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सीमा शर्मा की कहानी चिलगोजे का तेल



 

हाल के वर्षों में युवा कथा लेखिका सीमा शर्मा की कई कहानियों ने जिस तरह पाठकों से संवाद किया है , कथा जगत में एक आशा जगाने वाली घटना के बतौर उसे देखा जाने लगा है । यह बात उस संदर्भ में कही जा रही है कि सीमा की कहानियों का जो कंटेंट है वह थोड़ा अलहदा है अलहदा इस सन्दर्भ में कि समाज में अलक्षित रह जाने वाली घटनाओं पर लेखिका की पैनी नजर गयी है और अपने आस पड़ोस की अनुभवजनित घटनाओं को उन्होंने कहानी में शिल्प और भाषायी स्तर पर एक नयी खूबसूरती प्रदान की है । चाहे उनकी कहानी  'मैं रेजा और पच्चीस जून' की बात करें, कहानी 'चरित्र प्रमाण ' की बात करें या यहाँ ली जा रही कहानी 'चिलगोजे का तेल' की बात करें , इन सभी कहानियों में कथा रचना की एक नयी दृष्टि से पाठकों का परिचय होता है।अब तक सीमा की कहानियाँ कथादेश , परिकथा ,इन्द्रप्रस्थ भारती , कथाक्रम , जनसत्ता , नया साहित्य निबंध सहित अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चा पा चुकी हैं । उनकी कहानियां अपनी भाषा और कथ्य के साथ जिस तरह अपने समय से टकराती हैं , वह उन्हें पठनीय बनाती हैं। कहानी में किसी महिला लेखिका की नजर, स्त्री समस्याओं की नयी-नयी जगहों पर किस तरह जाती है , यहाँ प्रस्तुत कहानी उसका उदाहरण है | सबकुछ घटित हो जाने के बावजूद पुरूषवादी समाज में स्त्री अपने द्वन्द के साथ आज भी किस दोराहे पर खड़ी है, कहानी वहीं जाकर खत्म होती है । एक स्त्री की नजर में क्या उस अंतिम मोड़ पर जजमेंटल हुआ जा सकता है ? यह सवाल एक कुहाँसा छोड़ जाता है, यह सवाल आज भी समाज में तैर रहा है।

सीमा का अनुग्रह के इस मंच पर हार्दिक स्वागत है .

तेल में सना उसका हाथ आहिस्ता-आहिस्ता सरक रहा था। एकदम आहिस्ता। चेहरा पसीज गया
था। वह बेहद डरी हुई थी। बुढ़ऊ की आँखें अधमुँदी हो रही थीं और रोएं खड़े हो गए थे। उसे घृणा होने लगी। बूढ़े के सीने में सफ़ेद बालों का गुच्छा देख कर। उसके रोंओं की हरकत से। यहाँ तक कि

मायके की ढेरों यादें। ससुराल वालों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का भरपूर जज़्बा। पर मनआशंकित। पति और ससुराल वाले उसे समझ सके तो नये वातावरण के अनुरूप ढलने में ज़्यादावक्त नहीं लगेगा। और अगर नहीं समझ सके तो ? वह कुछ घबड़ाई-सी थी कि अचानक रागिनी नेउसका पल्लू ठीक करते हुए पूछा, “भाभी, आप कैसा महसूस कर रही हैं ?”

वैसे यह इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों जैसा सवाल था। जिससे कई बार खीज होती है। पर वेदिकाको लगा, जून की दोपहरी में छायादार वृक्ष मिल गया। उसने राहत की साँस ली और मुस्कराते हुएसिर हिला दिया। जिसका अर्थ था— अच्छा।

रात की उनींदी थी। थकान बहुत थी। सोने के लिएबिस्तर के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा था। किंतु बहुत सारी रस्में अभी बाकी हैं यह सोच कर,जगमगाते हौसले की लौ थरथराने लगी। अक्षत कितनी ही बार उसे तिरछी निगाहों से देख चुका था।उसने भी सबसे नज़रें चुरा कर अक्षत को कई बार देखा। लड़का तो अच्छा है, ऐसा मायके में कईअधेड़ और बूढ़ी औरतों ने कहा था। लड़कियों ने उसे छेड़ते हुए अक्षत के आकर्षक डील-डौल कीगवाही दी थी। उसने जितनी बार चोर निगाहों ने देखा उतनी ही बार लगा कि लोगों की राय ठीक हीतो थी। वाक़ई बहुत अच्छे हैं। हर तरह से।

शादी का फैसला पापा का था। वेदिका ने स्वीकार कर लिया था। जबकि करियर सँवारना उसकी

प्राथमिकता थी। शिक्षाशास्त्र से नेट परीक्षा पास की थी। पी.एच.डी. थी। किसी विश्वविद्यालय या

कॉलेज में व्याख्याता बनना चाहती थी। किंतु पापा की इच्छा के सामने नतमस्तक हो गई। क्यों हुई,

वह नहीं जानती। बस, पापा का चेहरा देखा और हो गई। तब लड़का देख कर ऐसा कुछ नहीं हुआ था

कि ‘हाँ’ कह दे। वैसा ही तो है जैसे सारे लड़के होते हैं। बल्कि दो बातें तो उल्टा अच्छी नहीं लगी थीं।

एक तो ऐंठ कर चल रहा था। दूसरा, गले में सोने की चेन पहनी थी और उसे दिखाने के लिए कमीज़

का एक बटन खोल रखा था। टिपिकल दुकानदार टाइप। पर अब अचानक आकर्षक लगने लगा था।

इतना कि उससे प्रेम किया जा सकता था। जीवन भर के लिए। बस, वह पति के साथ-साथ दोस्त भी

बन कर रहे तो कितना अच्छा हो।

वेदिका घर में बड़ी थी। समझदार और सुलझी हुई भी। मोहन प्रसाद ने वेदिका और नेहा की पढ़ाई-

लिखाई को हमेशा तरजीह दी। जब श्याम सुंदर अपने मझले बेटे का रिश्ता लेकर खुद आये तो मोहन

प्रसाद को लगा उन्होंने उपकार किया है। सिर्फ़ इसलिए कि श्याम सुंदर अच्छे वकील माने जाते थे

और शहर में उनकी ठीक-ठाक प्रतिष्ठा थी। रिश्ता लेकर खुद उनके दरवाज़े पर आए थे। थोड़ा अटपटी

बात यह थी कि अक्षत उनकी बेटी से कम पढ़ा-लिखा था।तो क्या हुआ ? जब लड़के वालों को रिश्ता

मंज़ूर है तो उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है ? देखने में अच्छा भला था। अपना व्यवसाय करता था।

व्यवसाय सम्भालना आसन थोड़े होता है। यह उसकी काबीलियत और समझदारी का सबूत था। पढ़ाई

कोई मायने नहीं रखती। व्यक्ति का सुलझा हुआ होना ज्यादाजरूरी है। शराबी-कबाबी न हो और कोई

खोट-खाट न हो। बस।

उस दिन मोहन प्रसाद अचानक दो बेटियों के बाप हो गए थे। एक आम बाप, जिसकी मुक्ति

कन्यादान से होती है। प्रगतिशील विचार पलक झपकते ही पलटी खा गये। हालाँकि बेटियाँ बोझ नहीं

होतीं, यह कहते हुए पत्नी रमा ने झुँझला कर रिश्ते को बेमेल करार दिया था। तर्क भी दिया कि

वेदिका पी.एच.डी और अक्षत केवल इंटरमीडिएट। मोहन प्रसाद ने सारे तर्कों को दरकिनार कर दिया,

केवल डिग्री से बेटियां सुखी नहीं होतीं। सुख की कुंजी होता है खाता-पीता और इज़्ज़तदार घराना।”

रमा समझ गई कि फैसला अटल है और बहस करना निरर्थक। शादी तय हो गई और वह दिन

भी आ गया जब वह विदा हो गई— ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ टाइप रोआँसी धुन के साथ। ससुराल

में ‘दुल्हन आ गई, दुल्हन आ गई’ का शोर मचा। बच्चों की भीड़ ने दुल्हन को घेर लिया। घूँघट के

अंदर से बच्चों की खुशी और उत्सुकता देख वेदिका मुस्करा रही थी। रोंदू धुन पीछे छूट चुकी थी।

विदाई के वक्त निकले आँसू अब तक थम गए थे। घर की औरतों का एक झुंड आरती की थाली के

साथ बड़ी ही बेढब और उबाऊ तर्ज में गा रहा था— “सजाए डाली फूल लाया है माली...पहिला चुनावन

दूल्हा, दूजा चुनावन दुल्हन...छुआवन में कंगन लुटाय डाली...फूल लाया है माली...।

अक्षत का चेहरा देख कर गीत का बेढब सुर-ताल भी मन को भा रहा था। एक दौरी और सूपा में

चावल, छोटी सुपारी, हल्दी की गाँठें, सिंधौरा और एक जलता हुआ दीया रखा हुआ था। वेदिका को

अक्षत के साथ–साथ चावल भरे सूपे में पैर रखते हुये कोहबर में प्रवेश करना था। चुनरी की गाँठ से

बँधे अक्षत के स्पर्श से वह बार-बार रोमांचित हो उठती। अक्षत क्या सोच रहा है, यह शायद उसे भी

पता नहीं चल रहा था। पर वेदिका को देख कर वह निश्चित ही मुग्ध था। उसे लग रहा था, वह

किसी अज्ञात सुरूर में डूबता जा रहा है। इतनी पढ़ी-लिखी, समझदार और सुंदर पत्नी मिलने का नशा

सतरंगी था।

कोहबर की रस्मों के बाद वेदिका को उसके कमरे में ले जाने की बारी आई। दरवाज़े पर ही खड़ी

रागिनी ने दोनों को घेर लिया, “बिना नेग लिये अंदर नहीं जाने दूँगी।”

इठलाती हुई रागिनी अपने शरीर को लगातार झुला रही थी। जैसे नेग मिलने की खुशी हिचकोले

खिला रही हो। तभी सुशीला देवी का स्वर गूँजा। पता नहीं किस गुफा के अंदर से बोल रही थीं,

मझली बहू, तुम्हारी तीन अँगुलियों में अंगूठियाँ हैं, कोई एक निकाल कर दे दो। एक ही तो ननद

है।”

सास की आवाज़ भी उनकी सशरीर उपस्थिति होती है। वेदिका कुछ बोल तो नहीं पाती, पर सोच

भी नहीं पाई। सोचने से पहले ही रागिनी ने झट से उसके बायें हाथ की अंगुली से अंगूठी निकाल कर

अपनी अंगुली में पहन ली, “देखो भाभी, कैसी लग रही है ?”

वह फिर हिचकोले खाने लगी। माँ की नसीहत ने वेदिका को धैर्य रखना सिखाया था। वह मुस्करा

दी। अक्षत ने पत्नी की ओर देखा। उसकी आँखों में वेदिका के लिए प्रशंसा साफ़ झलक रही थी।

उसके बाद वेदिका को एक सजे हुये कमरे में बिठा दिया गया, जहाँ मोगरे की लड़ियाँ मदहोश कर

रही थीं। फ़िल्मी सुहागरात-सा दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गया। अधखुली खिड़कियों से ठिठुरी

हुई चाँदनी झाँक रही थी। वेदिका ने चाँद को देखा। फिर आदमकद शीशे में खुद को देखा। उसे अपनी

आँखों में इंतज़ार दिखा— ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ / सुन जा दिल की दास्ताँ...। फिल्मों जैसी

हसीन रात का ख्वाब और ख्वाब में रोमांटिक फिल्मी गाना।

अक्षत कमरे में नहीं थे। वह थी और उसके साथ घर की कुछ महिलाएं, जिन्हें अभी वह अच्छी

तरह पहचानती नहीं थी। पता नहीं कौन रिश्ते में क्या लगती होगी। पर इतनी रात तक ठहरी हैं तो

सगी-संबंधी होंगी, ऐसालगता था। ‘मायके से क्या-क्या मिला’ जैसी फुसफुसाहट पार्श्व संगीत बनी हुई

थी। किसी ने झपट कर उसकी हथेलियों को अपने करीब खींच लिया, “वाह, कितनी रची है तुम्हारे

हाथों की मेहंदी,अक्षत का खूब प्यार मिलेगा।”

वह निहाल हो रही थी। फूलों के झूले में कोई उसे झुलाने लगा। कौन ? अक्षत ?

फिर शुरू हुआ साक्षात्कार। एक बूढ़ी अम्मा ने पूछा, “केतना पढ़े बालू ?”

वेदिका ने कहा, “जी मैंने पी.एच.डी. की है।”

बूढ़ी अम्मा अपनी दोनों भौहों को नचातीऔर उसे ऊपर से नीचे तक देखती हुई बोली “ई कऊन पढ़ाईलागै हो ?”

उसने कोई जबाब नहीं दिया। बस घड़ी की ओर देखा। साढ़े ग्यारह हो चुके थे। अक्षत का कहीं पतानहीं था। वह दरवाज़े की हर आहट को अक्षत के आने का संकेत समझती। पर हर बार कोई औरहोता। इस बार सास थी। पास आकर बोली, “छोटी बहू, अभी एक रस्म बाकी है।”

वेदिका ने उन्हें देखा। उसकी आँखें डबडबा आई थीं। जाने नींद से या उन थकाऊ रस्मों से। सास

की आँखों में रस्मों को लेकर कोई उत्साह नहीं था। वहाँ औपचारिकता की एक अबूझ नीरसता पसरी

हुई थी। उन्होंने बताया, “इस कुल में हर बहू अपने ससुर की सेवा से ही अपने जीवन का प्रारंभ

करती है।”

उन्होंने आँखें मिचमिचाईं और तेल का कटोरा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “ये लो तेल, अपने ससुर

की मालिश कर आओ। तुम्हारे लौटने के बाद ही अक्षत आयेगा कमरे में।”

सास ने फिर से आँखें मिचमिचाईं। शून्य में देखा। पर उसकी ओर देखे बिना चली गईं। वह याद

करने लगी कि माँ ने तो कभी ऐसी किसी रस्म के बारे में उसे नहीं बताया। ससुर जी को तेल वह

कैसे लगाएगी भला ? सोच-सोच कर उसे संकोच हो रहा था। यह भी नहीं पूछ सकी कि तेल सिर पर

लगाना है या बदन में। भारी कशमकश थी। जाये कि न जाए। इसी कशमकश में जाने कब उसकी

आँख लग गई।

सुबह जब रागिनी ने झकझोरा तो नींद खुली। वेदिका ने हड़बड़ा कर इधर-उधर देखा। एक छोटी

मेज पर तेल का कटोरा ज्यों का त्यों पड़ा था। अक्षत का कहीं पता नहीं था। उसे अचकचाया देख

रागिनी ने हँसते हुए कहा, “भाभी, आप घर में ही हो और मैं ...मैं रागिनी। आपकी ननद।”

वेदिका अब तक सँभल चुकी थी। वह मुस्करा दी, जिसमें झेंप थी। रागिनी भी हँसने लगी, “जल्दी

करो। दिन निकल आया। नई बहु को सबसे पहले उठना होता है भाभी। इतना कह कर उसने सफाई दी,“यह मैं नहीं कह रही हूं, कंजूस और खड़ूस पापा और लकीर की फकीर मम्मी का कहना है।”

श्याम सुंदर का परिवार शहर के बाहर ढाई किलोमीटर की दूरी पर रहता था। वहाँ पुश्तैनी जमीन

पर उन्होंने खूब बड़ा घर बनाया था। अच्छी खासी खेती थी। आस-पास कुछ और परिवार रहते थे,

जिनकी हैसियत उनके सामने कुछ नहीं थी। घर में गाड़ी थी। पर श्याम सुंदर रोज़ अपने छकड़ा

स्कूटर से कोर्ट जाते थे। सचमुच कंजूस थे। माँ अपनी स्वर्गवासी सास के नक्शेकदम पर चलती थीं। किसी तरह के बदलवा में उनकी रुचि नहीं थी।

वेदिका को जल्दी करने की हिदायत देकर रागिनी चली गई। अलसायी वेदिका ने एक नजर कमरे को देखा। कमरा वैसे का वैसा ही था। दूध, पान, और फूल सभी सलामत थे। पर उनमें ताज़गी

और गरमाहट नहीं बची थी। हालाँकि सुगंध से कमरा अब भी गमगमा रहा था। उसने खुद को

शीशे में देखा। होंठों की लाली जस की तस थी। बीती रात अक्षत कमरे में क्यों नहीं आए होंगे

?वह रात उनके लिए भी तो उतनी ही अहम थी। तो फिर ऐसा क्या हुआ ? उसने सोचा और उदास हो गई।

 

*

वह पगफेरे के लिए तैयार होकर गाड़ी में बैठ चुकी थी। अक्षत का इंतज़ार था। मगर आश्चर्य।

उसकी जगह छोटा भाई साथ गया। माँ से मिलकर वेदिका को फफक-फफक कर रोने की इच्छा हो

रही थी। लेकिन वह मुस्कराते हुये माँ के गले लगी। यह सब एकदम फिल्मी अंदाज़ में हो रहा

था। जैसे माँ को दुख नहीं पहुँचाना है?

रमा ने भी उसी फिल्मी तरीक़े से वेदिका के चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया, “वेदिका, वहाँ सब

लोग अच्छे तो हैं ना ? अक्षत क्यों नहीं आये ?”

उसने मुस्कराने का प्रयास किया, “अक्षत को कोई काम आ गया था।”

अवसर मिलते ही उसने माँ से पूछा कि उन्होंनेससुराल में होने वाली मालिश की रस्म के बारे में क्यों नहीं बताया ? सुन कर रमा के चेहरे परहवाइयाँ उड़ने लगीं। रमा अचानक ही अपने अतीत में गोते लगाने लगी थी। वेदिका ने फिर से झकझोरातो रमा ने दृढ़ता के साथ कह दिया, “बेटा, यह परंपरा तो है। पर मैं जानती हूँ कि तू पढ़ी-लिखी हैऔर अक्षत की समझदारी पर भी भरोसा है। वो तेरा साथ देंगे। तुम्हारी पीढ़ी सही और ग़लत को खूबसमझती है।”

इतना कह कर रमा उसे देने के लिए कुछ छिटपुट उपहार रखने लगी। बातों का सिलसिला

वहीं खत्म कर दिया। माँ का व्यवहार वेदिका की समझ में नहीं आ रहा था। उन्होंने आज से पहले

कभी नजरें झुका कर कोई जवाब नहीं दिया था। इस तरह तो बिलकुल भी नहीं। आखिर है क्या ये

रस्म ? क्या होता होगा इसमें ? ऐसा क्या है कि ससुर को तेल लगाए बिना पति से मिलन नहीं हो

सकता ?

माँ लगातार नसीहतें दे रही थी। आँसू बहा रही थी। कभी खुश हो रही थी, तो कभी-कभी

उदास हो जाती थी। वह शायद उस प्रसंग को टालने का प्रयास कर रही थी। वेदिका की समझ में

नहीं आ रहा था कि माँ सचमुच टाल रही है या यह कोई मामूली बात ही है।

मायके से लौटने में रात हो चली थी। उसने तय कर लिया कि अगर दुबारा इस बारे में किसी ने

बात की तो वह अक्षत से पूछेगी। इस पर वह ज़्यादा सोचना नहीं चाहती थी। उसे लग रहा था किउसकी अनिच्छा को देखते हुए घर के लोग भी इसे भूल चुके होंगे। यों भी उसे अक्षत का इंतज़ार था।आज तो वह कमरे में आएंगे ही। फिर से फिल्मी सपने। लेकिन इंतज़ार करते–करते वह रात भी

आँखों-आँखों में निकल गई। रात भर में उसने फैसला कर लिया कि सुबह खुद अक्षत से साफ-साफ

बात करेगी। आखिर वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।

सुबह उठ कर वह परेशान थी। जो पति उसे चोरी-छिपे देखने का कोई मौका नहीं गँवाता, वह पास

आने से कतराता क्यों है ? क्या हो रहा है उसके साथ ? मन में तरह-तरह की आशंकाएं घर करती

जा रही थीं। तभी अक्षत अपने कपड़े लेने के लिए कमरे में आया। वेदिका को जगा देख चौंक गया,

अरे, तुम इतनी जल्दी उठ गयी ?”

वेदिका ने बिना अक्षत को देखे, थोड़ा नाराज़गी के साथ कहा, “सोई होती तब तो उठती, मैं तो सोई

ही नहीं रात भर।”

क्यों ?”

वेदिका को गुस्सा आने लगा था। लेकिन जज़्ब कर गई। अक्षत के सवाल का जवाब न देकर

उसकी आँखों में देखना चाहा। वह हड़बड़ा गया और कपड़ों को उलट-पुलट कर देखने लगा। वेदिका ने

पूछा, “तुम कहाँ थे दो दिन से ?”

कहीं नहीं, पिताजी ने जरूरी काम से भेज दिया था। तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं हुई ?”

वह कपड़े लेकर कमरे से बाहर निकल गया। वेदिका के जवाब का इंतज़ार नहीं किया। वह देखती

रह गई। रोकना चाहती थी किंतु शब्द मुँह में अटक गए। सच पूछो तो वह उसका हाथ पकड़ कर

पूछना चाहती थी। लेकिन अक्षत ने अवसर ही नहीं दिया। वेदिका को जितना गुस्सा आ रहा था,

निराशा उतनी ही बढ़ रही थी। अंततः तैयार होकर चुपचाप किचन में पहुँच गई, जहाँ बड़ी बहू रति

और सास नाश्ते की तैयारी कर रहे थे।

लो वेदिका, सम्हालो। अब ये किचन तुम्हारा।” आँखों को गोल-गोल घुमाते हुए बड़ी बहू ने स्पष्ट

किया, “आज पहली बार तुम्हें खाना बनाना है ना। इसे तो रस्म समझकर निभा सकोगी ?”

वेदिका ने मुस्करा कर सिर हिला दिया, पर जाने क्यों ऐसा लगा कि ये व्यंग्य है रति का। उसे

माँ की नसीहतें याद आने लगीं। खुद को समझाया। कोई नहीं। वो बड़ी हैं। व्यंग्य भी किया तो क्या।

खैर, वेदिका ने नाश्ता बनाया। सभी ने नाश्ते की तारीफ की और नेग भी दिया। श्याम सुंदर ने

इक्कीस सौ रुपए वेदिका को पकड़ा दिए थे। उसे लगा सब ठीक है, शायद उसी को कोई गलतफहमी

हो गयी थी। इस तरह सारा दिन काम में ही बीत गया। बीच–बीच में रति का तंज उसे थोड़ा परेशान

करता लेकिन फिर भी वह सहज बनी रही। शाम को सुशीला देवी ने कहा, “बेटा, आज रात का खाना

मैं बना लूँगी, तुम जाकर ससुर जी की मालिश कर आओ। दिन बीत रहे हैं, इस रस्म को भी निभाना

ही पड़ेगा। आखिर कब तक अक्षत बाहर सोयेगा ?”

ससुर की मालिश का अक्षत के बाहर सोने से क्या संबंध हो सकता है ? वेदिका ने फिर सोचा।

अक्षत ने तो बताया था कि वो काम से बाहर गया हुआ था। आखिर माजरा क्या है ? तो क्या ससुर

जी की मालिश किए बिना उसे छुटकारा नहीं मिलने वाला ? उसने तय कर लिया कि वह मालिश

करने जाएगी। थोड़ा संकोच होगा। चलो, बेशर्मी ही सही। खा तो जाएंगे नहीं। आखिर ससुर हैं। यह

मसला आज निपटाया नहीं तो इस उधेड़बुन से दिमाग़ फट जाएगा। उसने हिम्मत करके रति से इस

बारे में पूछने की कोशिश की। हालांकि रति का व्यंग्य वह भूल नहीं पा रही थी। पर रति ने तो उसे

और उलझा दिया। उसके चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान फैल गई थी, “तेल लेकर जाओ, सब पता चल

जाएगा।”

आप बता दो ना, शायद मेरी उलझन दूर हो जाए।”

तभी सास उन दोनों के बीच में आ धमकी। दोनों चुप हो गए। रति को लगा कि सास उनकी

चुप्पी का कोई ग़लत अर्थ न निकाल ले। उसने बात घुमाते हुए संवाद जारी रखा,“चिलगोजे का स्वाद तो अद्भुत है ही,तेल भी बहुत फायदेमंद है।”

मतलब ?

तुम्हीं ने तो पूछा था,” उसने वेदिका को आँख मारी, “मेरा कहना है कि चिलगोजे  का स्वाद शब्दोंमें नहीं बताया जा सकता। कुछ चीज़ें केवल खट्टी, मीठी या नमकीन नहीं होतीं।”

सास ने बारी-बारी से दोनों के चेहरे को देखा। वेदिका ने बात संभाली, “मैं तो ऐसे ही पूछ रही थी

कि कैसा होता है।”

एकदम अपने नाम जैसा ही।चिल...गोजा।

अब तक तेल का रहस्य नसों को निचोड़ रहा था,ऊपरसे चिलगोजे ने दिमाग का दही कर दिया।लेकिनउसने इरादा नहीं बदला। जब तेल का कटोरा हाथ में लिए वह श्याम सुंदर के कमरे के बाहर पहुंची तोएक पल को कांप गई। कुछ देर ‘जाऊं या न जाऊं’ की कशमकश चलती रही। आखिर उसने हिम्मतकी और दरवाजे पर दस्तक दी। अंदर से आवाज आई, “आ जाओ, दरवाजा खुला है।”

उसने अंदर झांका। मद्धिम रोशनी थी। ससुर जी मात्र एक कच्छे में बिस्तर पर चित्त पड़े हुये

थे।वेदिका ने शर्म से निगाहें झुका लीं।ससुर हैं और जिस स्थिति में लेटे हैं, वह कैसे अंदर जा सकतीहै ?लेकिन उन्होंने ‘आ जाओ’ क्यों कहा ? अगर सास आई होती तो क्या उन्होंने दरवाजा खटखटायाहोता ? तो क्या उन्हें पता था कि मैं ही हूं। वह उल्टे पांव लौट गई।

स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हुए सहेलियों केबीच पुरुषों को लेकर बहुत सारे मजाक चलते थे। बहुत सारी बातें उसने सुनीं। कुछ बातें साझा भीकीं। पर यह कभी नहीं सुना कि...।शायद यह उसका भ्रम हो। अगर सचमुच तेल मालिश का रहस्य वही है, जो वह सोच रही है तो...। वह खूब रोयी। जब तक आँसू सूख नहीं गए।अब वह करेतो क्या, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दिल तो किया कि पापा को फोन लगाए। किन्तु फोन की ओर बढ़ता हाथ अपने आप रुक जाता था। बिना कुछ स्पष्ट हुए बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए। पापा पर क्या गुजरेगी। यह सोचते हुए उसे फिर से अक्षत याद आया। एकबार अक्षत से बात करनी चाहिए। वह उसका पति है। उसे यह सब कैसे मंज़ूर हो सकता है ?

वह फिर से अक्षत के आने का इंतज़ार करने लगी। फिर वही इंतजार, जो खिंचता चला जा रहा

था। अक्षत फिर नहीं आया। ज्यों-ज्यों घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़ रही थीं, उसकी उम्मीद दम तोड़ रही

थी। अक्षत के न आने का कारण उसके मन में शक पैदा कर रहा था। लेकिन वह अपने आपको बार-बार झुठला रही थी।बस, एक ही बात उसे मथ रही थी। अगर यह सब अक्षत की जानकारी में है तो फिर वह कैसा पति है ?

 

*

सुबह का सूरज पस्त-सा लग रहा था। जैसे रात भर की भारी कशमकश के बाद लौटा हो। या जैसे

उगा न हो, बल्कि अस्त होने चला हो। किरणें अजीब-सी उदासी बिखेर रही थीं। मानो, उनकी उम्मीद

टूट रही हो। वेदिका को लगा, वह अपने आप को देख रही है। शायद यह उदासी उसके अंदर ही थी।

उसने खुद को समेट कर खड़ा करने की कोशिश की। अपने आप को समझाया। उगते ही सूर्य अस्त

नहीं हो सकता। यह सोचते हुए उसका पस्त आत्मविश्वास धीरे-धीरे लौटने लगा। वह फिर से अक्षत

की राह देखने लगी। एक आखिरी बार उसको जान-समझ तो ले।

अक्षत ने काफी समय लगाया। जब वह आया तो भनभनाता हुआ कमरे में घुसा, “क्या नाटक चल रहा हैतुम्हारा ?ये घर है, समझी ? इस घर के कुछ रीति-रिवाज हैं। यहाँ घर के बड़े भी हैं और समाज मेंउनकी इज्जत है।”

अक्षत बौखलाया हुआ था। पारा उतरे तो कुछ सुने। उसने साफ-साफ कह दिया कि ऐसी पढ़ाई-

लिखाई और आधुनिकता का कोई मतलब नहीं है, जिसमें बड़ों का आदर और अपनी परंपराओं के प्रतिसम्मान न हो। वेदिका अचरज से उसे देखे जा रही थी। यह कैसा पति है जो उल्टा उसी पर भड़करहा है। लेकिन है तो पति। यह सोच कर वह गिड़गिड़ाने लगी, “अक्षत, समझने कीकोशिश करो।”

उसे खुद पर आश्चर्य हुआ। वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए वह इतना गिड़गिड़ा सकती है?अक्षत फुँफकारता रहा। वेदिका ने प्यार से उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुये एक और कोशिश की,

यह मुझसे नहीं होगा। तुम समझो।”

वेदिका के स्पर्श से उसके पूरे शरीर में झुनझुनी होने लगी। लेकिन मीठी-सी वह तरंग उठ कर

एक ही झटके में थम गई। उसने अपना हाथ खींच लिया और दूर खड़ा हो गया, “छोटी-सी बात को इतना लम्बा क्यों खीच रही हो, रस्म के अनुसार पिताजी की मालिश ही तोकरनी है।इसमें कौन सा पहाड़ टूट गया है, जो तुम इतना बौखला रही हो ?

सिर्फ मालिश ?

हाँ, और क्या समझा है तुमने ?

कुछ नहीं।”वेदिका भ्रमित हो चुकी थी। शायद उसने गलत सोच लिया है। पर अचानक जैसे उसे फिर याद आया,लेकिन पिताजी सिर्फ कच्छे में थे।”

पिताजी तो अक्सर कच्छे में रहते हैं।”

तो उन्हें नहीं रहना चाहिए।”

अब तुम सिखाओगी पिताजी कैसे रहें ? ”

वेदिका चुप हो गई। दावे के साथ कुछ नहीं कह सकती थी। अक्षत तो गुस्से से बौखलाने लगा, “अगर तुम्हारा यही जिद्दी स्वभाव है तो अपने पापा के घर जा सकती हो।”

तुम जानते हो लड़कियाँ वापस बुलाने के लिए विदा नहीं की जातीं ? मैं यहीं रहूँगी और उम्मीद

करूँगी कि तुम मुझे सम्मान के साथ रखो।”— उसने फिर से डूबती नय्या को बचाने की कोशिश की।

अक्षत क्षण भर के लिए खामोश रहा, फिर एकाएक बोला, “जिद करोगी तो मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकूँगा।”

वेदिका उसे देखती रह गयी। वह पैर पटकता हुआ चला गया। वेदिका को लगा नाव में बहुत तेजी

से पानी भर रहा है। भँवर खींच रहा है। अब किससे मदद माँगे ? सास से ? शायद उनके पास कोई

उपाय हो। कोई ऐसी रस्सी जिससे वे नाव सहित उसे खींच लें। सुशीला देवी उस वक़्त सोफे पर

लधरी हुई आराम कर रही थीं। उसे आता देख अनमना-सी गईं। नजरें चुराते हुए पूछा, “क्या बात है

मझली बहू ?”

ऐसे रस्मो-रिवाज क्या जरूरी हैं ?”

सुशीला देवी चुप। उसे सवालिया निगाहों से देखने लगीं। वेदिका उनके जवाब का इंतज़ार करती

रही। अंततः उन्होंने साफ कह दिया, “मेरे पास कोई जबाब नहीं है।”

वेदिका अवाक रह गई। फिर उसने सहज होने का प्रयास करते हुए अपनी बात रखी,

अगर आप मानो तो, मैं आपकी बेटी की तरह हूँ। जैसे रागिनी। आप सोचो, रागिनी को अगर ऐसी

रस्म निभाने के लिए मजबूर किया जाए और न मानने पर घर छोड़ने की नौबत आ जाए तो ?”

सुशीला देवी चुप रहीं तो उसने आगे कहा, “ससुर जी पिता की तरह हैं। क्या एक पिता अपनी बेटी

से मालिश कराएगा? ”

सुशीला देवी का वह फोड़ा अचानक फूट गया जो वर्षों से गाँठ बना अंदर पल रहा था, “वेदिका, मुझे, जिसका निर्वाह हमें करना है।”

वेदिका सुनती रही। सुशीला देवी बोलती रहीं, “परंपराएं नियमों की तरह होती हैं। नियम हम औरतें तय नहीं करतीं।”

नियम बदलने में साथ तो दे सकती हैं?”

तुम बदलोगी ?”

हम कोशिश तो कर सकते हैं।

वे फिर से खामोश हो गईं। कुछ देर बाद एकाएक उसकी ओर देखा और बड़बड़ाने के अंदाज़ में

धीरे-से बोलीं, “अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है।”

वह उसे अकेला छोड़ कर दूसरे कमरे में चली गईं। जिसका अर्थ था उन्हें इस बारे में आगे कोई

बात नहीं करनी। वेदिका सचमुच अकेली पड़ती जा रही थी। सारे दरवाज़े बंद होते दिख रहे थे। वापस

आई तो परेशान हालत में अपने कमरे के चक्कर काटती रही। आधा घंटा बीता होगा कि तभी दरवाज़े

की घंटी बजी। सामने रति खड़ी थी। उसने अंदर झाँकते हुए मशीन की तरह फटाफट एक वाक्य कहा,

चिलगोजे  का तेल तुम्हीं निकाल सकती हो।”

इतना कह कर वह सरपट निकल गई। वेदिका उसके पीछे भागी। पर वह जा चुकी थी। वह रति सेबात करना चाहती थी। सब कुछ साफ-साफ। लेकिन उसने अवसर ही नहीं दिया। जो कुछ रति ने

कहा उसके बाद तो वेदिका के अंदर फिर से उधेड़बुन शुरू हो गई|बिस्तर पर लेटे-लेटे दिमाग़ यहाँ-वहाँ भागता रहा। तरह-तरह के विचार आते-जाते रहे। इसी मंथन मेंअचानक से वेदिका ने तेल का कटोरा उठाया और ससुर के कमरे की ओर चल पड़ी।उसने तय करलिया था की आज मालिश के इस चक्रव्यूह को तोड़ कर रहेगी।जान कर रहेगी कि यह सब क्या है। उसने देखा कमरा खुला था।शामतेजी से गहरा रही थी।शायद वे अभी-अभी शहर से लौटे थे।वे इस वक्त भी अर्धनग्न ही बिस्तर परलेटे हुए थे।श्याम सुंदर दाँत निपोरते हुए बोले, “आओ, तुमने काफी दिन लगा दिए ?”

वेदिका के सिर पर पल्ला था और नज़रें झुकी हुई। श्याम सुंदर दरवाज़े की ओर बढ़े और उसे भेड़

दिया। गनीमत है कुंडी नहीं लगाई। वेदिका ने मन ही मन सोचा। पर धड़कनें तेज हो गई थीं। वह

अंदर से हिली हुई थी। श्याम सुंदर लौटे तो पेट के बल लेट गए। लेकिन वेदिका के हाथ आगे नहीं

बढ़ रहे थे। वह चिलगोजे  के बारे में सोच रही थी। श्याम सुंदर ने कुछ देर इंतज़ार किया और

अचानक आदेशात्मक स्वर में बोले, “तेल लगाओ।”

वेदिका ने अपने ठंडे हाथों से उनकी पीठ पर तेल लगाना शुरू किया। हाथ काँप रहे थे। चेहरे पर

पसीना चुहचुहा आया। तेल में सना हाथ आगे सरकने को तैयार नहीं था। अनिच्छा के बावजूद वह

तेल लगा रही थी। अचानक श्याम सुंदर पलट कर सीधे हो गए। पीठ के बल। ऐसा लग रहा था,

बुढ़ऊ के छाती के सफेद बाल भी रोंओं की तरह खड़े हो रहे हैं। वेदिका को कंपकंपी छूटने लगी। भय

और घृणा उसके अंदर एक साथ समाते चले जा रहे थे।

   एकाएक श्याम सुंदर ने लपक कर उसकी बाँह थाम ली और उन्हीं सफ़ेद बालों के गुच्छे पर रख लिया। बुढऊ के छूते ही वेदिका धरधरा पड़ी। हाड़ से कट–कट की आवाज़ आने लगी। होंठ नीले पड़ गए औरआँखें पत्थर हो गईं। हाथ थम गए थे। वेदिका समझ चुकी थी कि ससुर की सेवा और मालिश का अर्थक्या होता है। क्या यही है चिलगोजे  का रहस्य जिसका स्वाद बताने में रति असमर्थ थी ? पिता-तुल्यससुर और परंपरा के नाम पर यह सब ? वह अपनी पूरी ताकत सेखुद को श्याम सुंदर की पकड़ से छुड़ाती हुई दरवाज़े की ओर भागी। श्याम सुंदर भी दौड़े और उसेपीछे से पकड़ लिया, “देखो लड़की, तुम ठीक नहीं कर रही हो। ये सदियों से चली आ रही परम्परा है।”

वेदिका ने दहाड़ मारी, “होगी, पर मैं इसे नहीं मानती। अगर आपने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं चिल्ला-

चिल्ला कर लोगों को इक्कठा कर लूँगी।”

हमारे यहां स्त्रियाँ आज्ञा का पालन करती हैं। चिल्लाना तो दूर, नजरें तक नहीं उठातीं।”— श्याम

सुंदर ने उसे घसीट कर पलंग के पास लाते हुए कहा। उनके होंठों के दोनों छोरों पर झाग जमा हो गया था। इससे वे और वीभत्स हो गए।

पिता जी,” उसने कहा औरफिर थोड़ा रुक कर बोली,- “नहीं”, आपको पिता बोलना इस रिश्ते का अपमान होगा।

खैर, आप तो पेशे से वकील हैं। आपको कानून का पता होना चाहिए। चलिये छोड़िये, लेकिन यह तोपता है ना, कि मैं आपकी पुत्रवधू हूँ ?”

अचानक ही ऑक्टोपस की पकड़ फिर मजबूत हो गई। पसीने की बसाती दुर्गंध से वह तड़प उठी। कुछ क्षण समझ में नहींआया कि यह सपना है या हक़ीकत। उसके हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे। उसने आखिरी बार पूरी शक्ति लगा कर अपने आप कोबचाने का प्रयास किया और दायाँ पैर मोड़ कर घुटने से एक तेज प्रहार श्यामसुंदर की टाँगों के बीच किया। श्याम सुंदर के मुँह से भयंकर कराह निकली और कमरे की दीवारोंसे टकरा कर बिखर गई। उनका कसाव ढीला हो गया था। अगले ही पल वेदिका छिटक कर दरवाज़ेके पास खड़ी थी और श्याम सुंदर टाँगों के बीच में दोनों हाथ दबाए दर्द से कराह रहे थे।

वेदिका नेसमय गँवाना उचित नहीं समझा। वह तेजी से बाहर की ओर भागी। कुछ ही दूरी पर सुशीला देवीखड़ी थीं। उसे इस तरह बदहवास देख कर वे चौंकीं, पर माजरा समझ आने में उन्हें देर न लगी। पत्नी को बाहर खड़ा देख श्याम सुंदर जोर-जोर से चीखने लगे, “अरे मार दिया रे...अंडे फोड़दिये साली ने।”

श्याम सुंदर की चीख एक साथ सबके कानों में पड़ी। सबसे पहले सुशीला देवी पति की ओर दौड़ीं

जो लँगड़ाते हुए कमरे से बाहर निकल रहे थे। उन्हें देख कर सुशीला देवी बड़े ही निर्लिप्त भाव से

चिल्लाईं, “अरे देखो रे, इनका कुछ फोड़ दिया।”

वेदिका कुछ दूरी पर खड़ी सूखे पत्ते की तरह काँप रही थी। एक भयंकर तूफ़ान ने उसे चारों ओर

से घेर लिया था। अक्षत और उसका बड़ा भाई रुद्राक्ष जितनी देर में दौड़े हुए आए, पिता सहानुभूति

पाने के लिए कमरे के बाहर फर्श पर लुढ़क गए थे। अक्षत दूर खड़ी वेदिका को देख चुका था।

कक्ष के बाहर पिता के लुढ़के होने का मतलब वह समझ गया। वेदिका ने क्या किया होगा यह

जानने के लिए दोनों भाइयों ने उन्हें सहारा देकर उठाया। श्याम सुंदर के दोनों हाथ आपस में फँसे हुए थेऔर उन्हें टाँगों के बीच में दबा रखा था। यह सब देख कर अक्षत बुरी तरह डर गया था। जबकिरुद्राक्ष गुस्से से काँपने लगा। तभी रति भी आँगन में आ गई और सारा माजरा समझने के बादमुस्कराने लगी।वेदिका की ननद और देवर एक कोने में सहमे हुए खड़े थे। रुद्राक्ष ने पलक झपकते ही बारामदे में रखा लठ निकाल लिया। रति लठ निकालनेका अर्थ जानती थी। उसने तुरंत वेदिका को इशारा कर दिया। वेदिका समझ चुकी थी कि उसका वहाँखड़े रहना अब ख़तरे से खाली नहीं है। वह दौड़ पड़ी और देखते-देखते अंधेरे में बिला गई।

रुद्राक्ष भी उसी दिशा में दौड़ पड़ा था जिस ओर वेदिका गई थी। उसके पीछे-पीछे अक्षत भागने

लगा। श्याम सुंदर चिल्लाए, “उसे पकड़ कर यहीं लाना बाबू। जो करना है इधर ही करेंगे।”

वेदिका साड़ी के कारण लंबे डग नहीं भर पा रही थी। उसने साड़ी और पेटीकोट को लुंगी की तरह

घुटनों तक उठा कर कमर में खोंस लिया, ताकि दौड़ने में आसानी हो। इससे उसकी रफ्तार सचमुच

तेज हो गई थी। पर कितना दौड़ती आखिर। कुछ ही देरी में साँस फूलने लगी। उसे अपने पीछे कदमों

की आहट सुनाई पड़ रही थी। अंधेरे में पलट कर देखने का कोई मतलब नहीं था। आगे-आगे रुद्राक्ष

था और उसके पीछे अक्षत। अक्षत के कदम जाने क्यों ढीले पड़ रहे थे। शायद वह न चाहता हो कि वेदिका हाथ आए। वह रुद्राक्ष से काफी पिछड़ चुका था।

वेदिका निढाल हो रही थी। उसके पैर भय और थकान के कारण धरती से चिपकने लगे थे। रात

के अंधेरे में झिंगुरों की लयबद्ध झीं-झीं के साथ श्याम सुंदर की कराहें लगातार उसका पीछा कर रही

थीं। समझ में नहीं आ रहा था कि मुख्य सड़क की ओर जाने वाले उस सँकरे रास्ते पर चलती रहे या

खेतों में घुस जाए। सड़क की ओर गई तो पकड़ा जाना तय था। लेकिन खेतों में घुसी तो पकड़ी नहीं

जाएगी, इसका पूरा भरोसा भी नहीं हो रहा था। खेतों में साँप और बिच्छू हुए तो ? उसे तो छिपकली

से भी डर लगता है।

वह दम साध कर दौड़ रही थी। अफसोस हो रहा था कि घर से निकलते वक्तअपना फोन क्यों नहीं ले आई। पर उस समय फोन का होश कहाँ था। लाई होती तो पिताजी कोसूचना दे सकती थी। पिताजी को क्यों, सीधे पुलिस को फोन करती। यह सब सोचते हुए बचने कीउम्मीद क्षीण होती जा रही थी। इस अंधकार में दोनों भाई उसे मार भी डालें तो न कोई देखने वालाहै और न उसकी चीखें सुनने वाला। कोई सियार या कुत्ता ही अचानक झपट पड़े तो वह क्या करेगी ?पीछे से आ रही कदमों की आहट लगातार तेज हो रही थी। उसे एकाएक ऐसा लगने लगा जैसे मनुष्य

नहीं सियारों या कुत्तों का झुंड उसके पीछे पड़ा है। कदमों की आहट की जगह अब उसे गुर्राहट सुनाई

देने लगी थी।

उसने वहां रुकना ठीक नहीं समझा।जीवन बचाने की एक आखिरी कोशिश के साथ अपने कदमों की रफ्तारफिर से बढ़ा दी।थोड़ी ही दूर तिराहानजर आ रहाथा।जहां से एक रास्ता पुलिस-स्टेशन की ओर जाता है और दूसरा उसके घर की ओर। उसे तय करना था कि किस ओर जाना है।

                         

परिचय

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जन्म- 22 अक्तूबर को देवसर (मध्य प्रदेश) में।  

शिक्षा- एम.ए. (राजनीति विज्ञान, हिंदी और शिक्षा शास्त्र)।

लेखन- जनसत्ता, कथादेश, परिकथाइंद्रप्रस्थ भारती, कथाक्रम, नया साहित्य निवंध, दुनिया इन दिनों और वेब मैग्जीन्स सहित कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। 

संप्रति- अध्यापन।

पता- टी.टी.एस. 1/186, एन.टी.पी.सी. कालोनी, विन्ध्यनगर,

जिला सिंगरौली (म.प्र.)। 

पिन- 486885

मो-9479825453

ई-मेलः seemasharmat1@gmail.com

 

 

 



 

 

                              

 

 

 

 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. अच्छी कहानी और सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई अनुग्रग टीम को ।

    सुधीर मिश्र
    कोंडागांव बस्तर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं
  2. बहुत अच्छी कहानी.
    सीमा शर्मा को बधाई.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनिल जी ,आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं
  3. कहानी स्त्री जीवन के शोषण से जुड़े कई अनछुए पहलुओं पर बात करती है जो असंभव प्रतीत होते हुए भी सच के करीब होती हैं | पुरुषों का चरित्र इस कदर भी हो सकता है उस काली सच्चाई को यह कहानी सामने रखती है |

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    उत्तर
    1. आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं

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