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राजेन्द्र यादव स्मृति हंस सम्मान से सम्मानित कामेश्वर की कहानी 'राष्ट्रपति का दत्तक'

वरिष्ठ कथाकार कामेश्वर जी का उपन्यास 'बिपत'और कहानी संग्रह 'अच्छा तो सब ठीक है'प्रकाशित हो चुके हैं । उनकी कहानी 'राष्ट्रपति का दत्तक' को वर्ष २०१९-२० का राजेन्द्र यादव स्मृति हंस कथा सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है । यह कहानी कोरवा और बिरहोर आदिवासी समाज की आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं को देखने समझने का एक ऐसा अवसर देती है जिसे शासन-प्रशासन हमेशा ढंकने की कोशिश में लगे रहते हैं । इस कहानी के मुख्य पात्र बुटू राम की मूल समस्या उसकी डौकी(पत्नी)चोरी हो जाने की है जो अपने साथ उसके बच्चों को भी लिवा ले गयी है। वह अपने बच्चों को पुनः प्राप्त करना चाहता है । इस समस्या के समाधान के लिए वह लेमरू थाने से लेकर डीएम, फिर एसपी तक चक्कर लगाता है। उसकी समस्या के  समाधान पर अलबत्ता किसी की कोई ख़ास रूचि नहीं है बल्कि उसे बहला फुसला कर वे गाँव खाली करने के अपने एजेंडे को ही उसके आगे परोस रहे हैं। कहानी इस बात को बड़ी दमदारी से उठाती है कि भले ही ये आदिवासी राष्ट्रपति के दत्तक हैं पर राष्ट्रपति जी को इनकी समस्याओं की कोई जानकारी नहीं है । इनकी गिनती समाज और शासन प्रशासन की नजर में आदमी की तरह कहीं नहीं है । ये आज भी हँसी और नुमाईश के पात्र हैं । ये हर जगह षड्यंत्र के शिकार हैं । ये आज भी जंगलों में रहते हैं और सरकार किसी तरह इन्हें जंगलों से विस्थापित करना चाहती है ताकि जंगलों में खनिज उत्खनन का कार्य आसानी से हो सके ।खनिज उत्खनन से जंगल नष्ट हो रहे हैं और वहीं से हाथियों का आतंक दिनोंदिन बढ़ रहा है । सरकार अपना उल्लू सीधा करने के लिए इन आदिवासियों का हितैषी दिखना चाहती है, इसलिए डीएम और एसपी बूटू राम से उदार आचरण के साथ कहते नजर आते हैं कि गाँव वालों को समझाना कि वे गाँव खाली कर पहाड़ के नीचे किसी जगह बस जाएं ताकि हाथी की समस्या से उन्हें निजात मिल सके , जबकि बुटू राम का मानना है कि वह पहाड़ छोड़ कर नीचे  आ बसा और उसकी मुलाक़ात ट्रक ड्रायवर अजीम से हुई जो उसकी पत्नी को चुरा ले गया । कहानी में ड्रायवर केवल ड्रायवर भर नहीं है बल्कि एक समूचा समाज है जो बुटू राम का सब कुछ छीन लेने को आतुर है| जंगल जो उनका बसेरा है, जहां कि वे अपने को सुरक्षित समझते हैं, उसके नष्ट या छूट जाने से ही उनकी समस्याएं शुरू होती हैं जिनका कोई समाधान नहीं दिखता ।उनकी समस्याओं को लेकर समाज और तंत्र किस तरह उदासीन हैं और अपने ही एजेंडे पर काम कर रहे हैं, इस तथ्य को यह कहानी रोचक किस्सागोई और घटनाओं की सघन बुनावट के माध्यम से सामने रखती है । कामेश्वर जी को बधाई सहित उनका अनुग्रह पर हार्दिक स्वागत है |
 


'राष्ट्रपति का दत्तक'

बुटूराम पूछते-पाछते कलेक्टोरेट के गेट पर पहुँचा तो चेक पोस्ट की खिड़की से झाँक रहा नगर सैनिक (होमगार्ड) बाहर निकल आया। उसके हाथों के तीर-कमान देख वह सतर्क हो गया, "कहाँ…?"

     "मिलना है कलेट्टर साहेब से…!" कद से ऊँची कमान को बाएँ से दाएँ हाथ में लेते हुए वह बोला। कनपटियों पर पसीने की धार। काँधे की लाठी को बाएँ हाथ से पकड़े। इसके पिछले छोर पर प्लास्टिक वायर से बुना थैला लटक रहा था जो कभी आधा लाल और आधा सफेद रंग की रहा होगा। यह उसके हुलिए से मेल नहीं खाता था। बाँह पर झूलता बदरंग जामुनी कुरते के नीचे मटमैला पटकू घुटनों से ऊपर बलिश्त भर दिख रहा था। कानों पर छितराए  बाल और खिचड़ी मूछें। चालीस-पचास के पेटे से आगे निकलता हुआ। 
     "क्या काम है?" नगरसैनिक उसके कंधे पर तीर-कमान को देखकर सशंकित हो उठा था। ये आदिवासी लोग दिखते सीधे हैं। पर गुस्से में खतरनाक हो जाते हैं। तीर मार भी देते हैं। पेपर में खबरें छपती रहती हैं। 
     "डौकी (पत्नी) चोरी हो गई है…!" उसने मुस्कराने की कोशिश की, पर वह सहमा हुआ था। गलत तो नहीं बोल गया ! वह रपट लिखाने गया था तो लेमरू थाने के सिपाहियों ने उसका मजाक उड़ाया था, "बच्चे चोरी हो गए हैं कि डौकी?" उन्होंने पूछा था। वह इन खाकी वर्दीधारियों के लिए एक मजाक ही तो है। इसलिए काम निकालने के लिए वह पहले से अपना मजाक उड़ाने की उसने अपने हिसाब से चालाकी की। 
     "डौकी चोरी हो गई है!" नगरसैनिक ने उसे अचरज और खींझ से भरकर देखा। पगला तो नहीं गया है! भीतर टेबल पर काम कर रहा साथी उसकी ओर देखकर मुस्कराने लगा। 
     "सुन रहे हो?" नगरसेवक ने उससे कहा, "...इसकी डौकी चोरी हो गई है!" फिर वह बुटूराम की ओर मुखातिब हुआ, "क्या बकते हो?...डौकी कोई सामान है जिसे कोई चुरा ले जाएगा?" नगर सैनिक ने उसकी हेंजवारी के लिए हड़काया। 
     "चुइया का रहने वाला मोहम्मद अजीज...वही ले गया है साहब!" वह सहमते हुए बोला।
     "तो थाने जाकर रपट लिखाओ! यहाँ क्यों चले आए?" नगरसैनिक ने डपटा तो वह निराश हो गया। चालीस किलो मीटर दूर अपने गाँव कदमझरिया से पैदल चलकर वह आया था। घर से आधी रात को निकला था। जंगली जानवरों से रक्षा के लिए तीर-कमान उसने साथ रख लिया था। रास्ते में एक गहबर और उसके बाद कुछ कोलिहा (सियार) दिखे। अपने रास्ते चले गए। खरहे (खरगोश) तो कई दिखे। रास्ते को बिजली की तरह छंलागते। बुटूराम को जरा भी डर नहीं लगा । अँधेरे में आँखें और भी काबिल हो गईं थीं। यहाँ के चकाचक उजाले में तो उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ रहा है। उधर डर है, तो केवल दंतैलों का। आजकल खूब ताण्डव मचा रहे हैं। गाँवों तक पहुँच रहे हैं। धान-पान को रौंदकर बर्बाद कर देते हैं। घरों को धक्का देकर ढहा देते हैं और सूँढ़ से सूँघते हुए अनाज के बोरे-कुठले तक जा पहुँचते हैं। सामने कोई आदमी आ गया तो उसकी खैर नहीं। दौड़कर सूँढ़ से पकड़ लेते हैं और पटक कर खूँद-खाँद कर देते हैं। आदमी से इतना नाराज क्यों हो गया है हाथी! जंगल से गुजरते हुए बुटूराम ने सोचा था। पर उसे डर नहीं लगा। बस, वह चौकन्ना था। तीर-कमान उसके हाथ में थे। लेकिन शहर में आकर उसका चौकन्नापन गायब हो गया था, बल्कि वह अचकचा रहा था। उसे बिनती करना भी नहीं आता था। 
     "लिखाया था साहब!...लेमरू थाने में लिखाया था।
     "फिर?"
     "कुछ नहीं हुआ!"
     "तुम्हारी 'डौकी'..." नगर सैनिक ने मुस्कराया, "...तुम्हारे साथ रहने को तैयार है?"
     "वह नहीं रहना चाहती, मत रहे…" वह हिम्मत कर के बोला, "...जहाँ चाहती है, रहे...पर मेरे बच्चों को तो वापस कर दे!"
     "ठीक है!...तुम्हारे तीर-कमान और थैला इधर रखो!" उसने कमरे के एक कोने की तरफ इशारा किया जहाँ डस्ट बिन और दो डंडे रखे हुए थे। फिर अपने साथी से कहा, "लिख लो यार!...क्या नाम है तुम्हारा?"
     "बुटूराम!" उसने बताया।
     "बुटूराम!" उसने उचारा, फिर कहा, "कुछ अता-पता भी तो होगा।"
     वह अपना पता सोचने लगा। फिर बोला, "कदमझरिया!...गाँव कदमझरिया!"
     "जाओ यार!" उसने जाने की अनुमति दी और तीर-कमान पर नजरें गड़ाते हुए बरबराया, "कदमझरिया!
 
     बुटूराम पूछते-पाछते सीढ़ियाँ चढ़कर कलेक्टर कक्ष के सामने पहुँच गया। सफेद वर्दी में लाल पट्टाधारी दरबान ने भँवें चमका कर आने का मकसद पूछा।
     "मिलना है कलट्टर साहेब से!" उसने हाथ जोड़ा।
     "वहाँ से स्लिप निकालो!" दरबान ने दरवाजे के बगल में लटक रही पर्चियों की गड्डी की ओर इशारा किया, "अपना नाम-धाम लिखकर दो!"
     "मैं लिखना नहीं जानता साहब!" उसने अपनी लाचारी जताई।
     "ठीक है...इधर ला!" दरबान ने स्लिप पर उसका नाम-पता लिखा और कहा, "सामने बेंच पर जाकर बैठ जाओ!"
     बुटूराम ने उधर निगाह डाली। दीवार से लगे स्टील के पुश्त वाले जालीदार बेंचों पर कई लोग बैठे थे। आदमी, औरत सब। बुर्के में बैठी एक औरत के बाद बेंच खाली था। वह उसी के एक सिरे पर बैठ गया और गमछे से चेहरे का पसीना पोंछने लगा। फिर उसने आँख बंद कर ली। उसे झपकी-सी आ गई। काफी थक गया था वह। वह झकना कर सजग हुआ। बीत ही गई होगी एक घड़ी। उसने देखा कि बेंच पर लोग जस के तस बैठे हुए हैं। मतलब, उनमें से किसी की बारी नहीं आई। दो-एक नये लोग भी दिख रहे हैं। कुरता-पैजामाधारी लोग सीधे दरवाजे से घुस जा रहे थे। लेकिन निकल नहीं रहे थे। एकाध आदमी ही निकलता दिखता था। उनको स्लिप नहीं लगता क्या? बड़े आदमी होंगे भई! 
     लेकिन उसे लौटना भी है। यहीं मुँधियार हो जाएगा तो पैदल चलकर वह भिन्सारे पहुँच पाएगा। यह सब उसे बिरसो के कारण भुगतना पड़ रहा है। जरा भी दया-मया नहीं है किसबिन के मन में! तीन-तीन बाल-बच्चों की महतारी। बड़ी लड़की की शादी भी हो गई है। नयी-नवेली डौकी भी नहीं है। फिर भी उस पठान के साथ भाग गई। गलती खुद उसी की है। क्यों भला उसके साथ दारू पिया उसने? और फिर उसे खाना खिलाने घर भी ले आया? सड़क पर उसका ट्रक बिगड़ा हुआ था। वहीं सड़क पर पड़ा रहने देता। बेकार ही दया दिखाई। जिसका यह फल भोगना पड़ रहा है। समाज ने बिरसो को जात बाहर किया तो उसे बड़ा संतोष हुआ। अपने बेटों संतोष और मंतोष के साथ वह गिरस्ती को बनाने की कोशिश करता रहा। उसने बिरसो को लगभग भुला ही दिया था कि महीने भर पहले उसकी गैरहाजिरी में वह आई और बच्चों को साथ लेकर चली गई। वह उन्हें वापस लाने गया तो वह उल्टे लड़ने-झगड़ने लगी। क्या खिलाओगे इन्हें? पालने-पोसने की औकात हैमतलब, उसे मालूम हो गया था कि सरकारी राशन मिलना बंद हो गया है। कहाँ से यह आधार और जनधन खाते की झंझट आ गई। राशन कार्ड के साथ नम्बर लिंक नहीं होने के कारण अब राशन मिल नहीं पा रहा है। फिर भी वह मरा नहीं है। अपने बच्चों को भी पाल-पोस लेता। आखिर पिछले पाँच सालों में जब वे गेदा-गेदा थे तो किसने उन्हें पाला? गाँव में बनी-भूती कर के, जंगल से सकेल-शिकार कर के वह उनको पाल सकता है। संतोष तो अब बड़ा भी हो गया है। उस बदमाश अजीज ने उसे काम पर लगा रखा है। उसने देखा। वह पानी में ट्यूब डुबोकर पंक्चर देख रहा था। उसे साथ लाने के लिए उसका हाथ पकड़ा तो अजीज ने धक्का मारकर भगा दिया। मन हुआ कि तीर से टुक दे। फिर चाहे जो हो! मरेगा किसी दिन उसके ही हाथों!
     वह उठकर दरबान के पास गया और हाथ जोड़ा, "बहुत दूर से आया हूँ साहब! लौटना भी है…!"
     "देख नहीं रहे, भीतर कितने लोग बैठे हैं?" उसने विजीटर रूम की ओर इशारा किया, "कलेक्टर साहब जिसे बुलाते हैं वही जाता है।"
      अच्छा, तो लोग भीतर भी इन्तजार कर रहे हैं। तभी बहुत कम आदमी निकल रहे हैं। वह निराश होकर वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया। जोरों की प्यास लगी थी। पर वह जा नहीं सकता था। कहीं वह पानी पीने गया और इधर उसकी बुलाहट हो गई तो! भूख भी लग रही थी। अब तो उसके पास महुआ लाटा भी नहीं बचा है। दाई ने एक पसर झोले में डाल दिया था। उसे रास्ते में चलते-चलते ही खा लिया था उसने। अब तो घर जाकर ही खाने को कुछ मिलेगा। एक बार कलट्टर साहेब से भेंट हो जाए। फरियाद करके ही वह जाएगा। वह बिरसो से अपने बच्चों को लेकर रहेगा। नहीं रहने देगा उसके पास।
     कितना बड़ा धोखा किया है उसने उसके साथ। वह उसे जान नहीं सका। सरहुली पूजा में नाच के समय कुछ इस तरह नजर भर कर देखा राँड़ी ने कि वह मोहित हो गया। उस पर प्रेम, फिर दया भी आ गई। साल भर पहले मर गया था उसका मरद। जंगल में भालुओं ने मार डाला था उसे। सरहुली पूजा के दिन उन्होंने हँड़िया पीकर खूब नाचा था। जदूरा नाच। वह उसका हाथ पकड़ कर अपने घर ले आया था। दाई ने भी मना नहीं किया। वे साथ रहने लगे। फिर उन्होंने ढुकू बिहाव कर लिया था। वह तो उसे पाकर निहाल हो गया था। सोचता था, उसके जैसे अड़हा (कमसमझ) आदमी को होशियार घरवाली मिल गई है। आठवीं तक पढ़ी थी वह वनवासी कल्याण आश्रम के स्कूल में। वह तो अनपढ़ ही रह गया। सोचा था, बिरसो उसके घर को सम्हालेगी। बाल-बच्चों को पढ़ाएगी। आस-पास के गाँव के लड़के पढ़-लिखकर गुरूजी और सिपाही बनने लगे हैं। उसके बच्चे भी कुछ बन जाते। घर में दाना-पानी की कमी वह न होने देता। खाँड़ी भर का खेत है। दुकाल न पड़ने पर चार महीने खाने के लिए धान हो ही जाता है। मुर्गियाँ और बकरे पाल ही रहा था। जंगल से कंद-मूल, तेंदू पत्ते, बीज, लाख, गोंद सकेल लाता था। भूखों नहीं मरने देता उन्हें। पर उसे तो चटक-मटक का चस्का लग गया था। कितनों भी रुपिये हाथ में धराओ, पूरा ही नहीं पड़ता था। हमेशा पैसा माँगती थी। घर के धान-पान बेच देती थी। अपने और बच्चों के लिए कपड़े, खजेना, खिलौने लेती ही रहती थी। कभी मना किया उसने? लेकिन उस नकटी ने उसके मुकाबले उस बदमाश अजीज को मरद समझा। यह बात रह-रह कर उसे सालती है। बिरसो से धोखा खाकर उसका मन फट गया है। अब वह जहाँ भी मरे उसे कोई मतलब नहीं। बस, उसके बच्चों को वापस कर दे।
     "मेहरुन्निशा...सौखीदास...बुटूराम…!" दरबान ने हाँक लगाई, "चलो सब एक साथ आ जाओ!...निकलना है साहेब को...।"
     बेंच पर बैठे लोग हड़बड़ा कर उठे। वह भी खुद को समेटता हुआ उनके पीछे लपका लपका। 
     "ठहरो-ठहरो...पहले निकलने दो इन्हें…!" 
     वे ठिठक कर दरवाजे के एक ओर हो गए। अन्दर से कलफ लगे झक्क सफेद कुरते-पाजामे में नेताजी और उनके शागिर्द कहकहाते निकल रहे थे। 
     "अच्छा, जाओ तुम लोग…!" दरबान ने उन्हें भीतर जाने की अनुमति दी। 
     अन्य लोगों के साथ वह भी अन्दर घुसा। आगन्तुक कक्ष में सोफों पर दो-चार लोग बैठे हुए थे। उसे पार कर वह कलेक्टर के कक्ष में पहुँचा। सामने टेबल के उस पार एक महिला को बैठे देखा। उसे खयाल आया, कहीं यह वही महिला कलेट्टर तो नहीं, जिसने कुछ दिनों पहले उनके गाँव तरफ दौरा किया था। उसने खुद तो उसे देखा नहीं था, पर गाँव वालों ने बताया था। इस बार महिला कलट्टर आई है। बड़ी भली साहेब है भाई! कई लोगों को राशन मिलना बंद हो गया था। राशन कार्ड के साथ आधार नंबर और बैंक एकाउण्ट नम्बर नहीं जुड़ने के कारण। कलेट्टर ने वहीं अपने अफसरों को हिदायत दी। और अब उन्हें राशन मिलने लगा है। गुरूजी लोग भी अब रोज स्कूल आते हैं। स्कूलों में मध्याह्न भोजन ठीक से मिलने लगा है। वनोपज के अच्छे दाम के लिए सहकारी समिति बनाई जा रही है। यह कलेट्टर गरीबों की सुध लेती है। 
     महिला कलेट्टर को देख कर उसकी हिम्मत बँधी। उसके साथ जरूर न्याय करेगी। वह धीरज रखते हुए बाकी फरियादियों के पीछे खड़ा हो गया। पहले ये लोग निपट लें, फिर वह इत्मीनान के साथ अपनी बात कहेगा। अब तक तो हाकिम लोग उसका मजाक ही उड़ाते आए हैं। लेमरू थाने में रपट दर्ज कराने गया था तो सिपाही उसका मजाक बना रहे थे। डौकी भाग गई! उठता नहीं क्या रे? उसे बहुत गुस्सा आया। लेकिन वह कर ही क्या सकता था? हवालात में बंद कर पीट-पाट देते तो वह क्या कर लेता? लेकिन ये साहेब लगता है उसकी सुनेगी।
     सामने के फरियादी हट गए तो कलेक्टर साहिबा की नजर उस पर पड़ी और उन्होंने आँखों से ही पूछा 
     "पाँच साल हुए साहब…!" उसके हाथ जुड़ गए, "...मेरी डौकी भाग गई थी! अब वह मेरे बच्चों को भी चुरा ले गई है...।
     "डौकी भाग गई है...बच्चे चुरा ले गई है…!" कलेक्टर साहिबा को कुछ समझ में नहीं आया।
     "डौकी...मेरी घरवाली साहेब!...पाँच साल पहले भाग गई थी...अब बच्चों को भी चुराकर ले गई है।"
     "बच्चे चुरा ले गई है?" कलेक्टर साहिबा को उसका आरोप अनुचित लगा। मां बच्चों को साथ ले गई होगी। उसी को चुराना  कह रहा है यह! "तो थाने में रपट लिखानी थी न!...यह तो कोर्ट का मामला बनता है।"
     "गया था साहब!" बुटूराम ने अधीर होकर कहा, "...लेमरू थाने में गया था...कुछ नहीं हुआ...।"
     "बच्चे मां के पास रहना चाहते होंगे तब?" 
     "बच्चे नहीं चाहते साहब!"
     "क्या नहीं चाहते?"
     "मां के साथ रहना नहीं चाहते।" बुटूराम ने कह तो दिया। लेकिन सोचने पर मजबूर हो गया। इसके पहले बच्चों के पराए होने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। बच्चों पर स्वाभाविक रूप से अपना हक मानता था। वह बाप है, और पिछले पाँच साल तो अकेले उसी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है। जब वे गेदा-गेदा थे तब तो वह छोड़कर भाग गई थी। कितनी साँसतों से उसने उन्हें पाला-पोसा था। अब बड़े हो गए तो अपना हक जताने लगी। 
     "लेमरू थाना…" कलेक्टर साहिबा को कुछ याद आ गया, "...कोरवा हो कि बिरहोर?"
     "कोरवा हूँ साहेब!" उसे ढाढस बँधा। कलेट्टर साहेब उन्हें जानती हैं। घूमती हैं न उनके गाँवों तरफ। प्यास के मारे सूख रहे होठों पर जबान फेरते हुए उसने मुस्कराने की कोशिश की, "आप तो आई थीं उधर…!"
     "तुम समेली भाठा के हो?" कलेक्टर साहिबा को चेहरा कुछ पहचाना-सा लगा। उस दिन वहाँ चौपाल में देखा हुआ-सा चेहरा। सारे आदिवासी लगभग एक जैसे ही तो दिखते हैं। कोरवा, बिरहोर, पाण्डो लोगों में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। ज्यादा सम्पर्क न होने के कारण ऐसा होता होगा। जैसे सब बन्दर, सभी पशु-पक्षी एक जैसे लगते हैं। पर ये तो राष्ट्रपति के दत्तक हैं। इनका भी एक व्यक्ति के रूप में पहचान में न आ पाना भी विडम्बना ही है। इनकी जातियों को लुप्तप्राय देखकर ही राष्ट्रपति से इन्हें गोद लिवाया गया था। गोद लेने वाले उस पिता को इन्होंने कभी देखा नहीं होगा। राष्ट्रपति को भला क्या मालूम कि उनके कितने दत्तक हैं, और किस हाल में हैं। हाल-चाल लेना तो प्रशासन का काम है। इसलिए कलेक्टर साहिबा उधर का दौरा कर ही लेती हैं। और अभी तो उन्हें उधर बार-बार दौरा करना पड़ रहा है। सरकार ने लेमरू को हाथी अभयारण्य क्षेत्र घोषित कर दिया है। इन दत्तकों को वहाँ से हटाना बड़ा मुश्किल काम हो गया है। उन्हें मालूम है, कुछ साल पहले जनसुविधाओं और रोजगार से जोड़ने के लिए इन आदिवासियों को मानगुरू पहाड़ियों से उसाल कर नीचे जंगल में बसाया गया था। कुछ परिवार को यह जमा नहीं तो वे फिर पहाड़ियों पर रहने चले गए। बाकी लोगों ने खेती-पाती करना शुरू कर दिया था। अब वे जमने लगे थे तो अभयारण्य के कारण उन्हें वहाँ से उसाला जाना जरूरी है। हाथी अब शहर से लगे गाँवों तक पहुँचने लगे हैं। हाथियों द्वारा लोगों को मारे जाने की खबरें लगातार छपती रहती हैं। सबसे ज्यादा शिकार तो जंगल के आस-पास रहने वाले ये आदिवासी ही होते हैं। इसलिए उनको हटाया जाना जरूरी है। 
     अभयारण्य! कलेक्टर साहिबा के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान  झलक उठी। क्या हाथी अपने अभयारण्य की सीमाओं को जानेंगे और मानेंगे? या ऐसा परकोटा खड़ा किया जाएगा जिसे हाथी तोड़ न सके? अभयारण्य में पर्याप्त चारा-पानी रहने की क्या गारण्टी है? सब जानते हैं, हाथियों के आबादी क्षेत्र में घुसने का मूल कारण है जंगलों को खनन क्षेत्र के हवाले कर हाथियों के रहवास को खत्म कर देना। लेकिन उस तरफ सोचना कलेक्टर साहिबा का काम नहीं है। उनका काम है सरकारी आदेश का पालन करना। योजनाओं को कार्यान्वित करना। प्रगति और विकास के लक्ष्यों को पूरा कर अपने कॅरियर को चमकाना। अब यह प्रगति और विकास जिधर ले जाए उधर ही जाना है। इसीलिए वे अपनी कोशिश में कमी नहीं करतीं। उन्हें वहाँ से उसलने के लिए मनाने बार-बार दौरा करती हैं। उनके दौरे से शासन की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से महरूम लोगों को कुछ फायदा भी हो जाता है। साथ गए अफसरों को तुरन्त निर्देश देती हैं। इससे आदिवासियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उन्होंने उन्हें कोसा रेलिंग का प्रशिक्षण दिलाकर रोजगार दिलाने और वनोपज की समिति द्वारा मार्केटिंग कराने का भरोसा दिया है। युवकों ने उत्सुकता दिखाई है। पर वह जानती हैं कि वनों से दूर कर देने पर न तो वनोपज तक उनकी पहुँच होगी और न कोसा रेलिंग का प्रशिक्षण ही कुछ काम आएगा। प्राकृतिक ककून वाले पेड़ तो अभयारण्य के अन्दर आ जाएंगे। वनोपज इकट्ठा करने की अनुमति क्या उन्हें मिलेगी
     "नहीं, मैं पहाड़ खाल्हे कदमझरिया का हूँ।" उसने बताया
     "तुम लोग समझते क्यों नहीं?" कलेक्टर साहिबा ने कुछ चिढ़े हुए अन्दाज में कहा, "...लगातार हाथियों के हमले हो रहें हैं। तुम्हारे अपने लोग मर रहे हैं। फिर भी चेत नहीं रहे…!"
     बुटूराम सकपका गया। उसे समझ में नहीं आया कि उसके बच्चों के बजाय हाथी का मामला कहाँ से आ गया। कलेट्टर साहिबा कह तो ठीक रही हैं। उधर के गाँवों में हाथियों द्वारा लोग अक्सर मारे जा रहे हैं। आते समय जंगल से गुजरते हुए वह भी डरा हुआ था। अँधेरा रहने तक तो वह ऐसे दबे पाँव चला, मानों बिल्ली हो। कोई दंतैल उसके सामने आ जाता तो वह अपने तीर-कमान से उसका क्या कर लेता! समस्या तो है। लेकिन मैडम उसे क्या समझने के लिए कह रही हैं, यह उसे समझ में नहीं आया। 
     "हम लोग सचेत हैं साहेब!" उसने कहा, "...अब घर में मउहा नहीं उतारते। उसकी महक पाकर वह आता है।"
     "हाथी तो फिर भी आ रहे हैं…" उन्होंने कहा, "...लोग मारे जा रहे हैं।...तुम भी समझाना अपने गाँव के लोगों को। सबको बसाहट के लिए बढ़िया जगह दी जाएगी। वहाँ बेकार ही अपनी जान को साँसत में डाले हुए हो!"
     "हौ साहेब!" बुटूराम को लगा कि यहाँ उसे हामी भरनी चाहिए। हाँ कहने में क्या जाता है? गाँव में उसकी सुनेगा कौन? उसकी हैसियत क्या है? बिरसो के भागने के बाद वह दर-दर की ठोकरें खा रहा है। साहेब कह रही है कहीं और बसा देंगे। पहाड़ से नीचे बसाया तो उसके डौकी-लइका का हरण हो गया। पहाड़ में रहते तो साले पठान से भेंट नहीं होती। सड़क किनारे घर होने से भेंट हो गई। उसका ट्रक बिगड़ गया था और उस पर दया कर वह उसे अपने घर ले आया था। हूम करते हाथ जल गया उसका। 
     कलेक्टर साहिबा ने एक स्लिप पर कुछ लिखा और बेल बजाई। चपरासी के आने पर उसे स्लिप देते हुए कहा, "इसे एसपी साहब के पास ले जाओ!"
     चपरासी उसे अपनी बाइक पर बैठाकर एसपी कार्यालय ले गया। बुटूराम का मन हुआ कि पहले कहीं रुक कर पानी पी ले। पर चपरासी से कहने की हिम्मत नहीं हुई। प्यास के मारे उसका तालू सूखा जा रहा था। आँखों में रह-रह कर झाँइयाँ छा रही थीं। वह डर रहा था कि बाइक से कहीं गिर न जाए। खैर, कलेट्टर साहेब की स्लिप और चपरासी द्वारा बाइक पर एसपी कार्यालय पहुँचाए जाने से उसे मदद की, अपने बच्चों के मिलने की एक नई आस जग गई थी। 
     एसपी कार्यालय में बाइक से उतर कर वह एकाध कदम चला कि लड़खड़ा कर बैठ गया। आधी रात से पैदल चलता हुआ वह आया था। रास्ते में थोड़ा बहुत महुलाटा खाया था। पर वह कितनी देर थामता? ऊपर से प्यास के मारे मुँह में चटका बर रहा था। आँखों में अँधेरा छाने के साथ ही महसूस किया कि चपरासी ने उसे कंधे को पकड़ कर संभाल लिया है। फिर उसकी चेतना डूब गई। 
     एक सिपाही उधर लपका, "क्या हो गया?"
     "लगता है, बेहोश हो गया है।" चपरासी ने कहा, "कलेक्टर साहेब ने इसे एसपी साहेब के पास भेजा है।"
    सिपाही भीतर से गिलास में पानी ले आया और उसके चेहरे पर छींटा मारा। बुटूराम की पलके फड़फड़ाईं और होठों पर जुबान फिरी। फिर उसने आँखें खोल दीं। सिपाही ने उसे गिलास का बचा पानी पिलाया। उसकी जान में जान आई। 
     "अब ठीक है?" सिपाही ने पूछा। 
     "ठीक है साहब!" उसने कहा। 
     चपरासी ने उसे उठाया। उसे सहारा देकर एसपी कक्ष तक ले गया। स्लिप को एसपी साहेब के पास भिजवाया। सिपाही ने उन्हें कक्ष के अन्दर आने का इशारा किया। बुटूराम लड़खड़ाता हुआ कक्ष में पहुँचा। 
     "पिये-उवे हो क्या?...ठीक से खड़ा हो!" बुटूराम सहम गया। अपने-आपको सचेत किया। खाकी वर्दी वालों से वैसे भी डर लगता है। लेमरू थाने वालों को देखकर तो वह कपस जाता है। उनकी नजर से जितनी दूर रहे उतना ही अच्छा! उन्होंने तो उसका मजाक उड़ाया था। उठता नहीं क्या रे? इस मजाक ने उसे बिल्कुल नाचीज बना दिया था। नाचीज का दर्द, गुस्सा एक मजाक ही तो है। वह कुछ कहता और वे हवालात में बंद कर उसकी कुटाई कर देते। उस दिन बच्चों पर दावे की अपनी हैसियत उसे कमजोर होती लगी थी। वह तो निराश होकर बैठ गया था। पिछले दिनों गाँव के तरफ कलेक्टर का दौरा होने लगा। इधर के लोग कलेक्टर के जन-दर्शन में जाने लगे तो उसकी भी हिम्मत बँधी। उसने सोचा कि वह भी करेगा कलेक्टर से फरियाद। शायद उसके बच्चे मिल जाएँ!
     "अभी इसे चक्कर आ गया था सर!" चपरासी ने उसकी हालत बताने की कोशिश की। 
     "कैसे?" एसपी ने अब उसे गौर से देखा। उसके चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। "खाना-वाना खाए हो कि नहीं?...बैठ जाओ!" उसने सामने रखी कुर्सी की ओर इशारा किया। 
     "टेम ही नहीं मिला साहब!" उसने कहा। मानों, टाइम मिलने पर उसके पास खाने की चीज या पैसे थे। 
     "टाइम नहीं मिला!" एसपी चकराया, "ऐसा कौन-सा काम कर रहे थे कि खाने को भी टाइम नहीं मिला?"
     "आधी रात को चला था साहब घर से..." उसने बताया, "कलेट्टर ऑफिस पहुँचते ग्यारह बज गए।"
     "कहाँ है तुम्हारा घर?"
     "कदमझरिया...लेमरू थाना...।"
     "पैदल चलकर आए हो?" 
     "हौ साहब!"
     "बस से क्यों नहीं आए?" एसपी ने उसे अचरज से देखते हुए पूछा।
     "टिकस के लिए पैसे नहीं थे साहब!"
     एसपी को उस पर दया आ गई। बड़ी तकलीफ उठा कर पहुँचा है यह तो! राष्ट्रपति के दत्तक को एसपी भी जानता है। बस, पहचानता कोई नहीं। इसके बच्चों को मां ले गई है। यह उन्हें पाना चाहता है। कलेक्टर मैडम ने स्लिप में लिखा है, प्लीज़ डू द नीडफुल। फोन पर भी तो बोल सकती थीं! और बच्चे मां के पास हैं तो वह क्या कर सकता है? वे किसके पास रहेंगे इसका फैसला तो अदालत ही कर सकती है। हाथी अभयारण्य क्षेत्र में रहता है यह। इन्हें वहाँ से हटाना है। मतलब, विस्थापित करना है। लेकिन बुटूराम को तो कुछ सांत्वना देना होगा। मौके पर ये लोग काम आएंगे।
     "बच्चे मां के पास रहना चाहते होंगे तब…" एसपी ने पूछा,, "...मिले थे उनसे?"
     "गया था साहब उन्हें लेने..." उसने बताया,..."अजीज ने उन्हें आने नहीं दिया!"
     "यह अजीज कौन है?" 
     "वही तो बिरसो को भगाकर ले गया है साहब! भाग गई तो अब वह मेरे लिए मर गई। अब उससे मुझे कोई मतलब नहीं। हमारे समाज ने उसको निकाल-बाहर कर दिया है। अब वह जहाँ चाहे, जैसा चाहे, रहे। लेकिन मेरे बच्चों को वापस कर दे।" उसकी साँस भर आई। प्यास फिर लग आई थी। खाली पेट खूब पानी माँगता है। "...जब बच्चे गेदा-गेदा थे तो उन्हें छोड़कर भाग गई थी निर्दई! उनके डेने जम गए तो अब अपना हक जता रही है...!" उसने दिल से फरियाद की। एसपी साहब उसे थानेदार जैसा खुर्राट नहीं लगा। अभी लइका उमर ही था। आदमी जैसा लग रहा था। जरूर उसकी सुनेगा। 
     एसपी को सच में, उस पर दया आ गई थी। घरवाली और बच्चे दोनों छिन गए बेचारे के! सरकार इनके संरक्षण के लिए काम कर रही है। हालांकि, नतीजा निकलता दिखाई नहीं देता। समाज की  मुख्यधारा में कदम रखते ही ये गायब होने लगते हैं। उनकी लड़कियाँ भगाकर महानगरों के देह-व्यापार में खपाई जाती हैं। भाषा और संस्कृति विलुप्ति के कगार पर हैं। होशियार और चालाक लोग इन्हें लूट लेते हैं। किसी अज़ीज ने इसकी पत्नी और बेटे लूट लिए। एसपी चाह कर भी उसके लिए ज्यादा-कुछ  कर नहीं सकता। उसने कहा, "देखो, अब यह कोर्ट-कचहरी का मामला बन गया है। वे बच्चे वापस देना नहीं चाहती। और तुम छिन कर ला भी नहीं सकते। अब कोर्ट ही फैसला कर सकता है। उसके आदेश के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। मुकदमा लड़ना आसान काम नहीं है। सोच लो अच्छी तरह से। हो सकता है, बच्चे समझदार हो जाने पर खुद ही तुम्हारे पास आ जाएँ।
     एसपी ने उसकी जगह पर अपने-आपको रखकर देखा। हर लिहाज से दुखी जीव, जिसके बीवी-बच्चे भाग गए हों। भग्न-हृदय, बैचैन आत्मा। सक्षम आदमी की बीवी नहीं भागती। ऐसा बिपत कमजोरों पर ही आता है। उसका स्वर मुलायम हो गया, "मैं आता हूँ उधर एक दिन...देखता हूँ!" फिर अपने सहायक से कहा, "नोट कर लो इसका नाम-गाम!" उसने अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और बुटूराम की ओर बढ़ाते हुए कहा, "इसे रख लो!...बस से जाना...और अपने गाँव के लोगों को समझाना। क्या रखा है जंगल में? तकलीफ के सिवा?" एसपी ने मानों, अपने सिद्धान्तों के आड़े आ रहे फर्ज को अदा किया। फिर चपरासी से कहा, "इसे दाल-भात सेन्टर में खाना खिलाकर छोड़ देना।"
      एसपी साहब के व्यवहार से बुटूराम के बुझे हुए मन की बत्ती कुछ जली। यह साहब कम-से-कम उसे आदमी तो समझता है। उसके भूख-प्यास का खयाल करता है। बच्चों के बारे में उसे भी संदेह है कि वे उसके साथ रहना चाहते होंगे। आखिर वह जंगल में उन्हें दे भी क्या पाता है। संतोष अज़ीज के पंक्चर दुकान पर नाँद के पास टायर लिए खड़ा था। चार पैसा कमा रहा है तो खर्चा-पानी मिलता होगा। अच्छा खाता-पीता होगा। मेरे साथ क्यों आना चाहेंगे! क्योंकि वह उनका बाप है। कोई बिजूका नहीं। साहब ने उसे बाप समझा है। उसके दुख को समझा है। इस बात से उसे ढाढस बँधा। आँसू छलछला आए। कृतज्ञ हाथ अपने-आप जुड़ गए। 
     दाल-भात सेन्टर में खाना खिलाने के बाद सिपाही ने उसे कलेक्टोरेट के गेट पर छोड़ दिया। वह सिक्यूरिटी पोस्ट की तरफ आने लगा। नगर सेवक ने उसे संदिग्ध नजरों से देखा। फिर उसे याद आ गया। यह वही व्यक्ति है जिसकी 'डौकी' चोरी हो गई है। उसने मुस्कराते हुए उससे पूछा, "क्या हुआ... मिले कलेक्टर साहिबा से?"
     "मिला हूँ साहब! कप्तान साहब से भी मिला।" वह उसके लहजे को देखकर उससे बतियाना नहीं चाहता था । वह कमरे के कोने में रखे अपने थैले और तीर-कमान को उठाने लगा। 
     "क्या हुआ?"
     "आऊंगा उधर बोले हैं कप्तान साहब।" बुटूराम को भरोसा हो गया था कि कप्तान साहब उधर आएंगे। बच्चों के वापस मिलने का भरोसा भले नहीं कर पा रहा था। लेकिन कप्तान साहब आदमी उसे अच्छे लगे। शुरू में घुड़का जरूर था। पर उसकी हालत देखकर तरस खा गए। बस के टिकट के लिए पैसे दिए। खाना भी खिलाने को कहा। गाँव वालों को समझाने के लिए कहा है। कलेट्टर साहेब ने भी कहा है। वह कोशिश करेगा। वैसे उसकी सुनता कौन है? गाँव में उसकी हैसियत ही क्या है? बिरसो के भागने के बाद तो वह कुकुर जैसा बन गया है। मुखिया को उसने कहा था कि उसे समाज बाहिर न करे। वह उसे ले आएगा। वह नहीं माना। पर अब वह अकेले ही कलट्टर-कप्तान से मिलकर जा रहा है। कप्तान साहब आएंगे बोले हैं। उनके आने से थोड़ी-बहुत तो उसकी धाक जमेगी। वह जरूर कोशिश करेगा। हाथियों का डर दिन-रात बना रहता है। उनके लोग मरते ही रहते हैं। पिछले महीने मुखिया के भाई को ही पटक मारा था दंतैल ने। तेंदू तोड़ने गए थे वे लोग। एक भाई किसी तरह से बचकर आ गया था प्लास्टर चढ़ा हुआ है उसके हाथ में। गाँव छोड़ देने में ही भलाई है। सरकार किसी जगह-पर बसाएगी तो रोजी-रोटी की भी व्यवस्था हो ही जाएगी। क्या पता, बिरसो उसकी हालत को बेहतर देख फिर वापस आ जाए। साहब लोग समझाएँ तो शायद, समझ भी जाए। गाँव वालों को समझाने की कोशिश तो वह जरूर करेगा।
     "इसे छोड़ जाओ!" नगरसेवक ने तीर-कमान की तरफ इशारा किया। उसने सोच लिया था कि तीर-कमान को वह रखेगा। उन्हें अपने घर की बैठक में सजाएगा। सामने की दीवार पर। जहाँ बारहसिंगा का सिर टँगा हुआ है। "...शहर में हथियार लेकर चलना मना है...मालूम है?"
     "लेकिन यह तो तीर-कमान है साहब! जंगल में जानवरों से रक्षा के लिए रखते हैं।" उसने कहा।
     "लेकिन यह शहर है। कोई सिपाही देख लेगा तो हवालात में बंद कर देगा।बेहतर है कि इसे यहीं छोड़ जाओ। घर में तो तुम्हारे पास और भी होंगे। नहीं तो बना लेना।
     बुटूराम को समझ में आ गया कि तीर-कमान पर इसका जी लग गया है, "रखना है तो ऐसा बोलो न साहब! डराते क्यों हो?" 
     नगरसेवक ने बेशर्मी से मुस्कराते हुए उसके कंधे से कमान खींच लिया। बुटूराम ने हाथ में धरे हुए तीर को बेमन से खुद ही उसके हवाले कर दिया और सुटुर-सुटुर बाहर निकल गया। उसे रंज हो रहा था। रखना ही था तो ठीक से माँगता। डरा रहा था साला!
                                     
    

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