सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कहानी : खोटे सिक्के , परिधि शर्मा

  • परिधि उन कथा लेखिकाओं  में से एक हैं जिनके पास अपनी खुद की  एक कहन शैली है |  एक शिल्प है |गीत चतुर्वेदी ने अपने सम्पादन में जब परिधि की  पहली कहानी "वजूद"  भास्कर रसरंग २०.०९.२००९ अंक  में प्रकाशित की  तो उसकी उम्र महज सत्रह साल थी | उसके बाद समावर्तन के सम्पादक मुकेश वर्मा ने परिधि की दो कहानियां "नीला आसमान" और "एक साधारण आदमी की मौत" प्रकाशित की | वागर्थ में विजय बहादुर सिंह ने अपने सम्पादन में एक कहानी "तोहफा" छापा तो परिधि की कहानियों पर बहुतों की नजर गई | उसके बाद परिकथा के सम्पादक शंकर ने परिधि की एक कहानी उम्मीद  नवलेखन अंक में प्रकाशित की | तत्पश्चात परिकथा में ही युवा रचना के नाम से परिधि की एक और कहानी  " एक छुटती मेट्रो एक तस्वीर एक लड़की"   इंदिरा दांगी , मजकूर आलम और कैलाश वानखेड़े जैसे प्रतिभाशाली युवा कथाकारों की कहानियों के साथ प्रकाशित हुई | यद्यपि छोटी उम्र के कारण  परिधि की एकाध कहानियों में कथ्य के स्तर पर वह प्रौढ़ता न मिले पर शिल्प और कहन शैली के कारण पाठकों ने उनकी कहानियों को पसंद किया | अपनी दन्त चिकित्सा की पढाई की व्यस्तता की वजह से बहुत दिनों तक लेखन से दूर रहने के कारण  परिधि की दो  साल पुरानी  एक अप्रकाशित कहानी यहाँ हम प्रकाशित कर रहे हैं |
 
͐͐गुल्लकों को उसने बार-बार हिला-हिला कर देखा | सभी गुल्लक वजनी थे और आवाज भी कम कर रहे थे, जिससे उनके भरे होने का संकेत मिल रहा था | किशन को थोड़ी सी  खुशी जरुर हुई कि चलो, कुछ तो अच्छा हाथ लगा, यही सही पांच भरे हुए गुल्लक और ओ भी बड़े आकार के......सोचते-सोचते उसकी आँखों के सामने तुलसी माँ का चेहरा घुमने लगा और वह मुस्कराकर रह गया .      
"अरे उनको फोड़ो मत, अभी रहने दो उन्हें यूँ ही," पीछे से राधा की आवाज आई तो किशन ने मुड़ कर देखा|
        वह तैयार खड़ी थी | उसने लाल रंग की सिल्क की साड़ी पहन रखी थी जिस पर भूरे पत्तों के प्रिंट लगभग सब तरफ बने हुए थे | आज उसने सजने-सँवरने में काफी वक्त लगाया था | मायके जो जाना था उसे | किशन को स्टेशन तक उसे छोड़ने जाना था | रास्ते भर वह गुल्लकों के बारे में ही कुछ न कुछ सोचता रहा | स्टेशन आया | गाड़ी आयी | राधा का रिजर्वेशन एयर कंडीशन बोगी में था | वह उसे उसकी सीट पर बिठा ट्रेन से नीचे उतर गया | कुछ देर बाद ट्रेन जाने लगी |
   धड़-धड़ का शोर उसके पूरे दीमाग में भर गया और वह कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा | ट्रेन चली गयी| राधा को लेकर | उसे अब सीधे ऑफिस  जाना था | वर्क लोड बहुत था और  छुट्टियां  एक भी नहीं | बॉस एक बार नौकरी से निकालने की धमकी दे चुका था | उसके मन में आया कि काश सारी समस्याएं एक गुब्बारे की तरह होतीं | फिर ओ आकार में चाहे जितनी भी बड़ी हो जातीं , बस एक बार सुई चुभो दो और फट्ट.....!
   रास्ते भर उसे गाड़ी चलाने में दिक्कतें आती रहीं क्योकि चुनाव का मौसम था और प्रचार-प्रसार में लोग बाग़ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे | नारे लगाने की आवाजें, बैनर्स, झंडे , लाउडस्पीकरों में तरह-तरह के अनाउंसमेंट वगैरह-वगैरह | यह देश भक्ति का सैलाब था , जो हर पांच साल में जरुर उमड़ता है| पर इस बार भारत की राजनीति ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया था | हर पार्टी खुद को बेहतर प्रदर्शित कर रही थी लेकिन विश्वास किस पर किया जाए यह एक जटिल प्रश्न था | इस बीच आकाश में काले बादल छाए  रहे | बारिश की फुहारों के साथ बाग़-बगीचों में सुन्दर-सुन्दर फुल खिल आए | अभी तो मार्च का महीना था, फिर भी आकस्मिक बारिश में पूरा शहर नहा रहा था | एक रात खूब बारिश हुई | उसकी अगली सुबह किशन ऑफिस  पहुंचा | ऑफिस  के पीछे वाले हिस्से में गाडी पार्क करने वाले हिस्से से थोड़ी दूर एक छोटा सा लॉन  था | लॉन  के एक कोने में एक लकड़ी का डंडा पड़ा हुआ था | डंडे से उसे एक कहानी याद आयी जिसमें चोरी के इल्जाम में फंसे एक बेकसूर ग्रामीण को पुलिसवालों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था | ये उन दिनों की कहानी थी जब देश के बड़े-बड़े शहरों में भूख हड़ताल और अनशन जोरों पर थे मगर उन दिनों भी उसी देश के छोटे-छोटे शहरों में लोग हर रोज एक नयी उमंग के साथ सुबह-सुबह सोकर उठते और दिन ढलते ही निराश और निर्जीव होकर फिर से सो जाते | वह उसी तरह निराश और निर्जीव होकर ऑफिस से लौटा था | टी. वी. आन  किया तो एक व्यक्ति सामने खड़ा मुस्करा रहा था | फिर उस व्यक्ति ने एक बिस्कुट खाया और वह मेंढक बन गया | पांच मिनट के बाद जब बिस्कुट का असर ख़त्म हुआ तो वह फिर से आदमी बन गया | उसने फिर से एक और  बिस्कुट खाया | इस बार वो एक गधा बन कर ढेंचू-ढेंचू करने लगा | चेनल बदल दिया गया | अब कि बार पैराशूट पकड़ कर एक व्यक्ति हवा में उड़ रहा था | जब वह उड़ रहा होगा तब शायद उसे धरती की कहानी कम और हवा की कहानी ज्यादा सच लगी होगी | एक और बार चेनल बदल दिया गया | शेयर बाजार से जुडी ख़बरें बताई जा रही थीं | डालर के सामने रूपये की हैसियत का आकलन किया जा रहा था | इसी सन्दर्भ में राजनैतिक पार्टियां पानी पी-पीकर एक दूसरे को कोस रही थीं | उसी वक्त किशन  को गुल्लकों की याद आयी | उसने टी. वी. बंद कर दिया |
   "बूढ़ा तो बस में बैठ गया मगर बुढ़िया भीड़-भाड़ की वजह से बस में चढ़ ही नहीं पायी | बस चली गयी | बूढ़ा भी चला गया | बुढ़िया पीछे छूट गयी...........!" ये उन्हीं गुल्लकों से जुड़ी कहानी थी |
" दो तीन महीनों के बाद तुम्हारे पिता हरिद्वार गए ......वहां उन्हें वह बुढ़िया मिल गयी ...!"----   तुलसी माँ के कहे ये शब्द लगभग याद हैं उसे | ये शब्द किसी जादू से कम नहीं हैं और बहुत शोर करते हैं | ट्रेन की धड़-धड़ की आवाज से भी ज्यादा | ट्रेन राधा को ले गयी थी अपने साथ | करीब सप्ताह भर बीत गए | कहानी के ये पात्र दरअसल गाँव के एक बुजुर्ग दम्पति थे जिनके बहु-बेटे उन्हें एक झोपड़ी में मरने को छोड़ गए थे | किशन  के पिता को लोग गाँव में सेठजी कहा करते थे | सेठजी को इस दम्पति से बहुत लगाव था | वे उन्हें रोज दो वक्त का भोजन दे आते | कभी जरुरत पड़ने पर उनके लिए दवा-दारु का भी इंतजाम कर दिया करते | सेठ जी को ईश्वर पर बड़ी आस्था थी | भजन-कीर्तन में उनका बड़ा मन लगा रहता | घर में पूजा-पाठ, यज्ञ, वगैरह जब-तब करवाते रहते | मांस-मछली को कभी हाथ न लगाते| एक बार गाँव से कुछ लोग हरिद्वार जाने वाले थे | जाने वालों में महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल थे | सेठजी का बड़ा मन हुआ हरिद्वार जाने का | परन्तु काम की व्यस्तता ने उन्हें रोक दिया | तब उनके मन में एक विचार आया और उन्होंने काफी सोच-विचार कर बृद्ध दम्पति को गाँव वालों के साथ  हरिद्वार भेजने का निर्णय लिया | एक बस में सभी जाने वाले सवार हो गए | बृद्ध दम्पति को भी बस में बैठाने के बाद सेठजी वापस आ गए |
  करीब दस-पंद्रह दिनों के बाद जब वे सभी वापस आए तब बुड्ढा अकेला वापस लौटा | उसे अकेला देख सेठजी ने बुढ़िया के बारे में पूछा | बुड्ढा मौन रहा | कई बार पूछे जाने पर उसने धीरे से कहा ...." बुढ़िया तो मर गयी !" इस बात पर अमल कर लिया गया | सेठजी ने संतोष किया कि उनकी वजह से एक बूढी औरत हरिद्वार की पावन धरती पर मरी | उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ सारे क्रिया-कर्म निपटाए |
     उसके बाद बूढा झोपड़ी में अकेला पड़ा रहता | खटिया में लेटे-लेटे वह कभी झोपड़ी  के कोने में बने मिट्टी के चूल्हे को ताकता रहता तो कभी दरवाजे के बाहर के दृश्य को निहारता रहता | कभी-कभार उसे लगता कि चूल्हा गायब हो रहा है और सामने के दृश्य ओझल हो रहे हैं तो वह डरकर अपनी आँखें बंद कर लेता | उसे भूत-प्रेतों पर विश्वास था | लोगों के कहने के अनुसार उसकी  परदादी ने एक बार एक राक्षस को देखा था जो तालाब से मछलियाँ चुन-चुन कर खा रहा था |
   करीब दो महीने बाद सेठजी सेठानी जी को लेकर हरिद्वार गए | वहां एक भयानक घटना उनके साथ घटित हुई | जिस बुढ़िया का सारा क्रिया-कर्म वे स्वयं अपने हाथों से निपटा चुके थे, वही बुढ़िया भागती हुई उनके समक्ष आ खड़ी हुई | वे भयभीत हो गए | कहीं वह कोई भूतनी तो नहीं ? या उसी तरह के चेहरे की कोई भिखारन ! मगर वह सेठजी के आगे गिड़गिड़ाने लगी | वह उन्हें अपना सारा दुखड़ा सुनाने लगी |
   हैरान परेशान हो चुके सेठजी को जब अंत में सारा माजरा समझ में आया तब वे बुढ़िया को अपने साथ वापस ले आए  | जब बूढ़े ने उसे देखा तो वह बिलख-बिलख कर रोने लगा | उसके बाद की बातें अधिक महत्त्व की नहीं हैं | हां इतना जरुर है कि कुछ समय बाद उस  बुजुर्ग दम्पति का देहावसान हो गया | बूढ़े की मृत्यु पहले हुई | उसके कुछ दिनों बाद मरते वक्त बुढ़िया ने सेठजी के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिए सिक्कों से भरे पांच गुल्लक उन्हें उपहार में दिए जिन्हें वह एक जमाने से सिक्कों से भरती आ रही थी सेठजी ने गुल्लकों को नहीं फोड़ा | वे सभी एक संदूक में संभालकर रख दिए गए |
  उन गुल्लकों से कभी सिक्के निकाले गए या नहीं, यह किशन  को नहीं पता, मगर गुल्लकों को देखकर पता चलता था कि वे बेहद पुराने हो चुके हैं | वह छिपाकर उन्हें अपने साथ कपड़ों में लपेट कर ले आया था | जाने कैसा अजीब सा मोह हो गया था उसे उन गुल्लकों से | आजकल नोटों की गड्डियां एक साथ देखने को तो मिल जाती हैं, मगर ढेर सारे सिक्कों की अलग-अलग ढेरियाँ देख पाना मुश्किल है | ऐसा लगता है जैसे सारे सिक्के बाजार से लगातार गायब हो रहे हैं | एक बार एक दुकानदार के पास उसने खूब सारे सिक्के देखे | तब उसे एहसास हुआ कि सारे सिक्के व्यापारी अपनी जेबों में घुसा लेते  हैं और कोई सामान खरीदने पर यदि पांच-छह रूपये बच जाएँ तो पैसे लौटाने के बजाए कोई छोटा-मोटा सामान या टॉफ़ी  थमा देते हैं | यही हाल ट्रेनों के टिकट काउंटरों का भी है | वहां तो बदले में कोई सामान भी नहीं दिया जाता, बल्कि बचा हुआ पैसा हजम कर लिया जाता है |
   मौसम में अजीब किस्म के बदलाव आ रहे थे | पहले बारिश | फिर उमस | फिर गर्मी | उस पर चुनावी बुखार और सिर चढ़कर ढोल बजाती महंगाई |
    क्या कुछ नहीं था किशन  के जीवन में ? एक किलो प्याज के दाम से लेकर सड़कों पर घटी दुर्घटनाओं की ख़बरें, ट्रेन के इन्तजार से लेकर सर्दी-जुकाम से भिड़ना, कभी किसी दोस्त के घर पार्टी तो कभी असुरक्षा का भय |
   ऑफिस  के आस-पास की सड़कें बदहाल थीं | बारिश ने वहां कीचड़ भर दिए थे | देखकर लगता था जैसे वह सड़क कभी एक बहुत सुन्दर और गोरी लड़की रही होगी जिसके चेहरे पर तेज़ाब छिड़क दिया गया होगा और फिर उसकी मुलायम त्वचा उबड़-खाबड़ हो गयी होगी |
  राधा अभी तक मायके से लौटी नहीं थी | उसने फोन पर बताया कि उसकी माँ की तबियत और ज्यादा बिगड़ गयी है | डॉक्टर ने न जाने कितने तरह के टेस्ट करवाने को बोला था | दवाईयों की संख्या बढ़ती जा रही थी और माँ दिनोंदिन पतली होती जा रही थी | डॉक्टर उन्हें वैसे ही चूस रहा था जैसे कोई छोटा बच्चा आइसक्रीम ख़त्म हो जाने के बाद भी उसकी डंडी को चूसता रहता है |
    खबर सुनने के बाद किशन  को अपनी खुद की जिन्दगी अधमरी सी लगने लगी | उसे जीने के लिए थोड़ी ताकत की जरुरत महसूस हुई | वह उठकर किचन में गया | वहां से ग्लूकोस पाउडर और पानी का घोल बनाकर एक गिलास में ले आया | वह और राधा ज्यादातर गिलास से ही पानी पीते थे | लोटे में भरकर पानी तो उन्होंने जाने कब से नहीं पीया था | बचपन में एक बार किशन  के नन्हें पाँव में तांबे का एक भारी लोटा गिर गया था, जिसकी वजह से उसे बहुत दर्द हुआ और पाँव भी सूज गया | उसकी तुलसी माँ याने उसकी दादी ने जब देखा तो बहुत दुखी हुई और उसके पाँव में हल्दी का लेप लगाने लगी | हल्दी के लेप से सुजन और दर्द कम तो हो गया और धीरे-धीरे गायब भी हो गया लेकिन फिर किशन  को उस तांबे के लोटे से बेहद डर लगने लगा | एक दिन किसी ने वह लोटा चुरा लिया | तब से किशन  गिलास में ही पानी पीता है |
   गर्मी फिर बढ़ गयी | वह कई दिनों से एक चारपहिया वाहन खरीदने की फिराक में है जिसमें ए.सी. लगा हो | उसके पिता की कार पुरानी हो चुकी थी और वह गाँव में थी | गाँव बहुत दूर था | उत्तर की ओर | वह दक्षिण में एक कमरे में एक सोफे के ऊपर बैठा था | आज उसने बेमन से खुद के लिए खाना पकाया था | अचार खाने की इच्छा थी लेकिन घर में अचार नहीं था | गाँव से लाया आंवले का मुरब्बा भी ख़त्म हो गया था | माँ आम का अचार बहुत अच्छा बनाया करती थी कभी! लेकिन अब उन्हें भजन-कीर्तन से फुर्सत नहीं रहता | लगता है जैसे अब उन्हें सांसारिकता का मोह नहीं सताता | पिता तो अब भी काम में व्यस्त रखते हैं खुद को |
       पहले किशन सोचा करता था कि वह बड़ा होकर फलाँ बनेगा | पर अब सोचता है , क्या फर्क पड़ता है यदि वह डॉक्टर बने , नेता बने  या बड़ा प्रशासनिक अधिकारी...... अब जीवन का मकसद तो अंततः लोगों को चूसकर पैसे इकठ्ठा करना भर रह  गया है  | वह इस राह पर चलना नहीं चाहता था इसलिए वह मान चुका था कि जीवन में जो कुछ है वही सही है |
      एक रात वह यह सोचकर सोया था कि वह कभी न कभी चाँद पर कदम जरुर रखेगा | उसी रात उसे सपना आया कि उसके सारे बाल गुलाबी रंग के हो गए हैं | अगली सुबह उठकर जब उसने अपने काले बालों को आईने में देखा तो लगा सपने देखना इतना बुरा भी नहीं......!
   उसके बाल बहुत छोटे-छोटे हैं | कंघी करना बहुत आसान है | उसे हमेशा लगता है कि राधा के लिए कंघी करना एक मुश्किल काम है क्योंकि उसके बाल लम्बे और घने हैं | उन्हें संवारने में वक्त लगता है और वह कभी-कभार ऑफिस के लिए देरी होने पर बाल संवारते हुए खींझ उठती है | उसके कई लम्बे बाल झड़कर घर का फर्श भी गंदा करते रहते हैं , शैम्पू भी वह बहुत लगाती है | पिछली बार जब किशन  ने एक मॉसक्यूटो क्वायल खरीदा था तब बचे हुए पैसों का दुकानदार ने शैम्पू दे दिया था | चिल्हर की कमी थी | किशन  की जिन्दगी में चिल्हर की मांग बढ़ रही थी | उसने तय किया कि वह एक गुल्लक जरुर फोड़ेगा | मॉसक्यूटो क्वायल बेअसर रहा | मच्छर अब उससे नहीं मरते | उसे लगा राजनीति बदल रही है, देश बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं इसलिए अब मच्छर भी बदल रहे हैं |
       किशन ने कमरे की आलमीरा में गुल्लकों को रख दिया था | उसने सभी गुल्लकों को बारी-बारी से अपने हाथ में लेकर उलट-पलट कर देखा | आज उनमें से किसी एक के फूटने की बारी थी | पर सवाल यह था कि उन पाँचों में से किसे फोड़ा जाए | यह तो चुनाव में खड़ी पार्टियों में से किसी एक को चुनकर वोट देने से भी अधिक जटिल प्रक्रिया थी | भारत में इन दिनों एक नयी पार्टी उभर आयी है | पुरानी पार्टियां भी खुद को मजबूत करने में लग गयी हैं | सभी खुद को "मैं सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिमान और आम जनता का मित्र " बताने में भीड़े हैं | ऐसे में किसी भी पार्टी का जीत जाना अब राम भरोसे और जनता भरोसे है |
  सोचते-सोचते वह गुल्लकों को उलटता-पुलटता रहा | अनिर्णय और उहापोह की स्थिति में अचानक एक गुल्लक उसके हाँथ से छूटकर जमीन से जा टकराया और फूट गया | किशन  के हाथ थोड़ी देर के लिए हवा में ही लटके रह गए | फिर वह जमीन पर बैठकर सिक्के बीनने लगा | सबसे पहले उसके हाँथ जो सिक्का लगा वह तांबे का था | फिर उसने दूसरा सिक्का टटोला | वह एक दस पैसे का सिक्का निकला | इस तरह कुछ सिक्के तांबे के, कुछ चवन्नी के, तो कुछ अठन्नी के, कुछ दस पैसे के तो कुछ बीस पैसे के | एक और दो रूपये के सिक्के गिने-चुने ही थे उनमें, जो काम के थे |
   वह वहीं जमीन पर पालथी मारकर बैठ गया | क्या किया जाए आखिर अब इन खोटे सिक्कों का ? ये सिक्के तो बाजार में चलेंगे भी नहीं ....लगभग सारे के सारे खोटे! किसी काम के नहीं !
   अप्रेल के महीने की तपिश बढ़ गयी थी | केशरिया झंडा हाथों में लिए सड़कों को जाम करने वाली भीड़ के साथ-साथ  रामनवमी और हनुमान जयन्ती का शोर अब थम चुका था | विभिन्न पार्टियों के चुनाव प्रचार में लगे आवारा और मवाली किस्म के लड़कों की फौज फिर से बेरोजगार होकर किसी आने वाले चुनाव का इन्तजार करती सी  दीख  रही थी | अचानक किशन को लगा कि उसने वोट देकर गलत पार्टी चुन ली | रात हो चुकी थी | किशन को अब स्नान करने जाना था | सुबह वाला स्नान | प्रायश्चित स्वरूप मन को शुद्ध करने के लिए|

                                                                                 

टिप्पणियाँ

  1. परिधि शर्मा की कहानी'खोटे सिक्के'से चार दफा रूबरू हुआ. जीवन और जगत की गहरी पड़ताल करती यह कहानी भाव एवं भाषा-शिल्प के दृष्टिकोण से ताजगी लिए हुए है.युगीन यथार्थ को रोचक ढंग से व्यक्त करने में परिधि सफल हुई है. परिधि में अनंत संभावनाएं हैं..अशेष शुभकामनायें परिधि को.

    जवाब देंहटाएं
  2. कहानी अच्छी लगी। गुल्लक के बहाने राजनीति के खोटे सिक्कों को लेकर कहानी बड़ी बात कहती है। कहानी की क़िस्सागोई और भाषा शिल्प आकर्षित करती है। लेखिका को हार्दिक बधाई

    अखिलेश
    भोपाल मध्यप्रदेश

    जवाब देंहटाएं
  3. परिधि की यह कहानी पढ़ते हुए हिंदी कथा साहित्य की इस प्रतिभा से प्रभावित हूँ ! इस बढ़ती पौध को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  4. राजनीति के खोटे सिक्कों के ऊपर कथा लेखिका परिधि ने कमाल की कहानी लिखी है | परिधि को दिल से बधाई |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

Blooming Buds स्कूल रायगढ़ का एनुअल कल्चरल मीट 2023-24 ने जाते दिसम्बर को यादगार बनाया

दिसम्बर रहा Blooming Buds School रायगढ़ के इन प्यारे प्यारे बच्चों के नाम "प्रेम के बिना ज्ञान टिकेगा नहीं। लेकिन प्यार अगर पहले आता है तो ज्ञान का आना निश्चित है।"  - जॉन बरोज़ स्कूल के आयोजनों में शरीक होना भला कौन पसंद न करे।आयोजन में छोटे बच्चों की कला प्रतिभा से रूबरू होना हो फिर तो क्या कहने। तो जाते साल के आखरी महीने दिसम्बर की एक बहुत खूबसूरत सी शाम मेरे हिस्से आयी, जब गुलाबी ठंड के बीच लोचन नगर स्थित Blooming Buds School Raigarh के एनुअल कल्चरल मीट में स्कूल प्रबंधन के सौजन्य से बतौर मुख्य अतिथि मुझे शामिल होने का अवसर मिला। 23 दिसम्बर शाम 5 से 6.30 के मध्य छोटे छोटे, प्यारे प्यारे बच्चों के पेरेंट्स की भरपूर उपस्थिति थी।उनमें भरपूर उत्साह था। एक हेल्दी और सकारात्मक वातावरण से पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति लिए हुए गुलज़ार हो उठा था। श्रीमती जागृति प्रभाकर मेडम , जो स्कूल संचालन में डायरेक्टर की भूमिका का निर्वहन करती हैं, उनके निर्देशन में विद्यालय के सम्मानित टीचर्स द्वारा बच्चों के माध्यम से जो प्रस्तुतियाँ करवायीं गईं,उन नृत्य कला की प्रस्तुतियों न...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

अख़्तर आज़ाद की कहानी लकड़बग्घा और तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन पर टिप्पणियाँ

जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आती होंगी कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। (हंस जुलाई 2023 अंक में अख्तर आजाद की कहानी लकड़बग्घा पढ़ने के बाद एक टिप्पणी) -------------------------------------- हंस जुलाई 2023 अंक में कहानी लकड़बग्घा पढ़कर एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। लॉकडाउन में मजदूरों के हजारों किलोमीटर की त्रासदपूर्ण यात्रा की कहानियां फिर से तरोताजा हो गईं। दास्तान ए कमेटी के सामने जितने भी दर्द भरी कहानियां हैं, पीड़ित लोगों द्वारा सुनाई जा रही हैं। उन्हीं दर्द भरी कहानियों में से एक कहानी यहां दृश्यमान होती है। मजदूर,उसकी गर्भवती पत्नी,पाँच साल और दो साल के दो बच्चे और उन सबकी एक हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। कहानी की बुनावट इन्हीं पात्रों के इर्दगिर्द है। शुरुआत की उनकी यात्रा तो कुछ ठीक-ठाक चलती है। दोनों पति पत्नी एक एक बच्चे को अपनी पीठ पर लादे चल पड़ते हैं पर धीरे-धीरे परिस्थितियां इतनी भयावह होती जाती हैं कि गर्भवती पत्नी के लिए बच्चे का बोझ उठाकर आगे चलना बहुत कठिन हो जाता है। मजदूर अगर बड़े बच्चे का बोझ उठा भी ले तो उसकी पत्नी छोटे बच्चे का बोझ उठाकर चलने में पूरी तरह असमर्थ हो च...

ज्ञान प्रकाश विवेक, तराना परवीन, महावीर राजी और आनंद हर्षुल की कहानियों पर टिप्पणियां

◆ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी "बातूनी लड़की" (कथादेश सितंबर 2023) उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।  ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी। लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है। अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है। लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर ...

पूजा कुमारी की कवितायेँ

  पूजा कुमारी नई पीढ़ी की प्रतिभाशाली कवयित्रियों में से एक हैं । उनकी कविताओं में स्त्री चेतना की अनुभूतियां इस तरह घुलमिलकर आती हैं कि मनुष्य जीवन के अनुभवों से उनकी तारतम्यता का एहसास सहज ही होने लगता है। एक स्त्री के भीतर उठती इन अनुभूतियों में विवेक और भावनाओं का सम्यक संतुलन पूजा की कविताओं को पुष्ट करता है। अपनी भावनाओं और विचारों के मिले जुले आवेगों के साथ एक लड़की को जिस तरह जीवन को देखना चाहिए , वह सम्यक दृष्टि पूजा के भीतर नैसर्गिक रूप में विद्यमान है और वही दृष्टि उनकी कविताओं के माध्यम से हम तक पहुंचती भी है । एक लड़की  का संघर्ष इन कविताओं में गुंजित होता हुआ भी हमें सुनाई देता है। कविताएं जीवन और समाज की बेहतरी को ध्यान में रखकर ही रची जाती हैं , उस बेहतरी में एक स्त्री की भूमिका का स्थापन किस तरह सुस्पष्ट हो, पूजा की ज्यादातर कविताएं इसी भूमिका के स्थापन की ओर आगे बढ़ती हैं। उनकी कविताओं में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था बहुत सहज तरीके से शामिल होती चली जाती है, जो एक तरह से किसी कवयित्री के लिए कविता धर्म का निर्वहन भी है।पूजा की कविताओं में सहजता भले दिखाई प...