सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सोनाली शेट्टी की कविताएँ

सोनाली शेट्टी की कविताएँ

सोनाली शेट्टी मूलतः देहरादून की हैं और अंग्रेजी भाषा में लेखन करती हैं। विचारों में खुलेपन के साथ जीवन को अपने ढंग से जीने वाली सोनाली की कविताओं में मनुष्य के भीतर जज्ब संवेदना मुखर रूप में हमसे संवाद करती है। लगभग बातचीत के अंदाज में कविताओं को रच पाने की कला उनके पास है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए जीवन के आसपास बिखरे रंगों को जिसे हम कई बार देख नहीं पाते, सहजता से देख पाते हैं.



१.वो बारिशों की बात थी


वो बारिशों की बात थी

और 

हम भीगने से डरने की एक्टिंग कर रहे थे।

भीग रहे थे खुल कर 

बेशुमार 

हद हो गयी थी 

बेशरमी की 

मगर 

रुक नहीं रही थी

चाह

भीगने की 

बेशुमार।

तुम मैं और बारिशें

और 

साथ सिर्फ ये पहाड़ी रास्ते

फिर नहीं आएंगी

वो बारिशें

वो हद 

वो वक़्त

बस

सिर्फ 

तुम्हरे शर्ट का रंग जो मेरे 

सफेद सूट पर आज भी लगा है

रह गया है 

और एक संदूक में रखा

तुम्हारी ग्रीन शर्ट को

याद करता है

आज भी ।


२. चले जाने के बाद

(लीना के लिए)

उस रोज़ जब तुम्हारी मृत्यु की सूचना मिली

मै मॉल में शॉपिंग कर रही थी 

चेंजिंग रूम में फोन उठाया

उस तरफ से आवाज़ आई 

लीना चली गयी

क्या! मगर ... मुझे कल मिलना था

अब नहीं मिलेगी , तुम आओ वहाँ से आवाज़ आई

फोन रखा तो शीशे के सामने मैं आधी सी खड़ी थी

अकेली 

आधा ज़मीन पर पड़ा था

पुराना उतार के रखा था

उस ढेर के बीच

मैंने शीशे में झाँका

चारों तरफ मैं थी 

हर शीशे के अंदर कई कई शीशे मुझे देख रहे थे

कह रहे थे

अब नहीं मिलेगी 

और एक जोर का विस्फोट हुआ जैसे अंदर 

फट कर नाक मुँह और आँखों से अंगार निकले

खुद को देख कर घृणा आई 

छी: अब रो रही है

वहां थी क्यों नहीं?

जब वो इंतज़ार कर रही थी 

तू घर पर डिप्रेशन का ढोंग कर रही थी

ढोंगी 

ढोंगी है तू .... !


जानती हो 

अब शर्म दर्द और ज़िन्दगी 

सब सामान्य हो गयी है

दस दिन बाद

तुम सिर्फ झलकियों में याद आती हो

कई बार आती हो

तुम्हे जब कॉफिन में बंद कर रहे थे

और एक मकड़ा तुम्हारी सफ़ेद चादर पर घूम रहा था

मै हाथ जोड़ कर खड़ी थी 

मगर नज़रें  मकड़े पर थी 

वो कहीं तुम पर न जा बैठे

साथ बंद न हो जाए

प्रार्थना छोड़ कर मैं मकड़ा भगाने लगी

पादरी चुप हो गए 

मैंने मकड़े को जब निकाल दिया 

आखरी आमीन के साथ तुम्हें एक और बार छुआ

तुम इतनी ठण्डी थी भरी धूप में

मैं वो ही थी न लीना जो तुमने देखा था

तुम प्यार करती हो न मुझे 

मैं तुमको रात को कई बार कब्रिस्तान में उसी कॉफिन में 

चैन की नींद लेते हुए देखती हूँ

फिर बिहार के जिस गाँव का नाम बताया था तुमने

उसको याद करने की कोशिश करती हूँ

सब भूलती जा रही हूँ लीना 

मगर तुम्हारा मैक्सी पहन कर दो चुटिया बना कर 

अपने घुंघराले बालों को संवारना

काजल लगाना 

मुस्कुराना 

तुम्हारी आँखे 

नहीं भूलूंगी 

तुम बहुत याद आती हो लीना

ये कविता नहीं

तुमको याद रखने की कोशिश है 

याद भी एक कोशिश होती है लीना

खुद को समझाने की

खुद को सहलाने की 

जब दर्द होता है

की मैं भूली नहीं हूँ

बारीकियां 

तुम्हारे होने की

यही तो एक अवशेष है अब तुम्हारे होने का

मेरी स्मृति 

कि तुम थी।

तुम रहोगी

लीना !


३.इतवार

सुना है नाम में क्या रखा है

सब दिन एक ही जैसे तो होते हैं

मगर सातवें दिन दिल को एक अलग सी उम्मीद होती है

इंतज़ार रहता है सुकून का

हर दिन सूरज निकलता है 

और डूब जाता है रोज़ की तरह

मगर सातवें दिन ऐसे निकलता है कि सारे सीलन भरे कपड़े और अचार के मर्तबान को धूप लग जाती है

वही धूप जो कल अलारम बन समय की पाबंदी बताती थी

आज गुनगुनाती है

तुम 

मेरे वही इतवार हो

जल्दी आया करो

बहुत वेट कराते हो आजकल

इतना इंतज़ार कि सोचती हूँ

मैं सोमवार बन कर सताऊँ तुम्हें !


४.बदबू


ज़ुबाँ पर एक कड़वी गोली

गटकते वक्त जीभ पर चिपकी 

बाहर फेकना है मगर 

आदर्शवाद ने कहा कि 

बीमारी से 

ये गोली जान बचा लेगी 

मगर

कितना भी पानी पी लूं

गोली चिपकी रहती है

कितनी भी किताबें और कवितायेँ

गटक लूं

उबकाई बंद नहीं होती


रास्ते में वो बच्चों का झूण्ड

हाथ में गुब्बारा लिए मेरे पीछे भागता है

कविताओं की ,किताबों की याद नहीं आती

बस आती है उबकाई 

गोली फिर से चिपक जाती है 

जीभ के बीचों-बीच


कभी कोई बच्चा जब हाथ पकड़ लेता है

उसके हाथों में पड़ी हुई खुरंट पपड़ियाँ

मेरे हाथों को पानी के गिलास तक पहुंचने नहीं देतीं 

मैं गोली को चिपके रहने देती हूँ तलवे पर


अब उबकाई मुझे मेरी कविताओँ से आ रही है

कहाँ जा कर खाली करूं इन कविताओँ को

ये किसी काम की नहीं

क्योंकि ये उन हाथों को हाथ में लेने की जगह 

नर्म बिस्तर पर बैठ उन पपड़ी पड़े हाथों पर 

कविता लिख रही होती हैं

जब वो हाथ अपनी कविताओँ का गुब्बारा 

चिलचिलाती धूप में बेच रहे होते हैं 

मुझे उबकाई आती है


जब से उस नन्हें से बच्चे ने इन हाथों को छुआ है

मेरी जीभ में कड़वी गोली चिपकी पड़ी है

तुम्हारी राजनीति और आदर्शवाद की बातें 

मुझसे मत करना

मुझे बहुत देर से उबकाई आई हुई है

मै तुम्हारे कपड़े

गंदे कर दूंगी 

और तुमको तुम्हारी खोखली रचनाओं की बदबू से भर दूँगी


५.पलायन


ये कौन सी कविता है जो पलायन के बाद

ख़ुद की बाट जोहती है 

ख़ुद के भाग जाने की प्रवृति पर 

शब्दों को रचती है 


ये कौन सी कविता है 

जो मैं लिख रही हूँ तुम्हारे छुटे हुए रिक्त स्थानों पर 

जिसे तुम अपने दिल के ग़ुबार से भरोगे 

ये कौन सा शब्दजाल है जो 

कहीं भी पहुँचने से पहले 

मेरी आँखों से तैर कर जाएगा 

और तुम्हारी दूरबीन से पढ़ा जाएगा 


ये कविता शायद इसी लिए लिख देती हूँ

क्योंकि ये ख़त्म जल्दी हो जाती है 

मेरे पास तुम्हें सुनाने के लिए 

कहानी नहीं है 

तुम्हारा ध्यान इस छोटे दायरे में कविता 

समझ नहीं पाएगा 


मगर मैं मजबूर हूँ 

कविता लिखने के लिए 

क्योंकि ये तुम्हारी कहानी की तरह 

जल्दी ख़त्म होती है 

ये ख़त्म सुकून देता है 


मुझे सुकून की तलाश है 

ये कविता मेरे सुकून की लाश है 

इसे लिखना मेरी मजबूरी है

तुम मेरी मजबूरी का एक हिस्सा हो ।




टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

नीरज वर्मा की कहानी : हे राम

नीरज वर्मा की कहानियाँ किस्सागोई से भरपूर होती हैं । साथ साथ उनकी कहानियाँ राजनैतिक संदर्भों को छूती हुईं हमें एक तरह से विचारों की दुनिया में घसीटकर भी ले जाने की कोशिश करती हैं। कहानी 'हे राम' इस बात को स्थापित करती है कि राजनीति मनुष्य को विचारवान होने से हमेशा रोकती है क्योंकि विचारवान मनुष्य के बीच राजनीति के दांव पेच फेल होने लगते हैं । नीरज वर्मा अपनी इस कहानी में गांधी को केंद्र में रखकर घटनाओं को बुनते हैं तब ऐसा करते हुए वे हमें उसी विचारों की दुनिया में ले जाने की कोशिश करते हैं।गांधी को केंद्र में रखकर लिखी गयी यह कहानी 'हे राम' देश के वर्तमान हालातों पर भी एक नज़र फेरती हुई आगे बढ़ती है । बतौर पाठक कहानी के पात्रों के माध्यम से इस बात को गहराई में जाकर महसूस किया जा सकता है कि गांधी हमारे भीतर वैचारिक रूप में हमेशा जीवित हैं । जब भी अपनी आँखों के सामने कोई अनर्गल या दुखद घटना घटित होती है तब हमारी जुबान से अनायास ही "हे राम" शब्द  निकल पड़ते हैं । इस कहानी में नीरज यह बताने की कोशिश करते हैं कि गांधी का हमारे जीवन में इस रूप में अनायास लौटना ही उनकी

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

डॉक्टर उमा अग्रवाल और डॉक्टर कीर्ति नंदा : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रायगढ़ शहर के दो होनहार युवा महिला चिकित्सकों से जुड़ी बातें

आज 8 मार्च है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस । आज के दिन उन महिलाओं की चर्चा होती है जो अमूमन चर्चा से बाहर होती हैं और चर्चा से बाहर होने के बावजूद अपने कार्यों को बहुत गम्भीरता और कमिटमेंट के साथ नित्य करती रहती हैं। डॉ कीर्ति नंदा एवं डॉ उमा अग्रवाल  वर्तमान में हम देखें तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला चिकित्सकों की संख्या में  पहले से बहुत बढ़ोतरी हुई है ।इस पेशे पर ध्यान केंद्रित करें तो महसूस होता है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला डॉक्टरों के साथ बहुत समस्याएं भी जुड़ी होती हैं। उन पर काम का बोझ अत्यधिक होता है और साथ ही साथ अपने घर परिवार, बच्चों की जिम्मेदारियों को भी उन्हें देखना संभालना होता है। महिला चिकित्सक यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ है और किसी क्षेत्र विशेष में  विशेषज्ञ सर्जन है तो  ऑपरेशन थिएटर में उसे नित्य मानसिक और शारीरिक रूप से संघर्ष करना होता है। किसी भी डॉक्टर के लिए पेशेंट का ऑपरेशन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है । कहीं कोई चूक ना हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । इस चूक में  पेशेंट के जीवन और मृत्यु का मसला जुड़ा होता है।ऑपरेशन थियेटर में घण्टों  लगाता