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देवेश पथ सारिया की कवितायेँ : कविता संग्रह 'नूह की नाव' से चुनी हुईं कविताओं का पाठ.

दे वेश पथ सारिया हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कवियों में से एक हैं । हाल ही में भारतीय साहित्य अकादेमी  से उनकी कविताओं का एक संग्रह 'नूह की नाव' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में बहुत सी कवितायेँ मुझे पसंद हैं । उनमें  से चुनी हुई छः कवितायेँ यहाँ प्रस्तुत हैं.  



"देवेश की कविताओं में मूर्तमान होती चीजों में भी एक तरह से अमूर्त सा लगने वाला अति सूक्ष्म विवेचन है जो अमूमन हमारी नज़रों से छूट जाता  है । उन छूटी हुई चीजों से देवेश हमारा परिचय कराते हैं । उनकी कविताओं में चेतन अचेतन रूप में फैले हुए मानवीय जीवन के राग-विराग सह्सा इस तरह आने लगते हैं कि कई बार चकित होना पड़ता है । कवि के पास जीवन और बदलते समय को देखने परखने की एक अलहदा दृष्टि भी है जो इन कविताओं को पुष्ट करती है । उनकी कहन शैली से भी कविताओं में भाषिक सौन्दर्य उत्पन्न होता है"-  रमेश शर्मा

 



एक पहिये की साइकिल वाला बच्चा


एक धूरी पर घूमती है सारी पृथ्वी

यह बेहद मामूली लेकिन जरूरी पाठ

मुझे फिर से याद आया था

उस ताईवानी बच्चे को देखकर

जो निकल पड़ा था

चिंग हुआ यूनिवर्सिटी की व्यस्त सड़क पर

अपनी एक पहिये की साइकिल लिए

जैसे टायफून के अभ्यस्त इस शहर में

उड़ रहा हो एक पक्षी , टायफून के दौरान

 

उस बच्चे के लिए

सड़क के सवारों ने ले लिया था विराम

थम गयी थी जल्दी जल्दी की बदहवास दौड़

ताकि एक बच्चा जी सके अपने स्वप्न को उन्मुक्त होकर

 

एक पहिये की उसकी सवारी में समाया था

जल थल और नभ तीनों की यात्राओं का आनंद

उस दिन मैंने देखा था

कागज की नाव को नूह की नाव बनते हुए

 

उस दिन उस बच्चे की वजह से मुझे याद आया

एक और बच्चा

जो बरसों पहले बिलकुल अलग परिवेश में

ऎसी ही स्वप्निल उड़ान पर था

जो एक छोटे से गाँव में दौड़ा जा रहा था

लकड़ी से ठेलते हुए साइकिल के एक पुराने टायर को

बेख़ौफ़ पोखर से लौट रही नुकीले सिंग वाली मरखनी भैसों से

बेखबर, अपने से आधी ऊंचाई की बकरियों के झुण्ड से

वह उसका पहला अनुभव था

दुनिया को एक पहिये की धुरी में समेट लाने का I

 

 

महामृत्यु में अनुनाद

 

महामारी के दौरान भी हो रहे होंगे निषेचन

बच्चे जो सामान्य परिस्थितियों में गर्भ में आते

आएँगे इस दुनिया में

कठिन काल में प्रेम की दस्तावेज़ बनकर


बड़े होने पर वही बच्चे

किंवदंती की तरह सुनेंगे

इस महामारी के बारे में

और विश्वास नहीं करेंगे इस पर


आज की काली सच्चाई का किंवदंती हो जाना

गहराता जाएगा आने वाली पीढ़ियों के साथ

जैसे हममें से बहुत

मिथक समझते थे प्लेग की महामारी को

जो लौटती रही अलग-अलग सदियों में,

अलग-अलग देशों में

उजाड़ती रही सभ्यताओं के अंश

पौराणिक गल्प-सा मानते थे हम

अकाल में भुखमरी से मरे लोगों को

येलो फीवर या ब्लैक डेथ को

(मानव महामृत्यु में भी रंग देखता है

यह कलात्मकता है या रंगभेद?)

महामारी के दौरान मरे लोग

सिर्फ़ एक संख्या होते हैं

जैसे होते हैं, युद्ध में मरे लोग

और हमेशा कम होता है आधिकारिक आँकड़ा

कोई नहीं याद रखता

कि उनमें से कितने कलाकार थे, कितने चित्रकार, कितने कवि

कौन-सी अगली कविता लिखना या अगला चित्र बनाना चाहते थे वे

व्यापारी कितना और कमाना चाहते थे

कितने जहाज़ी अभी घर नहीं लौटे थे

कौन-कौन समुद्र में किसी अज्ञात निर्देशांक पर मारा गया

कितने बुज़ुर्ग अभी जीने की ज़िद नहीं छोड़ना चाहते थे

कितने शादीशुदा जोड़ों की सेज पर

अभी आकाश से टपक रहा था शहद

कितने नवजात बच्चों ने अभी नहीं चखा था

माँ के दूध के अलावा कुछ और

इनमें से कितने गिने भी नहीं गए आधिकारिक आँकड़ों में

सरकारों-हुक्मरानों के मुताबिक़ सदियों बाद भी ज़िंदा होना चाहिए उन्हें


महामारी से, या महामारी के कुछ दशक बाद मरकर

हममें से प्रत्येक, संख्या में एक का ही इज़ाफ़ा करेगा

भीड़ का हिस्सा या भीड़ से अलग ख़ुद को मानते रहने वाले हम

गिनती में सिर्फ़ एक मनुष्य होते हैं


हममें से अधिकांश कवि गुमनाम मरेंगे

और यदि जी पाई हमारी कोई कविता, कोई पंक्ति

भविष्य में उसे उद्धृत करते हुए कोई इतना भर कहेगा

किसी कवि ने कहा था

कहीं कहीं

इस समय लिखी जा रही सभी रचनाओं में निहित है

विषाणु, पलायन, अवसाद, एकात्मकता


अंधकार की सभी कविताएँ

जो फ़िलवक़्त बड़ी आसानी से समझ जाती हैं

अपने बिंबों की विस्तृत परिभाषाएँ माँगेंगी भविष्य में

किंवदंती का पुष्ट-अपुष्ट आधार बनेंगी


'किसी कवि' में समाहित सभी कवियों

आओ, खड़े होते हैं

महामारी से बचने को अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए

एक नहीं, तीन-तीन मीटर दूर घेरों में

या मान लेते हैं

एक आभासी दुनिया में ठहरे हुए काल्पनिक घेरे

और बारी-बारी गाते हैं

प्लेग और अकाल आदि में मर गए

पुरखों के स्मृति-गीत

सुनाते हैं अपनी कविताएँ


उसके बाद

उम्मीद भरी समवेत हँसी हँसते हैं


ठहाकों का अनुनाद

एक कालजयी कविता है।


मॉस्को की लड़की

मॉस्को में एक लड़की

जिससे मेट्रो रेल की आपाधापी में

छू गया था मेरा पैर


जैसी कि आदत डाली गई है

'लड़कियों से पैर नहीं छुआते'

तत्क्षण, उसके साथ से अपनी हथेली छुआकर

माथे से लगा ली थी मैंने


यह बस अपने आप हुआ,

एक आदत के तहत

सोच सकने से भी पहले


बहरहाल, अब सोचता हूँ

उसके देश में क्या ऐसा करता होगा कोई

वह मुझे अजीब समझती होगी

या शायद अवसरवादी बदनीयत

उसे मेरी भाषा आती थी

ही मैं रूसी जानता था

तो हम दोनों मौन रहे

बस इतना याद है

वह मुझ पर हँसी नहीं थी

और अपना स्टेशन आने तक

देखती रही थी मुझे।

 

गड़रिया

वह एक गड़रिया है
जंगल से सटे गाँव का गड़रिया
अपना रेवड़ लिए
गाँव से जंगल की पगडंडी पर
लाठी खड़काते घूमता है वह

कान में बाली,
भरे चेहरे पर घनी मूँछें
गँवई भाषा
उसके गीतों में
लोकदेवताओं की स्तुति है
जो रेवड़ के लिए संगीत है
और भेड़ों के गले की घंटियाँ
गड़रिये के लिए संगीत

उसके रेवड़ में कोई सौ भेड़ हैं
जिनमें से हर एक को
अलग-अलग पहचानता है गड़रिया

भेड़ें उसकी आवाज़ पर चलती हैं
उसके संकेत पर मुड़ती हैं
उसकी ललकार पर रुकती हैं
मैने उसे देखा है
लाठी लिए हुए,
लाठी खड़काते हुए
पर किसी ने उसे,
कभी नही देखा
किसी भेड़ पर लाठी उठाते हुए

हर गड़रिये का
अपना अलग इशारा होता है
लाठी खड़काने का अलग अंदाज़
जिससे वह नियंत्रित करता है
अपना रेवड़ का साम्राज्य

इन दिनों,
सिकुड़ चुका है जंगल
सिमट गये हैं चरागाह
उसका रेवड़ छोटा हो रहा है
गड़रिये का भविष्य संशय में है
और वह आज के बचे-खुचे चरागाह में
बेफ़िक्र भेड़ चरा रहा है
कल की चिंता नहीं करता गड़रिया।

 

सबसे खुश दो लोग

 

लड़के और लड़की की

अपने-अपने घरों में

इतनी भी नहीं चलती थी

कि पर्दों का रंग चुनने तक में

उनकी राय ली जाती


उनकी ज़ेबों की हालत ऐसी थी

कि आधी-आधी बाँटते थे पाव-भाजी

अतिरिक्त पाव के बारे में सोच भी नहीं सकते थे


अभिजात्य सपने देखने के मामले में

बहुत सँकरी थी

उनकी पुतलियाँ


फिर भी

वे शहर के

सबसे ख़ुश दो लोग थे


क्योंकि वे

घास के एक विस्तृत मैदान में

धूप सेंकते हुए

आँखों पर किताब की ओट कर

कह सकते थे

कि उन्हें प्रेम है एक-दूसरे से।

 

प्रेम को झुर्रियाँ नहीं आतीं

बुढ़िया ने गोद में रखा

अपने बुड्ढे का सर

और मालिश करने लगी

सर के उस हिस्से में भी

जहाँ से बरसों पहले

विदा ले चुके थे बाल


दोनों को याद आया

कि शैतान बच्चे टकला कहते हैं बुड्ढे को

और मन ही मन टिकोला मारना चाहते हैं

उसके गंजे सर पर


दोनों हँसे

अपने बचे हुए दाँत दिखाते हुए

बुढ़िया ने हँसते हुए टिकाना चाहा

(जितना वह झुक पाई)

झुर्रियों भरा अपना गाल बुड्ढे के माथे पर


बैलगाड़ी के एक बहुत पुराने पहिए ने

याददाश्त सँभालते हुए गर्व से बताया :

मैं ही लेकर आया था इनकी बारात।

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(कवि देवेश पथ सरिया ताइवान के शिनचू शहर में खगोल विज्ञान में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं इनकी यूनिवर्सिटी का नाम नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी है जहां ये अगस्त 2015 से कार्यरत हैं. इनका शोध का विषय Extrasolar planets और Star Clusters पर केंद्रित है. राजस्थान के अलवर जिले के राजगढ़ तहसील से बी. एस. सी. करने के बाद इन्होंने अलवर से 2008 में भौतिक शास्त्र में एम. एस. सी. की. उसके बाद ARIES वेधशाला, नैनीताल से पी. एच. डी. की. कई साहित्यिक पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और समाचार पत्रों में इनकी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं)

 

ईमेल: deveshpath@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. अनुग्रह के माध्यम से बहुत अच्छी कविताएं पढ़ने को मिलीं। कविताओं को पढ़कर कवि के अन्य कविताओं को लेकर भी मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है। गडरिया कभी भी अपने भेड़ों पर लाठी से वार नहीं करता यह एक मार्के की बात कवि ने पकड़ी है।अन्य कविताओं में भी बहुत सूक्ष्मता से नई बातें सामने आती हैं।

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