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"जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की।आशुतोष को उनके शब्दों के साथ अलविदा..

 "जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की। आज भी यह बदस्तूर जारी है। लेकिन कभी निराश नहीं हुआ। सच तो यह है कि आज भी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। दुनिया के बदलने की, उसके आने की। जब भी चिड़ियों को तिनकों को चोंच में लेकर उड़ते देखता हूँ, बच्चों को किलकते देखता हूँ, लगता है मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। बड़ी उम्र की कमर झुकी वयस्का स्त्री को जब आज सुबह-सुबह काम पर निकलते देखा तो लगा दुनिया को बदलना ही होगा।"


ये प्रोफेसर आशुतोष के आखिरी शब्द हैं । अपने मृत्यु के छः दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर यह लिखा था। इन शब्दों को पढ़कर ही उन्हें कुछ हद तक जाना समझा जा सकता है कि वे कितने संवेदनशील, कितने सुलझे हुए, कितने परिपक्व और चेतना संपन्न  इंसान थे।यह सब उन्होंने लिखने भर के लिए लिखा था, जैसा कि आजकल ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर करते हैं,ऐसा भी नहीं है। एक उम्रदराज और कमर झुकी बूढ़ी स्त्री को काम पर जाते हुए देखकर उन्हें भीतर से जो तकलीफ पहुंची  वही शब्दों के रूप में बाहर निकल कर आई। तब उस स्त्री की तस्वीर भी उन्होंने साझा करी थी।


मृत्यु पर किसी का वश नहीं चलता। वह हमेशा चोर दरवाजे से चुपके से आती है। आशुतोष जी के साथ भी यही हुआ। मृत्यु जब आई तो कैलेंडर की तारीखों में उसके लिए दूर-दूर तक कोई जगह नजर नहीं आ रही थी। पर वह आई और अपने लिए जगह बनाते हुए कैलेंडर की तारीखों को ही अस्त व्यस्त कर दिया।

छनकर आई खबरों के मुताबिक किचन में एलपीजी गैस ऑन रह गयी थी। न जाने वह घड़ी किस तरह आई कि उनके बड़े बेटे ने गैस की सुगंध पाकर भी लाइटर ऑन कर दिया। पूरे कमरे में आग फैल गयी।बड़े बेटे को बचाते बचाते आशुतोष जी स्वयं नब्बे फीसदी जल गए। बेटा पहले गया फिर पांच- छः दिन बाद वे स्वयं चले गए।

उनसे कोई व्यक्तिगत जान पहचान नहीं थी न कभी उनसे कोई बातचीत हुई। फेसबुक मित्रता की वजह से ही हम उन्हें पढ़कर जानते थे। मेरे मन में उनकी छवि सदा एक शालीन और अच्छे इंसान की बनी रही।वे एक उम्दा लेखक और हँसमुख इंसान थे। उनका अपने बेटे के साथ इस तरह जाने की खबर किसी को भी अवाक करने का एक दुखद प्रसंग है।

उनके मित्र रविशंकर सिंह एक जगह लिखते हैं-

मित्र आशुतोष के लिए देशभर में फैले हुए मित्र और घर में ढेर सारी किताबें  दौलत हैं। जब लोग उनसे पूछते,"आप इतनी किताबों का क्या करेंगे ?"

तब वे जवाब में मुस्कुराते हुए कहते, " आप बैंक में रखे गए सारे रूपयों का क्या करेंगे ? "

इन बातों से आशुतोष जी की गम्भीरता समझी जा सकती है।

मृत्यु इस तरह भी आएगी अमूमन हम नहीं सोचते पर कई बार सत्य बहुत अचंभित करने वाला और दुख पहुंचाने वाला होता है।

आशुतोष एक जगह लिखते हैं-

"दुनियाभर में जगह लेने के लिए मारामारी है। मुझे भी एक शांत निरापद जगह की तलाश है, जहाँ मनमाने ढंग से रह सकूँ। बस इतनी सी ख्वाहिश है।"

आशुतोष जिस जगह की चाह रख रहे थे, शायद वह जगह इस दुनियादारी में अब संभव नहीं है।इसलिए उन्होंने वह जगह चुन ली जो निरापद और शांत है। अपनी ख्वाहिश के हिसाब से इंसान अपनी जगह तलाश ही लेता है।

जीवन में बहुत बार मैंने दुख और कष्ट को करीब से देखा है, महसूस किया है। कभी मां के जाने का दुख तो कभी पिता के जाने का दुख! दुःख और कष्ट कम-ज्यादा नहीं होते , वे हमेशा एक जैसा आघात मन को पहुंचाते हैं।आशुतोष और उनके बड़े बेटे का इस तरह असमय जाना हिंदी समाज को आघात पहुंचाने वाली घटना है।

उनकी आत्मा को शांति मिले। 

अंत में उनके आखरी शब्दों को फिर से दोहराने का मन हो रहा है-

"जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की। आज भी यह बदस्तूर जारी है। लेकिन कभी निराश नहीं हुआ। सच तो यह है कि आज भी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। दुनिया के बदलने की, उसके आने की। जब भी चिड़ियों को तिनकों को चोंच में लेकर उड़ते देखता हूँ, बच्चों को किलकते देखता हूँ, लगता है मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। बड़ी उम्र की कमर झुकी वयस्का स्त्री को जब आज सुबह-सुबह काम पर निकलते देखा तो लगा दुनिया को बदलना ही होगा।"

अलविदा साथी .....!

रमेश शर्मा

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