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कहानी : खोटे सिक्के , परिधि शर्मा

  • परिधि उन कथा लेखिकाओं  में से एक हैं जिनके पास अपनी खुद की  एक कहन शैली है |  एक शिल्प है |गीत चतुर्वेदी ने अपने सम्पादन में जब परिधि की  पहली कहानी "वजूद"  भास्कर रसरंग २०.०९.२००९ अंक  में प्रकाशित की  तो उसकी उम्र महज सत्रह साल थी | उसके बाद समावर्तन के सम्पादक मुकेश वर्मा ने परिधि की दो कहानियां "नीला आसमान" और "एक साधारण आदमी की मौत" प्रकाशित की | वागर्थ में विजय बहादुर सिंह ने अपने सम्पादन में एक कहानी "तोहफा" छापा तो परिधि की कहानियों पर बहुतों की नजर गई | उसके बाद परिकथा के सम्पादक शंकर ने परिधि की एक कहानी उम्मीद  नवलेखन अंक में प्रकाशित की | तत्पश्चात परिकथा में ही युवा रचना के नाम से परिधि की एक और कहानी  " एक छुटती मेट्रो एक तस्वीर एक लड़की"   इंदिरा दांगी , मजकूर आलम और कैलाश वानखेड़े जैसे प्रतिभाशाली युवा कथाकारों की कहानियों के साथ प्रकाशित हुई | यद्यपि छोटी उम्र के कारण  परिधि की एकाध कहानियों में कथ्य के स्तर पर वह प्रौढ़ता न मिले पर शिल्प और कहन शैली के कारण पाठकों ने उनकी कहानियों को पसंद किया | अपनी दन्त चिकित्सा की पढाई की व्यस्तता की वजह से बहुत दिनों तक लेखन से दूर रहने के कारण  परिधि की दो  साल पुरानी  एक अप्रकाशित कहानी यहाँ हम प्रकाशित कर रहे हैं |
 
͐͐गुल्लकों को उसने बार-बार हिला-हिला कर देखा | सभी गुल्लक वजनी थे और आवाज भी कम कर रहे थे, जिससे उनके भरे होने का संकेत मिल रहा था | किशन को थोड़ी सी  खुशी जरुर हुई कि चलो, कुछ तो अच्छा हाथ लगा, यही सही पांच भरे हुए गुल्लक और ओ भी बड़े आकार के......सोचते-सोचते उसकी आँखों के सामने तुलसी माँ का चेहरा घुमने लगा और वह मुस्कराकर रह गया .      
"अरे उनको फोड़ो मत, अभी रहने दो उन्हें यूँ ही," पीछे से राधा की आवाज आई तो किशन ने मुड़ कर देखा|
        वह तैयार खड़ी थी | उसने लाल रंग की सिल्क की साड़ी पहन रखी थी जिस पर भूरे पत्तों के प्रिंट लगभग सब तरफ बने हुए थे | आज उसने सजने-सँवरने में काफी वक्त लगाया था | मायके जो जाना था उसे | किशन को स्टेशन तक उसे छोड़ने जाना था | रास्ते भर वह गुल्लकों के बारे में ही कुछ न कुछ सोचता रहा | स्टेशन आया | गाड़ी आयी | राधा का रिजर्वेशन एयर कंडीशन बोगी में था | वह उसे उसकी सीट पर बिठा ट्रेन से नीचे उतर गया | कुछ देर बाद ट्रेन जाने लगी |
   धड़-धड़ का शोर उसके पूरे दीमाग में भर गया और वह कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा | ट्रेन चली गयी| राधा को लेकर | उसे अब सीधे ऑफिस  जाना था | वर्क लोड बहुत था और  छुट्टियां  एक भी नहीं | बॉस एक बार नौकरी से निकालने की धमकी दे चुका था | उसके मन में आया कि काश सारी समस्याएं एक गुब्बारे की तरह होतीं | फिर ओ आकार में चाहे जितनी भी बड़ी हो जातीं , बस एक बार सुई चुभो दो और फट्ट.....!
   रास्ते भर उसे गाड़ी चलाने में दिक्कतें आती रहीं क्योकि चुनाव का मौसम था और प्रचार-प्रसार में लोग बाग़ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे | नारे लगाने की आवाजें, बैनर्स, झंडे , लाउडस्पीकरों में तरह-तरह के अनाउंसमेंट वगैरह-वगैरह | यह देश भक्ति का सैलाब था , जो हर पांच साल में जरुर उमड़ता है| पर इस बार भारत की राजनीति ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया था | हर पार्टी खुद को बेहतर प्रदर्शित कर रही थी लेकिन विश्वास किस पर किया जाए यह एक जटिल प्रश्न था | इस बीच आकाश में काले बादल छाए  रहे | बारिश की फुहारों के साथ बाग़-बगीचों में सुन्दर-सुन्दर फुल खिल आए | अभी तो मार्च का महीना था, फिर भी आकस्मिक बारिश में पूरा शहर नहा रहा था | एक रात खूब बारिश हुई | उसकी अगली सुबह किशन ऑफिस  पहुंचा | ऑफिस  के पीछे वाले हिस्से में गाडी पार्क करने वाले हिस्से से थोड़ी दूर एक छोटा सा लॉन  था | लॉन  के एक कोने में एक लकड़ी का डंडा पड़ा हुआ था | डंडे से उसे एक कहानी याद आयी जिसमें चोरी के इल्जाम में फंसे एक बेकसूर ग्रामीण को पुलिसवालों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था | ये उन दिनों की कहानी थी जब देश के बड़े-बड़े शहरों में भूख हड़ताल और अनशन जोरों पर थे मगर उन दिनों भी उसी देश के छोटे-छोटे शहरों में लोग हर रोज एक नयी उमंग के साथ सुबह-सुबह सोकर उठते और दिन ढलते ही निराश और निर्जीव होकर फिर से सो जाते | वह उसी तरह निराश और निर्जीव होकर ऑफिस से लौटा था | टी. वी. आन  किया तो एक व्यक्ति सामने खड़ा मुस्करा रहा था | फिर उस व्यक्ति ने एक बिस्कुट खाया और वह मेंढक बन गया | पांच मिनट के बाद जब बिस्कुट का असर ख़त्म हुआ तो वह फिर से आदमी बन गया | उसने फिर से एक और  बिस्कुट खाया | इस बार वो एक गधा बन कर ढेंचू-ढेंचू करने लगा | चेनल बदल दिया गया | अब कि बार पैराशूट पकड़ कर एक व्यक्ति हवा में उड़ रहा था | जब वह उड़ रहा होगा तब शायद उसे धरती की कहानी कम और हवा की कहानी ज्यादा सच लगी होगी | एक और बार चेनल बदल दिया गया | शेयर बाजार से जुडी ख़बरें बताई जा रही थीं | डालर के सामने रूपये की हैसियत का आकलन किया जा रहा था | इसी सन्दर्भ में राजनैतिक पार्टियां पानी पी-पीकर एक दूसरे को कोस रही थीं | उसी वक्त किशन  को गुल्लकों की याद आयी | उसने टी. वी. बंद कर दिया |
   "बूढ़ा तो बस में बैठ गया मगर बुढ़िया भीड़-भाड़ की वजह से बस में चढ़ ही नहीं पायी | बस चली गयी | बूढ़ा भी चला गया | बुढ़िया पीछे छूट गयी...........!" ये उन्हीं गुल्लकों से जुड़ी कहानी थी |
" दो तीन महीनों के बाद तुम्हारे पिता हरिद्वार गए ......वहां उन्हें वह बुढ़िया मिल गयी ...!"----   तुलसी माँ के कहे ये शब्द लगभग याद हैं उसे | ये शब्द किसी जादू से कम नहीं हैं और बहुत शोर करते हैं | ट्रेन की धड़-धड़ की आवाज से भी ज्यादा | ट्रेन राधा को ले गयी थी अपने साथ | करीब सप्ताह भर बीत गए | कहानी के ये पात्र दरअसल गाँव के एक बुजुर्ग दम्पति थे जिनके बहु-बेटे उन्हें एक झोपड़ी में मरने को छोड़ गए थे | किशन  के पिता को लोग गाँव में सेठजी कहा करते थे | सेठजी को इस दम्पति से बहुत लगाव था | वे उन्हें रोज दो वक्त का भोजन दे आते | कभी जरुरत पड़ने पर उनके लिए दवा-दारु का भी इंतजाम कर दिया करते | सेठ जी को ईश्वर पर बड़ी आस्था थी | भजन-कीर्तन में उनका बड़ा मन लगा रहता | घर में पूजा-पाठ, यज्ञ, वगैरह जब-तब करवाते रहते | मांस-मछली को कभी हाथ न लगाते| एक बार गाँव से कुछ लोग हरिद्वार जाने वाले थे | जाने वालों में महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल थे | सेठजी का बड़ा मन हुआ हरिद्वार जाने का | परन्तु काम की व्यस्तता ने उन्हें रोक दिया | तब उनके मन में एक विचार आया और उन्होंने काफी सोच-विचार कर बृद्ध दम्पति को गाँव वालों के साथ  हरिद्वार भेजने का निर्णय लिया | एक बस में सभी जाने वाले सवार हो गए | बृद्ध दम्पति को भी बस में बैठाने के बाद सेठजी वापस आ गए |
  करीब दस-पंद्रह दिनों के बाद जब वे सभी वापस आए तब बुड्ढा अकेला वापस लौटा | उसे अकेला देख सेठजी ने बुढ़िया के बारे में पूछा | बुड्ढा मौन रहा | कई बार पूछे जाने पर उसने धीरे से कहा ...." बुढ़िया तो मर गयी !" इस बात पर अमल कर लिया गया | सेठजी ने संतोष किया कि उनकी वजह से एक बूढी औरत हरिद्वार की पावन धरती पर मरी | उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ सारे क्रिया-कर्म निपटाए |
     उसके बाद बूढा झोपड़ी में अकेला पड़ा रहता | खटिया में लेटे-लेटे वह कभी झोपड़ी  के कोने में बने मिट्टी के चूल्हे को ताकता रहता तो कभी दरवाजे के बाहर के दृश्य को निहारता रहता | कभी-कभार उसे लगता कि चूल्हा गायब हो रहा है और सामने के दृश्य ओझल हो रहे हैं तो वह डरकर अपनी आँखें बंद कर लेता | उसे भूत-प्रेतों पर विश्वास था | लोगों के कहने के अनुसार उसकी  परदादी ने एक बार एक राक्षस को देखा था जो तालाब से मछलियाँ चुन-चुन कर खा रहा था |
   करीब दो महीने बाद सेठजी सेठानी जी को लेकर हरिद्वार गए | वहां एक भयानक घटना उनके साथ घटित हुई | जिस बुढ़िया का सारा क्रिया-कर्म वे स्वयं अपने हाथों से निपटा चुके थे, वही बुढ़िया भागती हुई उनके समक्ष आ खड़ी हुई | वे भयभीत हो गए | कहीं वह कोई भूतनी तो नहीं ? या उसी तरह के चेहरे की कोई भिखारन ! मगर वह सेठजी के आगे गिड़गिड़ाने लगी | वह उन्हें अपना सारा दुखड़ा सुनाने लगी |
   हैरान परेशान हो चुके सेठजी को जब अंत में सारा माजरा समझ में आया तब वे बुढ़िया को अपने साथ वापस ले आए  | जब बूढ़े ने उसे देखा तो वह बिलख-बिलख कर रोने लगा | उसके बाद की बातें अधिक महत्त्व की नहीं हैं | हां इतना जरुर है कि कुछ समय बाद उस  बुजुर्ग दम्पति का देहावसान हो गया | बूढ़े की मृत्यु पहले हुई | उसके कुछ दिनों बाद मरते वक्त बुढ़िया ने सेठजी के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिए सिक्कों से भरे पांच गुल्लक उन्हें उपहार में दिए जिन्हें वह एक जमाने से सिक्कों से भरती आ रही थी सेठजी ने गुल्लकों को नहीं फोड़ा | वे सभी एक संदूक में संभालकर रख दिए गए |
  उन गुल्लकों से कभी सिक्के निकाले गए या नहीं, यह किशन  को नहीं पता, मगर गुल्लकों को देखकर पता चलता था कि वे बेहद पुराने हो चुके हैं | वह छिपाकर उन्हें अपने साथ कपड़ों में लपेट कर ले आया था | जाने कैसा अजीब सा मोह हो गया था उसे उन गुल्लकों से | आजकल नोटों की गड्डियां एक साथ देखने को तो मिल जाती हैं, मगर ढेर सारे सिक्कों की अलग-अलग ढेरियाँ देख पाना मुश्किल है | ऐसा लगता है जैसे सारे सिक्के बाजार से लगातार गायब हो रहे हैं | एक बार एक दुकानदार के पास उसने खूब सारे सिक्के देखे | तब उसे एहसास हुआ कि सारे सिक्के व्यापारी अपनी जेबों में घुसा लेते  हैं और कोई सामान खरीदने पर यदि पांच-छह रूपये बच जाएँ तो पैसे लौटाने के बजाए कोई छोटा-मोटा सामान या टॉफ़ी  थमा देते हैं | यही हाल ट्रेनों के टिकट काउंटरों का भी है | वहां तो बदले में कोई सामान भी नहीं दिया जाता, बल्कि बचा हुआ पैसा हजम कर लिया जाता है |
   मौसम में अजीब किस्म के बदलाव आ रहे थे | पहले बारिश | फिर उमस | फिर गर्मी | उस पर चुनावी बुखार और सिर चढ़कर ढोल बजाती महंगाई |
    क्या कुछ नहीं था किशन  के जीवन में ? एक किलो प्याज के दाम से लेकर सड़कों पर घटी दुर्घटनाओं की ख़बरें, ट्रेन के इन्तजार से लेकर सर्दी-जुकाम से भिड़ना, कभी किसी दोस्त के घर पार्टी तो कभी असुरक्षा का भय |
   ऑफिस  के आस-पास की सड़कें बदहाल थीं | बारिश ने वहां कीचड़ भर दिए थे | देखकर लगता था जैसे वह सड़क कभी एक बहुत सुन्दर और गोरी लड़की रही होगी जिसके चेहरे पर तेज़ाब छिड़क दिया गया होगा और फिर उसकी मुलायम त्वचा उबड़-खाबड़ हो गयी होगी |
  राधा अभी तक मायके से लौटी नहीं थी | उसने फोन पर बताया कि उसकी माँ की तबियत और ज्यादा बिगड़ गयी है | डॉक्टर ने न जाने कितने तरह के टेस्ट करवाने को बोला था | दवाईयों की संख्या बढ़ती जा रही थी और माँ दिनोंदिन पतली होती जा रही थी | डॉक्टर उन्हें वैसे ही चूस रहा था जैसे कोई छोटा बच्चा आइसक्रीम ख़त्म हो जाने के बाद भी उसकी डंडी को चूसता रहता है |
    खबर सुनने के बाद किशन  को अपनी खुद की जिन्दगी अधमरी सी लगने लगी | उसे जीने के लिए थोड़ी ताकत की जरुरत महसूस हुई | वह उठकर किचन में गया | वहां से ग्लूकोस पाउडर और पानी का घोल बनाकर एक गिलास में ले आया | वह और राधा ज्यादातर गिलास से ही पानी पीते थे | लोटे में भरकर पानी तो उन्होंने जाने कब से नहीं पीया था | बचपन में एक बार किशन  के नन्हें पाँव में तांबे का एक भारी लोटा गिर गया था, जिसकी वजह से उसे बहुत दर्द हुआ और पाँव भी सूज गया | उसकी तुलसी माँ याने उसकी दादी ने जब देखा तो बहुत दुखी हुई और उसके पाँव में हल्दी का लेप लगाने लगी | हल्दी के लेप से सुजन और दर्द कम तो हो गया और धीरे-धीरे गायब भी हो गया लेकिन फिर किशन  को उस तांबे के लोटे से बेहद डर लगने लगा | एक दिन किसी ने वह लोटा चुरा लिया | तब से किशन  गिलास में ही पानी पीता है |
   गर्मी फिर बढ़ गयी | वह कई दिनों से एक चारपहिया वाहन खरीदने की फिराक में है जिसमें ए.सी. लगा हो | उसके पिता की कार पुरानी हो चुकी थी और वह गाँव में थी | गाँव बहुत दूर था | उत्तर की ओर | वह दक्षिण में एक कमरे में एक सोफे के ऊपर बैठा था | आज उसने बेमन से खुद के लिए खाना पकाया था | अचार खाने की इच्छा थी लेकिन घर में अचार नहीं था | गाँव से लाया आंवले का मुरब्बा भी ख़त्म हो गया था | माँ आम का अचार बहुत अच्छा बनाया करती थी कभी! लेकिन अब उन्हें भजन-कीर्तन से फुर्सत नहीं रहता | लगता है जैसे अब उन्हें सांसारिकता का मोह नहीं सताता | पिता तो अब भी काम में व्यस्त रखते हैं खुद को |
       पहले किशन सोचा करता था कि वह बड़ा होकर फलाँ बनेगा | पर अब सोचता है , क्या फर्क पड़ता है यदि वह डॉक्टर बने , नेता बने  या बड़ा प्रशासनिक अधिकारी...... अब जीवन का मकसद तो अंततः लोगों को चूसकर पैसे इकठ्ठा करना भर रह  गया है  | वह इस राह पर चलना नहीं चाहता था इसलिए वह मान चुका था कि जीवन में जो कुछ है वही सही है |
      एक रात वह यह सोचकर सोया था कि वह कभी न कभी चाँद पर कदम जरुर रखेगा | उसी रात उसे सपना आया कि उसके सारे बाल गुलाबी रंग के हो गए हैं | अगली सुबह उठकर जब उसने अपने काले बालों को आईने में देखा तो लगा सपने देखना इतना बुरा भी नहीं......!
   उसके बाल बहुत छोटे-छोटे हैं | कंघी करना बहुत आसान है | उसे हमेशा लगता है कि राधा के लिए कंघी करना एक मुश्किल काम है क्योंकि उसके बाल लम्बे और घने हैं | उन्हें संवारने में वक्त लगता है और वह कभी-कभार ऑफिस के लिए देरी होने पर बाल संवारते हुए खींझ उठती है | उसके कई लम्बे बाल झड़कर घर का फर्श भी गंदा करते रहते हैं , शैम्पू भी वह बहुत लगाती है | पिछली बार जब किशन  ने एक मॉसक्यूटो क्वायल खरीदा था तब बचे हुए पैसों का दुकानदार ने शैम्पू दे दिया था | चिल्हर की कमी थी | किशन  की जिन्दगी में चिल्हर की मांग बढ़ रही थी | उसने तय किया कि वह एक गुल्लक जरुर फोड़ेगा | मॉसक्यूटो क्वायल बेअसर रहा | मच्छर अब उससे नहीं मरते | उसे लगा राजनीति बदल रही है, देश बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं इसलिए अब मच्छर भी बदल रहे हैं |
       किशन ने कमरे की आलमीरा में गुल्लकों को रख दिया था | उसने सभी गुल्लकों को बारी-बारी से अपने हाथ में लेकर उलट-पलट कर देखा | आज उनमें से किसी एक के फूटने की बारी थी | पर सवाल यह था कि उन पाँचों में से किसे फोड़ा जाए | यह तो चुनाव में खड़ी पार्टियों में से किसी एक को चुनकर वोट देने से भी अधिक जटिल प्रक्रिया थी | भारत में इन दिनों एक नयी पार्टी उभर आयी है | पुरानी पार्टियां भी खुद को मजबूत करने में लग गयी हैं | सभी खुद को "मैं सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिमान और आम जनता का मित्र " बताने में भीड़े हैं | ऐसे में किसी भी पार्टी का जीत जाना अब राम भरोसे और जनता भरोसे है |
  सोचते-सोचते वह गुल्लकों को उलटता-पुलटता रहा | अनिर्णय और उहापोह की स्थिति में अचानक एक गुल्लक उसके हाँथ से छूटकर जमीन से जा टकराया और फूट गया | किशन  के हाथ थोड़ी देर के लिए हवा में ही लटके रह गए | फिर वह जमीन पर बैठकर सिक्के बीनने लगा | सबसे पहले उसके हाँथ जो सिक्का लगा वह तांबे का था | फिर उसने दूसरा सिक्का टटोला | वह एक दस पैसे का सिक्का निकला | इस तरह कुछ सिक्के तांबे के, कुछ चवन्नी के, तो कुछ अठन्नी के, कुछ दस पैसे के तो कुछ बीस पैसे के | एक और दो रूपये के सिक्के गिने-चुने ही थे उनमें, जो काम के थे |
   वह वहीं जमीन पर पालथी मारकर बैठ गया | क्या किया जाए आखिर अब इन खोटे सिक्कों का ? ये सिक्के तो बाजार में चलेंगे भी नहीं ....लगभग सारे के सारे खोटे! किसी काम के नहीं !
   अप्रेल के महीने की तपिश बढ़ गयी थी | केशरिया झंडा हाथों में लिए सड़कों को जाम करने वाली भीड़ के साथ-साथ  रामनवमी और हनुमान जयन्ती का शोर अब थम चुका था | विभिन्न पार्टियों के चुनाव प्रचार में लगे आवारा और मवाली किस्म के लड़कों की फौज फिर से बेरोजगार होकर किसी आने वाले चुनाव का इन्तजार करती सी  दीख  रही थी | अचानक किशन को लगा कि उसने वोट देकर गलत पार्टी चुन ली | रात हो चुकी थी | किशन को अब स्नान करने जाना था | सुबह वाला स्नान | प्रायश्चित स्वरूप मन को शुद्ध करने के लिए|

                                                                                 

टिप्पणियाँ

  1. परिधि शर्मा की कहानी'खोटे सिक्के'से चार दफा रूबरू हुआ. जीवन और जगत की गहरी पड़ताल करती यह कहानी भाव एवं भाषा-शिल्प के दृष्टिकोण से ताजगी लिए हुए है.युगीन यथार्थ को रोचक ढंग से व्यक्त करने में परिधि सफल हुई है. परिधि में अनंत संभावनाएं हैं..अशेष शुभकामनायें परिधि को.

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  2. कहानी अच्छी लगी। गुल्लक के बहाने राजनीति के खोटे सिक्कों को लेकर कहानी बड़ी बात कहती है। कहानी की क़िस्सागोई और भाषा शिल्प आकर्षित करती है। लेखिका को हार्दिक बधाई

    अखिलेश
    भोपाल मध्यप्रदेश

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  3. परिधि की यह कहानी पढ़ते हुए हिंदी कथा साहित्य की इस प्रतिभा से प्रभावित हूँ ! इस बढ़ती पौध को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।

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  4. राजनीति के खोटे सिक्कों के ऊपर कथा लेखिका परिधि ने कमाल की कहानी लिखी है | परिधि को दिल से बधाई |

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गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना