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जैसे किसी हत्यारे ने प्रेम की हत्या कर दी हो : रमेश शर्मा की कहानी

 


टिप्प..! टिप्प..! टिप्प..! झिन्गूरों की स्वर लहरियों के बीच खपरैल की छप्पर से रिस रिस कर फर्श पर जगह जगह रखीं बाल्टियों में गिरती, बारिश की बूंदों की आवाजें, उसकी नींद में खलल डाल रहीं थीं। आवाज की तीव्रता से लगा उसे, कि बाहर तेज बारिश हो रही है । सारी बाल्टियों के जल्दी भर जाने के अंदेशे ने ही उसकी नींद पतली कर दी । नींद में उसे कई बार गुस्सा भी आया , पर अचानक उसे लगा कि गुस्सा करने के लिए भी तो आदमी की एक हैसियत होनी चाहिए । वह आखिर गुस्सा करे भी तो किस पर करे? .... अपने घर की खपरैलों वाली छप्पर पर गुस्सा करे? चाहकर भी जिसकी मरम्मत वह पिछले दो बरस से नहीं करा सका है और फिर भी वह उसे आसरा देती आ रही। इन मूक बाल्टियों पर वह गुस्सा करे? जो बारिश के आते ही घर की फर्श पर जगह जगह दरबानों की तरह खड़ी होकर फर्श को तरबतर होने से बचाती आ रहीं । इन बेजान सी चीजों पर गुस्से को लेकर ही उसे कुछ अजीब सा लगा ।

इस एहसास ने उसकी बांह पकड़ उसे पिछले दिनों की ओर अपने साथ दौड़ने पर मजबूर कर दिया। वह दौड़ता गया...दौड़ता गया । दौड़ते दौड़ते उसकी मुलाकात उसके स्कूल के दिनों से हुई । स्कूल के दिनों के साथ रामनाथ मास्टर जी का चेहरा अचानक उसके सामने आ गया। उस चेहरे में ऐसा क्या था कि उनका चेहरा उसे आज भी अच्छा लगा । चेहरे के पीछे-पीछे फिर उनकी कहानी चलकर आ गयी । रामनाथ मास्टर जी को प्राचार्य ने एक दिन जमकर डांट दिया था , वे कक्षा में आते हुए कुछ उखड़े-उखड़े से लग रहे थे । आते ही उन्होंने बच्चों को डांटना डपटना शुरू कर दिया । वे अमूमन बच्चों से इस तरह का व्यवहार करते ही नहीं थे । उनका अप्रत्याशित व्यवहार देखकर बच्चे भी सहम गए थे, पर उसने हिम्मत करके उस दिन उनसे पूछ ही लिया था ---- क्या बात है मास्टर जी ! आज आप बहुत गुस्से में हैं?‘

सुनकर वे अचानक उस पर बिफर पड़े --  क्या मुझे गुस्सा नहीं आ सकता बेटा ? मुझसे हमेशा प्यार और दुलार की उम्मीद ही क्यों करते हो ?‘ ऐसा कहते हुए उनकी आँखों की कोर गीली हो उठीं, जिसे बाकी बच्चे भले न ताड़ सके हों पर उसने करीब से महसूस कर लिया ।बच्चे रामनाथ मास्टर जी की पूंजी थे , मात्र वही भर तो उनकी हैसियत थी , इसलिए उन्होंने बच्चों को डांट दिया होगा । ऐसा करते हुए शायद उनका अशांत मन शांत भी हो गया हो । आखिर गुस्से को बाहर जाने के लिए कोई न कोई रास्ता तो चाहिए । उसके पास तो वह रास्ता भी नहीं था । वह आखिर किसे डांटे ? किस पर गुस्सा करके अपने मन को शांत करे ? यह उसके लिए जीवन में एक अनसुलझा सवाल रह गया था । इस तरह सोचते सोचते फिर वह स्कूल के दिनों का हाथ छोड़ थोड़ा आगे दौड़ा तो उसे एक तालाब मिल गया  । तालाब की मेड़ पर हरे भरे पेड़ मिले । तालाब का जल एकदम काला था । वहां मछलियों की उछल कूद देखकर उसका मन हुआ कि उनके संग वह भी उछल कूद कर ले । फिर वह अचानक पानी में कूद गया । उसे तैरना तो आता नहीं था । तैर न पाने की वजह से उसकी सांस जब फूलने लगी, तो उसकी माँ, जो पास ही खड़ी किसी से बतिया रही थी, दौड़ी दौड़ी आयी और पानी में कूद कर उसने उसकी जान बचायी।

 हे भगवान्! आज तूने ही मेरे बच्चे को बचा लिया !

का बेटवा तेरा बचपना आखिर कब जाएगा?‘ माँ ईश्वर पर अटूट आस्था रखने वाली एक निपट घरेलू और उदार स्त्री थी । माँ के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे। वह आगे और दौड़ न सका । उसकी दौड़ वहीं थम गयी । वह पुनः अपनी जगह लौट आया । उस गूंज को अक्सर वह आज भी सुनता है । उसे लगा आज वह कितना अकेला है । समय की खाइयों में हर रोज वह डूब रहा है, पर बचाने वाला अब कोई नहीं ! उसे लगता है माँ जाते जाते उसका बचपना भी साथ ले गयी ताकि वह ऎसी गलतियां ना करे । माएं जाते जाते भी बच्चों के सुरक्षा के प्रबंध कर जाती हैं शायदअपनी माँ को लेकर वह देर तक यही सोचता रहा । 

बारिश के साथ साथ बिजली की कड़कड़ाहट से अचानक उसकी नींद टूट गयी । छप्पर से होकर बारिश की रिसती बूंदों से जब बाल्टियां भरने को आ गयीं तब वह भरी बाल्टियों को बाहर सड़क पर खाली कर आया । ऐसा करके उसे लगा जैसे वह भी भीतर से कुछ देर के लिए हल्का हो उठा है, जैसे उसके भीतर भी हर वक्त कुछ न कुछ भरता रहता है रिसने के लिए । बाल्टियों के फिर से भर जाने तक तो शायद सुबह ही हो जाए, यह सोचकर ही उसे फिर से नींद आने लगी । रात घनी थी और मोहल्ला एकदम सुनसान । झींगुरों की आवाजें टिप्प टिप्प की आवाजों के साथ मिलकर उसे अब थपकियाँ सी देने लगीं । वह निश्चिन्त होकर सो गया और सपनों की दुनियां में विचरण करने लगा ।

इनदिनों देश में सपने दिखाए जाने की धूम मची थी । कहीं स्मार्ट सिटी तो कहीं बुलेट ट्रेन के सपनों की धूम । इन सपनों को लेकर लोगों की दीवानगी इस कदर थी कि वे आगे पीछे अब सोचना ही नहीं चाहते थे । उनके लिए जैसे सपना ही सच था । देश के लाखों लोगों की तरह वह भी अब मान चुका था कि सपनों में विचरना भी कोई बुरी बात नहीं । इससे कुछ मिले न मिले , थोड़ा शुकून तो आदमी को मिल ही जाता है । वैसे भी देश की आर्थिक परिस्थितियाँ अब इस कदर बिगड़ चुकी थीं कि शुकून पाने के बहुत कम रास्ते उसके जीवन में शेष बचे थे, और ठीक उसी वक्त सपनों का यह सुनहला रास्ता जब देश में मीडिया और सरकार की मिली भगत से लांच हुआ तो आम लोगों की तरह उसने भी अनजाने यह राह पकड़ ली । आदमी जिस काम को चाहकर भी जीवन में नहीं कर पाता, सपने उसे भी मनचाहा कर लेने की छूट दे देते हैं । उसे सपने में अचानक लगा कि जिस लड़की को वह दिलो जान से चाहता है, और वास्तविक जीवन में जो उससे बहुत दूर जा चुकी है,  वह लड़की भी उसके बहुत करीब आ गयी है और उसे बेइन्तहा प्यार करने लगी है ।अपने जिस घर को मरम्मत कर  एक नया रूप देने की वह हमेशा सोचता आ रहा ,  वह भी एकदम नया बनकर उसके सामने तैयार खड़ा है । न वहां टिप्प टिप्प की आवाजें हैं , न झिन्गूरों का कोई शोर बाहर से भीतर झाँक रहा । जैसे उसके जीवन में सबकुछ चाक चौबंद हो उठा है । एकदम व्यवस्थित ! माँ जो लम्बे समय तक केंसर से जूझती हुई उसे हमेशा के लिए छोड़ गयी, सपने में वह भी उसकी पीठ सहलाती, उसे प्यार करती हुई मिली । जीवन में हमेशा के लिए बिखरी-बिखरी चीजें सपने में एक साथ जमा होकर उसके बहुत नजदीक आती हुईं लगीं । और अंततः नींद में जिस जगह आकर उसे सबसे अधिक शुकून महसूस होने लगा, ठीक उसी जगह का , झरोखे के उस पार से आती सूरज की रोशनी ने देखते ही देखते अतिक्रमण कर लिया । उसे इस बात का ठीक ठीक अनुभव था कि सपनों के बाहर भी जीवन में शुकून का अंत इसी तरह होता है । उसकी नींद टूट गयी । अचानक उसे झटका लगा और वह हड़बड़ाकर जाग गया । सुबह के सात बज चुके थे । बारिश थम चुकी थी । घर का फर्श सूखा था । पानी से भरी हुई बाल्टियों पर अचानक उसे प्यार आ गया । सबसे बुरे दिनों में साथ रहने वाली चीजें जीवन में सबसे प्यारी लगने लगती हैं, उस वक्त उसके भीतर ये बातें चुपके से चलकर आयीं और सपनों की दुनियां से उसे बाहर ले गयीं ।

आज बारिश न हो तो अच्छा है  यह सोचते हुए दांतों पर ब्रश करते-करते बरामदे में टंगे आईने में वह खुद के चेहरे को निहारने लगा । इनदिनों उसका चेहरा कितना काला पड़ता जा रहा है, आईना नहीं देखता तो यह बात उसके जेहन में नहीं आती । क्या फर्क पड़ता है आदमी का चेहरा गोरा रहे या काला पड़ जाए । जीवन में तकलीफें चेहरे का रंग देखकर भला थोड़ी आती होंगी ? चेहरे का रंग थोड़ा गोरा रहे , कभी यह बात भी उसके लिए मायने रखा करती थी, जब माँ जिंदा थी । उन दिनों उसके पास फेयरनेश क्रीम भी हुआ करते थे । उन दिनों वह एक लड़की के प्रेम में भी पड़ा हुआ था । फिर समय बदला और चेहरे के साथ साथ दिन भी धीरे धीरे काले होते गए । धीरे-धीरे ऎसी बातें खुद-बखुद उसकी दुनियां से विदा होती गयीं । माँ गयी , फिर एकाएक नौकरी भी गयी , नौकरी जाने से उसके साथ साथ जीवन में किसी लड़की से मिला बचाखुचा प्रेम भी चला गया । मानों जीवन में जैसे सबकुछ के, एक साथ विदा होने का समय आ गया हो ।

मुंह धोते-धोते अचानक उसे याद आया कि लाला को आज उसे रूपये भी चुकाने हैं । आज नहीं दिया तो हो सकता है शाम तक वह धमक आए ।

जो भी थोड़ा बहुत तुम्हारे पास है, चुकता कर दो बेटा !ये लाला भी अजीब जीव है, जब देखो फोन पर तकादा मारता रहता है, नहीं समझता कि आदमी की हालत इस देश में अभी फिलहाल कुछ चुका पाने की नहीं है । समय बदलने का इन्तजार भी वह नहीं कर सकता । 

कई बार बुरा समय, आदमी की साफ नीयत में भी छेद कर देता है । वह किसी तरह कर्ज के  बोझ से मुक्त तो होना चाहता है पर मुक्ति का रास्ता कई बार आदमी को द्वंद के भंवर में ले जाकर डुबोने लगता है । कई बार उसे भी लगता कि वह अजीब उलझनों में फंस गया है, और फिर वह लाला को लेकर झुंझला उठता। 

अमूमन वह सुबह टीवी नहीं देखता पर उसे जब कोफ्त सी हुई तो उसने सुबह सुबह टीवी ऑन कर लिया । एक न्यूज चेनल खुला तो वहां घड़ी घड़ी जादूगर जैसे लोग आने जाने लगे । उनकी जुबान जादू दिखाने वाले जादूगरों से कितनी मिलती जुलती लगी उसे । एक ने कहा  इस संकट काल में हो जाओ मालामाल ! इधर राहत की घंटी बजेगी और कुछ दिनों में ही लोगों की तकलीफें फुर्र..अ..अ !

तो उसके पेरेलल बैठा दूसरा एंकर थोड़ा लाउड होकर लगभग चिल्लाने  लगा बीस लाख करोड़ .... हाँ जी हाँ... बीस लाख करोड़ !

इस देश के लोगों को पिछले सत्तर सालों में इससे पहले ऎसी राहत न कभी मिली है, न कोई दूसरी सरकार कभी  यह दे पाएगी!पहला वाला फिर सुर अलापने लगा ।  मीडिया में जो भी बातें कही जातीं न जाने क्यों उसे सच की तरह ही लगतीं। एक उम्मीद लिए वह जी रहा था इसलिए उनकी बातें सच की तरह ही उस तक पहुँचने लगीं । उसे लगा .. क्या पता , हो सकता है अब की बार यह सच ही हो !

काश ! राहत की बारिश का एक छोटा सा हिस्सा , उसके घर के छप्पर से रिसकर उसकी किस्मत की बाल्टी में आ टपकेवह अनमने भाव से सोचने लगा ।  

इस बीच एक विज्ञापन अचानक बज उठा । कुछ समय के लिए जादूगर से लगने वाले लोग स्क्रीन से अदृश्य हो गए।  

उनकी जगह स्क्रीन पर बिस्किट खाते कुछ नंग धडंग बच्चे नाचने लगे और बेकग्राउंड में गाना बजने लगा खुशहाल बच्चे होंगे... खुशहाल भारत होगा, टन टना टन टन...  यह देखकर थोड़ी देर के लिए उसे अच्छा लगा । फिर  विज्ञापन खत्म होते होते अचानक सारे नंग धडंग बच्चे सूटेड बूटेड हो गए । उनके हाथों में महंगे स्मार्ट फोन आ गए और वे फर्राटे से अंग्रेजी में बातें करने लगे । गाना फिर बज उठा खुशहाल बच्चे होंगे , खुशहाल भारत होगा, टन टना टन टन... !चमत्कार से भरा यह दृश्य देख उसे बड़ा मजा आया ।  

बिस्किट से खुशी का आखिर क्या सम्बन्ध हो सकता है? इस पर वह सोचता, इससे पहले ही टीवी स्क्रीन पर जुबानी जादूगर फिर आ गए और अपने स्वर और हाव भाव का जादू फिर दिखाने लगे--  

इस संकट काल में हो जाओ मालामाल ! इधर राहत की घंटी बजेगी और कुछ दिनों में ही लोगों की तकलीफें फुर्र..अ..अ !

बीस लाख करोड़ .... हाँ जी हाँ... बीस लाख करोड़

यह जादुई संख्यां उसके दिमाग पर लगातार चोंट करने लगी । क्या पता उसके भी दिन बहुर जाएं । संभव है वह लाला के कर्ज से भी मुक्त हो जाए । एक सपना उसके भीतर फिर पलने लगा, पर यह सपना इस बार नींद में नहीं बल्कि उसने जागते हुए देखा ।

कुछ हो न हो उस वक्त एक आशा का संचार उसकी रक्त वाहिनियों में दौड़ गया । उसे लगा जैसे भीतर जो जमा था, उससे वह फिर थोड़ा खाली होकर हल्का हुआ है ।  ब्रश करने के बाद वह कीचन की ओर मुड़ गया। वहां कतारों में रखे तमाम डिब्बों को उसने गौर से देखना आरम्भ किया । एक डिब्बे की तलहटी पर चीनी लगभग पाव भर ही बची रह गयी थी । दूसरे डिब्बे में चायपत्ती लगभग खत्म होने को थी । उसे ऐसा लगा जैसे कतारों में रखे खाली डिब्बे, उससे शिकायत करने लगे हों ।  उसके पास जादू दिखाने का कोई हुनर नहीं था , होता तो वह भी  इन खाली डिब्बों को उनके भर उठने का सपना दिखाकर संतुष्ट कर देता । अचानक इन डिब्बों में उसे देश के लोगों के चेहरे नजर आने लगे जिन्हें टीवी के जादूगर आसानी से रिझा लेते हैं । उसे विज्ञापन की याद हो आयी और उसकी इच्छा बिस्किट खाने को हुई पर बिस्किट का डिब्बा एकदम खाली होकर ढनढना रहा था । फिलहाल उस वक्त वह खुशहाल भारत का हिस्सा नहीं बन सका और उसने सिर्फ काली चाय से ही अपनी इच्छा को शांत किया । उसके जीवन में इच्छाएं अधिक नहीं थीं, इसलिए अधूरी इच्छाओं की कोई लम्बी कतार भी नहीं थी। पर जो थीं उनके पूरे होने की गुंजाईश का उसे इन्तजार था ।

आज आसमान साफ था । सड़क पर लोगों की आवाजाही बढ़ गयी थी । वह जिस जगह खड़ा था वहां से विशालकाय मॉल की दीवारों पर लगे फिल्मों के आदमकद पोस्टर आते जाते लोगों को रिझा रहे थे । आपस में लिपटे हीरो-हिरोइन की तस्वीर न चाह कर भी आखिर उसकी आँखों में तैर ही गयी । उसे कोई फिल्म देखे भी तो एक अरसा हो गया था ।

अगर इस तस्वीर में हीरो की जगह वह ले भी ले, तो हिरोइन की जगह तो खाली ही रह जाएगी !‘ - जीवन में अधूरी रह गयी इच्छाओं में से उपजी एक अजीब सी इच्छा  ने उस पोस्टर को लेकर उसके जेहन में कुछ देर के लिए तरंगें सी पैदा कर दी, पर ठहरे हुए जल में तरंगें आखिर कब तक टिकतीं । अंततः बिना कोई ऊर्जा खपाए इन तस्वीरों को पीछे छोड़ वह फिर आगे बढ़ गया ।

आज उसे उसके मेनेजर मिस्टर नीरव के बताये ठिकाने पर भी जाना था । उसकी छोटी बच्ची को हफ्ते में एक दिन, घर पर पढ़ा देने का उनका आग्रह वह टाल नहीं सका था । यद्यपि पैसे लेने देने की कोई बात नहीं हुई थी पर उसे लग रहा था कि हजार दो हजार तो उसे मिल ही जाएंगे । उसके जीवन में इनदिनों यूं भी पैसों की अहमियत बढ़ती जा रही थी।

रास्ते भर कई दृश्यों से टकराते हुए वह पहली बार इस ठिकाने पर पहुंचा था । घर क्या था, वह तो एक आलीशान बंगला था । उसने गेट के भीतर जाने को कॉल बेल दबाया ही था कि उसका सामना वाचमेन से हुआ ।

क्या काम है? वाचमेन ने बड़ी रूखाई से जब पूछा तो उसने इतना भर कहा कि बच्ची को पढ़ाने आया हूँ, साहब का संदेशा है ।

सुनकर वाचमेन थोड़ा  नरम हुआ और बिना किसी भूमिका के दौड़ते हुए भीतर चला गया ।

वाच मेन जब बाहर आया तो अकेला नहीं था , इस बार उसके साथ एक सुन्दर और सुशील सी महिला बाहर आई । वह उससे बोली कुछ नहीं पर उसके चेहरे पर एक प्रसन्नता का भाव संवाद की शक्ल में उभर आया । उसके हिसाब से यह महिला संभवतः मिसेज नीरव ही रही होगी पर कुछ जानने समझने के लिए उसने ज्यादा दिमाग लगाने से अपने आपको रोका और चुपचाप उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। कोने में एक सुन्दर से कमरे में सजे गद्देदार सोफे में उसे ले जाकर बिठाया गया। रूम फ्रेशनर की भीनी भीनी खूशबू से उसके भीतर एक ताजगी पैदा हुई और उसे उसकी थकान जाने जैसी लगी । सीलन भरे कमरों में जीवन गुजारते हुए किसी खूशबू से एक अरसे बाद उसका सामना हुआ था । उसे यहाँ शुकून मिल रहा था। उसकी नजरें दीवारों पर टंगे सुन्दर सुन्दर स्टेच्यू पर ठहर गयीं । मोनालिसा की दुःख और खुशी मिश्रित एक तस्वीर भी वहां दिखी जिसे एकटक वह देखता रहा ।

वह कमरे में टंगी तस्वीरों में खोया हुआ था कि इसी बीच एक सर्वेंट उसे चाय और पानी सर्व कर चली गयी। एकबारगी उसे महसूस हुआ कि दूर परदे की ओट से मिसेस नीरव उसे गौर से वाच कर रही हैं। ऐसा करना उसे अस्वाभाविक नहीं लगा। संभव है वह उनकी बच्ची का ट्यूटर बनकर आया है तो एक जिज्ञासा उनमें चलकर आयी हो‘ - वह यही सोचता रहा, कि इसी बीच एक आठ साल की प्यारी सी बच्ची उसके पास आकर एकदम चुप सी बैठ गयी। बच्चों से बातचीत करने का उसके पास यूं तो कोई अनुभव नहीं था पर वह पहले अक्सर सोचता रहा था कि एक दिन वह एक प्यारी सी बच्ची को इस दुनियां में लेकर आएगा। नौकरी के साथ प्रेमिका के छूट जाने से  उसके भीतर की यह इच्छा जो अब कहीं गुम हो चुकी थी, उस इच्छा के एहसास भर ने न जाने कहाँ से उसके भीतर संवाद की वह कला पैदा कर दी थी कि वह बच्ची से जल्द ही घुल मिल गया। इस बीच उसने कई बार महसूस किया कि मिसेस नीरव पर्दे की ओट से उसे देखे ही जा रही हैं । 

जब जाने का समय हुआ तो बच्ची की माँ सामने आकर भी चुप ही रही, उसकी जगह बच्ची बोल पड़ी मास्टर जी आप कल फिर आओगे न ?‘

उसकी बातें सुन वह मिसेस नीरव की ओर ताकने लगा जो उसके सामने खड़ी उसे एकटक अब भी देख ही रही थीं । उन्हें देखकर उसे लगा कि नजरों में भी संवाद की एक भाषा होती है । उन्हें शायद मालूम था कि हफ्ते में केवल विकली ऑफ के दिन ही उसे आना है । वह चाहता था कि मिसेज नीरव कुछ कहें पर वह न जाने क्यों चुप ही रहीं । अपने जीवन में चुप्पियों की गूंज को अक्सर वह सुनता आया है इसलिए अब उसे चुप्पियाँ नहीं डरातीं। चुप्पियों की जगह यद्यपि जाते जाते उनके चेहरे पर विदा का भाव जरूर था जो उसे शुकून दे गया । 

वह लौट आया । उसे यह अटपटा लगा कि मिस्टर नीरव एक बार भी उससे आकर मुखातिब नहीं हुए । वह घर में कहीं दिखे भी नहीं ! यह बात उसके मन में आई तो जरूर, पर उसे लगा कि किसी का किसी से मिलना जरूरी तभी तक है जब उसे जरूरी समझा भी जाए । हो सकता है मिस्टर नीरव ने उससे मिलना जरूरी न समझा हो । हो सकता है आज वे कहीं बाहर ही गए हों। हो सकता है उन्होंने कोई दूसरी शादी ही कर ली हो और अब अलग रहते हुए बच्ची की जिम्मेदारी निभाने के लिए उन्होंने यह व्यवस्था कर रखी हो । आज के समय में आदमी के जीवन में कुछ भी संभव था, पर उसके लिए ये सारे गैर जरूरी सवाल थे । यूं भी उसके जीवन में सवालों की कोई कमी तो थी नहीं कि गैर जरूरी सवालों को वह अपने साथ लादता फिरे । 

वह उनके घर हर हफ्ते नियमित आने जाने लगा ।  उसे मेनेजर साहब से इसके बदले पैसे भी देर सबेर मिलने लगे, पर  उसके मन के भीतर चलकर आए सवालों का कुंहासा धीरे धीरे घना होता गया । मिस्टर नीरव घर पर आखिर कभी दीखते क्यों नहीं ? यह सवाल अंततः उसके जीवन की दीवारों पर न चाहते हुए भी टंग गया ।

उसे क्या? कोई दीखे चाहे न दीखे , उसे अपना काम करके चले आना है!वह जानता था कि इस सवाल से उसके जीवन का कोई बावस्ता नहीं है फिर भी यह सवाल अब उसे भीतर से परेशान करने लगा था । पर इन सबके बावजूद उसे यह अच्छा लगने लगा था कि कम तनख्वाह की तंगी के बाद यहाँ आकर उसे कुछ अतिरिक्त पैसे मिलने लगे हैं जिससे वह लाला का कर्ज अब अदा कर सकता है ।  

आज आसमान साफ था । बारिश की संभावना न के बराबर थी । नहा धो लेने के बाद आईने में आज उसने अपना चेहरा फिर देखा,  उसे लगा... काला पड़ जाने के बावजूद उसका चेहरा उतना भी बुरा नहीं । तैयार होते होते अचानक फिर उसे लाला की याद हो आयी । वह तो कुछ दिनों से उसे भूल ही गया था ।

आखिर वह आ क्यों नहीं रहा ? इतने दिनों तक तो उसे तकादे के लिए आ ही जाना था।वह सोचते सोचते घर से निकला ही था कि अचानक उसका सेलफोन बज उठा

जी! आज आप आ रहे हैं न?‘ एक सुरीली सी जनानी आवाज सुनकर वह कुछ देर के लिए अकचकाया पर अपने को सँभालते हुए वह पूछ बैठा-

जी ! आपको मैं पहचान नहीं पाया ! आप कहाँ आने की बात कर रही हैं ?‘ - उसके इतना कहने भर से उधर से फोन डिस्कनेक्ट कर दिया गया।

आखिर कौन महिला रही होगी ? आज तो ट्यूशन का भी दिन नहीं कि मिसेज नीरव उसे आने की बात कहें । और फिर वे उसे फोन क्यों करेंगीं , वह तो नियत दिन और समय पर खुद बखुद वहां  पहुँच ही जाता है । फिर उसे शक हुआ कि उसके प्रति कहीं मिसेस नीरव की रूचि तो नहीं जाग गयी?‘- एक अजीब सा मानसिक असंतुलन  उसके भीतर कुछ देर के लिए घर करने लगा । आखिर कौन होगी भला ? उसने उसी नम्बर पर दोबारा संपर्क करने की बहुत कोशिश की पर हर बार आउट ऑफ कवरेज एरिया सुनकर वह निराश हो उठा । आखिर कौन होगी भला ? यह सवाल उसे मथता ही रहा । सोचते-सोचते वह घर से निकल अब सड़क पर आ गया । उसे ऑफिस के लिए देर हो रही थी । वह तेज चलते-चलते बस स्टेंड तक पहुँच गया । बस में आज भीड़ नहीं थी । वह आराम से बस के कोने वाली सीट पर बैठ गया । उसकी नजर बगल की सीट पर रखी एक अखबार पर पड़ी । संभव है कोई यात्री पढ़ने के बाद उसे छोड़ गया हो । वह इत्मीनान से उसके पन्ने पलटने लगा । दूसरा पन्ना वह पलटा ही था कि तीसरे पन्ने की एक तस्वीर पर उसकी नजर गयी । अरे यह तो लाला की तस्वीर है ! समाचार में लिखा था ...व्यापारी को व्यापार में भारी नुकसान हो रहा था , कर्ज में वह डूब गया था, और परेशान होकर उसने आत्महत्या कर ली !

खबर पढ़कर उसे एक झटका सा लगा । छिः! सरकारें भला किसी को क्या राहत दे पाएंगी !टीवी पर जादूगरों द्वारा चिल्ला चिल्ला कर कही जाने वाली बीस लाख करोड़ की बातें उस वक्त उसे पूरी तरह झूठ का पुलिंदा लगीं ।

तो उस फोन काल का सम्बन्ध कहीं लाला की मौत से तो नहीं  ? वह जनानी आवाज आखिर किसकी हो सकती है ? कहीं उनकी बेटी संघमित्रा की तो नहीं? अगर वह संघमित्रा ही है तो उसका नम्बर आखिर उसे कहाँ से मिला होगा ? जीवन में जगह-जगह ऊग आए सवालों के साथ अनगिनत सवाल फिर उसके भीतर उपजने लगे । सवाल उसे पिछले दिनों की ओर घसीटते हुए ले गए । उसे आश्चर्य हुआ कि जीवन में पीछे छूट गयी बहुत प्रिय आवाजों को भी पहचानने की क्षमता अब उसमें नहीं रही !

अखबार पलटते पलटते चौथे पन्ने पर उसे लाला की तस्वीर फिर दिखी । संघमित्रा की ओर से अपने पिता के द्वादश कर्म पर शामिल होने के निवेदन ने उसे विचलित सा कर दिया।उसने ट्रू कालर में उस नम्बर को चेक किया । वह संघमित्रा का ही नम्बर था । अपने जीवन से विदा हुए प्रेम को वह भीतर से महसूस करने लगा । वह वहां जाए या नहीं जाए?‘ इस सवाल के भीतर जीवन में गुम हो चुकी मीठी-मीठी आवाजों के शोर ने, उसे सपनों की दुनियां से खदेड़कर जीवन की सबसे सख्त जमीन पर लाकर पटक दिया था !

अफसोस हुआ कि वह  लाला का कर्ज भी उनके जीवित रहते नहीं चुका पाया । इस बीच उसके भीतर से लगातार आवाजें उठने लगीं कि उसे वहां जरूर जाना चाहिए... ! 

बस की सीट पर पीठ को टिकाकर उस वक्त उसने आँखें मूंद ली । जीवन के सबसे असमंजस भरे दिनों की गिरफ्त में आकर वह बुझे मन से सोचने लगा- उसकी नियत कभी कर्ज न चुकाने की रही ही नहीं, सो लाला का कर्ज न चुका पाने का दोषी वह कदापि नहीं है ! उसका दोषी तो यह देश है, जिसने उसकी अच्छी भली नौकरी छीन ली, और फिर नौकरी क्या गयी उसके जीवन का प्रेम ही छीन गया।

बस की सीट पर बैठे बैठे आत्मलीन होकर अपने से ही वह बातें करता रहा - अगर वह, वहां नहीं गया तो उस लड़की के प्रेम का कर्ज न चुका पाने का आजीवन दोषी जरूर होगा, जिसके लिए वह अपने को कभी माफ नहीं कर पाएगा

उसे हमेशा लगता रहा कि उसकी नौकरी उन दिनों न गयी होती तो लाला अपनी बेटी  संघमित्रा का हाथ उसके हाथों में जरूर सौंप देता,पर सरकार के तमाम गलत फैसलों की वजह से आर्थिक मंदी ने देश को पीछे धकेला और अनगिनत लोगों के साथ उसकी भी नौकरी चली गयी । कोई बाप किसी बेरोजगार के साथ अपनी बेटी का ब्याह भला कैसे करता? लाला को यह रिश्ता असुरक्षित लगा , उसे भी लगने लगा कि वह संघमित्रा के साथ न्याय नहीं कर पाएगा । फिर समय बीतने के साथ संघमित्रा की शादी कहीं और हो गयी । यह सबकुछ कितना दुखद था उसके लिए ।

नियत तारीख को वह वहां गया और लौट भी आया। वहां से  लौटने के बाद न जाने उसे क्यों लगने लगा था कि उसके हिस्से का प्रेम, अब उसके हिस्से का बिलकुल नहीं रहा । जीवन में सपने और हकीकतों के अंतर की महीन परतों के बीच अक्सर उसे रह-रहकर महसूस होता रहा कि जैसे इस मुल्क के किसी हत्यारे ने उसके प्रेम की हत्या कर  दी हो ।       

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92 श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ छत्तीसगढ़   

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आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

नीरज वर्मा की कहानी : हे राम

नीरज वर्मा की कहानियाँ किस्सागोई से भरपूर होती हैं । साथ साथ उनकी कहानियाँ राजनैतिक संदर्भों को छूती हुईं हमें एक तरह से विचारों की दुनिया में घसीटकर भी ले जाने की कोशिश करती हैं। कहानी 'हे राम' इस बात को स्थापित करती है कि राजनीति मनुष्य को विचारवान होने से हमेशा रोकती है क्योंकि विचारवान मनुष्य के बीच राजनीति के दांव पेच फेल होने लगते हैं । नीरज वर्मा अपनी इस कहानी में गांधी को केंद्र में रखकर घटनाओं को बुनते हैं तब ऐसा करते हुए वे हमें उसी विचारों की दुनिया में ले जाने की कोशिश करते हैं।गांधी को केंद्र में रखकर लिखी गयी यह कहानी 'हे राम' देश के वर्तमान हालातों पर भी एक नज़र फेरती हुई आगे बढ़ती है । बतौर पाठक कहानी के पात्रों के माध्यम से इस बात को गहराई में जाकर महसूस किया जा सकता है कि गांधी हमारे भीतर वैचारिक रूप में हमेशा जीवित हैं । जब भी अपनी आँखों के सामने कोई अनर्गल या दुखद घटना घटित होती है तब हमारी जुबान से अनायास ही "हे राम" शब्द  निकल पड़ते हैं । इस कहानी में नीरज यह बताने की कोशिश करते हैं कि गांधी का हमारे जीवन में इस रूप में अनायास लौटना ही उनकी

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

डॉक्टर उमा अग्रवाल और डॉक्टर कीर्ति नंदा : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रायगढ़ शहर के दो होनहार युवा महिला चिकित्सकों से जुड़ी बातें

आज 8 मार्च है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस । आज के दिन उन महिलाओं की चर्चा होती है जो अमूमन चर्चा से बाहर होती हैं और चर्चा से बाहर होने के बावजूद अपने कार्यों को बहुत गम्भीरता और कमिटमेंट के साथ नित्य करती रहती हैं। डॉ कीर्ति नंदा एवं डॉ उमा अग्रवाल  वर्तमान में हम देखें तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला चिकित्सकों की संख्या में  पहले से बहुत बढ़ोतरी हुई है ।इस पेशे पर ध्यान केंद्रित करें तो महसूस होता है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला डॉक्टरों के साथ बहुत समस्याएं भी जुड़ी होती हैं। उन पर काम का बोझ अत्यधिक होता है और साथ ही साथ अपने घर परिवार, बच्चों की जिम्मेदारियों को भी उन्हें देखना संभालना होता है। महिला चिकित्सक यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ है और किसी क्षेत्र विशेष में  विशेषज्ञ सर्जन है तो  ऑपरेशन थिएटर में उसे नित्य मानसिक और शारीरिक रूप से संघर्ष करना होता है। किसी भी डॉक्टर के लिए पेशेंट का ऑपरेशन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है । कहीं कोई चूक ना हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । इस चूक में  पेशेंट के जीवन और मृत्यु का मसला जुड़ा होता है।ऑपरेशन थियेटर में घण्टों  लगाता