तो आईए इस बार बन्धु पुष्कर की कविताओं से आपका परिचय करवाते हैं-
मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे
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बांस-बबूल और बरगद के झुरमुठों से भरे जंगल बीच
कोयल-मैना और गौरैय्यों की आवाज़ को सुरक्षित रखते
मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे
जीवन की डोर दूसरों के हाथ में दिए
उनके इशारों पर आकाश में उड़ना उन्होंने नहीं सीखा
पेंच लड़ाकर, डोर काट देने का हुनर भी उन्हें कभी नहीं आया
जैसे गले मिल घोंप दिया जाता हो कोई खंजर – चुपके से।
सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर
शीत के प्रभाव को कम करता
बादलों के खुलने का समय है यह 'मध्य-जनवरी' का,
गुलाबी सर्दी को चीरती हुई रोशनदान से आती पीली धूप का,
यह सरसों के फूलों में सूरज के खिलने का समय है।
ठंडी-ठंडी फर्श पर गुनगुनी धूप पड़ने के बाद –
बिटिया दौड़ती दूर तक नाज़ुक पैरों से।
मां ने बनाया है आज –
तिल-गुड़ का लड्डू,
नए पिसान का चिला और दूध-फरा।
कोठे में बंधी गाय रंभा रही है आज सुबह ही से
शायद बाहर धूप में आना चाहती हो
शायद! सभी आना चाहते हों ?
इस तरह हमने इस्तकबाल किया है नए साल का
सुना है –
महानगरों में 'पतंगबाजी' की एक प्रतियोगिता होती है?
आकाश में उड़ते हुए छोटे-विमान सरीखे पतंग को कांट देने वाला जीतता इस खेल में ?
मिलते हैं कई पुरस्कार
आते हैं बड़े-बड़े नेता-अभिनेता उन आयोजनों में
पर उनके कारीगर हैं पूर्णतः महरूम इनसे – अभी तक।
जबकि
मेरे शहर के घर, जंगलों से बनते हैं
उन घरों में चूल्हे जंगलों से जलते हैं,
मेरे शहर की बिजली भी जंगलों से आती है,
और मेरे शहर का प्रेम भी जंगलों में लिखा जाता है।
इसके अलावा इन जंगलों के एक अतिरिक्त फाँस का प्रयोग भी चुभता है मुझे
इन पतंगों में त्रिकोण लगी काड़ियां, उन्हीं जंगलों से आती हैं
जो तुम्हारे लिए है यह एक शौकिया खेल मात्र।
कबूतरों और बगुलों ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए–
शोक माह मनाया है इस वर्ष– पहली बार !
इसके उलट मेरे शहर में एक भी पतंग दिखती नहीं क्यों? अब।
शायद–
कांच से बने मांजों के 'मौत का फंदा' बन जाने का खतरा हो,
पड़ोस का बच्चा मुख्य उंगली गँवा बैठा था पिछली दफ़ा,
मेरे आंगन में हर रोज़ आता कबूतर पंख फड़फड़ाता फॅंसा रहा बिजली के तारों पर
और चूता रहा उसके चोंच से खून कई दिनों तक
पश्चिम और उत्तर के लोगों ने इसे जाने क्यों मौत का खेल बना दिया
नाज़ुक-सी उँगलियों में जानलेवा तार फंसा दिया
जंगलों के खिलाफ़ घुसपैठ की संस्कृति का असर है ये–
जान जोखिम में डाल पतंग लूटने को खेल बना दिया।
पतंग के आकार में हर शाम यहां बगुलों का एक झुंड
पास के मैदान से टाऽ..टाऽ.. करता हुआ जाता है।
मेरे शहर के लड़कों का खेल कबड्डी है, फुटबॉल है, हॉकी है।
उन्होंने धनुष चलाया, तलवार उठाई, भाला फेंके
पर मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नहीं रहे।
प्रेम में होते हुए
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प्रेम करते हुए इंसान को
सब कुछ कह देना चाहिए
सब कुछ लिख देना चाहिए
छोटी-से-छोटी चीज़ भी नहीं चाहिए छोड़नी
रखना चाहिए सबकुछ विस्तार से अपनी स्मृति में।
मसलन –
आज मेरे गमले से गुलाब की एक कली निकल आई है।
या
मेरी बालकनी में सुबह एक कबूतर आया था।
यहाँ तक कि
मैने आज चाय बनाई।
पता नहीं, इसमें बताने जैसा क्या है
पर, इतनी सामान्य-सी घटना भी वह बता देना चाहता है।
अपनी खुशियों का साहचर्य बना लेना
या
किसी की गहन भावनाओं का साक्षी हो जाना
गेहूँ की बालियों को छूते हुए
सरसों के खेतों के बीच से आते राजकुमार की कल्पना से अधिक रूमानी होता है।
प्रेम करते हुए इंसान
महाकाव्य रच सकता है,
शिलाओं का सेतु बांध सकता है।
तो
ताजमहल बनाकर कर सकता है उसे दुनिया के हवाले
तो कहीं
पहाड़ का सीना चीरकर उससे निकाल सकता है रास्ता।
मुमकिन है –
प्रेम में इंसान कर्ता होकर नहीं रहता।
प्रेम में होते हुए इंसान को किसी का डर नहीं होता
न तो दीवारों के चुन जाने का,
न ही ताबूत में दफन हो जाने का,
न तो विश्व की महान शक्ति उसका कुछ कर सकती है
और न कोई आपदा उसे निगल ही सकती है।
डर होता है तो बस
साथ पकड़ कर चलने वाले हाथों के छूट जाने का
जिस्म-ओ-जान के अलग होने का।
प्रेम में होते हुए इंसान
इस दुनिया मे रहकर भी
बुन लेता अपने लिए एक अलग दुनिया
हो जाता है सबके अनुकूल
ये सृष्टि लगने लगती है और.. और..
सहज! सुन्दर! सत्य!
आसान नहीं है यूँ तुष्ट हो जाना कहीं भी
अंजुरी भर पानी ही से
किसी कवि ने कहा था –
प्रेम में होते हुए इंसान को सब कुछ कह देना चाहिए।
सब कुछ…
यहाँ तक कि किसी और से प्रेम होने वाली बात भी नहीं चाहिए छुपानी
इससे रिश्ते कमज़ोर नहीं होते
यदि होतें हैं ? तो समझ लीजिए
उसे और मजबूत होने की ज़रूरत है।
निजी अनुभूति
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लोगों में बेहतर होने की बढ़ती ख्वाहिशों के बीच
नहीं चाहता कोई बेहतरी खुद की
अच्छा होना एक सामाजिक दबाव जैसा लगता है
और किसी किस्म के दबाव में नहीं
पहचाना जाना चाहता खुद का झूठा चरित्र।
कोमल हाथों से तालियाँ पीटते व
मासूम अधरों से मुसलसल जयकारें लगाते
सड़कों पर भक्तिगीत गाते लोगों को देखकर
उनमें शामिल न होना
ख़ुद के अधर्मी घोषित होने के लिए पर्याप्त है इन दिनों
तिस पर कोई टिप्पणी लिंचिंग के लिए उतनी ही काफ़ी
देह में उठती जुम्बिश एक छलावा है।
बाहर बिकती जाहिलियत का जवाब -
बस मौन रहकर देता हूँ सभ्य! होने के अभिनय के साथ।
ईमान की कीमत नीलाम होती है बाजार में
जिसे देख, हृदय में पसरे सन्नाटे के सिवा ख़ामोशी के कोई दूसरी ज़बान नहीं सूझती।
दुचित्ते व्यवहार को झेलकर हर वहम-शाम में
जादुई शब्दजाल द्वारा फँस जाता हूँ – हमेशा।
वैसे वक्त अपने उन तजुर्बों को दोहराया जाना जरूरी हो जाता है जिसने जिंदगी का सलीका सिखाया
जीवन में कुदरती करिश्माओं पर यकीन करने जैसी मिथक को तोड़कर
जब मैंने चुनी थी अपनी निजी अनुभूति।
जीने की खातिर दो वक्त की रोटी या
हथेली पर दिनभर की रोज़ी रख दी जाने पर
हुक्मरानों के गुणगान में कसीदे लिखना
बनाता है तुम्हे देश का सच्चा नागरिक और
अपनी निष्ठा किसी मठ पर बनाए रखना घोषित करता हो सच्चा देशभक्त।
मुँह में ज़बान रखते हुए भी शांत रहने का हुनर आ गया है।
समझौतापरस्त दुनिया ने सीखा दी है
आँखों-देखी हाल के बयान खातिर
किसी जासूस भाषा में न कहना
न ही किसी तकनीकी हाथ से लिखना।
सवाल करने के एवज में अपनी अगली पीढ़ियों के भविष्य का भय
सालता है अंदर तक।
खूबसूरत शाम की दिलफरेब दास्तान सुनाने नहीं सूझता कोई शब्द !
ज़िंदा रहने के बदले में झूठा विनयगान अब मेरे बस में नहीं।
मीन कथा
(हरण की गई एक कमसिन लड़की की कहानी)
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पुराणों में सुना था –
दुनिया को बचाने 'विष्णु ने मत्स्यावतार लिया’
जिससे राजा का अस्तित्व और प्रजा की लाचारी भी बची रही।
साथ-ही बचा रहा बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खाए जाने का मत्स्य न्याय!
नक्षत्रों की ज्योतिषाई भाषा में "मीन को एक राशि" बताकर मिथक गढ़ा गया
जिसका स्वामी गुरु अर्थात 'ब्रहस्पति' को बताया गया
मानों सोलह साल की एक कन्या ब्याह दी गई हो किसी अधेड़ पुरुष से।
एक कमसिन मीन! के जोबन की मादकता देख राजा उस पर मुग्ध हो गया।
अपनी ओर आती समुद्र की लहरों को वक्र-काटती
उसकी देह सुंदर आकार में ढल चुकी थी,
उसमे कांति आ चुकी थी।
तब मदहोश राजा ने समुद्र को अपनी जागीर समझ बिछाया जाल।
एक रोज़ उसने समुद्र से पकड़ ले आयी वो खूबसूरत मछली
राजकमल चौधरी के शब्द में "मरी हुई मछली" – ज़िंदा देह में।
जिसे देखकर एक आशिक मिजाज़ कवि ने कहा –
'आँखों में नमक इस कदर समाया है तुम्हारे
जैसे घुला हो पूरे सागर भर में नीला रंग
मछलियां पीती हैं जिससे साॅंसे
और हर बुलबुले के साथ छोड़ती हैं अपनी जादुई गंध इस असीम आकाश में'।
लोभ और छल का व्यवसाय करती इस दुनिया ने
खुद ही, दुनिया होने की एकमात्र खूबसूरती को नष्ट कर दिया है–
कि इस परिधि से बाहर निकलना मर जाना है उसके लिए।
अब प्रशंसा और पुरस्कार रूपी चारा लटका है चारों ओर
किसी दशक के महान कवि ने कहा था -
"मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती हैं ... जिनमें वह फॅंसने नहीं आतीं"
ये वाक्य उस रूमानी कवि की
रम्य कल्पनाओं और आह्लादित क्रीडाओं की ऊब चुकी पंक्ति के सिवा कुछ भी नहीं।
इसी तरह बचपन में एक गीत सुना था–"मछली जल की रानी है"
आज महसूस कर रहा हूं – हर रानी पर केवल राजा का हक होता है।
अब लोग मछलियां नही फांसते केवल भक्षण और व्यापार खातिर
फांसते हैं।
उससे खेलने के लिए भी
जो सबसे खूबसूरत और आकर्षक होती है
मछवार का पहला शिकार भी वही होती है
जैसे 'खूबसूरत होने का श्राप' मिला हो किसी ऋषि द्वारा।
शो-केस नुमा सुंदर काँच के घड़े में जलप्लावन करती वो युवा मछली
पूरब-से-पश्चिम, एक छोर-से-दूसरी छोर जल-क्रीड़ा करती हुई गाती है प्रेम गीत।
नीचे से उठती जो पानी को चीरते हुए अचानक
मानों ब्रह्मांड के उस पार जाना चाहती हो – एक ही छलांग में।
बेबसी ओढ़ सो जाती हर रात,
ख़ामोशी झलकती उसकी आंखो में हमेशा।
थक चुका उसका साहस अब कमज़ोर पड़ने लगा था।
कोने में दुबक सोचने लगती कभी-कभी –
शीशमहल रूपी इस कफ़स को चूर कर देने की कोई जादुई युक्ति...
राजा लेता हर शाम उसकी ख़बर –
देख-रेख और तीमारदारी को लगी थी कई सेविकाएँ।
वहीं,
राजा का बेटा देखता मछली की हर आहट को बड़ी गौर से, ताकता!
घण्टों बातें करता अनुराग की, खुद के जल्दी युवा होने की, उसे दुल्हन बनाने की
या बन जाने की खुद एक मछली।
दिन-रात, सुबह-ओ-शाम रखता ख्याल
बचाता उसे हर शिकारी नज़र से।
दूर रखता अश्लील ज़हनियत से।
सपने देखता साथ हवाओं में तैरने के,
उसकी मुक्ति के –
लेकिन सबब ये हुआ
कि आँखों से क्रंदन गान सुनाती-सुनाती वो युवा मछली
एक दिन मर गई
(या मार दी गई, उसपर राजकुमार का प्रेम बढ़ता देखकर)।
राजमहल में पसरा चारों ओर सन्नाटा
शोक से राजकुमार एकदम बेहाल-व्याकुल-बेचैन
मृष्क्लान देह , हृदय गति अतितेज, तपती-देह
सूझता न कुछ भी।
एक रोज़ राजा फिर निकला सज-धज कर पूरी सेना के साथ–
अपनी वासना मिटाने।
राजकुमार का मन बहलाने
उसने पहले ही
कई जगह और, उस जैसा कोई फांसने!
चारा छोड़ रखा था।
प्रेम का अनुवाद नहीं होता
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तुम्हारी भाषा में संगीत सुनते
नहीं पड़ती अब मुझे किसी अनुवाद की जरूरत
भाषाओं का स्पर्श इस कदर शामिल है मुझमें
कि
अगला अंतरा मुझे ला खड़ा कर देता है वहीं
जिसे बुना गया होगा किसी हिज़्र-याद में तिरस्कृत नदी किनारे
लघु उपमनों से बांधकर
जो मेरी आँखों से कभी देखा न गया।
प्रियमईना! प्रेम का अनुवाद नहीं होता
न ही इसके लिए गढ़ी गई कोई परिभाषा
भावनाओं का विनिमय ही पर्याप्त सुकून दे जाता है
'पंडुगू' की एक शाम 'संध्या गीत' के दौरान जुड़ों में बंधे हरसिंगार के फूलों के साथ जब देखा था तुम्हारी पहली प्रस्तुति
सुना था पहली बार मधुर संगीत किसी अनजान आवाज़ में
तभी से उन शब्दों का प्रयोजन हृदय में उतरता चला गया।
'बथुकम्मा' पर तालियाँ बजाते चारों ओर वृत्ताकार पथ पर घूमना
मानों पृथ्वी को चारों ओर से बांध रही हो, किसी आपदा या महामारी से बचाने।
उसी वक्त जाना –
तुम्हारा होना एक सफाकत का होना है
जिसमें शिरकत के लिए नहीं चाहिए कोई तहज़ीब, कोई अदब
एकमात्र शर्त है बस इंसान होना ।
'बोन्नालु' पर्व में परंपराओं से पटे अनुष्ठान व आयोजन की
भौगोलिक सीमाऍं भी न रोक सकी
हमारा सहज मिलन
निर्दोष आँखों में सपने लिए मैं दौड़ता चला आया तुम्हारी मंजिल
परंतु जाति के इस मनुवादी श्राप ने ला खड़ा कर दिया हमें
नदी के दोनों छोरों पर
बचपन में अपने एक टीचर से सुना था कि
'स्नेह बड़ों से मिलता है और समानधर्मा से प्यार’
तोड़ते हुए इस नियम को तुम गढ़ती रही एक नई परिभाषा।
सुई से टाककर तुमने मेरी शर्ट पर बनाया था एक “दीया” और “गुलाब”
जिस पर खीजते हुए नाराज़ होकर तुमने,
मुझपर मज़ाक बनाने का लगाया था आरोप।
प्रियमईना!
प्रेम में शब्द और प्रतीक नहीं रखते अपने अस्तित्व का संकुचित अर्थ
गवाही देते हैं –
मौसमों का, हाथों के कारीगरी का, आँखों से बहती ऊष्मा का
जिन्हें पहचानना मेरे लिए आसान न था।
तुम्हारे मुख से निकले एक-एक शब्द का मैंने वही अर्थ ग्रहण किया
जो ऋषि पावुलुरी मल्लानक ने रचा था।
मैंने तुम्हारे शब्द नही,
उनका भाव जाना।
सच!
मैंने तुम्हारी कविता नहीं,
कविता का कारण पहचाना।
प्रियमईना! याद रखना
तुम्हारे चले जाने पर तुम्हारे गाये गीत और ध्वनि
मैं अपनी बंद पेटी से निकालकर
लिखूँगा एक किताब जिसके मुख्य पृष्ठ पर होगा
तुम्हारा बनाया वही दीया और गुलाब
(सदैव रौशन होते रहने और हमेशा फूल की तरह खिलते रहने)
तुम्हारी भाषा में रचे एक-एक उपमान
मैंने उसी तरह महसूस किया जैसे तुमने कहा–
भरोसा रखना रसम में भीगी हुई मेरी उंगलियां
हू-ब-हू अपने गुजरे समय का बखान लिख देगी।
कह देगी वो कथा जो एक सांस में पूरी गायी जा सके।
वो स्मृति जिससे एक सुंदर तस्वीर उकेरी जा सके।
प्रियमईना!
प्रेम का अनुवाद नहीं होता।
हो जाता है
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कम किताबें पढ़कर भी
सोचते-सोचते चिन्तक होने लगता है इंसान
जो दूर खड़ंजे के रास्ते नंगे पांव सर में ढोए कुल्हाड़ी-खुरपी
आते मज़दूरों को देखकर
घंटों ! रात की साजिश के बारे में सोचता है।
जूते के लेस और
गले में टाई बांधना सीख लेता है वो नादान भी
जिसकी माँ नहीं होती,
माँ नहीं होती जिसकी वो लड़की भी
झुंझलाकर साड़ी की आंचल एक छोर लटकाए
ससुराल में सलीके से खाना परोसते-परोसते
एक दिन कुशल गृहिणी बन जाती है।
पुराणों में वर्णित हत्याओं की ओर मुड़-मुड़ देखकर
और बेअर्थ ऋचाऍं रटते-रटते
एक बालक पंडिताई पर शक करते हुए,
खुद को कोसकर
इंसानियत की कौम में शामिल हो जाता है।
चींटियों को ऊँचाई से गिरकर
बार-बार चढ़ते, देखते-देखते
रेलवे की तैयारी करते विद्यार्थी को
कभी हार न मानने की सलाह भी मिल ही जाती है
उसी तरह
हाथ थामे किसी की याद में महसूस करते हुए नरमी,
सुनसान सड़कों पर चलते हुए धीरे-धीरे
कोई लड़की प्रेमिका हो जाती है।
इन दिनों
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माॅं के मूक हाथों का स्पर्श
महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए
मुझे ख़ुद को रचने की शक्ति दे रहा है…
दुनिया के सभी धर्मग्रंथो व मज़हबी इल्मों की बदहज़मी से गुज़रकर मैं शुक्रिया अदा करता हूॅं
उन तमाम किताबों का
जिन्होंने तुम्हे खूबसूरत बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई।
जीवन की तिहाई जितनी आयु में जब
दिन भर की उदासी-ओ-बेचैनी के बाद
बिस्तर के हवाले होने से पहले
दवाई के ये दो-ख़ुराक
एक मज़बूर नौजवान द्वारा महाजन से लिए कर्ज़ का, ब्याज सहित वापसी के रईस अंदाज में
खुद को मेरे मुॅंह पर दे मारते हैं
जिन पर किसी मासूम हाथों के स्पर्श का हक था।
दिन, शाम और रात की सीमा को
अपने पैरों तले कुचलकर
गुमटी पर मिलें चार दोस्तों की हँसीं साथ लिए
घर की चौखट पर खड़ा
तुम्हारा नाम बुदबुदाता मैं अतीत में जा रहा हूं–
गालों पर निर्बाध गति से लिया तुम्हारा चुम्बन अब तक जवां है।
हाथों में लहरता लाल झंडा तुम्हे कितना खूबसूरत बनाता रहा है
जो मेरे लिए सबसे बड़ा सुकून था।
आकाश की ओर ऊर्ध्वाधर तनी तुम्हारी मुट्ठी, मुझे हमेशा निडर बनाती रही
और देती रही मेरे ज़िंदा रहने का सबूत भी।
लेकिन
इन दिनों
हृदय को बेचैन करता परत-दर-परत मेरी ओर बढ़ता अंधेरा
भयानक भविष्य का एक विकराल सत्य लगता है।
जिसपर मैं कुछ दिनों की मोहलत पाकर सांसों की ज़मानत पे जैसे-तैसे ज़िंदा हूॅं।
जुल्मतों के इस निर्जन मौसम में ऊबासी के साथ
हर सुबह, रात पर विजय की तरह
अब मैं अपनी मौत का इंतजार कर रहा हूॅं।
जबकि माॅं के मूक हाथों का स्पर्श
एक महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए
मुझे पुकार रहा है…
©
बन्धु पुष्कर
स्नातक एवं परस्नातक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से, पी.एच. डी. हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से जारी है
पता - room- K WING 204, NRS Hostal, North Campus, HCU, HYDERABAD
TELANGANA 500046
Mo.no. 6392302395
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