ज्यादा मतलब कभी नहीं रहा लेकिन काले ने उसे हमेशा लुभाया था। लाल और काले का काम्बिनेशन हमेशा ही उसे आकर्षित करता रहा था। विभोर में उसे वही काम्बिनेशन मिला था, जिसे पाकर वह भाव-विभोर हो गई थी। यह तो विभा हमेशा से ही जानती थी कि सातों रंगों को पाना असम्भव है। दुनिया का शायद कोई चित्र ऐसा बना ही नहीं, जिसमें चित्रकार ने सातों रंग भरे हों। मात्र इन्द्रधनुष के चित्र को छोड़कर, लेकिन वह तो रिप्लिका मात्र है। प्रतिकृति एक यथार्थ की। किन्तु जीवन में प्रतिकृति कहाँ चलती है? जीवन तो यथार्थ है। आप उसे चाहे कटु कहें या मधुर!निर्भर करता है आप पर कि आपने उसे किस रंग से रंगा देखा, लाल रंग से या काले रंग से?
खैर विभा के इस लाल-काले काम्बिनेशन में सब कुछ सामान्य चलता रहा। कई सालों तक कोई हलचल नहीं.....। हाँ शादी के दो साल बाद बिल्कुल सफेद रंग में नहाई सफेद परी सी ‘इशिका’ उन दोनों के जीवन में आ गई थी और जब से इशिका आई विभा को अपने लाल रंग की लालिमा और ऊष्णता में कमी सी महसूस होने लगी थी। संभवतः वह उस सफेदी का असर था जो इशिका उसके जीवन में लाई थी। इस सफेदी ने लाल को गुलाबी में बदल दिया था। अब विभा के जीवन में लाल रंग के फूलों की जगह गुलाबी रंगों ने ले ली थी। कुछ स्वाभाविक रूप से और कुछ जबरदस्ती। लड़कियों का मन पसंद रंग होता है गुलाबी। सभी का तो नहीं कहा जा सकता लेकिन बहुलता रहती है तो, सामान्यतः मान लिया जाता है। इशिका भी कुछ अलग नहीं थी, सामान्य बच्ची थी, इसलिए जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती कई सबकुछ गुलाबी रंग में रंगने लगा। पहले बिस्तर की चादरें, फिर उसके कमरों की दीवारें, पर्दे, टेडीज-गुड़ियाँ और सारे खिलौने वे जिनमें कहीं न कहीं गुलाबी रंग की आभा हो। गुलाबी रंग की कोमलता ने विभा को भी खींच लिया था अपनी ओर। अब उसमें भी वही मासूमियत,कोमलता और अल्हड़ता खिलने लगी थी जो गुलाबी रंग में होती है। लाल रंग की दृढ़ता कहीं धीरे-धीरे पीछे छूट सी रही थी।
लेकिन मानव की मूल प्रकृति बदलती है क्या? क्या बदल पाती है ? वह चाहे भी तो, कहाँ बदल पाता है वह अपने मूल स्वभाव को ? अनायास असीम दुःख की अभिव्यक्ति जैसे अपनी ही मातृभाषा में होती है, वैसे ही कितना भी सुदृढ़ और सुसंस्कृत हो मानव, उद्वेगों के समय अपनी मूल प्रवृत्ति को ही व्यक्त करता है। इशिका के आने से विभा के लाल रंग में हल्कापन भले ही आया हो लेकिन लालिमा अपनी जगह कायम थी...। और विभोर?काले पर क्या कोई और रंग चढ़ सकता है ? कितनी ही कोशिश कर लो, लेकिन वह सोख लेता है सबको अपने में। इसी काले के आकर्षण ने ही तो निगल लिया था विभा की सभी प्रतिभाओं और क्षमताओं को। संयुक्त परिवार में इतना समय ही कहाँ मिल पाता है कि वह कुछ सोच पाती अपने शौक पूरे करने के बारे में , अपनी क्षमताओं के बारे में। शादी से पहले वह वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार पा चुकी थी।कितने ही राज्य-स्तरीय पुरस्कार पाई विभा ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उसकी दुनिया में मात्र दो मकानों के चित्र रह जायेंगे। एक उसके अपने घर का, जिसके हर कमरे की अलग-अलग दीवारों पर अलग-अलग रंग थे। लेकिन उसके लिए उस घर में दो ही कमरे थे एक उसका बेडरूम और दूसरा किचन । छत पर जाकर किसी सुबह या शाम को स्क्रॉल करते प्रकृति के रमणीय चित्र को देखना तो सपनों को पूरा करने जैसा हो गया था। हाँ बस गनीमत इतनी थी कि उसके अपने कमरे की खिड़की से शाम के लाल-नीले रंग अपनी आभा से उसे जीने का सहारा दिये रहते थे। दूसरा मकान था वह सरकारी जीर्ण-शीर्ण अज़ीब से पीले रंग में रंगी ऑफिस की बिल्डिंग।इन मकानों की दीवारों से जूझती वह बस ‘इशिका’ के गुलाबीपन में ज़िन्दगी तलाशती आगे बढ़ रही थी कि अचानक दोनों ही रंग अपनी सम्पूर्ण वीभत्सता के साथ साकार हो उठे.......।
उस दिन को वह कभी नहीं भूल सकती। ऑफिस में कन्डोलेंस की वजह से वह खुशी से चहकते कदमों से घर आ रही थी कि चलो आज दिन का खाना विभोर ओर इशिका के साथ नसीब होगा। परिवार के सभी लोग व्यस्त होंगे। नौकरीशुदा अपने ऑफिस में और बाकी बुआ के लड़के की शादी में जाने की तैयारियों में। वह भी जाने वाली थी विभोर व इशिका के साथ। इसलिए भी खुशी दुगुनी थी कि एक लम्बे अन्तराल के बाद वह दिन में अकेली होगी विभोर के साथ। और दिन की झपकी...सोचते ही विभा पर खुमारी-सी छाने लगी थी... उसकी सबसे अधिक चहेती सहेली थी दिन की झपकी, उसके गले में भी बाँहे डाल वह सुस्ता लेगी...। कभी-कभी कितनी छोटी-छोटी खुशियाँ कितनी बड़ी और अलभ्य लगने लगती हैं... सोचकर ही उसे आश्चर्य हुआ। आश्चर्य!सरप्राइज! यही तो वह विभोर और इशिका को देने वाली थी। इशिका के भोले चेहरे व शरारती आँखों में जो खुशी की लहर तैरेगी ... वह उसने अपने शरीर में महसूस की ।
वह दबे कदमों से सीढ़ियां चढ़ने लगी... दरवाजा खुला था.. यही तो उसने चाहा था कि कॉलबेल न बजानी पड़े ...। आज तो सभी मनचाहा हो रहा था। उसके पैरों में जैसे पंख लग गये हों, बिल्कुल हल्के और बेआवाज़ वह उड़ी जा रही थी कि कमरे की दहलीज़ पर्दा खींचकर जैसे ही उसने अन्दर कदम रखा वहाँ जमीन कहाँ थी पैरों में पंख थे या पंखों से वह बँधी थी जो उसे जमीन से बहुत ऊपर शून्य में उठा ले गये थे.... अँधेरा, काला घना अँधेरा। चादर पर दो बिन्दु जैसे शरीर ....एक काला जिससे कुछ लाल सा रिस रहा था और दूसरा ? वह अंधकार में उड़ती गई काले घने अंधकार में.........
जब होश आया पंख बिखर चुके थे, रंग बिखर रहे थे.... बस अब एक ही रंग बाकी बचा था लाल रंग ....... जो उसकी चादर पर फैला उसको मुँह चिढ़ा रहा था। यह उस पन्द्रह वर्षीय बच्ची के खून का रंग था, जो अपनी माँ के बदले यदा-कदा स्कूल न जाकर काम करने आ जाया करती थी। ऐसा अकसर तब होता जब रात भर उसका पिता शराब के नशे में उसकी माँ को नोंचता और नोंच-नोंच कर भी जब वह खत्म नहीं होती, तो अपनी मर्दानगी का अहसास दिलाने के लिए उसे पीटता। माँ सुबह नहीं उठ पाती तो अपनी इस श्यामवर्ण दुबली-पतली, तीखे नैन-नक्श वाली लड़की को भेज देती, जिसकी देह पर जवानी की कोंपलें फूटने की तैयारी कर रही थीं।
विभा ने देखा वह दीवार पर चिपकी थर-थर काँप रही थी... उसने सोचा ‘‘मेरे डर से ? या फिर जो तूफान इसके ऊपर से गुजर गया जिसने कोंपलों के फूटने से पहले ही नोंच डाला उसके डर से ? ’’
‘‘निरीह प्राणी’’ विभा के मन में क्रोध की जगह वात्सल्य और दया का एक सोता सा फूट पड़ा।उसने उसे अपनी ओर खींच कर छाती से लगा लिया। वह जिसकी पजामे में खून के छींटे और जांघों पर चिपचिपाहट अभी भी उसके अपने अस्तित्व को उसके लिए लिजलिजा बना रही थी, टूटी डाल की तरह सरसरा कर गिर पड़ी। तूफान की गरज-तड़क के बाद जो बादल बरसा... विभा के लिए उसे थामना मुश्किल हो गया। विभा उसे रोके भी तो कैसे ? क्या कहे ?
कहने के लिए रह भी क्या गया था? बस मुश्किल से दो शब्द निकले उसके मुँह से, ‘‘शान्त हो जा’’ और वह शान्त हो गई।यन्त्रवत् जैसे किसी ने स्विच ऑफ कर दिया हो।
विभोर का कहीं पता नहीं था। विभा को इस बात ने बड़ा आहत किया। इतना कायर व्यक्ति! उसका पति कैसे हो सकता है? एक बार फिर लाल रंग अपनी पूर्ण तीव्रता और विस्तृता के साथ सजग हो उठा। वह उठी उसने सबसे पहले कामवाली को फोन किया कि उसकी लड़की आज से मेरी जिम्मेदारी है। विभा ने उसे अपने ऑफिस का पता भी दे दिया कि जब मन करे उससे वहाँ मिलने चली आये। इससे पहले कि कोई आए और दस तरह के सवाल जवाब करे वह इस घर की सीमा से बहुत दूर निकल जाना चाहती थी। आखिर उसका इस घर से सम्बन्ध ही क्या रह गया है ? जिस डोर से वह बंधी थी उसके तो रेशे तक हवा में शेष नहीं रह गये थे।
लेकिन ‘इशिका’ ? इस सम्बन्ध का एक परिणाम ....? इस बन्धन की एक गाँठ, उसका क्या करेगी ? प्रश्नों की झड़ी सी लगी थी जैसे सावन में बूंद बूंद गिरती बारिश की बूंदों की श्रृंखला ! अनवरत् प्रश्नों की झड़ी... शंकाएँ उमड़-घुमड़ रही थी लेकिन उसके पास समय अधिक नहीं था। पाँच बजे तक सभी लौटने लगते और फिर ऊँच-नीच समाज, घर, परिवार, इज्जत, औरत-जात, बच्ची का भविष्य और न जाने ऐसी कितनी सनातनी श्रृंखलाएँ उसको जकड़ लेतीं। हमेशा से औरत इन्हीं श्रृंखलाओं में तो जकड़ी रही है....। और फिर विभा झटके से उठी उसने अभी तक सरसराते पत्ते की तरह काँप रही उस लड़की का हाथ पकड़ा ....इशिका को गोद में लिया और चल पड़ी इस अनन्त आकाश में, फिर नये रंगों की तलाश में। वह जानती है कि औरत यदि अपने पर आ जाये तो दुनिया की कोई शक्ति उसे नया व बिल्कुल अलग चित्र बनाने से नहीं रोक सकती। अपने साथ दो नन्हीं जानों को लेकर एक नई स्क्रीन की तलाश में। विभा आज अकेली होकर भी अकेली नहीं है.... उसके साथ फिर से है उसका प्रिय लाल रंग !
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अमिता प्रकाश उत्तराखंड में रहते हुए सरकारी विद्यालय में अंग्रेजी अध्यापन का कार्य करती हैं । उनके अब तक दो कहानी संग्रह "रंगों की तलाश" और "पहाड़ के बादल" प्रकाशित हुए हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियां और कविताएं अब तक प्रकाशित होती आयी हैं। वे बच्चों के लिए भी कहानियां लिखती हैं और उनके लिए शैक्षिक सामग्री भी तैयार करती हैं। विभिन्न शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियों में उनकी सहभागिता उल्लेखनीय है।
कितनी संवेदनशील कहानी। कितनी अच्छी तरह बुनी हुई। रंग के रेशे-रेशे में रिश्तों की चरमराहट द्रवित करने वाली। लेखिका को अनेकश बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कहानी के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंरविशंकर सिंह
धनबाद बिहार
बहुत सुंदर कहानी से आपने परिचित कराया। बहुत बधाई
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