सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा

स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज 

■रमेश शर्मा

-------------------------------------------------------------



इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का अम्मा जैसा रंग ही एक घर की खूबसूरती को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाता है। अम्मा कहानी में स्त्री का सहनशील आचरण रिश्तों को बांधे रखने में बड़ी प्रभावी भूमिका निभाता नज़र आता है। इला सिंह सीधे तौर पर न कहते हुए भी यह कह पाने में यहां सफल हुई हैं कि सहनशीलता का गुण स्त्री का सबसे कीमती आभूषण है जो मूर्त रूप में भले आंखों को नज़र न आए पर व्यवहार में उसकी झलक हमेशा मिलती रहती है। अम्मा कहानी की सबसे बड़ी विशेषता पर गौर करें तो यह कहानी इस बात को परिभाषित करने में सफल हुई है कि घर और समाज की धुरी अम्मा जैसी स्त्रियों के ऊपर ही टिकी हुई है। एक स्त्री जब माँ का स्थान ग्रहण करती है तब वह अधिक सहनशील, अधिक विवेकवान और अधिक सहिष्णु होने भी लगती है। सम्भव है इला सिंह के भीतर बसे एक स्त्री के मातृत्व भाव ने ही उन्हें इस बात की गहरी समझ दी हो और उन्होंने अम्मा जैसी कहानी रचकर पाठकों के सामने रखा हो। यह कहानी हमें स्त्री जीवन के अलग अलग रूपों को समझने का भी एक अवसर देती है। सचमुच यह एक ऎसी कहानी है जो दिल के बहुत करीब पहुँचती है और हमें अपने भाव,शिल्प और सम्प्रेषण कला से अंत तक बांधे रखती है।

जहां कहानी न दिखाई पड़े वहां भी अगर कोई कहानी खोज ले और उसे किस्सागोई एवं मजबूत कथ्य के साथ पाठकों के सामने ले आए, तब उसे रचनाकार की रचनात्मक कुशलता के रूप में ही देखा जाना चाहिए। इला सिंह की कहानी 'ढीठ' पढ़ते हुए भी कुछ इसी तरह के पाठकीय अनुभवों से हम गुजरते हैं।

हम जिस परिवार में रहते हैं उस परिवार के सदस्यों की संवेदना किसी संदर्भ में भिन्न-भिन्न हो सकती है। दरअसल यह संवेदना दया और करुणा के इर्द गिर्द ही जीवन मूल्यों के रूप में अपना ठीहा बनाती है।

एक परिवार में रहते हुए भी जिस सदस्य में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था होगी उस सदस्य में यह संवेदना उतनी ही सघन और परिपक्व होगी।

इला सिंह इसी सघन और परिपक्व संवेदना के इर्द-गिर्द ही अपनी इस कहानी को रचती हैं।

अधिकांशतः परिवारों में घर की जो स्त्री होती है, इस सघन और परिपक्व संवेदना की संवाहक होती है।घर में काम का सारा बोझ भी उसी स्त्री के ऊपर होता है। सुबह से शाम तक खटते हुए रात में जो भोजन करने का वक्त होता है वही उसके लिए विश्राम का क्षण भी होता है। उसी दरमियान वह भोजन करते-करते कई बार फिल्म देख लेती है , कई बार कान में ईयर फोन लगाकर गाने भी सुन लेती है।लॉक डाउन चल रहा हो और अगर इन विश्राम के क्षणों में भी कोई बाहर से आकर अचानक काल बेल बजा दे तो उसके लिए यह स्थिति अप्रिय हो सकती है।कहानी में यही स्त्री पात्र केन्द्र में है जो अप्रिय स्थिति में भी अपना संतुलन नहीं खोती।वह दरवाजा खोलती है और एक जरूरतमंद स्त्री को अपने सामने पाती है ।

वह जरूरतमंद स्त्री जिसके परिवार की आजीविका कपड़ों पर इस्त्री करने के काम से चलती है और लॉकडाउन में उनका काम धंधा बंद है। वह इस उम्मीद में घर की चौखट पर खड़ी है कि पहले की तरह उनसे कुछ कपड़े मिल जाएं तो उस पर इस्त्री करके वहां से दो पैसे हासिल हो सकें।

उस वक्त परिस्थितियां ऐसी हैं कि लॉकडाउन में कपड़े तो घर में डंफ पड़े हैं ।कोई बाहर नहीं निकल रहा तो इस्त्री करने की जरूरत भी नहीं पड़ रही । ऐसे में उसके लिए धर्म संकट यह है कि वह किस कपड़े को उसे इस्त्री करने को दे। 

जरूरतमंद महिला जिसका नाम निशा है उसका एक माह का बच्चा भी है और घर में बहुत आर्थिक तंगी है ।वह कहती है कि अगर कपड़े नहीं दे पा रही हैं तो कुछ रुपए ही उधार में दे दीजिए। बाद में वह उन रुपयों को लौटा देगी या उसके बदले कपड़ो पर इस्त्री करके उसे चुकता कर देगी।परिस्थिति की नजाकत को भांपते हुए उस परिवार की स्त्री, उस जरूरतमंद महिला को दो हजार रुपये दे देती है।

दरअसल कहानी उसके बाद ही शुरू होती है। इस तरह दो हजार रुपये दिए जाने पर घर के अन्य सदस्यों को बहुत तकलीफ और आपत्ति है । उसके लिए सभी लोग उसको खरी-खोटी सुनाते हैं। पति रूपेश द्वारा मूर्ख जैसे विशेषण से भी वह संबोधित की जाती है। महिला परिवार के अन्य सदस्यों की अप्रिय बातें सुनते सुनते एयर फोन से गाने सुनने की कोशिश में एक कान में एयर फोन के हियरिंग डिवाइस को खोंचती है और दूसरे कान में जैसे ही वह डिवाइस को खोंचने को होती है उसके कानों में पति के शब्द सुनाई पड़ते हैं ......ढीठ औरत ! इन दो शब्दों के साथ कहानी समाप्त जरूर हो जाती है पर पाठक के भीतर ही भीतर ये दो शब्द गूंजते रहते हैं।

जीवन मूल्यों के इर्द-गिर्द घूमती मानवीय संवेदना के रूपाकारों को लेकर बुनी गई यह कहानी अंत में पाठक को बिजली के करेंट की तरह भीतर से झटके देने लगती है। एक पत्नी जो कि परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित है और उसके भीतर जीवन मूल्यों के प्रति गहरी आस्था है,उसे उसका पति ही ढीठ औरत कहे तो स्वाभाविक है कि कहानी एक संवेदनशील पाठक को भीतर से बेचैन ही करेगी। इला सिंह जी ने इस कहानी में एक परिवार के भीतर घटित दिनचर्या की घटनाओं को जिस तरह बुना है, सारी घटनाएं कहानी के प्रभाव और सम्प्रेषण को और पुष्ट करती हैं।

संग्रह की एक कहानी है काला फ़िराक। यह कहानी अपनी भाषा और अपनी बुनावट में अंत तक हमें बांधे रखती है। माँ के इलाज के लिए साथ में शहर गयी सात साल की बेटी अहिल्या डॉक्टर कोहली की बेटी परी को वहां देखती है जो उसकी हम उम्र है।उसकी देह पर शोभायमान काला फ़िराक को देखकर उसकी भी इच्छा होती है कि वह काला फ़िराक पहने। बच्चों के मनोविज्ञान को टटोलती हुई बच्ची की इसी इच्छा के इर्द-गिर्द यह कहानी धीरे धीरे इस तरह गतिमान होने लगती है कि बच्ची के भीतर की इच्छा काला फ़िराक से होते हुए उसकी अपनी मां से मिलने की इच्छा तक जा पहुंचती है। बाल इच्छाओं की यह शिफ्टिंग इस कहानी की विशेषता है । मां , बाबूजी, बड़ी दीदी, दादी और अभी अभी कुछ दिनों पहले शहर के हस्पताल में जन्मा छोटा भाई । सात साल की अहिल्या इन रिश्तों की डोर पकड़े दरअसल अपने समय को देख रही है। इस समय में उस बच्ची के भीतर उठता हुआ एक आवेग है। उसके भीतर आती-जाती इच्छाएं हैं। इस समय में उसके मन में दादी की डांट फटकार का भय है। इस समय में उसके लिए पिता का कड़कपन है और उस कड़कपन के भीतर छुपा हुआ प्यार भी है। इस समय के भीतर बड़ी दीदी का वात्सल्य और उसकी संगत है। गांव से दूर शहर के हस्पताल में भर्ती हुए मां से पुनः मिलने की तीव्र इच्छा इस कदर अहिल्या के भीतर जज्ब है कि वह नाज़ बीनकर चवन्नी इकठ्ठा करती है ताकि बस में बैठकर अपनी माँ से मिलने जा सके।यह सच है कि छोटे बच्चे अपनी मां से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते। सात साल की अहिल्या के दिलों दिमाग में मां से मिलने की इच्छा ही घूम रही है। वह जानती है कि बापू उसे दोबारा शहर लेकर नहीं जाएंगे। वह जानती है कि दादी की फटकार ही उसे मिलेगी। और फिर इसी उधेड़बुन में एक दिन मुट्ठी में चवन्नी दबाए वह बस में चढ़कर शहर निकल पड़ती है।रास्ते में फिर उसे सहीदन का साथ मिलता है। उस साथ को वह कभी भी बेझिझक स्वीकार नहीं पाती क्योंकि उसके मन में सहीदन के प्रति गलत धारणाएं बिठा दी गयी हैं।

कहानी में सहीदन नाम की महिला एक ऐसा पात्र है जो समाज में उपेक्षा और जलालत की शिकार है । अहिल्या की दादी जिस पर आए दिन गाली गलौज करती रहती है।उसे डायन जैसे शब्दों से संबोधित करने का क्रम कभी नहीं टूटता। यह महिला पात्र अपनी उदारता के साथ लड़कियों के प्रति अतिरिक्त सुरक्षा की चेतना का भाव लिए कहानी में जिस तरह सामने आती है , उसका आना आश्वस्ति से भर देता है। कथा लेखिका की नजर समाज में उपेक्षित और जलालत में डाल दिए जाने वाले ऐसे पात्रों पर भी गई है जो समय आने पर बहुत उपयोगी हो सकते हैं। काला फ़िराक के बहाने रिश्तों के ताने-बाने और भीतर चल रहे मनोभावों को यह कहानी समझने बूझने का एक बड़ा अवसर देती है।सहीदन पात्र के बहाने यह कहानी समाज में चली आ रही गलत धारणाओं को ध्वस्त करने का भी काम करती है। शहर जाकर माँ से मिलने के बाद अहिल्या के मन में आते जाते भावों का एक ऐसा चित्रण है जिसका आस्वादन कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।

संग्रह की एक और कहानी है 'मास्टरनी का जादू मंतर'।यह कहानी स्त्रियों के जनरेशन गैप से उपजी रिश्तों की कड़वाहट को दूर करने की दिशा में संवाद करती हुई आगे बढ़ती है । ताई की नासमझी और अशिक्षा के कारण उसके भीतर उपजी असहिष्णुता और जातीय उच्चता का भाव बोध रधिया जैसी दलित लड़की का मन आहत करता है। नीरू जैसी पढ़ी लिखी बहु, ताई की इस असहिष्णुता और जातीय उच्चता के भाव की बोधग्रस्तता का तार्किक प्रतिरोध करती हुई नज़र आती है। नीरू का यह प्रतिरोध टकराव के रास्ते पर न जाकर प्यार का रास्ता अख्तियार करती है । दरअसल जातीय उच्चता का भाव आज के संदर्भ में एक किस्म की कुंठा ही है जिसका निदान टकराव के रास्तों पर चलकर नहीं किया जा सकता ।इसका एक मात्र निदान प्यार के माध्यम से दिलों को जीतकर ही किया जा सकता है। नीरू प्यार जैसे अचूक हथियार का जब उपयोग करती है तब ताई जैसी कर्कश स्त्री के दिल के भीतर जमी हुई बर्फ पिघल कर पानी पानी होने लगती है । उसके भीतर वर्षों से बसे नफ़रत और असहिष्णुता के भाव प्यार नामक हथियार के डर से दुम दबाकर भाग जाते हैं । प्यार ही एक मात्र जादू मंतर है जो अनपढ़ नासमझ स्त्रियों तथा पढ़ी लिखी समझदार स्त्रियों के बीच के गैप को भर देता है । इला जी ने इस कहानी को यूं ही नहीं लिख दिया होगा , बल्कि यह कहानी तो उनके जीवन के आसपास के अनुभवों से उपजी हुई कहानी होगी। अनुभव से उपजी हुई कहानियाँ पाठक को अपील भी करती हैं ।

संग्रह की शीर्षक कहानी 'मुझे पंख दे दो' भी स्त्री अस्मिता और उसके सपनों को विस्तार देने की कथा से जुड़ी कहानी है । इस कहानी में भी अन्य कहानियों की तरह इला हमें उसी दुनिया की ओर लिए चलती हैं जहाँ स्त्रियों के संघर्ष को विस्तार मिलता है । आज की स्त्री पढ़ना लिखना चाहती है , पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। इस चाहने में अनगिनत बाधाएं हैं , इला सिंह उन्हीं बाधाओं की पहचान करती हुईं इस कहानी को बुनती हैं । फिर शनैः शनैः स्त्री स्वतंत्रता के लिए इला की जगह उनकी यह कहानी हमसे संवाद करती है.... 'मुझे पंख दे दो' ..... 'मुझे पंख दे दो' ! स्त्री के पंख आखिर क्या हैं ? जब स्त्री पढ़ लिख लेगी, तभी वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी, तभी उसे स्वतंत्र पहचान मिलेगी । ये सारे घटक ही उसके पंख हैं जिसे अपने लिए वह सदियों से मांगती आ रही है । पर समाज है कि देने से हमेशा कोताही बरतता आ रहा है। संग्रह की एक अन्य कहानी 'कदम तो बढ़ाओ' में भी स्त्री अस्मिता से जुड़ी बातें ध्वनित होती हैं ।कहानी उन घटकों पर संवाद करती है जहां समाज को अपनी सोच को एक सकारात्मक दिशा की तरफ ले जाने का स्वर गूंजे । फिर वहां से उत्साह का सकारात्मक वातावरण निर्मित हो और एक बेहतर दुनिया के रास्ते तलाशे जा सकें ।

इला की समस्त कहानियों को पढ़ लेने के बाद मन में यह एहसास तारी होने लगता है कि फेमिनिज्म कोई दूसरी दुनिया की परिघटना नहीं है । उसके लिए शोर शराबा मचाने की जगह स्वरों की धीमी आंच से भी बदलाव के रास्ते प्रशस्त किये जा सकते हैं ।

इला की समस्त कहानियों को स्त्री अस्मिता और उसकी स्वतंत्रता के लिए उसी धीमी आंच के रूप में भी बतौर पाठक देखा महसूसा जा सकता है। हाँ यह आवश्यक है कि इसके लिए इस संग्रह से होकर गुजरने का अनुभव हमें अर्जित करना होगा ।


कहानी संग्रह : 'मुझे पंख दे दो'

कथा लेखिका : इला सिंह 

पेपर बेक संस्करण मूल्य : 110 रूपये

प्रकाशक :प्रतिबिम्ब , संपर्क नोशन प्रेस ,7 मांटीएथ रोड़, एग्मोरे , चेन्नई (तामिलनाडु)

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

डॉ. चंद्रिका चौधरी की कहानी : घास की ज़मीन

  डॉ. चंद्रिका चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल में उनकी एक कहानी ' घास की ज़मीन ' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में हैं। उनकी लिखी इस शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो , चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो , ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं। सवालों को लेकर एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है। घटनाओ...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

डॉक्टर उमा अग्रवाल और डॉक्टर कीर्ति नंदा : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रायगढ़ शहर के दो होनहार युवा महिला चिकित्सकों से जुड़ी बातें

आज 8 मार्च है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस । आज के दिन उन महिलाओं की चर्चा होती है जो अमूमन चर्चा से बाहर होती हैं और चर्चा से बाहर होने के बावजूद अपने कार्यों को बहुत गम्भीरता और कमिटमेंट के साथ नित्य करती रहती हैं। डॉ कीर्ति नंदा एवं डॉ उमा अग्रवाल  वर्तमान में हम देखें तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला चिकित्सकों की संख्या में  पहले से बहुत बढ़ोतरी हुई है ।इस पेशे पर ध्यान केंद्रित करें तो महसूस होता है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला डॉक्टरों के साथ बहुत समस्याएं भी जुड़ी होती हैं। उन पर काम का बोझ अत्यधिक होता है और साथ ही साथ अपने घर परिवार, बच्चों की जिम्मेदारियों को भी उन्हें देखना संभालना होता है। महिला चिकित्सक यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ है और किसी क्षेत्र विशेष में  विशेषज्ञ सर्जन है तो  ऑपरेशन थिएटर में उसे नित्य मानसिक और शारीरिक रूप से संघर्ष करना होता है। किसी भी डॉक्टर के लिए पेशेंट का ऑपरेशन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है । कहीं कोई चूक ना हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । इस चूक में  पेशेंट के जीवन और मृत्यु का मसला जुड़ा होता है।ऑपरेशन ...

छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ का महासम्मेलन 15 अप्रैल 2025 को बिलासपुर में

छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ का महासम्मेलन  15 अप्रैल 2025 को बिलासपुर में  हक की आवाज़ और एकजुटता के  संकल्प के साथ जुटेंगे संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी रायगढ़। 14 अप्रैल 2025:  छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी, अपने हक और सम्मान की लड़ाई को एक नया आयाम देने जा रहे हैं। दिनांक *15 अप्रैल 2025, मंगलवार को स्वर्गीय लखीराम अग्रवाल सभागृह, बिलासपुर* में आयोजित होने वाले *राज्य स्तरीय महासम्मेलन* में प्रदेश के 33 जिलों से हजारों कर्मचारी एकत्र होंगे। यह महासम्मेलन केवल एक सभा नहीं, बल्कि वर्षों की उपेक्षा, आश्वासनों की थकान और अनसुनी मांगों का साहसिक जवाब है। माननीयों का स्वागत, मांगों का आह्वान इस ऐतिहासिक आयोजन में छत्तीसगढ़ के यशस्वी स्वास्थ्य मंत्री *श्री श्याम बिहारी जयसवाल जी, श्री अमर अग्रवाल जी, श्री धरमलाल कौशिक जी, श्री धर्मजीत सिंह जी, श्री सुशांत शुक्ला* जी सहित अन्य गणमान्य विधायकों और जनप्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया है। इनके समक्ष संविदा कर्मचारी अपनी मांगो...

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह...

21वें राष्ट्रीय ट्रिपल ओ संगोष्ठी 2024 (21st National OOO Symposium 2024) का आयोजन देश के सिल्वर सिटी के नाम से ख्यात ओड़िसा के कटक में सम्पन्न

डेंटल चिकित्सा से जुड़े तीन महत्वपूर्ण ब्रांच OOO【Oral and Maxillofacial Surgery,Oral Pathology, Oral Medicine and Radiology】पर 21वें राष्ट्रीय ट्रिपल ओ संगोष्ठी 2024  (21st National OOO Symposium 2024) का आयोजन देश के सिल्वर सिटी के नाम से ख्यात ओड़िसा के कटक में सम्पन्न हुआ. भारत के सिल्वर सिटी के नाम से प्रसिद्ध ओड़िसा के कटक शहर में 21st National OOO Symposium 2024  का सफल आयोजन 8 मार्च से 10 मार्च तक सम्पन्न हुआ। इसकी मेजबानी सुभाष चंद्र बोस डेंटल कॉलेज एंड हॉस्पिटल कटक ओड़िसा द्वारा की गई। सम्मेलन का आयोजन एसोसिएशन ऑफ ओरल एंड मैक्सिलोफेशियल सर्जन ऑफ इंडिया, (AOMSI) और इंडियन एसोसिएशन ऑफ ओरल एंड मैक्सिलोफेशियल पैथोलॉजिस्ट (IAOMP) के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ ओरल मेडिसिन एंड रेडियोलॉजी (IAOMR) के तत्वावधान में किया गया। Dr.Paridhi Sharma MDS (Oral Medicine and    Radiology)Student एससीबी डेंटल कॉलेज एंड हॉस्पिटल कटक के ओरल मेडिसिन एंड रेडियोलॉजी डिपार्टमेंट की मेजबानी में संपन्न हुए इस नेशनल संगोष्ठी में ओरल मेडिसिन,ओरल रेडियोलॉजी , ओरल मेक्सिलोफेसियल सर्जरी और ओरल प...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...