सोनाली शेट्टी की कविताएँ
सोनाली शेट्टी मूलतः देहरादून की हैं और अंग्रेजी भाषा में लेखन करती हैं। विचारों में खुलेपन के साथ जीवन को अपने ढंग से जीने वाली सोनाली की कविताओं में मनुष्य के भीतर जज्ब संवेदना मुखर रूप में हमसे संवाद करती है। लगभग बातचीत के अंदाज में कविताओं को रच पाने की कला उनके पास है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए जीवन के आसपास बिखरे रंगों को जिसे हम कई बार देख नहीं पाते, सहजता से देख पाते हैं.
१.वो बारिशों की बात थी
वो बारिशों की बात थी
और
हम भीगने से डरने की एक्टिंग कर रहे थे।
भीग रहे थे खुल कर
बेशुमार
हद हो गयी थी
बेशरमी की
मगर
रुक नहीं रही थी
चाह
भीगने की
बेशुमार।
तुम मैं और बारिशें
और
साथ सिर्फ ये पहाड़ी रास्ते
फिर नहीं आएंगी
वो बारिशें
वो हद
वो वक़्त
बस
सिर्फ
तुम्हरे शर्ट का रंग जो मेरे
सफेद सूट पर आज भी लगा है
रह गया है
और एक संदूक में रखा
तुम्हारी ग्रीन शर्ट को
याद करता है
आज भी ।
२. चले जाने के बाद
(लीना के लिए)
उस रोज़ जब तुम्हारी मृत्यु की सूचना मिली
मै मॉल में शॉपिंग कर रही थी
चेंजिंग रूम में फोन उठाया
उस तरफ से आवाज़ आई
लीना चली गयी
क्या! मगर ... मुझे कल मिलना था
अब नहीं मिलेगी , तुम आओ वहाँ से आवाज़ आई
फोन रखा तो शीशे के सामने मैं आधी सी खड़ी थी
अकेली
आधा ज़मीन पर पड़ा था
पुराना उतार के रखा था
उस ढेर के बीच
मैंने शीशे में झाँका
चारों तरफ मैं थी
हर शीशे के अंदर कई कई शीशे मुझे देख रहे थे
कह रहे थे
अब नहीं मिलेगी
और एक जोर का विस्फोट हुआ जैसे अंदर
फट कर नाक मुँह और आँखों से अंगार निकले
खुद को देख कर घृणा आई
छी: अब रो रही है
वहां थी क्यों नहीं?
जब वो इंतज़ार कर रही थी
तू घर पर डिप्रेशन का ढोंग कर रही थी
ढोंगी
ढोंगी है तू .... !
जानती हो
अब शर्म दर्द और ज़िन्दगी
सब सामान्य हो गयी है
दस दिन बाद
तुम सिर्फ झलकियों में याद आती हो
कई बार आती हो
तुम्हे जब कॉफिन में बंद कर रहे थे
और एक मकड़ा तुम्हारी सफ़ेद चादर पर घूम रहा था
मै हाथ जोड़ कर खड़ी थी
मगर नज़रें मकड़े पर थी
वो कहीं तुम पर न जा बैठे
साथ बंद न हो जाए
प्रार्थना छोड़ कर मैं मकड़ा भगाने लगी
पादरी चुप हो गए
मैंने मकड़े को जब निकाल दिया
आखरी आमीन के साथ तुम्हें एक और बार छुआ
तुम इतनी ठण्डी थी भरी धूप में
मैं वो ही थी न लीना जो तुमने देखा था
तुम प्यार करती हो न मुझे
मैं तुमको रात को कई बार कब्रिस्तान में उसी कॉफिन में
चैन की नींद लेते हुए देखती हूँ
फिर बिहार के जिस गाँव का नाम बताया था तुमने
उसको याद करने की कोशिश करती हूँ
सब भूलती जा रही हूँ लीना
मगर तुम्हारा मैक्सी पहन कर दो चुटिया बना कर
अपने घुंघराले बालों को संवारना
काजल लगाना
मुस्कुराना
तुम्हारी आँखे
नहीं भूलूंगी
तुम बहुत याद आती हो लीना
ये कविता नहीं
तुमको याद रखने की कोशिश है
याद भी एक कोशिश होती है लीना
खुद को समझाने की
खुद को सहलाने की
जब दर्द होता है
की मैं भूली नहीं हूँ
बारीकियां
तुम्हारे होने की
यही तो एक अवशेष है अब तुम्हारे होने का
मेरी स्मृति
कि तुम थी।
तुम रहोगी
लीना !
३.इतवार
सुना है नाम में क्या रखा है
सब दिन एक ही जैसे तो होते हैं
मगर सातवें दिन दिल को एक अलग सी उम्मीद होती है
इंतज़ार रहता है सुकून का
हर दिन सूरज निकलता है
और डूब जाता है रोज़ की तरह
मगर सातवें दिन ऐसे निकलता है कि सारे सीलन भरे कपड़े और अचार के मर्तबान को धूप लग जाती है
वही धूप जो कल अलारम बन समय की पाबंदी बताती थी
आज गुनगुनाती है
तुम
मेरे वही इतवार हो
जल्दी आया करो
बहुत वेट कराते हो आजकल
इतना इंतज़ार कि सोचती हूँ
मैं सोमवार बन कर सताऊँ तुम्हें !
४.बदबू
ज़ुबाँ पर एक कड़वी गोली
गटकते वक्त जीभ पर चिपकी
बाहर फेकना है मगर
आदर्शवाद ने कहा कि
बीमारी से
ये गोली जान बचा लेगी
मगर
कितना भी पानी पी लूं
गोली चिपकी रहती है
कितनी भी किताबें और कवितायेँ
गटक लूं
उबकाई बंद नहीं होती
रास्ते में वो बच्चों का झूण्ड
हाथ में गुब्बारा लिए मेरे पीछे भागता है
कविताओं की ,किताबों की याद नहीं आती
बस आती है उबकाई
गोली फिर से चिपक जाती है
जीभ के बीचों-बीच
कभी कोई बच्चा जब हाथ पकड़ लेता है
उसके हाथों में पड़ी हुई खुरंट पपड़ियाँ
मेरे हाथों को पानी के गिलास तक पहुंचने नहीं देतीं
मैं गोली को चिपके रहने देती हूँ तलवे पर
अब उबकाई मुझे मेरी कविताओँ से आ रही है
कहाँ जा कर खाली करूं इन कविताओँ को
ये किसी काम की नहीं
क्योंकि ये उन हाथों को हाथ में लेने की जगह
नर्म बिस्तर पर बैठ उन पपड़ी पड़े हाथों पर
कविता लिख रही होती हैं
जब वो हाथ अपनी कविताओँ का गुब्बारा
चिलचिलाती धूप में बेच रहे होते हैं
मुझे उबकाई आती है
जब से उस नन्हें से बच्चे ने इन हाथों को छुआ है
मेरी जीभ में कड़वी गोली चिपकी पड़ी है
तुम्हारी राजनीति और आदर्शवाद की बातें
मुझसे मत करना
मुझे बहुत देर से उबकाई आई हुई है
मै तुम्हारे कपड़े
गंदे कर दूंगी
और तुमको तुम्हारी खोखली रचनाओं की बदबू से भर दूँगी
५.पलायन
ये कौन सी कविता है जो पलायन के बाद
ख़ुद की बाट जोहती है
ख़ुद के भाग जाने की प्रवृति पर
शब्दों को रचती है
ये कौन सी कविता है
जो मैं लिख रही हूँ तुम्हारे छुटे हुए रिक्त स्थानों पर
जिसे तुम अपने दिल के ग़ुबार से भरोगे
ये कौन सा शब्दजाल है जो
कहीं भी पहुँचने से पहले
मेरी आँखों से तैर कर जाएगा
और तुम्हारी दूरबीन से पढ़ा जाएगा
ये कविता शायद इसी लिए लिख देती हूँ
क्योंकि ये ख़त्म जल्दी हो जाती है
मेरे पास तुम्हें सुनाने के लिए
कहानी नहीं है
तुम्हारा ध्यान इस छोटे दायरे में कविता
समझ नहीं पाएगा
मगर मैं मजबूर हूँ
कविता लिखने के लिए
क्योंकि ये तुम्हारी कहानी की तरह
जल्दी ख़त्म होती है
ये ख़त्म सुकून देता है
मुझे सुकून की तलाश है
ये कविता मेरे सुकून की लाश है
इसे लिखना मेरी मजबूरी है
तुम मेरी मजबूरी का एक हिस्सा हो ।
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अच्छी कविताएं
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