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बंधु पुष्कर की कविताएं

बंधु पुष्कर की कविताएं , इधर  युवाओं द्वारा रची जा रही कविताओं से थोड़ी भिन्नता लिए हुए सामने आती हैं।ये कविताएँ भिन्न इस अर्थ में हैं कि इनमें बदलते समय के साथ बह जाने की आकुलता नहीं दिखाई देती। उनकी कविताओं में अपने समय को ठहरकर देखने का न केवल संयम है बल्कि इस संयम में भाव और विचार की सम्यक जुगलबंदी भी है। पूरी दुनिया में आज जीवन के जरूरी मूल्यों को पीछे छोड़कर बाज़ारू समय के साथ भागने की एक होड़ सी मची है। ऐसे समय में भी जीवन के परंपरागत मूल्यों की पहचान कराने के साथ साथ बन्धु पुष्कर की कविताएं उन्हें बचाए रखने का आग्रह करती हैं। 'मेरे शहर के लड़के पतंगबाज़ नहीं रहे' जैसी उनकी कविता इन्हीं संदर्भों को स्थापित करती है। प्रेम को नई तरह से देखने का नज़रिया भी एक वैचारिक तरलता के साथ उनकी कविताओं में विद्यमान है।  इन कविताओं में जीवन एवं इतिहास बोध भी दबे पांव आते हैं और एक जीवंत सा संवाद स्थापित करते हैं। बंधु पुष्कर की इन कविताओं को पढ़कर जीवन में बहुत पीछे छूट गयी चीजों की स्मृतियां मन के भीतर चलकर भी आने लगती हैं और एक हलचल सी मचाती हैं। एक कोमल सी वैचारिक तरलता होते हुए भी इन कविताओं में समय और समाज की अव्यवस्था के विरूद्ध एक प्रखर विरोध का स्वर भी सुनाई पड़ता है जो  कविता का एक जरुरी धर्म भी है। यह कहना कि बंधु पुष्कर के भीतर आगत का एक संभावनाशील कवि बैठा है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मन में यह बात हमारे भीतर ध्वनित भी होने लगती है।

तो आईए इस बार बन्धु पुष्कर की कविताओं से आपका परिचय करवाते हैं-


मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे

______________________

बांस-बबूल और बरगद के झुरमुठों से भरे जंगल बीच

कोयल-मैना और गौरैय्यों की आवाज़ को सुरक्षित रखते 

मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे

जीवन की डोर दूसरों के हाथ में दिए

उनके इशारों पर आकाश में उड़ना उन्होंने नहीं सीखा

पेंच लड़ाकर, डोर काट देने का हुनर भी उन्हें कभी नहीं आया

जैसे गले मिल घोंप दिया जाता हो कोई खंजर – चुपके से।


सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर

शीत के प्रभाव को कम करता 

बादलों के खुलने का समय है यह 'मध्य-जनवरी' का,

गुलाबी सर्दी को चीरती हुई रोशनदान से आती पीली धूप का,

यह सरसों के फूलों में सूरज के खिलने का समय है।


ठंडी-ठंडी फर्श पर गुनगुनी धूप पड़ने के बाद –

बिटिया दौड़ती दूर तक नाज़ुक पैरों से।

मां ने बनाया है आज –

तिल-गुड़ का लड्डू,

नए पिसान का चिला और दूध-फरा।

कोठे में बंधी गाय रंभा रही है आज सुबह ही से 

शायद बाहर धूप में आना चाहती हो

शायद! सभी आना चाहते हों ?

इस तरह हमने इस्तकबाल किया है नए साल का


सुना है –

महानगरों में 'पतंगबाजी' की एक प्रतियोगिता होती है?

आकाश में उड़ते हुए छोटे-विमान सरीखे पतंग को कांट देने वाला जीतता इस खेल में ?

मिलते हैं कई पुरस्कार 

आते हैं बड़े-बड़े नेता-अभिनेता उन आयोजनों में

पर उनके कारीगर हैं पूर्णतः महरूम इनसे – अभी तक।


जबकि 

मेरे शहर के घर, जंगलों से बनते हैं 

उन घरों में चूल्हे जंगलों से जलते हैं,

मेरे शहर की बिजली भी जंगलों से आती है,

और मेरे शहर का प्रेम भी जंगलों में लिखा जाता है।

इसके अलावा इन जंगलों के एक अतिरिक्त फाँस का प्रयोग भी चुभता है मुझे

इन पतंगों में त्रिकोण लगी काड़ियां, उन्हीं जंगलों से आती  हैं

जो तुम्हारे लिए है यह एक शौकिया खेल मात्र।


कबूतरों और बगुलों ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए–

शोक माह मनाया है इस वर्ष– पहली बार !


इसके उलट मेरे शहर में एक भी पतंग दिखती नहीं क्यों? अब।

शायद–

कांच से बने मांजों के 'मौत का फंदा' बन जाने का खतरा हो,

पड़ोस का बच्चा मुख्य उंगली गँवा बैठा था पिछली दफ़ा,

मेरे आंगन में हर रोज़ आता कबूतर पंख फड़फड़ाता फॅंसा रहा बिजली के तारों पर 

और चूता रहा उसके चोंच से खून कई दिनों तक

पश्चिम और उत्तर के लोगों ने इसे जाने क्यों मौत का खेल बना दिया

नाज़ुक-सी उँगलियों में जानलेवा तार फंसा दिया

जंगलों के खिलाफ़ घुसपैठ की संस्कृति का असर है ये–

जान जोखिम में डाल पतंग लूटने को खेल बना दिया।


पतंग के आकार में हर शाम यहां बगुलों का एक झुंड

पास के मैदान से टाऽ..टाऽ.. करता हुआ जाता है।

मेरे शहर के लड़कों का खेल कबड्डी है, फुटबॉल है, हॉकी है।

उन्होंने धनुष चलाया, तलवार उठाई, भाला फेंके

पर मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नहीं रहे।


प्रेम में होते हुए

____________

प्रेम करते हुए इंसान को

सब कुछ कह देना चाहिए

सब कुछ लिख देना चाहिए

छोटी-से-छोटी चीज़ भी नहीं चाहिए छोड़नी

रखना चाहिए सबकुछ विस्तार से अपनी स्मृति में।


मसलन –

आज मेरे गमले से गुलाब की एक कली निकल आई है।

या

मेरी बालकनी में सुबह एक कबूतर आया था।

यहाँ तक कि 

मैने आज चाय बनाई।

पता नहीं, इसमें बताने जैसा क्या है

पर, इतनी सामान्य-सी घटना भी वह बता देना चाहता है।


अपनी खुशियों का साहचर्य बना लेना

या

किसी की गहन भावनाओं का साक्षी हो जाना

गेहूँ की बालियों को छूते हुए

सरसों के खेतों के बीच से आते राजकुमार की कल्पना से अधिक रूमानी होता है।


प्रेम करते हुए इंसान 

महाकाव्य रच सकता है,

शिलाओं का सेतु बांध सकता है।

तो

ताजमहल बनाकर कर सकता है उसे दुनिया के हवाले

तो कहीं

पहाड़ का सीना चीरकर उससे निकाल सकता है रास्ता।


मुमकिन है –

प्रेम में इंसान कर्ता होकर नहीं रहता।


प्रेम में होते हुए इंसान को किसी का डर नहीं होता

न तो दीवारों के चुन जाने का,

न ही ताबूत में दफन हो जाने का,

न तो विश्व की महान शक्ति उसका कुछ कर सकती है

और न कोई आपदा उसे निगल ही सकती है।


डर होता है तो बस

साथ पकड़ कर चलने वाले हाथों के छूट जाने का

जिस्म-ओ-जान के अलग होने का।


प्रेम में होते हुए इंसान

इस दुनिया मे रहकर भी

बुन लेता अपने लिए एक अलग दुनिया

हो जाता है सबके अनुकूल

ये सृष्टि लगने लगती है और.. और.. 

सहज! सुन्दर! सत्य!

आसान नहीं है यूँ तुष्ट हो जाना कहीं भी 

अंजुरी भर पानी ही से


किसी कवि ने कहा था –

प्रेम में होते हुए इंसान को सब कुछ कह देना चाहिए।

सब कुछ…

यहाँ तक कि किसी और से प्रेम होने वाली बात भी नहीं चाहिए छुपानी

इससे रिश्ते कमज़ोर नहीं होते

यदि होतें हैं ? तो समझ लीजिए

उसे और मजबूत होने की ज़रूरत है।


निजी अनुभूति 

____________

लोगों में बेहतर होने की बढ़ती ख्वाहिशों के बीच

नहीं चाहता कोई बेहतरी खुद की

अच्छा होना एक सामाजिक दबाव जैसा लगता है

और किसी किस्म के दबाव में नहीं 

पहचाना जाना चाहता खुद का झूठा चरित्र।


कोमल हाथों से तालियाँ पीटते व

मासूम अधरों से मुसलसल जयकारें लगाते 

सड़कों पर भक्तिगीत गाते लोगों को देखकर

उनमें शामिल न होना

ख़ुद के अधर्मी घोषित होने के लिए पर्याप्त है इन दिनों

तिस पर कोई टिप्पणी लिंचिंग के लिए उतनी ही काफ़ी 


देह में उठती जुम्बिश एक छलावा है।

बाहर बिकती जाहिलियत का जवाब -

बस मौन रहकर देता हूँ सभ्य! होने के अभिनय के साथ।

ईमान की कीमत नीलाम होती है बाजार में

जिसे देख, हृदय में पसरे सन्नाटे के सिवा ख़ामोशी के कोई दूसरी ज़बान नहीं सूझती।


दुचित्ते व्यवहार को झेलकर हर वहम-शाम में 

जादुई शब्दजाल द्वारा फँस जाता हूँ – हमेशा।

वैसे वक्त अपने उन तजुर्बों को दोहराया जाना जरूरी हो जाता है जिसने जिंदगी का सलीका सिखाया

जीवन में कुदरती करिश्माओं पर यकीन करने जैसी मिथक को तोड़कर

जब मैंने चुनी थी अपनी निजी अनुभूति।


जीने की खातिर दो वक्त की रोटी या 

हथेली पर दिनभर की रोज़ी रख दी जाने पर 

हुक्मरानों के गुणगान में कसीदे लिखना

बनाता है तुम्हे देश का सच्चा नागरिक और

अपनी निष्ठा किसी मठ पर बनाए रखना घोषित करता हो सच्चा देशभक्त।


मुँह में ज़बान रखते हुए भी शांत रहने का हुनर आ गया है।

समझौतापरस्त दुनिया ने सीखा दी है

आँखों-देखी हाल के बयान खातिर

किसी जासूस भाषा में न कहना 

न ही किसी तकनीकी हाथ से लिखना।


सवाल करने के एवज में अपनी अगली पीढ़ियों के भविष्य का भय 

सालता है अंदर तक।

खूबसूरत शाम की दिलफरेब दास्तान सुनाने नहीं सूझता कोई शब्द ! 


ज़िंदा रहने के बदले में झूठा विनयगान अब मेरे बस में नहीं।


मीन कथा

(हरण की गई एक कमसिन लड़की की कहानी)

______________________________

पुराणों में सुना था –

दुनिया को बचाने 'विष्णु ने मत्स्यावतार लिया’

जिससे राजा का अस्तित्व और प्रजा की लाचारी भी बची रही।

साथ-ही बचा रहा बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खाए जाने का मत्स्य न्याय!

नक्षत्रों की ज्योतिषाई भाषा में "मीन को एक राशि" बताकर मिथक गढ़ा गया

जिसका स्वामी गुरु अर्थात 'ब्रहस्पति' को बताया गया

मानों सोलह साल की एक कन्या ब्याह दी गई हो किसी अधेड़ पुरुष से।


एक कमसिन मीन! के जोबन की मादकता देख राजा उस पर मुग्ध हो गया।

अपनी ओर आती समुद्र की लहरों को वक्र-काटती 

उसकी देह सुंदर आकार में ढल चुकी थी,

उसमे कांति आ चुकी थी।

तब मदहोश राजा ने समुद्र को अपनी जागीर समझ बिछाया जाल।

एक रोज़ उसने समुद्र से पकड़ ले आयी वो खूबसूरत मछली

राजकमल चौधरी के शब्द में "मरी हुई मछली" – ज़िंदा देह में। 


जिसे देखकर एक आशिक मिजाज़ कवि ने कहा –

'आँखों में नमक इस कदर समाया है तुम्हारे

जैसे घुला हो पूरे सागर भर में नीला रंग

मछलियां पीती हैं जिससे साॅंसे

और हर बुलबुले के साथ छोड़ती हैं अपनी जादुई गंध इस असीम आकाश में'।


लोभ और छल का व्यवसाय करती इस दुनिया ने 

खुद ही, दुनिया होने की एकमात्र खूबसूरती को नष्ट कर दिया है–

कि इस परिधि से बाहर निकलना मर जाना है उसके लिए।

अब प्रशंसा और पुरस्कार रूपी चारा लटका है चारों ओर

किसी दशक के महान कवि ने कहा था -

"मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती हैं ... जिनमें वह फॅंसने नहीं आतीं"

ये वाक्य उस रूमानी कवि की 

रम्य कल्पनाओं और आह्लादित क्रीडाओं की ऊब चुकी पंक्ति के सिवा कुछ भी नहीं।


इसी तरह बचपन में एक गीत सुना था–"मछली जल की रानी है"

आज महसूस कर रहा हूं – हर रानी पर केवल राजा का हक होता है।


अब लोग मछलियां नही फांसते केवल भक्षण और व्यापार खातिर

फांसते हैं।

उससे खेलने के लिए भी

जो सबसे खूबसूरत और आकर्षक होती है

मछवार का पहला शिकार भी वही होती है

जैसे 'खूबसूरत होने का श्राप' मिला हो किसी ऋषि द्वारा।


शो-केस नुमा सुंदर काँच के घड़े में जलप्लावन करती वो युवा मछली

पूरब-से-पश्चिम, एक छोर-से-दूसरी छोर जल-क्रीड़ा करती हुई गाती है प्रेम गीत।

नीचे से उठती जो पानी को चीरते हुए अचानक

मानों ब्रह्मांड के उस पार जाना चाहती हो – एक ही छलांग में।

बेबसी ओढ़ सो जाती हर रात,

ख़ामोशी झलकती उसकी आंखो में हमेशा।

थक चुका उसका साहस अब कमज़ोर पड़ने लगा था।

कोने में दुबक सोचने लगती कभी-कभी – 

शीशमहल रूपी इस कफ़स को चूर कर देने की कोई जादुई युक्ति...


राजा लेता हर शाम उसकी ख़बर –

देख-रेख और तीमारदारी को लगी थी कई सेविकाएँ।

वहीं,

राजा का बेटा देखता मछली की हर आहट को बड़ी गौर से, ताकता!

घण्टों बातें करता अनुराग की, खुद के जल्दी युवा होने की, उसे दुल्हन बनाने की

या बन जाने की खुद एक मछली।

दिन-रात, सुबह-ओ-शाम रखता ख्याल

बचाता उसे हर शिकारी नज़र से।

दूर रखता अश्लील ज़हनियत से।

सपने देखता साथ हवाओं में तैरने के, 

उसकी मुक्ति के –


लेकिन सबब ये हुआ 

कि आँखों से क्रंदन गान सुनाती-सुनाती वो युवा मछली

एक दिन मर गई

(या मार दी गई, उसपर राजकुमार का प्रेम बढ़ता देखकर)।

राजमहल में पसरा चारों ओर सन्नाटा

शोक से राजकुमार एकदम बेहाल-व्याकुल-बेचैन

मृष्क्लान देह , हृदय गति अतितेज, तपती-देह 

सूझता न कुछ भी।


एक रोज़ राजा फिर निकला सज-धज कर पूरी सेना के साथ–

अपनी वासना मिटाने।

राजकुमार का मन बहलाने

उसने पहले ही 

कई जगह और, उस जैसा कोई फांसने! 

चारा छोड़ रखा था।


प्रेम का अनुवाद नहीं होता

_____________________

तुम्हारी भाषा में संगीत सुनते 

नहीं पड़ती अब मुझे किसी अनुवाद की जरूरत

भाषाओं का स्पर्श इस कदर शामिल है मुझमें

कि

अगला अंतरा मुझे ला खड़ा कर देता है वहीं

जिसे बुना गया होगा किसी हिज़्र-याद में तिरस्कृत नदी किनारे

लघु उपमनों से बांधकर

जो मेरी आँखों से कभी देखा न गया।


प्रियमईना! प्रेम का अनुवाद नहीं होता

न ही इसके लिए गढ़ी गई कोई परिभाषा

भावनाओं का विनिमय ही पर्याप्त सुकून दे जाता है

'पंडुगू' की एक शाम 'संध्या गीत' के दौरान जुड़ों में बंधे हरसिंगार के फूलों के साथ जब देखा था तुम्हारी पहली प्रस्तुति

सुना था पहली बार मधुर संगीत किसी अनजान आवाज़ में

तभी से उन शब्दों का प्रयोजन हृदय में उतरता चला गया।


'बथुकम्मा' पर तालियाँ बजाते चारों ओर वृत्ताकार पथ पर घूमना

मानों पृथ्वी को चारों ओर से बांध रही हो, किसी आपदा या महामारी से बचाने।

उसी वक्त जाना –

तुम्हारा होना एक सफाकत का होना है

जिसमें शिरकत के लिए नहीं चाहिए कोई तहज़ीब, कोई अदब 

एकमात्र शर्त है बस इंसान होना ।


'बोन्नालु' पर्व में परंपराओं से पटे अनुष्ठान व आयोजन की 

भौगोलिक सीमाऍं भी न रोक सकी

हमारा सहज मिलन

निर्दोष आँखों में सपने लिए मैं दौड़ता चला आया तुम्हारी मंजिल 

परंतु जाति के इस मनुवादी श्राप ने ला खड़ा कर दिया हमें

नदी के दोनों छोरों पर


बचपन में अपने एक टीचर से सुना था कि

'स्नेह बड़ों से मिलता है और समानधर्मा से प्यार’

तोड़ते हुए इस नियम को तुम गढ़ती रही एक नई परिभाषा।

सुई से टाककर तुमने मेरी शर्ट पर बनाया था एक “दीया” और “गुलाब”

जिस पर खीजते हुए नाराज़ होकर तुमने, 

मुझपर मज़ाक बनाने का लगाया था आरोप।


प्रियमईना!

प्रेम में शब्द और प्रतीक नहीं रखते अपने अस्तित्व का संकुचित अर्थ

गवाही देते हैं –

मौसमों का, हाथों के कारीगरी का, आँखों से बहती ऊष्मा का

जिन्हें पहचानना मेरे लिए आसान न था।


तुम्हारे मुख से निकले एक-एक शब्द का मैंने वही अर्थ ग्रहण किया 

जो ऋषि पावुलुरी मल्लानक ने रचा था।

मैंने तुम्हारे शब्द नही, 

उनका भाव जाना।

सच!

मैंने तुम्हारी कविता नहीं,

कविता का कारण पहचाना।


प्रियमईना! याद रखना 

तुम्हारे चले जाने पर तुम्हारे गाये गीत और ध्वनि

मैं अपनी बंद पेटी से निकालकर

लिखूँगा एक किताब जिसके मुख्य पृष्ठ पर होगा

तुम्हारा बनाया वही दीया और गुलाब

(सदैव रौशन होते रहने और हमेशा फूल की तरह खिलते रहने)


तुम्हारी भाषा में रचे एक-एक उपमान

मैंने उसी तरह महसूस किया जैसे तुमने कहा–

भरोसा रखना रसम में भीगी हुई मेरी उंगलियां 

हू-ब-हू अपने गुजरे समय का बखान लिख देगी। 

कह देगी वो कथा जो एक सांस में पूरी गायी जा सके।

वो स्मृति जिससे एक सुंदर तस्वीर उकेरी जा सके।


प्रियमईना! 

प्रेम का अनुवाद नहीं होता।


हो जाता है

_____________

कम किताबें पढ़कर भी

सोचते-सोचते चिन्तक होने लगता है इंसान

जो दूर खड़ंजे के रास्ते नंगे पांव सर में ढोए कुल्हाड़ी-खुरपी

आते मज़दूरों को देखकर 

घंटों ! रात की साजिश के बारे में सोचता है।


जूते के लेस और 

गले में टाई बांधना सीख लेता है वो नादान भी

जिसकी माँ नहीं होती,

माँ नहीं होती जिसकी वो लड़की भी

झुंझलाकर साड़ी की आंचल एक छोर लटकाए 

ससुराल में सलीके से खाना परोसते-परोसते

एक दिन कुशल गृहिणी बन जाती है।


पुराणों में वर्णित हत्याओं की ओर मुड़-मुड़ देखकर

और बेअर्थ ऋचाऍं रटते-रटते 

एक बालक पंडिताई पर शक करते हुए,

खुद को कोसकर 

इंसानियत की कौम में शामिल हो जाता है।


चींटियों को ऊँचाई से गिरकर

बार-बार चढ़ते, देखते-देखते

रेलवे की तैयारी करते विद्यार्थी को 

कभी हार न मानने की सलाह भी मिल ही जाती है


उसी तरह

हाथ थामे किसी की याद में महसूस करते हुए नरमी,

सुनसान सड़कों पर चलते हुए धीरे-धीरे 

कोई लड़की प्रेमिका हो जाती है।


इन दिनों

_________

माॅं के मूक हाथों का स्पर्श 

महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए

मुझे ख़ुद को रचने की शक्ति दे रहा है…


दुनिया के सभी धर्मग्रंथो व मज़हबी इल्मों की बदहज़मी से गुज़रकर मैं शुक्रिया अदा करता हूॅं

उन तमाम किताबों का 

जिन्होंने तुम्हे खूबसूरत बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई।


जीवन की तिहाई जितनी आयु में जब

दिन भर की उदासी-ओ-बेचैनी के बाद

बिस्तर के हवाले होने से पहले

दवाई के ये दो-ख़ुराक  

एक मज़बूर नौजवान द्वारा महाजन से लिए कर्ज़ का, ब्याज सहित वापसी के रईस अंदाज में 

खुद को मेरे मुॅंह पर दे मारते हैं 

जिन पर किसी मासूम हाथों के स्पर्श का हक था।


दिन, शाम और रात की सीमा को

अपने पैरों तले कुचलकर

गुमटी पर मिलें चार दोस्तों की हँसीं साथ लिए 

घर की चौखट पर खड़ा 

तुम्हारा नाम बुदबुदाता मैं अतीत में जा रहा हूं–

गालों पर निर्बाध गति से लिया तुम्हारा चुम्बन अब तक जवां है।

हाथों में लहरता लाल झंडा तुम्हे कितना खूबसूरत बनाता रहा है

जो मेरे लिए सबसे बड़ा सुकून था।

आकाश की ओर ऊर्ध्वाधर तनी तुम्हारी मुट्ठी, मुझे हमेशा निडर बनाती रही

और देती रही मेरे ज़िंदा रहने का सबूत भी। 


लेकिन

इन दिनों 

हृदय को बेचैन करता परत-दर-परत मेरी ओर बढ़ता अंधेरा

भयानक भविष्य का एक विकराल सत्य लगता है।

जिसपर मैं कुछ दिनों की मोहलत पाकर सांसों की ज़मानत पे जैसे-तैसे ज़िंदा हूॅं। 

जुल्मतों के इस निर्जन मौसम में ऊबासी के साथ

हर सुबह, रात पर विजय की तरह

अब मैं अपनी मौत का इंतजार कर रहा हूॅं।


जबकि माॅं के मूक हाथों का स्पर्श

एक महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए

मुझे पुकार रहा है…

©

बन्धु पुष्कर 

स्नातक एवं परस्नातक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से, पी.एच. डी.  हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से जारी है 

पता - room- K WING 204, NRS Hostal, North Campus, HCU, HYDERABAD

TELANGANA 500046

Mo.no. 6392302395


 

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गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

प्रीति प्रकाश की कहानी : राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए

प्रीति प्रकाश की कहानी 'राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए' को वर्ष 2019-20 का राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है, इसलिए जाहिर सी बात है कि इस कहानी को पाठक पढ़ना भी चाहते हैं | हमने उनकी लिखित अनुमति से इस कहानी को यहाँ रखा है | कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि यह कहानी एक संवेदन हीन होते समाज के चरित्र के दोहरेपन, ढोंग और उसके एकतरफा नजरिये को  किस तरह परत दर परत उघाड़ती चली जाती है | समाज की आस्था वायवीय है, वह सच के राम जिसके दर्शन किसी भी बच्चे में हो सकते हैं  , जो साक्षात उनकी आँखों के सामने  दीन हीन अवस्था में पल रहा होता है , उसके प्रति समाज की न कोई आस्था है न कोई जिम्मेदारी है | "समाज की आस्था एकतरफा है और निरा वायवीय भी " यह कहानी इस तथ्य को जबरदस्त तरीके से सामने रखती है | आस्था में एक समग्रता होनी चाहिए कि हम सच के मूर्त राम जो हर बच्चे में मौजूद हैं , और अमूर्त राम जो हमारे ह्रदय में हैं , दोनों के प्रति एक ही नजरिया रखें  | दोनों ही राम को इस धरती पर उनकी जन्म भूमि  मिलनी चाहिए, पर समाज वायवीयता के पीछे जिस तरह भाग रहा है, उस भागम भाग से उपजी संवेदनहीनता को

कोइलिघुगर वॉटरफॉल तक की यात्रा रायगढ़ से

    अपने दूर पास की भौगौलिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानने समझने के लिए पर्यटन एक आसान रास्ता है । पर्यटन से दैनिक जीवन की एकरसता से जन्मी ऊब भी कुछ समय के लिए मिटने लगती है और हम कुछ हद तक तरोताजा भी महसूस करते हैं । यह ताजगी हमें भीतर से स्वस्थ भी करती है और हम तनाव से दूर होते हैं । रायगढ़ वासियों को पर्यटन करना हो वह भी रायगढ़ के आसपास तो झट से एक नाम याद आता है कोयलीघोघर! कोयलीघोघर ओड़िसा के झारसुगड़ा जिले का एक प्रसिद्द पिकनिक स्पॉट है जहां रायगढ़ से एक घंटे में सड़क मार्ग की यात्रा कर बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है । शोर्ट कट रास्ता अपनाते हुए रायगढ़ से लोइंग, बनोरा, बेलेरिया होते ओड़िसा के बासनपाली गाँव में आप प्रवेश करते हैं फिर वहां से निकल कर भीखमपाली के पूर्व पड़ने वाले एक चौक पर जाकर रायगढ़ झारसुगड़ा मुख्य सड़क को पकड लेते हैं। इस मुख्य सड़क पर चलते हुए भीखम पाली के बाद पचगांव नामक जगह आती है जहाँ खाने पीने की चीजें मिल जाती हैं।  यहाँ के लोकल बने पेड़े बहुत प्रसिद्द हैं जिसका स्वाद कुछ देर रूककर लिया जा सकता है । पचगांव से चलकर आधे घंटे बाद कुरेमाल का ढाबा पड़ता है , वहां र

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज  ■रमेश शर्मा ------------------------------------------------------------- इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का

परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है। उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में