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समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा

स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज 

■रमेश शर्मा

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इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का अम्मा जैसा रंग ही एक घर की खूबसूरती को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाता है। अम्मा कहानी में स्त्री का सहनशील आचरण रिश्तों को बांधे रखने में बड़ी प्रभावी भूमिका निभाता नज़र आता है। इला सिंह सीधे तौर पर न कहते हुए भी यह कह पाने में यहां सफल हुई हैं कि सहनशीलता का गुण स्त्री का सबसे कीमती आभूषण है जो मूर्त रूप में भले आंखों को नज़र न आए पर व्यवहार में उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। अम्मा कहानी की सबसे बड़ी विशेषता पर गौर करें तो यह कहानी इस बात को परिभाषित करने में सफल हुई है कि घर और समाज की धुरी अम्मा जैसी स्त्रियों के ऊपर ही टिकी हुई है। एक स्त्री जब माँ का स्थान ग्रहण करती है तब वह अधिक सहनशील, अधिक विवेकवान और अधिक सहिष्णु होने भी लगती है। सम्भव है इला सिंह के भीतर बसे एक स्त्री के मातृत्व भाव ने ही उन्हें इस बात की गहरी समझ दी हो और उन्होंने अम्मा जैसी कहानी रचकर पाठकों के सामने रखा हो। यह कहानी हमें स्त्री जीवन के अलग अलग रूपों को समझने का भी एक अवसर देती है। सचमुच यह एक ऎसी कहानी है जो दिल के बहुत करीब पहुँचती है और हमें अपने भाव,शिल्प और सम्प्रेषण कला से अंत तक बांधे रखती है।

जहां कहानी न दिखाई पड़े वहां भी अगर कोई कहानी खोज ले और उसे किस्सागोई एवं मजबूत कथ्य के साथ पाठकों के सामने ले आए, तब उसे रचनाकार की रचनात्मक कुशलता के रूप में ही देखा जाना चाहिए। इला सिंह की कहानी 'ढीठ' पढ़ते हुए भी कुछ इसी तरह के पाठकीय अनुभवों से हम गुजरते हैं।

हम जिस परिवार में रहते हैं उस परिवार के सदस्यों की संवेदना किसी संदर्भ में भिन्न-भिन्न हो सकती है। दरअसल यह संवेदना दया और करुणा के इर्द गिर्द ही जीवन मूल्यों के रूप में अपना ठीहा बनाती है।

एक परिवार में रहते हुए भी जिस सदस्य में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था होगी उस सदस्य में यह संवेदना उतनी ही सघन और परिपक्व होगी।

इला सिंह इसी सघन और परिपक्व संवेदना के इर्द-गिर्द ही अपनी इस कहानी को रचती हैं।

अधिकांशतः परिवारों में घर की जो स्त्री होती है, इस सघन और परिपक्व संवेदना की संवाहक होती है।घर में काम का सारा बोझ भी उसी स्त्री के ऊपर होता है। सुबह से शाम तक खटते हुए रात में जो भोजन करने का वक्त होता है वही उसके लिए विश्राम का क्षण भी होता है। उसी दरमियान वह भोजन करते-करते कई बार फिल्म देख लेती है , कई बार कान में ईयर फोन लगाकर गाने भी सुन लेती है।लॉक डाउन चल रहा हो और अगर इन विश्राम के क्षणों में भी कोई बाहर से आकर अचानक काल बेल बजा दे तो उसके लिए यह स्थिति अप्रिय हो सकती है।कहानी में यही स्त्री पात्र केन्द्र में है जो अप्रिय स्थिति में भी अपना संतुलन नहीं खोती।वह दरवाजा खोलती है और एक जरूरतमंद स्त्री को अपने सामने पाती है ।

वह जरूरतमंद स्त्री जिसके परिवार की आजीविका कपड़ों पर इस्त्री करने के काम से चलती है और लॉकडाउन में उनका काम धंधा बंद है। वह इस उम्मीद में घर की चौखट पर खड़ी है कि पहले की तरह उनसे कुछ कपड़े मिल जाएं तो उस पर इस्त्री करके वहां से दो पैसे हासिल हो सकें।

उस वक्त परिस्थितियां ऐसी हैं कि लॉकडाउन में कपड़े तो घर में डंफ पड़े हैं ।कोई बाहर नहीं निकल रहा तो इस्त्री करने की जरूरत भी नहीं पड़ रही । ऐसे में उसके लिए धर्म संकट यह है कि वह किस कपड़े को उसे इस्त्री करने को दे। 

जरूरतमंद महिला जिसका नाम निशा है उसका एक माह का बच्चा भी है और घर में बहुत आर्थिक तंगी है ।वह कहती है कि अगर कपड़े नहीं दे पा रही हैं तो कुछ रुपए ही उधार में दे दीजिए। बाद में वह उन रुपयों को लौटा देगी या उसके बदले कपड़ो पर इस्त्री करके उसे चुकता कर देगी।परिस्थिति की नजाकत को भांपते हुए उस परिवार की स्त्री, उस जरूरतमंद महिला को दो हजार रुपये दे देती है।

दरअसल कहानी उसके बाद ही शुरू होती है। इस तरह दो हजार रुपये दिए जाने पर घर के अन्य सदस्यों को बहुत तकलीफ और आपत्ति है । उसके लिए सभी लोग उसको खरी-खोटी सुनाते हैं। पति रूपेश द्वारा मूर्ख जैसे विशेषण से भी वह संबोधित की जाती है। महिला परिवार के अन्य सदस्यों की अप्रिय बातें सुनते सुनते एयर फोन से गाने सुनने की कोशिश में एक कान में एयर फोन के हियरिंग डिवाइस को खोंचती है और दूसरे कान में जैसे ही वह डिवाइस को खोंचने को होती है उसके कानों में पति के शब्द सुनाई पड़ते हैं ......ढीठ औरत ! इन दो शब्दों के साथ कहानी समाप्त जरूर हो जाती है पर पाठक के भीतर ही भीतर ये दो शब्द गूंजते रहते हैं।

जीवन मूल्यों के इर्द-गिर्द घूमती मानवीय संवेदना के रूपाकारों को लेकर बुनी गई यह कहानी अंत में पाठक को बिजली के करेंट की तरह भीतर से झटके देने लगती है। एक पत्नी जो कि परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित है और उसके भीतर जीवन मूल्यों के प्रति गहरी आस्था है,उसे उसका पति ही ढीठ औरत कहे तो स्वाभाविक है कि कहानी एक संवेदनशील पाठक को भीतर से बेचैन ही करेगी। इला सिंह जी ने इस कहानी में एक परिवार के भीतर घटित दिनचर्या की घटनाओं को जिस तरह बुना है, सारी घटनाएं कहानी के प्रभाव और सम्प्रेषण को और पुष्ट करती हैं।

संग्रह की एक कहानी है काला फ़िराक। यह कहानी अपनी भाषा और अपनी बुनावट में अंत तक हमें बांधे रखती है। माँ के इलाज के लिए साथ में शहर गयी सात साल की बेटी अहिल्या डॉक्टर कोहली की बेटी परी को वहां देखती है जो उसकी हम उम्र है।उसकी देह पर शोभायमान काला फ़िराक को देखकर उसकी भी इच्छा होती है कि वह काला फ़िराक पहने। बच्चों के मनोविज्ञान को टटोलती हुई बच्ची की इसी इच्छा के इर्द-गिर्द यह कहानी धीरे धीरे इस तरह गतिमान होने लगती है कि बच्ची के भीतर की इच्छा काला फ़िराक से होते हुए उसकी अपनी मां से मिलने की इच्छा तक जा पहुंचती है। बाल इच्छाओं की यह शिफ्टिंग इस कहानी की विशेषता है । मां , बाबूजी, बड़ी दीदी, दादी और अभी अभी कुछ दिनों पहले शहर के हस्पताल में जन्मा छोटा भाई । सात साल की अहिल्या इन रिश्तों की डोर पकड़े दरअसल अपने समय को देख रही है। इस समय में उस बच्ची के भीतर उठता हुआ एक आवेग है। उसके भीतर आती-जाती इच्छाएं हैं। इस समय में उसके मन में दादी की डांट फटकार का भय है। इस समय में उसके लिए पिता का कड़कपन है और उस कड़कपन के भीतर छुपा हुआ प्यार भी है। इस समय के भीतर बड़ी दीदी का वात्सल्य और उसकी संगत है। गांव से दूर शहर के हस्पताल में भर्ती हुए मां से पुनः मिलने की तीव्र इच्छा इस कदर अहिल्या के भीतर जज्ब है कि वह नाज़ बीनकर चवन्नी इकठ्ठा करती है ताकि बस में बैठकर अपनी माँ से मिलने जा सके।यह सच है कि छोटे बच्चे अपनी मां से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते। सात साल की अहिल्या के दिलों दिमाग में मां से मिलने की इच्छा ही घूम रही है। वह जानती है कि बापू उसे दोबारा शहर लेकर नहीं जाएंगे। वह जानती है कि दादी की फटकार ही उसे मिलेगी। और फिर इसी उधेड़बुन में एक दिन मुट्ठी में चवन्नी दबाए वह बस में चढ़कर शहर निकल पड़ती है।रास्ते में फिर उसे सहीदन का साथ मिलता है। उस साथ को वह कभी भी बेझिझक स्वीकार नहीं पाती क्योंकि उसके मन में सहीदन के प्रति गलत धारणाएं बिठा दी गयी हैं।

कहानी में सहीदन नाम की महिला एक ऐसा पात्र है जो समाज में उपेक्षा और जलालत की शिकार है । अहिल्या की दादी जिस पर आए दिन गाली गलौज करती रहती है।उसे डायन जैसे शब्दों से संबोधित करने का क्रम कभी नहीं टूटता। यह महिला पात्र अपनी उदारता के साथ लड़कियों के प्रति अतिरिक्त सुरक्षा की चेतना का भाव लिए कहानी में जिस तरह सामने आती है , उसका आना आश्वस्ति से भर देता है। कथा लेखिका की नजर समाज में उपेक्षित और जलालत में डाल दिए जाने वाले ऐसे पात्रों पर भी गई है जो समय आने पर बहुत उपयोगी हो सकते हैं। काला फ़िराक के बहाने रिश्तों के ताने-बाने और भीतर चल रहे मनोभावों को यह कहानी समझने बूझने का एक बड़ा अवसर देती है।सहीदन पात्र के बहाने यह कहानी समाज में चली आ रही गलत धारणाओं को ध्वस्त करने का भी काम करती है। शहर जाकर माँ से मिलने के बाद अहिल्या के मन में आते जाते भावों का एक ऐसा चित्रण है जिसका आस्वादन कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।

संग्रह की एक और कहानी है 'मास्टरनी का जादू मंतर'।यह कहानी स्त्रियों के जनरेशन गैप से उपजी रिश्तों की कड़वाहट को दूर करने की दिशा में संवाद करती हुई आगे बढ़ती है । ताई की नासमझी और अशिक्षा के कारण उसके भीतर उपजी असहिष्णुता और जातीय उच्चता का भाव बोध रधिया जैसी दलित लड़की का मन आहत करता है। नीरू जैसी पढ़ी लिखी बहु, ताई की इस असहिष्णुता और जातीय उच्चता के भाव की बोधग्रस्तता का तार्किक प्रतिरोध करती हुई नज़र आती है। नीरू का यह प्रतिरोध टकराव के रास्ते पर न जाकर प्यार का रास्ता अख्तियार करती है । दरअसल जातीय उच्चता का भाव आज के संदर्भ में एक किस्म की कुंठा ही है जिसका निदान टकराव के रास्तों पर चलकर नहीं किया जा सकता ।इसका एक मात्र निदान प्यार के माध्यम से दिलों को जीतकर ही किया जा सकता है। नीरू प्यार जैसे अचूक हथियार का जब उपयोग करती है तब ताई जैसी कर्कश स्त्री के दिल के भीतर जमी हुई बर्फ पिघल कर पानी पानी होने लगती है । उसके भीतर वर्षों से बसे नफ़रत और असहिष्णुता के भाव प्यार नामक हथियार के डर से दुम दबाकर भाग जाते हैं । प्यार ही एक मात्र जादू मंतर है जो अनपढ़ नासमझ स्त्रियों तथा पढ़ी लिखी समझदार स्त्रियों के बीच के गैप को भर देता है । इला जी ने इस कहानी को यूं ही नहीं लिख दिया होगा , बल्कि यह कहानी तो उनके जीवन के आसपास के अनुभवों से उपजी हुई कहानी होगी। अनुभव से उपजी हुई कहानियाँ पाठक को अपील भी करती हैं ।

संग्रह की शीर्षक कहानी 'मुझे पंख दे दो' भी स्त्री अस्मिता और उसके सपनों को विस्तार देने की कथा से जुड़ी कहानी है । इस कहानी में भी अन्य कहानियों की तरह इला हमें उसी दुनिया की ओर लिए चलती हैं जहाँ स्त्रियों के संघर्ष को विस्तार मिलता है । आज की स्त्री पढ़ना लिखना चाहती है , पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। इस चाहने में अनगिनत बाधाएं हैं , इला सिंह उन्हीं बाधाओं की पहचान करती हुईं इस कहानी को बुनती हैं । फिर शनैः शनैः स्त्री स्वतंत्रता के लिए इला की जगह उनकी यह कहानी हमसे संवाद करती है.... 'मुझे पंख दे दो' ..... 'मुझे पंख दे दो' ! स्त्री के पंख आखिर क्या हैं ? जब स्त्री पढ़ लिख लेगी, तभी वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी, तभी उसे स्वतंत्र पहचान मिलेगी । ये सारे घटक ही उसके पंख हैं जिसे अपने लिए वह सदियों से मांगती आ रही है । पर समाज है कि देने से हमेशा कोताही बरतता आ रहा है। संग्रह की एक अन्य कहानी 'कदम तो बढ़ाओ' में भी स्त्री अस्मिता से जुड़ी बातें ध्वनित होती हैं ।कहानी उन घटकों पर संवाद करती है जहां समाज को अपनी सोच को एक सकारात्मक दिशा की तरफ ले जाने का स्वर गूंजे । फिर वहां से उत्साह का सकारात्मक वातावरण निर्मित हो और एक बेहतर दुनिया के रास्ते तलाशे जा सकें ।

इला की समस्त कहानियों को पढ़ लेने के बाद मन में यह एहसास तारी होने लगता है कि फेमिनिज्म कोई दूसरी दुनिया की परिघटना नहीं है । उसके लिए शोर शराबा मचाने की जगह स्वरों की धीमी आंच से भी बदलाव के रास्ते प्रशस्त किये जा सकते हैं ।

इला की समस्त कहानियों को स्त्री अस्मिता और उसकी स्वतंत्रता के लिए उसी धीमी आंच के रूप में भी बतौर पाठक देखा महसूसा जा सकता है। हाँ यह आवश्यक है कि इसके लिए इस संग्रह से होकर गुजरने का अनुभव हमें अर्जित करना होगा ।


कहानी संग्रह : 'मुझे पंख दे दो'

कथा लेखिका : इला सिंह 

पेपर बेक संस्करण मूल्य : 110 रूपये

प्रकाशक :प्रतिबिम्ब , संपर्क नोशन प्रेस ,7 मांटीएथ रोड़, एग्मोरे , चेन्नई (तामिलनाडु)

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