रमेश शर्मा की कहानी : 'अपने अपने हिस्से का गाँव'
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रिटायर्ड आई.ए.एस ऑफिसर प्रताप मिश्र
का ओहदा जितना बड़ा रहा है उनके जीवन की कथा उतनी ही छोटी है। प्रताप मिश्र के पिता
गाँव के मालगुजार स्व.लवकुश मिश्र का एक समय गाँव में साठ एकड़ से ऊपर जमीन थी ।
इतनी ज्यादा जमीनों के मालिक होकर भी उनके पिता ने उन्हें सिविल सर्विस की नौकरी
की तैयारी के सिलसिले में जब शहर भेजा तो उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि एक दिन
उनका बेटा शहर का होकर ही रह जाएगा । पिताओं के सपने बड़े होते हैं पर वे बड़े सपने
सच होकर एक दिन पिता और बेटों के बीच दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं । सिविल सर्विस
की तैयारी करते-करते शहर में उनके तीन साल कब गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला ।
तीन साल बाद दूसरे अटेम्प्ट में जब सिविल सर्विस के तहत उनकी पोस्टिंग हुई तो
उन्हें ओड़िसा के भुवनेश्वर जैसे बड़े शहर में काम करने का अवसर मिला। काम तो पता
नहीं उन्होंने क्या किया, पर
इस अवसर को उन्होंने भुनाया खूब ! फिर ओड़िसा के कई शहरों में घूमते-घामते आईएएस की
नौकरी में ठाट से उनके दिन निकलते चले गए । समय बदला और समय के साथ नब्बे के दशक
में कॉर्पोरेट युग का एक नए रूप में अभ्युदय हुआ । इस नए कॉर्पोरेट युग में गाँवों
में कई तरह के बदलाव आये। किसानों की जमीनें बड़े पैमाने पर सरकार की ओर से
अधिग्रहित की जाने लगीं और उसे मिट्टी के मोल उद्योगपतियों को दान में दिया जाने
लगा। सरकारी लूट के इस खेल में कलेक्टर होने के नाते प्रताप मिश्र की भी बड़ी
भूमिका रही । प्रताप मिश्र को कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि गाँव की जिन्दगी अब
किस दिशा की ओर जाने लगी है। जमीनों के अधिग्रहण इत्यादि को अगर छोड़ दें तो
कलेक्टरी करते हुए भी उन्होंने गाँव के दौरे कम ही किये । कभी किसी गाँव में
उन्हें जाना भी पड़ा,
तो
उनके मातहत अधिकारियों ने उन्हें ऐसा घेर कर रखा कि लोगों के असल जीवन के चित्र
कभी उन तक पहुँच ही नहीं सके। निचले कर्मचारियों से प्रशासन के पास जिस तरह की
सतही जानकारियाँ पहुंचा करती हैं , उन्हीं सतही जानकारियों के भरोसे उन्होंने अपनी नौकरी की पूरी उम्र
गुजार दी। तब भी गौर करने वाली बात यह रही कि उन्हें उनकी अच्छी प्रशासनिक क्षमता
के नाम पर सरकार की ओर से कई बार पुरस्कार भी मिला और उन्होंने उस पुरस्कार को
लपककर हथिया लेने से कभी गुरेज नहीं किया। गाँव के होकर भी उन्होंने गाँव के भले
के लिए कभी कुछ किया हो, उन्हें
बिलकुल याद नहीं ।
अब गाँव में उनका कोई नहीं, बस एक घर है और उसके चारों तरफ बड़ा सा
एक फॉर्म हाउस । उन सबकी देखभाल गाँव के साधारण छोटे किसान रामनाथ के भरोसे छोड़कर
अब तक वे निश्चिन्त रहे हैं । कमाई का आधा हिस्सा ईमानदारी से उन्हें अब तक वह
भेजता रहा है। प्रताप मिश्र का बेटा भी आज भुवनेश्वर शहर में डॉक्टर है और एक बड़े
नर्सिंग होम का मालिक। समय की मांग के अनुरूप गाँव की चालीस एकड़ जमीनें चार करोड़
में बेचकर उन्होंने उसे बेटे के नर्सिंग होम में ही इन्वेस्ट कर दिया था।
नौकरी के आखरी दिनों में उनकी सोच ऎसी
बनती रही जैसे वे रिटायर्ड होते ही निष्फिक्र हो जाना चाहते हैं, पर दुनियादार मनुष्य के जीवन में
चिंताएं अपने आप चलकर न आएं, ऐसा कभी संभव नहीं। चार माह पूर्व गाँव से अचानक उन्हें खबर मिली थी
कि उनके फॉर्म हॉउस का देखभाल करने वाला रामनाथ हार्ट अटैक से अचानक चल बसा।
उन्हें रिटायर हुए अभी माह भर भी नहीं
हुए हैं कि ये समस्या अब उनके जीवन में चलकर आ गयी। उनके डॉक्टर बेटे के पास साँस
लेने की फुर्सत नहीं कि उससे जाकर पूछ सकें आगे कि अब गाँव की जमीनों और फॉर्म
हॉउस का क्या करें ?
जो
भी करना है अब उन्हें ही करना है। वह दिन भी अब नहीं रहा कि मातहत कर्मचारियों या
नौकरों को आदेश देकर उनसे वे हुकुम बजवा सकें।
‘‘अब तो मुझे ही गाँव जाना पड़ेगा‘‘- पत्नी से उन्होंने जब कहा तो उनकी पत्नी की मुख मुद्रा के भूगोल की
आकृति एकदम बदलकर वक्राकार रेखाओं की तरह टेढ़ी मेढ़ी होने लगी और चेहरा देखने में
एकदम अप्रिय सा हो गया। प्रताप मिश्र भांप गए कि उनकी पत्नी की रूचि गाँव की ओर एक
कदम भी चलने की नहीं रह गयी है । ‘पत्नी तो जाएगी नहीं , मुझे सचमुच अकेले ही गाँव जाना पड़ेगा, उनके भीतर की बात सच का आकार लेने लगी
।‘ पत्नी के मना कर देने के बाद गाँव की
यात्रा के लिए वे अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करने लगे ।
उन्हें हिचक होने लगी कि गाँव के
साधारण लोगों से वे कैसे संवाद करेंगे । भूतपूर्व होकर भी उनके भीतर आईएएस के
रुतबे का भूत पूरी तरह अभी उतरा नहीं था। वे सोचने लगे .. ‘आखिर उनके पिता का जीवन तो गाँव में
सबके बीच रहकर ही बीत गया, पर
उनके पुत्र को उन लोगों से संवाद करने में इतनी हिचक क्यों हो रही ?‘
मनुष्य का ओहदा उसके भीतर मौजूद अच्छी
चीजों को दीमकों की तरह चर देता है धीरे धीरे! जीवन में अच्छी चीजों को वे कहाँ
फेंक आये , आज अगर इसकी पड़ताल हो तो पूर्व
आई.ए.एस. प्रताप मिश्र को समझ में ही नहीं आएगा कि दरअसल अच्छी चीजें होती क्या
हैं ? अगर उनके जीवन में अच्छी चीजों की
आवाजाही कभी रही भी हो तो वे उन्हें कब और कहाँ छोड़ आए हैं ,उन्हें इसका आभास तक नहीं ।
उनकी डिक्शनरी में प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री, मंत्री इत्यादि लोगों के आगे पीछे
घूमना और उनकी हुकुम बजाना ही अच्छी चीजों की श्रेणी में आता रहा है । उन्होंने यह
कभी नहीं जाना कि कोई फरियादी आए तो उसकी समस्या का समाधान करना किस श्रेणी में
आता है । अगर उन्हें इन चीजों की चिंता होती या पहचान होती तो वे इन्हें जानने की
कोशिश भी करते , फरियादियों को खाली हाथ उनके दरबार से
कभी लौटना नहीं पड़ता । अब तक उन्हें बस एक ही चीज का ध्यान रहा कि किस तरह शासन की
नजर में चढ़े रहें और उसका अप्रत्यक्ष लाभ उठाएं ।
रिटायरमेंट पश्चात अब उनके जीवन का वह
दौर नहीं रहा। उस दौर के बीत जाने के बाद जीवन की हकीकतें सामने आकर उनसे बेहिचक
टकराने लगी हैं । आखिर कोई कब तक बचे इन चीजों से । कभी न कभी तो आदमी को असहज
करने वाली परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है।
गाँव पहुँचने में अभी दो घंटे का रास्ता
और बाकी है । उनकी कार सड़क पर सरपट भाग रही है । सामने ड्राईवर बैठा है और प्रताप
मिश्र पीछे की सीट पर अकेले चुपचाप विराजमान हैं। उन्हें इस बात से अभी भी परहेज
है या हो सकता है संकोच है कि सामने आकर ड्राईवर के बगल वाली सीट पर बैठ जाएं और
उससे कुछ बोल बतिया लें ।
अफसर रहते जो आदतें पड़ी रहती हैं उसे
बदलने में बहुत समय चाहिए । दंभ की गोद में अपना अधिकाँश समय गुजारे हुए एक मनुष्य
को एक साधारण सहज मनुष्य में बदलने के लिए सचमुच बहुत समय लगता है। कई बार उसके
जीवन में इतना समय रहता ही नहीं कि वह ऐसा कोई परिवर्तन देख सके । इस परिवर्तन को
देखना भी बहुत दुखदायी होता है उसके लिए । यह दुःख झेलने से पहले ही वह दुनिया से
कूच कर जाता है । ये बातें कितनी अजीब सी लगती हैं कि दुनिया से कूच कर जाना तो
पसंद है पर सहज, सरल, सामान्य मनुष्य में बदलना मनुष्य को
पसंद नहीं।
क्या प्रताप मिश्र अपने को बदल पाएंगे
या वे भी ....? यह सवाल अभी अधर में है । उनकी कार
गाँव के मुहाने तक अभी पहुंची नहीं कि पत्नी का फोन आने लगा है। केऊटी पहुंचिले? ( कहाँ पहुंचे हैं?)।
गाँ आसिला णी ( गाँव आ गया ) - पत्नी
को आहिस्ता जवाब देते हुए गाँव में अपने घर का रास्ता वे ड्राईवर को बताने लगते
हैं ।
उनका गाँव भी बदलाव की जद में है, यहाँ आकर कोई भी इस बात को स्वीकारने
से मना नहीं करेगा । गाँव में सड़क किनारे दुकानें खुल गयी हैं । लडके पान की
दुकानों के सामने मोबाईल लिए खड़े हैं और उनकी नजर इन्स्ताग्राम में चल रहे अश्लील
किस्म के रील्स पर टिकी है । पान , गुटका और पाउच की खपत दूसरी जगहों की तरह इस गाँव में भी अधिक है ।
इस गाँव के दृश्य प्रताप मिश्र की आँखों में शहर के निचले मोहल्लों के दृश्यों की
तरह दिखाई पड़ रहे हैं ।
उनके घर के पास ही एक आयुर्वेद के
डॉक्टर की क्लिनिक दिखाई दे रही है, जहाँ एक साइन बोर्ड शोभायमान है - डॉ. पुरंदर कलिता, बी.ए.एम.एस. । गाँव में किसी डॉक्टर की
उपस्थिति से प्रताप मिश्र चकित हैं । उनके मन में इस बात के लिए तर्क वितर्क चल
रहा है कि अगर ये आयुर्वेद की जगह एलोपेथी का एम.बी.बी.एस. डिग्री धारी चिकित्सक
होता तो क्या गाँव में रहता ? उनके हिसाब से एम.बी.बी.एस. डिग्री धारी चिकित्सक को शहर में ही होना
चाहिए ।
यहाँ रोक दूँ सर ? पूछते-पूछते ड्राईवर गाड़ी की स्पीड
एकदम दस पर ले आया है ।
‘हाँ हाँ ..यहीं रोको।‘ -प्रताप मिश्र की आवाज में अब भी एक रोब दाब है ।
घर कम है बल्कि यह फॉर्म हाउस ज्यादा
है । बाहर एक बड़ा सा गेट शोभायमान है । गेट पर एक चमकता हुआ साइन बोर्ड लगा है , जिस पर गोल्डन कलर में शब्द उभरे हुए
हैं ‘‘मिश्र फॉर्म हाउस‘‘ । प्रताप मिश्र साइन बोर्ड को देखकर
फूले नहीं समा रहे हैं । ‘रामनाथ
बड़ा काम का आदमी था‘
- वे
मन ही मन सोच ही रहे हैं कि इतने में एक युवक गेट के बाहर आकर उन्हें ‘नमस्ते सर!‘ कहकर सावधान की स्थिति में खड़ा हो गया
है ।
तुम रामनाथ के बेटे ही हो न ?
‘‘जी सर !‘‘
‘‘तुम्हीं गए थे यूक्रेन मेडिकल की पढ़ाई करने ?‘‘
‘‘जी!‘‘
जी कहते हुए युवक के चेहरे के भाव इस
तरह बदल रहे हैं जैसे अचानक उसे बिजली का करेंट छू गया हो। पर वह अपने को संभालते
हुए कह रहा है..... चलिए सर अन्दर कमरे में , मैं आपका सामान ले चलता हूँ ।
गेट के अन्दर कार पार्किंग के लिए शेड
लगा हुआ है । कुछ दूर पर तीन कमरे हैं जिनमें एक कमरा ऐसा है जिसमें वो सारी
सुविधाएं हैं जो एक लक्जरी जीवन जीने वाले आदमी को चाहिए । कमी रह गयी है तो बस
रामनाथ की जिसने इस कमरे को सजाने संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आदमी कितना भी रोब दाब वाला हो, जीवन में कभी कभार तो उसे धरती पर पाँव
टिकाकर खड़ा होना ही पड़ता है । धरती को यूं ही माँ की संज्ञा नहीं मिली है , जब आदमी धरती के निकट आता है तो धरती
अपने भीतर संचित थोड़ी सी संवेदना उसे उपहार में दे देती है । यहाँ आकर प्रताप
मिश्र का दिल भी रामनाथ के परिवार के लिए अब थोड़ा पसीजने लगा है । फॉर्म हाउस के
चारों तरफ की भौगोलिक संरचना जितनी आकर्षक है उसका अंदाजा शहर में बैठकर नहीं
लगाया जा सकता । वर्षों बाद जब इसे अपनी आँखों से वे देख रहे हैं तो रामनाथ की
स्मृति उन्हें असहज करने लगी है ।
लड़का सारा सामान कोने वाले कमरे में रख
आया है जो स्पेशली मिश्र परिवार के लिए रिजर्व रहता है । यह कमरा तभी खुलता है जब
उनके परिवार से कभी कोई थोड़ी देर के लिए गाँव आता है । हाँ इसकी साफ सफाई बराबर
होती रहती है । आज तो प्रताप मिश्र और उनके ड्राईवर के लिए भोजन की व्यवस्था
रामनाथ के परिवार को ही करनी पड़ेगी । परिवार में भी अब कौन है ... बस रामनाथ की
पत्नी और उनका बेटा !
आप क्या लेंगे सर !... चाय या नींबू
पानी ? लड़का पास आकर अदब से पूछने लगा
तीन कप चाय के लिए कह दो और तुम मेरे
पास आकर बैठो । मैं शाम को ही लौट जाऊँगा इसके पहले मुझे तुमसे कुछ जरूरी बातें
करनी है ।
‘जी सर !‘ - लड़का
हुकुम बजाते हुए फॉर्म हाउस के भीतर ही थोड़ी दूर पर बने एक कमरे की ओर गया और अपनी
माँ से तीन कप चाय के लिए कहकर वापस लौट आया ।
उसके आते ही प्रताप मिश्र सामने की एक
खाली कुर्सी पर उसे बैठने के लिए इशारा करने लगे ।
वह सकुचाते हुए बैठ तो गया पर उसकी नजर
उनकी ओर न होकर नीचे जमीन पर टिक गयी।
‘तुम्हारे पिता के जाने के बाद तुमने आगे क्या सोचा है ?‘
मिश्र जी की बातों का जवाब देने के
पहले ही उसका चेहरा रुआंसा होने लगा, मानो वह किसी प्रश्न का उत्तर देने की हालत में न हो ।
मैंने जानकारी ली थी उस समय , रामनाथ को शायद हार्ट अटैक आया था ।
वह अब भी चुप रहा ।
इस बीच ड्राईवर ही तीन कप चाय लेकर आ
गया ।
‘लो चाय पियो‘- प्रताप
मिश्र लड़के को सहज करने के लिए प्यार से कहने लगे।
उन दोनों को चाय की कप थमाकर ड्राईवर
अपनी चाय की कप लेकर दूर में स्थित एक पेड़ की छाँव तले बैठ गया और चाय की
चुस्कियों का आनंद लेने लगा ।
जीवन में कोई दुःख न हो तो चाय की
चुस्कियां भी कितनी सुखकर होती हैं । हरेक चुस्की के साथ आदमी के चेहरे पर लौटती
ताजगी उसकी खुशी की गवाह बनने लगती है ।
समय के एक ही काल खंड में यहाँ तीन लोग
चाय पी रहे थे पर तीनों के चेहरे पर एक समान ताजगी को ढूँढ़ पाना संभव न था । जब तक
दुनिया में दुःख और तकलीफें हैं,एकसाथ यह कभी संभव भी न होगा । लड़का चाय की चुस्कियां लेते हुए भी
उदास था ।
‘वैसे हुआ क्या था रामनाथ को ?‘ मिश्र जी ने धीरे से पूछ लिया
लड़के को समझ में ही नहीं आ रहा था कि
वह किस तरह सारी बातें उन्हें बताए ।
जब भी वह कुछ कहने की कोशिश करता उसका
गला रूंध जाता।
इस बीच वह उठकर अपनी माँ के पास गया और
वहां से जब लौटा तो उसके हाथ में एक डायरी थी।
आकर वह फिर से प्रताप मिश्र के सामने
बैठ गया । उसकी आँखों में आंसू थे और उसका चेहरा थोड़ा और उदास हो गया था।
उसने अपने हाथ में रखी डायरी प्रताप
मिश्र की ओर बढ़ा दी और चुपचाप जमीन की ओर अपनी नजरें झुका कर शांत बैठ गया ।
प्रताप मिश्र को लड़के की गतिविधि अबूझ
पहेली की तरह लगने लगी। उन्होंने डायरी को पलटना शुरू ही किया था कि उनकी नजर पहले
पन्ने पर पड़ी -
यूक्रेन जाकर मेडिकल की पढाई करने का
निर्णय मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती साबित हुई। पिता जी ने हिम्मत करके मुझे भेजा
क्योंकि उस समय एक डॉलर की कीमत 45 रूपये के बराबर थी । उन्होंने सोचा था कि बेटा डॉक्टर बन जाएगा तो उनके
दिन सुधर जाएंगे। इसी इच्छा में साल भर की आय से सालाना तीन लाख के आसपास का खर्चा
जुगाड़ने की हिम्मत उन्होंने कर ली और मैं यूक्रेन चला गया । हालाँकि तीन लाख की यह
रकम भी उनकी पहुँच से दूर ही थी पर खींच तानकर उन्होंने यह सब किया । दो तीन साल
तो ज्यादा असर नहीं पडा पर जब डॉलर की कीमत अचानक बढ़ने लगी और रूपया गिरकर 75 से 80 रूपये एक डॉलर के बराबर होने लगा तो
अचानक पिता जी पर आर्थिक बोझ दूना हो गया । वे बुरी तरह रूपया और डॉलर के
चक्रव्यूह में फंस गए। उनका हेल्थ गिरने लगा था। रात में उन्हें नींद न आने की
बीमारी ने पकड़ लिया । कई बार हाई बीपी के कारण उन्हें चक्कर आने लगा था । माँ ने
मुझे यह सब कभी बताया नहीं । पैसे की व्यवस्था न हो सकी तो पिता ने एक दिन सारी
जमीनें बेचकर पैसे का इंतजाम करवाया । मैं अभागा इन सबसे बेखबर यूक्रेन की धरती पर
डॉक्टर बनने के सपने बुनता रहा।
प्रताप मिश्र पन्ने पलटने लगे ...
आगे जो लिखा था उसे पढ़कर प्रताप मिश्र
का दिल पसीज गया ।
मैंने सोचा था इस बार छुट्टी पर देश
लौटूंगा तो पिता के लिए एक विदेशी कुर्ता और माँ के लिए कुछ आर्टिफिसियल गहने लेकर
आऊंगा । यूक्रेन में ये चीजें बहुत सस्ती मिलती हैं । पर सोची हुई चीजें कहाँ हो
पाती हैं जीवन में ,
उनकी
जगह कुछ ऐसा होने लगता है जैसे कि सब कुछ खत्म होने की कहानियाँ लिखी जाने की
शुरूवात होने को हो । मेरे साथ यहाँ यही हुआ । यूक्रेन पर किसी की बुरी नजर क्या
पड़ी मेरे जीवन में ही ग्रहण लग गया । रूस के निरंतर हमलों ने भारत से गए मेडिकल
स्टूडेंट को भी नहीं बख्शा। मेरी अच्छी दोस्त नीलिमा को मैंने अपनी आँखों के सामने
तड़प तड़प कर मरते हुए देखा । हम बहुत बेबस थे। कहीं से कोई सहायता की उम्मीद नहीं
थी । हमने अपनी सरकार से भी उम्मीद खो दी थी। काफी दिन हमें यूक्रेन में संघर्ष
करना पड़ा । हम बंकरों में छुप छुप कर यहां वहां भागते रहे। कई कई दिनों तक हमें
भूखा रहना पड़ता था। लगभग सब कुछ खत्म हो जाने के बाद हमारी सरकार ने हमारे लौटने
के बारे में सोचा और फिर एक दिन गिरते पड़ते मैं किसी तरह दिल्ली पहुंच गया। मेरे
जेब में दिल्ली से यहाँ घर तक आने को भी पैसे नहीं थे। उस दिन भूखे प्यासे बिना
टिकट जब मैंने रेलगाड़ी में यात्रा की तब भी मुझे यही लग रहा था कि जीवन में मुझसे
इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी? लौटते समय ट्रेन में कई लोगों ने मुझ पर तंज भी कसा- ‘देश में नहीं है क्या मेडिकल कॉलेज जो विदेश
भाग कर गए थे?‘
किसी ने यह तक कह दिया कि ये सब
देशद्रोही हैं।
मैं उन्हें कैसे कहता कि मेडिकल शिक्षा
पर यहां माफियाओं का राज है। कैसे कहता कि यहां के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में
एडमिशन लेने के लिए कम से कम एक करोड़ रुपया चाहिए जो हमारे बस की बात नहीं । कैसे
बताता कि सरकार ने समुचित मात्रा में सरकारी मेडिकल कॉलेज खोलने पर कभी भी ध्यान
नहीं दिया।
उनकी बातें उस वक्त मुझे बहुत पीड़ा
पहुंचा रही थीं पर मैं उनकी बातें सुनकर चुप ही रह गया।
प्रताप मिश्र को यह पढ़कर बड़ा धक्का
लगा। उन्होंने स्वयं अपने बेटे का एडमिशन एक करोड़ रुपया देकर प्राइवेट मेडिकल
कॉलेज में करवाया था।
प्रताप मिश्र आगे की पंक्तियाँ पढ़ते
हुए चेतना शून्य होने लगे.....
‘‘मैं अभागा उस दिन जब थका मांदा घर पहुंचा तो घर में रोना धोना शुरू
था ।
मेरे घर पहुँचते ही किसी ने मुझसे कहा
कि ... योर फादर इस नो मोर ! उनका बीपी पहले ही बढ़ा हुआ था, यूक्रेन में गोली बारी से मेडिकल
छात्रों के मरने की खबरों ने उन्हें और दहशत में ला दिया । तुमसे संपर्क न हो पाने
की वजह से उनका बीपी एकदम हाई होता जा रहा था । दवाईयां काम नहीं आ रही थीं और आज
सुबह ही वे हार्ट अटैक से चल बसे ......!
उफ ! मैंने अपने पिता को अपने ही हाथों
मार दिया ।‘‘
प्रताप मिश्र आगे और पढ़ नहीं सके ।
रूपये की गिरती कीमत और डॉलर की बढ़ती कीमत, जिसे उन्होंने सोशल मीडिया पर पढ़कर हमेशा मजाक का ही बिषय समझा , उसकी कथा इतनी भयावह भी हो सकती है, उसका अंदाजा उन्हें आज हुआ। डायरी में
लिखी गयी पंक्तियों ने , देश
में लिखी गयी रुपये और डॉलर की कथा की पोल खोल कर उनके सामने रख दी थी।
उनका मन स्वयं को धिक्कारने लगा । इतने
बड़े आदमी होकर भी उन्होंने कभी किसी के लिए क्यों कुछ नहीं किया। रूपये की कीमत
गिराने से लेकर विदेश गए बच्चों की कोई सहायता न कर पाने का दोषी आखिर कौन है? इसके लिए सरकार की नीतियाँ अगर दोषी
हैं, तो सरकार के अंग होने के नाते क्या वे
इसके दोषी नहीं हैं ?
सरकारी माल उड़ाने के सिवा उन्होंने
अपने 40 साल की नौकरी में कोई दूसरा अच्छा काम
किया होता, तो आज इस अपराध बोध से वे बचे रह जाते
। अपराध बोध से बचने के लिए , उन्होंने याद करने का भरसक प्रयास किया कि कोई तो ऐसा किया हुआ नेक
काम, छोटा मोटा ही सही , उन्हें बचाने के लिए स्मृति से निकल कर
आए, पर जितने भी किये हुए काम याद आए सबने
उन्हें अपराध बोध के अंधे कुएँ में धकेलने का ही काम किया।
ठण्ड का समय था फिर भी उनका शरीर पसीने
से भीगा हुआ था। उनके चेहरे पर भी पसीने की बूँदें उभर आयी थीं । लड़के का ध्यान
अचानक उनकी तरफ गया तो वह दौड़कर एक ग्लास पानी ले आया ।
‘आप ठीक तो हैं सर ? आपको इतना पसीना क्यों आ रहा है ?पानी पी लीजिए सर !‘-लड़के ने उनके कंधे पर अपने हाथ रखकर
उन्हें जब छुआ तो लगा जैसे कि रामनाथ ने मालिक कहते हुए उन्हें सहारा दिया है ।
‘तुम मेरे साथ शहर चलोगे ? नर्सिंग होम की मैनेजरी संभालोगे?‘- थोड़ा अपने को संभाल कर प्रताप मिश्र ने
प्यार से लड़के की तरफ देखते हुए जब कहा तो लड़के ने झट से जवाब दिया- ‘नहीं सर ! मैं अब यह गाँव छोड़कर कहीं
नहीं जाऊँगा।‘
‘ तब तो फिर रामनाथ का पूरा काम अब तुम यहीं संभालो ! सारे संसाधन तो
यहाँ हैं ही , अपने पिता की तरह लगन से काम करोगे तो
फॉर्म हाउस से ही हर महीने पचास हजार से अधिक की कमाई हो जाएगी। ट्वेंटी परसेंट रख
रखाव का खर्च निकाल कर थर्टी परसेंट हमारे हिस्से भेज देना, बाकी फिफ्टी परसेंट तुम्हारा!‘
जी सर कहते हुए लड़के के चेहरे पर जो
संतोष का भाव उभरा,
उसने
थोड़ी देर पहले प्रताप मिश्र के भीतर जन्मे अपराधबोध को कुछ हद तक हल्का कर दिया ।
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92 श्रीकुंज, बोईरदादर
, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) पिन 496001 मो.7722975017
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