करमागढ़ की यात्रा : दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित यात्रा संस्मरण
■रमेश शर्मा
~~~~~~~~~~~~~~~~~
मंदिर से 2 किलोमीटर दूर घने जंगलों के बीच एक रानी दरहा नाम की जगह है जहां रानी का मंदिर भी है। वहां के बैगा नित्यानन्द प्रधान ने बताया कि राजा और रानी एक बार शिकार करने आए थे और देवत्व की प्राप्ति हेतु पत्थर में तब्दील हो गए थे । पत्थर में तब्दील हुई रानी को भी वहां देवी के रूप में पूजा जाता है। कुछ दूर पर देवत्व की प्राप्ति हेतु पत्थर में तब्दील हुए राजा की भी समाधि है जिसकी पूजा अर्चना वहां के लोग करते हैं। यह क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है और लोक परंपराएं बहुत सघन रूप में आज भी वहां विद्यमान हैं। अभी भी वहां बहुत घना जंगल है । रानी दरहा में सुंदर सा नाला है। वहां की आबो हवा बहुत सुंदर है। जानकारी के अनुसार जल की प्रचुरता इतनी कि छः फीट की खुदाई पर ही पानी निकल आता है।लोक कथाओं की अपनी दुनिया है । उससे सहमत असहमत होना लोगों की आस्था पर निर्भर करता है, पर मेरा अनुभव यह रहा कि रानी दरहा के आसपास घने जंगल में विचरण करने पर मन को बहुत शांति मिलने लग जाती है। मन सुकून से भर उठता है।
दरअसल प्रकृति ही ईश्वर का रूप है।समूची प्रकृति ही जब नष्ट होती चली गई तो ईश्वर को भी इस दुनिया से उठना पड़ा । जहां-जहां प्रकृति की संपदा बची हुई है वहां वहां ईश्वर के रूप में शांति और सुकून अभी बचा हुआ है।
मुझे लगा कि बसंत राघव, ऋतु , मैं और प्रतिमा, सभी अपनी अपनी आस्था लिए प्रकृति रूपी उसी ईश्वर को खोजने निकले हैं। वहां पहुंचकर शांति और सुकून के रूप में हमने उसे भीतर से आज महसूस भी किया है। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि बाल साहित्य के प्रसिद्ध कवि लेखक स्व.शम्भू लाल शर्मा बसन्त का समूचा जीवन यहीं रहकर बीता। इस सुंदर जगह का ही उन पर प्रभाव शायद रहा होगा कि बाल साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने प्रचुर मात्रा में स्तरीय लेखन किया। जब उस क्षेत्र में हम पहुंचे और उनके निवास के सामने से होकर हमारी कार गुजरी तो उन्हें भी हमने शिद्दत से याद किया। हमें लगा कि अगर वो जीवित होते तो उनसे मिलना कितना सुखद होता ।
ऎसी जगहों में जहाँ लोक का निवास है , वहां लोक आस्थाओं की भी मौजूदगी है । ये लोक आस्थाएं अंध विश्वास की तरह प्रतीत हो सकती हैं पर यह भी सच है कि इन लोक आस्थाओं के चलते ही वहां की प्रकृति सुरक्षित है । वहां से लौटते हुए मैं रास्ते भर सोचता रहा कि वहां से लोक आस्थाओं के विस्थापित होते ही प्रकृति रूपी ईश्वर को दुनिया के लालची लोग अपनी लपलपाती जीभ लिए निगलने को तैयार बैठे हैं । ऎसी कई जगहों को उन्होंने देखते देखते निगल भी लिया है।
करमागढ़ के मंदिर , नदी नालों , हरी भरी वादियों , वहां निवासरत सीधे साधे आदिवासियों एवं घने जंगलों से विदा लेते हुए हमें लग रहा था कि एक भरा पूरा जीवन हमसे छूट रहा है । वह जीवन फिर से लौटकर आने को हमें बार बार आमंत्रित कर रहा था।
------------------------------------
रायगढ़ 【छत्तीसगढ़ 】
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें