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बंधु पुष्कर की कविताएं

बंधु पुष्कर की कविताएं , इधर  युवाओं द्वारा रची जा रही कविताओं से थोड़ी भिन्नता लिए हुए सामने आती हैं।ये कविताएँ भिन्न इस अर्थ में हैं कि इनमें बदलते समय के साथ बह जाने की आकुलता नहीं दिखाई देती। उनकी कविताओं में अपने समय को ठहरकर देखने का न केवल संयम है बल्कि इस संयम में भाव और विचार की सम्यक जुगलबंदी भी है। पूरी दुनिया में आज जीवन के जरूरी मूल्यों को पीछे छोड़कर बाज़ारू समय के साथ भागने की एक होड़ सी मची है। ऐसे समय में भी जीवन के परंपरागत मूल्यों की पहचान कराने के साथ साथ बन्धु पुष्कर की कविताएं उन्हें बचाए रखने का आग्रह करती हैं। 'मेरे शहर के लड़के पतंगबाज़ नहीं रहे' जैसी उनकी कविता इन्हीं संदर्भों को स्थापित करती है। प्रेम को नई तरह से देखने का नज़रिया भी एक वैचारिक तरलता के साथ उनकी कविताओं में विद्यमान है।  इन कविताओं में जीवन एवं इतिहास बोध भी दबे पांव आते हैं और एक जीवंत सा संवाद स्थापित करते हैं। बंधु पुष्कर की इन कविताओं को पढ़कर जीवन में बहुत पीछे छूट गयी चीजों की स्मृतियां मन के भीतर चलकर भी आने लगती हैं और एक हलचल सी मचाती हैं। एक कोमल सी वैचारिक तरलता होते हुए भी इन कविताओं में समय और समाज की अव्यवस्था के विरूद्ध एक प्रखर विरोध का स्वर भी सुनाई पड़ता है जो  कविता का एक जरुरी धर्म भी है। यह कहना कि बंधु पुष्कर के भीतर आगत का एक संभावनाशील कवि बैठा है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए मन में यह बात हमारे भीतर ध्वनित भी होने लगती है।

तो आईए इस बार बन्धु पुष्कर की कविताओं से आपका परिचय करवाते हैं-


मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे

______________________

बांस-बबूल और बरगद के झुरमुठों से भरे जंगल बीच

कोयल-मैना और गौरैय्यों की आवाज़ को सुरक्षित रखते 

मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नही रहे

जीवन की डोर दूसरों के हाथ में दिए

उनके इशारों पर आकाश में उड़ना उन्होंने नहीं सीखा

पेंच लड़ाकर, डोर काट देने का हुनर भी उन्हें कभी नहीं आया

जैसे गले मिल घोंप दिया जाता हो कोई खंजर – चुपके से।


सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर

शीत के प्रभाव को कम करता 

बादलों के खुलने का समय है यह 'मध्य-जनवरी' का,

गुलाबी सर्दी को चीरती हुई रोशनदान से आती पीली धूप का,

यह सरसों के फूलों में सूरज के खिलने का समय है।


ठंडी-ठंडी फर्श पर गुनगुनी धूप पड़ने के बाद –

बिटिया दौड़ती दूर तक नाज़ुक पैरों से।

मां ने बनाया है आज –

तिल-गुड़ का लड्डू,

नए पिसान का चिला और दूध-फरा।

कोठे में बंधी गाय रंभा रही है आज सुबह ही से 

शायद बाहर धूप में आना चाहती हो

शायद! सभी आना चाहते हों ?

इस तरह हमने इस्तकबाल किया है नए साल का


सुना है –

महानगरों में 'पतंगबाजी' की एक प्रतियोगिता होती है?

आकाश में उड़ते हुए छोटे-विमान सरीखे पतंग को कांट देने वाला जीतता इस खेल में ?

मिलते हैं कई पुरस्कार 

आते हैं बड़े-बड़े नेता-अभिनेता उन आयोजनों में

पर उनके कारीगर हैं पूर्णतः महरूम इनसे – अभी तक।


जबकि 

मेरे शहर के घर, जंगलों से बनते हैं 

उन घरों में चूल्हे जंगलों से जलते हैं,

मेरे शहर की बिजली भी जंगलों से आती है,

और मेरे शहर का प्रेम भी जंगलों में लिखा जाता है।

इसके अलावा इन जंगलों के एक अतिरिक्त फाँस का प्रयोग भी चुभता है मुझे

इन पतंगों में त्रिकोण लगी काड़ियां, उन्हीं जंगलों से आती  हैं

जो तुम्हारे लिए है यह एक शौकिया खेल मात्र।


कबूतरों और बगुलों ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए–

शोक माह मनाया है इस वर्ष– पहली बार !


इसके उलट मेरे शहर में एक भी पतंग दिखती नहीं क्यों? अब।

शायद–

कांच से बने मांजों के 'मौत का फंदा' बन जाने का खतरा हो,

पड़ोस का बच्चा मुख्य उंगली गँवा बैठा था पिछली दफ़ा,

मेरे आंगन में हर रोज़ आता कबूतर पंख फड़फड़ाता फॅंसा रहा बिजली के तारों पर 

और चूता रहा उसके चोंच से खून कई दिनों तक

पश्चिम और उत्तर के लोगों ने इसे जाने क्यों मौत का खेल बना दिया

नाज़ुक-सी उँगलियों में जानलेवा तार फंसा दिया

जंगलों के खिलाफ़ घुसपैठ की संस्कृति का असर है ये–

जान जोखिम में डाल पतंग लूटने को खेल बना दिया।


पतंग के आकार में हर शाम यहां बगुलों का एक झुंड

पास के मैदान से टाऽ..टाऽ.. करता हुआ जाता है।

मेरे शहर के लड़कों का खेल कबड्डी है, फुटबॉल है, हॉकी है।

उन्होंने धनुष चलाया, तलवार उठाई, भाला फेंके

पर मेरे शहर के लड़के कभी पतंगबाज नहीं रहे।


प्रेम में होते हुए

____________

प्रेम करते हुए इंसान को

सब कुछ कह देना चाहिए

सब कुछ लिख देना चाहिए

छोटी-से-छोटी चीज़ भी नहीं चाहिए छोड़नी

रखना चाहिए सबकुछ विस्तार से अपनी स्मृति में।


मसलन –

आज मेरे गमले से गुलाब की एक कली निकल आई है।

या

मेरी बालकनी में सुबह एक कबूतर आया था।

यहाँ तक कि 

मैने आज चाय बनाई।

पता नहीं, इसमें बताने जैसा क्या है

पर, इतनी सामान्य-सी घटना भी वह बता देना चाहता है।


अपनी खुशियों का साहचर्य बना लेना

या

किसी की गहन भावनाओं का साक्षी हो जाना

गेहूँ की बालियों को छूते हुए

सरसों के खेतों के बीच से आते राजकुमार की कल्पना से अधिक रूमानी होता है।


प्रेम करते हुए इंसान 

महाकाव्य रच सकता है,

शिलाओं का सेतु बांध सकता है।

तो

ताजमहल बनाकर कर सकता है उसे दुनिया के हवाले

तो कहीं

पहाड़ का सीना चीरकर उससे निकाल सकता है रास्ता।


मुमकिन है –

प्रेम में इंसान कर्ता होकर नहीं रहता।


प्रेम में होते हुए इंसान को किसी का डर नहीं होता

न तो दीवारों के चुन जाने का,

न ही ताबूत में दफन हो जाने का,

न तो विश्व की महान शक्ति उसका कुछ कर सकती है

और न कोई आपदा उसे निगल ही सकती है।


डर होता है तो बस

साथ पकड़ कर चलने वाले हाथों के छूट जाने का

जिस्म-ओ-जान के अलग होने का।


प्रेम में होते हुए इंसान

इस दुनिया मे रहकर भी

बुन लेता अपने लिए एक अलग दुनिया

हो जाता है सबके अनुकूल

ये सृष्टि लगने लगती है और.. और.. 

सहज! सुन्दर! सत्य!

आसान नहीं है यूँ तुष्ट हो जाना कहीं भी 

अंजुरी भर पानी ही से


किसी कवि ने कहा था –

प्रेम में होते हुए इंसान को सब कुछ कह देना चाहिए।

सब कुछ…

यहाँ तक कि किसी और से प्रेम होने वाली बात भी नहीं चाहिए छुपानी

इससे रिश्ते कमज़ोर नहीं होते

यदि होतें हैं ? तो समझ लीजिए

उसे और मजबूत होने की ज़रूरत है।


निजी अनुभूति 

____________

लोगों में बेहतर होने की बढ़ती ख्वाहिशों के बीच

नहीं चाहता कोई बेहतरी खुद की

अच्छा होना एक सामाजिक दबाव जैसा लगता है

और किसी किस्म के दबाव में नहीं 

पहचाना जाना चाहता खुद का झूठा चरित्र।


कोमल हाथों से तालियाँ पीटते व

मासूम अधरों से मुसलसल जयकारें लगाते 

सड़कों पर भक्तिगीत गाते लोगों को देखकर

उनमें शामिल न होना

ख़ुद के अधर्मी घोषित होने के लिए पर्याप्त है इन दिनों

तिस पर कोई टिप्पणी लिंचिंग के लिए उतनी ही काफ़ी 


देह में उठती जुम्बिश एक छलावा है।

बाहर बिकती जाहिलियत का जवाब -

बस मौन रहकर देता हूँ सभ्य! होने के अभिनय के साथ।

ईमान की कीमत नीलाम होती है बाजार में

जिसे देख, हृदय में पसरे सन्नाटे के सिवा ख़ामोशी के कोई दूसरी ज़बान नहीं सूझती।


दुचित्ते व्यवहार को झेलकर हर वहम-शाम में 

जादुई शब्दजाल द्वारा फँस जाता हूँ – हमेशा।

वैसे वक्त अपने उन तजुर्बों को दोहराया जाना जरूरी हो जाता है जिसने जिंदगी का सलीका सिखाया

जीवन में कुदरती करिश्माओं पर यकीन करने जैसी मिथक को तोड़कर

जब मैंने चुनी थी अपनी निजी अनुभूति।


जीने की खातिर दो वक्त की रोटी या 

हथेली पर दिनभर की रोज़ी रख दी जाने पर 

हुक्मरानों के गुणगान में कसीदे लिखना

बनाता है तुम्हे देश का सच्चा नागरिक और

अपनी निष्ठा किसी मठ पर बनाए रखना घोषित करता हो सच्चा देशभक्त।


मुँह में ज़बान रखते हुए भी शांत रहने का हुनर आ गया है।

समझौतापरस्त दुनिया ने सीखा दी है

आँखों-देखी हाल के बयान खातिर

किसी जासूस भाषा में न कहना 

न ही किसी तकनीकी हाथ से लिखना।


सवाल करने के एवज में अपनी अगली पीढ़ियों के भविष्य का भय 

सालता है अंदर तक।

खूबसूरत शाम की दिलफरेब दास्तान सुनाने नहीं सूझता कोई शब्द ! 


ज़िंदा रहने के बदले में झूठा विनयगान अब मेरे बस में नहीं।


मीन कथा

(हरण की गई एक कमसिन लड़की की कहानी)

______________________________

पुराणों में सुना था –

दुनिया को बचाने 'विष्णु ने मत्स्यावतार लिया’

जिससे राजा का अस्तित्व और प्रजा की लाचारी भी बची रही।

साथ-ही बचा रहा बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खाए जाने का मत्स्य न्याय!

नक्षत्रों की ज्योतिषाई भाषा में "मीन को एक राशि" बताकर मिथक गढ़ा गया

जिसका स्वामी गुरु अर्थात 'ब्रहस्पति' को बताया गया

मानों सोलह साल की एक कन्या ब्याह दी गई हो किसी अधेड़ पुरुष से।


एक कमसिन मीन! के जोबन की मादकता देख राजा उस पर मुग्ध हो गया।

अपनी ओर आती समुद्र की लहरों को वक्र-काटती 

उसकी देह सुंदर आकार में ढल चुकी थी,

उसमे कांति आ चुकी थी।

तब मदहोश राजा ने समुद्र को अपनी जागीर समझ बिछाया जाल।

एक रोज़ उसने समुद्र से पकड़ ले आयी वो खूबसूरत मछली

राजकमल चौधरी के शब्द में "मरी हुई मछली" – ज़िंदा देह में। 


जिसे देखकर एक आशिक मिजाज़ कवि ने कहा –

'आँखों में नमक इस कदर समाया है तुम्हारे

जैसे घुला हो पूरे सागर भर में नीला रंग

मछलियां पीती हैं जिससे साॅंसे

और हर बुलबुले के साथ छोड़ती हैं अपनी जादुई गंध इस असीम आकाश में'।


लोभ और छल का व्यवसाय करती इस दुनिया ने 

खुद ही, दुनिया होने की एकमात्र खूबसूरती को नष्ट कर दिया है–

कि इस परिधि से बाहर निकलना मर जाना है उसके लिए।

अब प्रशंसा और पुरस्कार रूपी चारा लटका है चारों ओर

किसी दशक के महान कवि ने कहा था -

"मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती हैं ... जिनमें वह फॅंसने नहीं आतीं"

ये वाक्य उस रूमानी कवि की 

रम्य कल्पनाओं और आह्लादित क्रीडाओं की ऊब चुकी पंक्ति के सिवा कुछ भी नहीं।


इसी तरह बचपन में एक गीत सुना था–"मछली जल की रानी है"

आज महसूस कर रहा हूं – हर रानी पर केवल राजा का हक होता है।


अब लोग मछलियां नही फांसते केवल भक्षण और व्यापार खातिर

फांसते हैं।

उससे खेलने के लिए भी

जो सबसे खूबसूरत और आकर्षक होती है

मछवार का पहला शिकार भी वही होती है

जैसे 'खूबसूरत होने का श्राप' मिला हो किसी ऋषि द्वारा।


शो-केस नुमा सुंदर काँच के घड़े में जलप्लावन करती वो युवा मछली

पूरब-से-पश्चिम, एक छोर-से-दूसरी छोर जल-क्रीड़ा करती हुई गाती है प्रेम गीत।

नीचे से उठती जो पानी को चीरते हुए अचानक

मानों ब्रह्मांड के उस पार जाना चाहती हो – एक ही छलांग में।

बेबसी ओढ़ सो जाती हर रात,

ख़ामोशी झलकती उसकी आंखो में हमेशा।

थक चुका उसका साहस अब कमज़ोर पड़ने लगा था।

कोने में दुबक सोचने लगती कभी-कभी – 

शीशमहल रूपी इस कफ़स को चूर कर देने की कोई जादुई युक्ति...


राजा लेता हर शाम उसकी ख़बर –

देख-रेख और तीमारदारी को लगी थी कई सेविकाएँ।

वहीं,

राजा का बेटा देखता मछली की हर आहट को बड़ी गौर से, ताकता!

घण्टों बातें करता अनुराग की, खुद के जल्दी युवा होने की, उसे दुल्हन बनाने की

या बन जाने की खुद एक मछली।

दिन-रात, सुबह-ओ-शाम रखता ख्याल

बचाता उसे हर शिकारी नज़र से।

दूर रखता अश्लील ज़हनियत से।

सपने देखता साथ हवाओं में तैरने के, 

उसकी मुक्ति के –


लेकिन सबब ये हुआ 

कि आँखों से क्रंदन गान सुनाती-सुनाती वो युवा मछली

एक दिन मर गई

(या मार दी गई, उसपर राजकुमार का प्रेम बढ़ता देखकर)।

राजमहल में पसरा चारों ओर सन्नाटा

शोक से राजकुमार एकदम बेहाल-व्याकुल-बेचैन

मृष्क्लान देह , हृदय गति अतितेज, तपती-देह 

सूझता न कुछ भी।


एक रोज़ राजा फिर निकला सज-धज कर पूरी सेना के साथ–

अपनी वासना मिटाने।

राजकुमार का मन बहलाने

उसने पहले ही 

कई जगह और, उस जैसा कोई फांसने! 

चारा छोड़ रखा था।


प्रेम का अनुवाद नहीं होता

_____________________

तुम्हारी भाषा में संगीत सुनते 

नहीं पड़ती अब मुझे किसी अनुवाद की जरूरत

भाषाओं का स्पर्श इस कदर शामिल है मुझमें

कि

अगला अंतरा मुझे ला खड़ा कर देता है वहीं

जिसे बुना गया होगा किसी हिज़्र-याद में तिरस्कृत नदी किनारे

लघु उपमनों से बांधकर

जो मेरी आँखों से कभी देखा न गया।


प्रियमईना! प्रेम का अनुवाद नहीं होता

न ही इसके लिए गढ़ी गई कोई परिभाषा

भावनाओं का विनिमय ही पर्याप्त सुकून दे जाता है

'पंडुगू' की एक शाम 'संध्या गीत' के दौरान जुड़ों में बंधे हरसिंगार के फूलों के साथ जब देखा था तुम्हारी पहली प्रस्तुति

सुना था पहली बार मधुर संगीत किसी अनजान आवाज़ में

तभी से उन शब्दों का प्रयोजन हृदय में उतरता चला गया।


'बथुकम्मा' पर तालियाँ बजाते चारों ओर वृत्ताकार पथ पर घूमना

मानों पृथ्वी को चारों ओर से बांध रही हो, किसी आपदा या महामारी से बचाने।

उसी वक्त जाना –

तुम्हारा होना एक सफाकत का होना है

जिसमें शिरकत के लिए नहीं चाहिए कोई तहज़ीब, कोई अदब 

एकमात्र शर्त है बस इंसान होना ।


'बोन्नालु' पर्व में परंपराओं से पटे अनुष्ठान व आयोजन की 

भौगोलिक सीमाऍं भी न रोक सकी

हमारा सहज मिलन

निर्दोष आँखों में सपने लिए मैं दौड़ता चला आया तुम्हारी मंजिल 

परंतु जाति के इस मनुवादी श्राप ने ला खड़ा कर दिया हमें

नदी के दोनों छोरों पर


बचपन में अपने एक टीचर से सुना था कि

'स्नेह बड़ों से मिलता है और समानधर्मा से प्यार’

तोड़ते हुए इस नियम को तुम गढ़ती रही एक नई परिभाषा।

सुई से टाककर तुमने मेरी शर्ट पर बनाया था एक “दीया” और “गुलाब”

जिस पर खीजते हुए नाराज़ होकर तुमने, 

मुझपर मज़ाक बनाने का लगाया था आरोप।


प्रियमईना!

प्रेम में शब्द और प्रतीक नहीं रखते अपने अस्तित्व का संकुचित अर्थ

गवाही देते हैं –

मौसमों का, हाथों के कारीगरी का, आँखों से बहती ऊष्मा का

जिन्हें पहचानना मेरे लिए आसान न था।


तुम्हारे मुख से निकले एक-एक शब्द का मैंने वही अर्थ ग्रहण किया 

जो ऋषि पावुलुरी मल्लानक ने रचा था।

मैंने तुम्हारे शब्द नही, 

उनका भाव जाना।

सच!

मैंने तुम्हारी कविता नहीं,

कविता का कारण पहचाना।


प्रियमईना! याद रखना 

तुम्हारे चले जाने पर तुम्हारे गाये गीत और ध्वनि

मैं अपनी बंद पेटी से निकालकर

लिखूँगा एक किताब जिसके मुख्य पृष्ठ पर होगा

तुम्हारा बनाया वही दीया और गुलाब

(सदैव रौशन होते रहने और हमेशा फूल की तरह खिलते रहने)


तुम्हारी भाषा में रचे एक-एक उपमान

मैंने उसी तरह महसूस किया जैसे तुमने कहा–

भरोसा रखना रसम में भीगी हुई मेरी उंगलियां 

हू-ब-हू अपने गुजरे समय का बखान लिख देगी। 

कह देगी वो कथा जो एक सांस में पूरी गायी जा सके।

वो स्मृति जिससे एक सुंदर तस्वीर उकेरी जा सके।


प्रियमईना! 

प्रेम का अनुवाद नहीं होता।


हो जाता है

_____________

कम किताबें पढ़कर भी

सोचते-सोचते चिन्तक होने लगता है इंसान

जो दूर खड़ंजे के रास्ते नंगे पांव सर में ढोए कुल्हाड़ी-खुरपी

आते मज़दूरों को देखकर 

घंटों ! रात की साजिश के बारे में सोचता है।


जूते के लेस और 

गले में टाई बांधना सीख लेता है वो नादान भी

जिसकी माँ नहीं होती,

माँ नहीं होती जिसकी वो लड़की भी

झुंझलाकर साड़ी की आंचल एक छोर लटकाए 

ससुराल में सलीके से खाना परोसते-परोसते

एक दिन कुशल गृहिणी बन जाती है।


पुराणों में वर्णित हत्याओं की ओर मुड़-मुड़ देखकर

और बेअर्थ ऋचाऍं रटते-रटते 

एक बालक पंडिताई पर शक करते हुए,

खुद को कोसकर 

इंसानियत की कौम में शामिल हो जाता है।


चींटियों को ऊँचाई से गिरकर

बार-बार चढ़ते, देखते-देखते

रेलवे की तैयारी करते विद्यार्थी को 

कभी हार न मानने की सलाह भी मिल ही जाती है


उसी तरह

हाथ थामे किसी की याद में महसूस करते हुए नरमी,

सुनसान सड़कों पर चलते हुए धीरे-धीरे 

कोई लड़की प्रेमिका हो जाती है।


इन दिनों

_________

माॅं के मूक हाथों का स्पर्श 

महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए

मुझे ख़ुद को रचने की शक्ति दे रहा है…


दुनिया के सभी धर्मग्रंथो व मज़हबी इल्मों की बदहज़मी से गुज़रकर मैं शुक्रिया अदा करता हूॅं

उन तमाम किताबों का 

जिन्होंने तुम्हे खूबसूरत बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई।


जीवन की तिहाई जितनी आयु में जब

दिन भर की उदासी-ओ-बेचैनी के बाद

बिस्तर के हवाले होने से पहले

दवाई के ये दो-ख़ुराक  

एक मज़बूर नौजवान द्वारा महाजन से लिए कर्ज़ का, ब्याज सहित वापसी के रईस अंदाज में 

खुद को मेरे मुॅंह पर दे मारते हैं 

जिन पर किसी मासूम हाथों के स्पर्श का हक था।


दिन, शाम और रात की सीमा को

अपने पैरों तले कुचलकर

गुमटी पर मिलें चार दोस्तों की हँसीं साथ लिए 

घर की चौखट पर खड़ा 

तुम्हारा नाम बुदबुदाता मैं अतीत में जा रहा हूं–

गालों पर निर्बाध गति से लिया तुम्हारा चुम्बन अब तक जवां है।

हाथों में लहरता लाल झंडा तुम्हे कितना खूबसूरत बनाता रहा है

जो मेरे लिए सबसे बड़ा सुकून था।

आकाश की ओर ऊर्ध्वाधर तनी तुम्हारी मुट्ठी, मुझे हमेशा निडर बनाती रही

और देती रही मेरे ज़िंदा रहने का सबूत भी। 


लेकिन

इन दिनों 

हृदय को बेचैन करता परत-दर-परत मेरी ओर बढ़ता अंधेरा

भयानक भविष्य का एक विकराल सत्य लगता है।

जिसपर मैं कुछ दिनों की मोहलत पाकर सांसों की ज़मानत पे जैसे-तैसे ज़िंदा हूॅं। 

जुल्मतों के इस निर्जन मौसम में ऊबासी के साथ

हर सुबह, रात पर विजय की तरह

अब मैं अपनी मौत का इंतजार कर रहा हूॅं।


जबकि माॅं के मूक हाथों का स्पर्श

एक महाकाव्य-सा वृहद प्यार लिए

मुझे पुकार रहा है…

©

बन्धु पुष्कर 

स्नातक एवं परस्नातक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से, पी.एच. डी.  हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से जारी है 

पता - room- K WING 204, NRS Hostal, North Campus, HCU, HYDERABAD

TELANGANA 500046

Mo.no. 6392302395


 

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परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

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परिधि को रज़ा फाउंडेशन ने श्रीकांत वर्मा पर एकाग्र सत्र में बोलने हेतु आमंत्रित किया "युवा 2024" के तहत इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली में आज है उनका वक्तब्य रज़ा फाउंडेशन समय समय पर साहित्य एवं कला पर बड़े आयोजन सम्पन्न करता आया है। 27 एवं 28 मार्च को पुरानी पीढ़ी के चुने हुए 9 कवियों धर्मवीर भारती,अजितकुमार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,विजयदेवनारायण शाही,श्रीकांत वर्मा,कमलेश,रघुवीर सहाय,धूमिल एवं राजकमल चौधरी पर एकाग्र आयोजन रखा गया है।दो दिनों तक चलने वाले 9 सत्रों के इस आयोजन में पांचवा सत्र श्रीकांत वर्मा  पर एकाग्र है जिसमें परिधि शर्मा को बोलने हेतु युवा 2024 के तहत आमंत्रित किया गया है जिसमें वे आज शाम अपना वक्तव्य देंगी। इस आयोजन के सूत्रधार मशहूर कवि आलोचक अशोक वाजपेयी जी हैं जिन्होंने आयोजन के शुरुआत में युवाओं को संबोधित किया।  युवाओं को संबोधित करते हुए अशोक वाजपेयी  कौन हैं सैयद हैदर रज़ा सैयद हैदर रज़ा का जन्म 22 फ़रवरी 1922 को  मध्य प्रदेश के मंडला में हुआ था और उनकी मृत्यु 23 जुलाई 2016 को हुई थी। वे एक प्रतिष्ठित चित्रकार थे। उनके प्रमुख चित्र अधिकतर तेल या एक्रेलि

अख़्तर आज़ाद की कहानी लकड़बग्घा और तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन पर टिप्पणियाँ

जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आती होंगी कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। (हंस जुलाई 2023 अंक में अख्तर आजाद की कहानी लकड़बग्घा पढ़ने के बाद एक टिप्पणी) -------------------------------------- हंस जुलाई 2023 अंक में कहानी लकड़बग्घा पढ़कर एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। लॉकडाउन में मजदूरों के हजारों किलोमीटर की त्रासदपूर्ण यात्रा की कहानियां फिर से तरोताजा हो गईं। दास्तान ए कमेटी के सामने जितने भी दर्द भरी कहानियां हैं, पीड़ित लोगों द्वारा सुनाई जा रही हैं। उन्हीं दर्द भरी कहानियों में से एक कहानी यहां दृश्यमान होती है। मजदूर,उसकी गर्भवती पत्नी,पाँच साल और दो साल के दो बच्चे और उन सबकी एक हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। कहानी की बुनावट इन्हीं पात्रों के इर्दगिर्द है। शुरुआत की उनकी यात्रा तो कुछ ठीक-ठाक चलती है। दोनों पति पत्नी एक एक बच्चे को अपनी पीठ पर लादे चल पड़ते हैं पर धीरे-धीरे परिस्थितियां इतनी भयावह होती जाती हैं कि गर्भवती पत्नी के लिए बच्चे का बोझ उठाकर आगे चलना बहुत कठिन हो जाता है। मजदूर अगर बड़े बच्चे का बोझ उठा भी ले तो उसकी पत्नी छोटे बच्चे का बोझ उठाकर चलने में पूरी तरह असमर्थ हो च

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज