महावीर राजी की कहानी बकुल बाउरी की हिचक कथा पढ़ते हुए बतौर पाठक कई बार थोड़ी बेचैनी महसूस होती है कि बकुल बावरी की जो हिचक है वह जल्दी दूर हो और वह माछ के उधारी की रकम बारह सौ रुपये का तकादा जल्दी करे।
इस हिचक के आरपार ही कहानी की बुनावट है और इस बुनावट के भीतर ही किस्सागोई है। दरअसल कथाकार किसी कहानी को लिखते हुए बहुत महीन चीजों को देखने की कोशिश करता है।इस कहानी में कथाकार की नजर इस हिचक पर ही टिकी हुई है। इस हिचक के बने रहने पर ही कहानी की सार्थकता है जो कि आज के समाज का एक कड़वा यथार्थ भी है।
मनुष्य ऊपर उठने के लिए बहुत सारे हथकंडे अपनाता है और जैसे-जैसे वह समाज में ऊपर उठता जाता है उसकी नीचता और बढ़ती जाती है। इस कहानी में मदन माझी से डॉक्टर मदन मुखर्जी बनने की कथा मनुष्य के पतन की ही कथा है। इस पतन में एनजीओ के रूप में तंत्र के दूसरे हिस्से भी शामिल हैं जो हर किस्म के अवैध कामों को पैकेज के माध्यम से करने का दावा भी करते हैं और अंततः उसे सम्पन्न भी करवा देते हैं । मदन माझी ऐसे ही तंत्रों के माध्यम से एक दिन होम्योपैथी का डॉक्टर बन जाता है और कागजी दस्तावेजों के हेर फेर से दलित से सवर्ण भी हो जाता है। पर इस तरह ऊपर उठने की यात्रा में उसके भीतर की मनुष्यता पूरी तरह खत्म हो जाती है और उसकी भीतरी दुनियाँ नीचता की कोई कथा सुनाने लगती है।
इस कहानी में बकुल बावरी सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । उसका व्यवसाय माछ( मछली) बेचने का है । मदन माझी उर्फ डॉक्टर मदन मुखर्जी की उपस्थिति इस कहानी में उच्च मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले शख्स के रूप में है । वह हर दिन बकुल बावरी की माछ की दुकान पर माछ खरीदने इसलिए आता है क्योंकि उसकी नियत बकुल बावरी की युवा पत्नी सोनमाछ के मांसल देह और उसकी सुंदरता पर डोल गयी रहती है। वह उसकी दुकान पर घंटों बैठा रहता है और किसी न किसी बहाने सोनमाछ का स्पर्श सुख पाने की कोशिश करता है।
एक दिन वह उसकी दुकान से उधार में 1200 रुपये की माछ भी ले जाता है क्योंकि संयोगवश वह घर से पैसे लाना भूल गया रहता है। सोनमाछ भी उसे उधार में माछ दे देती है और कहती है कि कोई बात नहीं, आप तो हमारे परमानेंट ग्राहक हैं , कल दे दीजिएगा। कहानी में घटनाएं बदलती हैं । सोनमाछ बकुल बावरी से कहती है कि मेरे ऊपर लोगों की बुरी नज़र रहती है इसलिए कल से मैं घर पर रहूंगी और आप ही दुकान संभालना।वह पेट से भी रहती है । इस तरह सोनमाछ का दुकान पर आना बंद हो जाता है। दुकान पर सोनमाछ के न आने की घटना मदन माझी उर्फ डॉक्टर मदन मुखर्जी को खल जाती है। वह खुन्नस में उधार की रकम जानबूझकर देना नहीं चाहता । मदन माझी उर्फ डॉक्टर मदन मुखर्जी बकुल बावरी की दुकान पर आना ही छोड़ देता है। बकुल बावरी उसको देखते रहता है कि वह किस तरह अगल-बगल की दुकान से माछ खरीद कर रोज ले जा रहा है । वह उसकी दुकान पर इसलिए नहीं आता क्योंकि सोनमाछ की देह पर बुरी नजर डालने का आनंद अब उसे नहीं मिल पा रहा है। बकुल बावरी की उधार की रकम मदन माझी उर्फ डॉक्टर मदन मुखर्जी के पास फंस जाती है , जबकि उसे जल्द ही सेठ को माल की रकम भी चुकानी रहती है अन्यथा वह अगली बार उसे माछ की सप्लाई ही नहीं करेगा।
किसी सर्वहारा वर्ग के व्यक्ति द्वारा किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति से अपनी ही रकम को मांग न पाने की जो एक हिचक है , एक भय है, उसी हिचक और उसी भय को इस कहानी में विस्तार दिया गया है । उच्च वर्ग से संबंधित किसी व्यक्ति का रहन सहन, उसका रुतबा , उसकी कार और कोठी, सर्वहारा व्यक्ति को भयाक्रांत करते हैं और बहुत जरूरतमंद होते हुए भी अपनी ही रकम को वह उससे मांगने से इसलिए डरता है कि कहीं वह नाराज न हो जाए। यह कहानी उस शोषण की कथा को भी सामने रखती है।
आज का समाज मदन माझी से डॉक्टर मदन मुखर्जी बनते हुए लोगों का समाज है जिनके भीतर की मनुष्यता और उनकी नैतिकता रसातल में जाती हुई नजर आती है। दुर्भाग्य से इसी तरह के समाज को हमने सभ्य समाज कहना शुरू कर दिया है।
यह कहानी इन सारी घटनाओं का एक गंभीर चित्रण प्रस्तुत करती है।
महावीर राजी हमारे समय के एक वरिष्ठ कहानीकार हैं, इस कहानी के लिए उन्हें बधाई।
【यह कहानी वनमाली कथा के मार्च 2023 अंक में प्रकाशित हुई है】
उतरते बैशाख का महीना ! जेठ की तपिश भरी गर्मी का पूर्वाभास कराता मौसम ! दोपहरी के लगभग तीन बजे का समय !
जैसे ही ट्रैन ने जानी पहचानी 'पौं$$$$...' की लंबी कर्कश फूत्कार छोड़ी, पहिये पलक झपकते गंतव्य की ओर लुढ़कना शुरू कर दिए। ईएमयू ट्रेनों की फितरत होती है कि इंजिन का बिगुल बजा नहीं कि गाड़ी आनन फानन गति पकड़ने लगेगी। बकुल बाऊरी लंबे लंबे डग भरता प्लेटफॉर्म में घुसा ही था कि नजरें ट्रैन के लुढ़कते पहियों पर पड़ी। उसकी आँखों मे चीते की सी फुर्ती भर आई। इसके पहले कि ट्रेन की रफ्तार और तेज होती, दो चार बड़ी छलांगें मारने के बाद सिद्ध जिम्नास्ट की तरह ऐसी उछाल भरा कि भागते डिब्बों में से एक में सवार होने में सफल हो ही गया। एक क्षण को लगा जैसे वह क्रिकेट का बॉल हो जिस पर 'प्लेटफॉर्म एन्ड' से रोहित शर्मा ने शॉट लगाया हो और बॉल सीधे 'बॉगी एन्ड' पर खड़े धोनी के ग्लोब्स में समा गई हो। उसे क्रिकेट का ज्ञान बस 'किसने चौका-छक्का मारा.. कितने रन बने.. कौन आउट हुआ..' से ज्यादा नहीं था पर चूकिं क्रिकेट मैच देखने का शौकीन था और रोहित-धोनी का जबरदस्त फैन भी, अपनी कल्पना पर खुश हो गया। ट्रैन फूल रफ्तार पकड़ चुकी थी। बकुल की सांसें अस्वाभाविक रूप से तेज थीं। तेज चलती साँसों को सम करने में कुछ समय लगा। सांसें स्थिर हुईं तो बकुल ने सीट की तलाश में नजरें चारों ओर दौड़ाईं। एक भी सीट खाली नहीं दिखी। बल्कि इक्का दुक्का यात्री बीच के गलियारे में खड़े भी थे। बकुल नजरों में खोजी तासीर लिए सीट तलाशता आगे की ओर बढ़ने लगा।
तो जी.. बकुल जब तक सीट तलाशने में लगा है, क्यों न उसकी जन्म पत्री का थोड़ा तिया-पाँचा बांच लिया जाय ! बकुल बाऊरी सियालदह से कुछ दूर नैहाटी में रहता है। वहाँ 'माछेर बाजार' में उसकी छोटी गुमटी है जहां मछली बेचा करता है। कुछ दिनों पहले तक गुमटी में उसकी पत्नी सोना बैठती थी और वह टोकरी में मछली भर कर नयी बस रही कॉलोनियों व सोसायटियों में फेरी किया करता था। सोना कसे बदन की बहुत ही खूबसूरत युवती थी। रंग ऐसा जैसे नख से शिख तक सोने का झोल चढ़ा हो काया पर। मोटी मोटी आंखों में हर वक्त दो मृग शावक कुलांचें भरते रहते। बोलने वाले कानाफूसियों में ये भी बोल जाते कि दलितों में भला ऐसी सुंदरता संभव है क्या। कुछ तो गड़बड़ है ! बकुल इन सब बातों को बीड़ी के धुएं में उड़ा देता और प्यार से उसे सोन माछ ( सोन मछली) पुकारता - ओ गो आमार सोन माछ..( ऐ मेरी सोन मछली ) !
गुमटी में ग्राहक मछली देखते देखते मृग शावकों की कुलांचों में खोने लगते। कुलांचों के सम्मोहन में फंसी उनकी नजरें फिर सोनमाछ की देह के पूरे 'रनवे' पर रेंगने लगतीं। कोई कोई तो मछली तुल जाने के बाद झोले में डलवाते समय बहाने से उसकी हथेलियों को छूने की कोशिश कर बैठता। डॉ मदन मुखर्जी पहली बार जब उसे देखे तो देखते रह गए। टिन के टपरे वाले बड़े से प्रांगण में छोटी छोटी गुमटियों की कई कतारें थी। वे माछेर बाजार तो रोज ही आते, पर इस कतार की ओर पहली बार आना हुआ और आए तो ऐसे आये कि सोना के परमानेंट ग्राहक बन कर रह गए। आधा किलो मछली खरीदने में आधा घंटे का समय कब बीत जाता, खुद उन्हें भी पता नहीं चलता। हंसी मजाक करतीं और मृग शावकों से खेलतीं पोस्टमार्टमी नजरें सोना की देह के हर ओने कोने का सफर कर आतीं। अंत मे झोले में मछली डलवाते समय उसकी हथेलियों का स्पर्श सुख !! ऐसी बात नहीं थी कि सोना उनकी चालाकियों को न समझ रही हो। पर कुछ तो उम्र के लिहाज में और कुछ ग्राहक होने के लिहाज में हंस कर रह जाती।
एक दिन डॉ मदन मुखर्जी के यहां कोई पार्टी थी शायद। सुबह सुबह प्रथम ग्राहक बन कर नमूदार हुए सोना के सामने।
'ऐ सोना, आज पांच सौ ग्राम नहीं, पांच किलो माछ चाई ( चाहिए ) रे..!' मृग शावकों को दुलराते हुए डॉ मुखर्जी मुस्कुराए -' बाड़ी (घर ) मे पार्टी आछे। पर कोई जल्दी नहीं है, पहले अन्य ग्राहकों को दे दो..! हम इंतजार कर रहा..!' फिर पटरे पर एक ओर बैठ कर मछली तौलती सोना की देह की थिरकन को चोर नजरों से निहारने में लग गए। 'साधना' तब टूटी जब आधा घंटे बाद सोना खिलखिलाई -' काका बाबू, कहाँ खो गए ? माछ तौल दिया।' फिर झोले में मछली डलवाते समय स्पर्श सुख से क्यों चूकते भला ? पैसे देने के लिए जेब मे हाथ डाला तो चौंक पड़े। पर्स नहीं था वहाँ। खुद को कोसते हुए हिनहिनाये -' ज्जा साला, पर्स घर पर छूट गया रे।' मृग शावक चौकड़ी भरते हँसे कि कोई बात नहीं। आप तो हमारे परमानेंट ग्राहक हैं। कल दे दीजिएगा। इस तरह डॉक्टर साहब पूरे बारह सौ की उधारी लेकर घर लौट आये।
फिर ऐसा हुआ कि दूसरे दिन सोना ने बकुल को साफ साफ मना कर दिया कि अब वह दुकान में नहीं बैठेगी। ग्राहक मछली को नही, 'सोन माछ' को ज्यादा देखते हैं। गंदे-संदे इशारे करते उसे छूने की चेष्टा करते हैं। अब घर मे ही रहेगी और गर्भ में अंकुरित हो आये मेहमान की अगवानी की तैयारी करेगी। बकुल को उसकी बात ठीक लगी। घर घर की फेरी से उसका भी जी ऊब गया था। सो अगले दिन से सोना की जगह गुमटी में वही जाने लगा।
दूसरे दिन डॉ मुखर्जी माछेर बाजार आये तो उन्हें खबर लगते देर न लगी कि सोना की जगह अब से दुकान में बकुल बैठेगा। सोना के आकर्षण का तिलिस्म टूटा तो कदम बकुल की ओर न बढ़ कर दूसरी कतार की ओर बढ़ गए जो बकुल की दुकान से दूर थी। बकाया चुकाने की बात पर जेहन में मनोज भटनागर के आप्त वचन नाच गए कि शुद्र और दलित ताड़न के अधिकारी होते हैं और उनका कोई बकाया तब तक न दिया जाय जब तक तगादे का दबाब तीन चार परत चढ़ कर भारी न हो जाय।
फिर नित्य का यही क्रम बन गया। बाजार आते तो बकुल की दुकान की ओर जाने से बचने लगे। इस तरह बीस दिन निकल गए। बकुल बाऊरी फुटकर विक्रेता था। एक मुश्त बारह सौ की रकम उधारी में फंस गयी तो महाजनों को पेमेंट देने में दिक्कत होने लगी। मदन मुखर्जी रोज ही बाजार आते। बकुल को रोज ही दूर खरीददारी करते दिख भी जाते। पर बकुल पास जाकर इतने लोगों के बीच तगादा करने का साहस नहीं जुटा पाता। मदन बाबू के इधर आने की प्रतीक्षा करते रह जाता और वे उधर की उधर भीड़ में बिला जाते।
देखते देखते पूरा महीना बीत गया। अब क्या किया जाय ! अंततः एक दिन सोना के समझाने पर बकुल तगादा का पक्का मन बना कर उनकी कोठी की ओर चल पड़ा। कोठी हिल व्यू के पॉश इलाके में थी। एशियन पेंट की हल्की गुलाबी चुनड़ी ओढ़े दो तल्ला शानदार कोठी ! बाहर ग्रील वाले गेट पर बोगनबेलिया की लतरें। भीतर आहाते में एक ओर छुईमुई सी 'इंडिका' ! दाएं हॉल में चैम्बर ! कुछ मरीज भीतर थे और कुछ बाहर इंतजार कर रहे थे। कोठी की भव्यता का आतंक बूंद बूंद जेहन में टपकने लगा। उसका दिल धक धक कर उठा। इतने सम्मानित भद्र लोक ! बारह सौ की मामूली रकम के लिए घर आकर मरीजों के बीच तगादा करना ठीक रहेगा ? बमक गए तो..? जरा सी भी शर्म नहीं आयी यहाँ आकर तगादा करते, आंय ! कहीं भागे जा रहे हैं क्या ? गुस्से में दो चार झापड़ भी ठोक सकते हैं ! उसको पसीना छूटने लगा। भय से धड़कन बढ़ गयी। कुछ देर जोकर की तरह एक ओर खड़ा रहा। कोठी के सामने रोड के दूसरी ओर बरगद का पेड़ था। पेड़ की कंगारू-गोद में चाय-पकौड़ी की गुमटी ! धड़कते दिल को बच्चे की तरह दुलराता गुमटी में चला आया। वहां बैठ कर देर तक सामने चैंबर को निहारता रहा। शायद डॉक्टर बाबू किसी काम से बाहर निकलें और दैवीय संयोग से नजरें उस पर पड़ जाय ! ऐसा हुआ तो हाथ हिला कर अभिवादन करता हुआ अपनी उपस्थिति का संकेत दे देगा। फिर उधारी देते डॉक्टर साहब को देर नहीं लगेगी। पर.. पर सारा कुछ मुंगेरी लाल का हसीन सपना साबित हुआ। दो घंटे बीत गए। डॉक्टर बाबू बाहर नहीं निकले। इच्छा नहीं थी, फिर भी गुमटी में बैठने के लिहाज में एक प्लेट पकौड़ी ओर दो बार चाय लेनी पड़ी। इस तरह बकुल बाऊरी पंद्रह सौ की वसूली तो दूर की बात, पूरे पंद्रह रुपये का चूना लगवा कर कहावत के 'बुद्धू' की तरह घर लौट आया।
अब यहां थोड़ा ठहर कर डॉक्टर मदन मुखर्जी के बारे में जान लें तो कहानी को समझने में आसानी होगी। मदन बाबू बहुत पहले कोलकाता की एक निचली बस्ती में रहते थे और तब मदन मुखर्जी नहीं, मदन माझी हुआ करते थे। पढ़ने में बकलोल पर खुराफाती व तिकडमी दिमाग के विलक्षण जीव ! जैसे तैसे बीए किया। उसके बाद पढ़ाई छूट गयी और सारा संघर्ष एक अदद नौकरी हासिल करने में केंद्रित हो गया। कॉलेज के दिनों के उनके एक यार थे - मनोज भटनागर ! बकलोली में मदन माझी से दो कदम आगे ! न जाने कैसे भटनागर जी दक्षिण के एक नामी शहर के एक बड़े एनजीओ से जुड़ गए। एनजीओ उनके लिए बोधि बृक्ष साबित हुआ और उसकी शरण मे जाते ही भटनागर के भीतर दिव्य ज्ञान का ऐसा बिस्फोट हुआ कि वे राजनीति, विज्ञान, धर्म, वेद, पुराण, उपनिषद और राष्ट्रवाद जैसे किसी भी विषय पर धुंआधार बहस करने में पारंगत हो गए। दक्षिणी शहर में शिफ्ट हो जाने के बाद भटनागर का मदन बाबू से संपर्क लगभग छूट चुका था। एक दिन मदन माझी को अखबार में उनकी फोटो दिख गयी। प्रदेश के मुख्य मंत्री के साथ चाय पीते हुए ! मदन बाबू की आंखें फटी की फटी रह गईं - एतो ऊंचो लाफ़ ..( इतनी ऊंची छलांग .. ) ! कॉलेज के दिनों का लंगोटिया याराना जेहन में चिलक गया। किसी तरह मोबाईल नंबर जुगाड़ कर संपर्क साधा और उन्हें अपनी बेकारी का मर्सिया सुनाया।
'दुखी मत हो यार.? हमारा एनजीओ है न। बहुमुखी सेवा प्रदान करने वाला देश का सर्वश्रेष्ठ संगठन ! रोजगार मुहैय्या कराने के कई सारे पैकेज हैं यहाँ।'
'पैकेज..?'
'यस ! यहाँ सब कुछ पैकेज से होता है। कुछ खर्च जरूर होगा, पर काम सौ फीसदी गारेंटिड।' घनी मूछों के पीछे मुस्कुराए भटनागर जी -'तुम तो एससी हो। ढेर सारी रियायत दिला देंगे।'
मदन बाबू को अपने शहर बुला कर एनजीओ में वाकायदा दीक्षित किया गया। फिर रोजगार पैकेजों को खंगाल कर होम्योपैथी डॉक्टरी के आसान से पेशे का चयन हो गया।
'डॉक्टरी की पढ़ाई अपने बस की नहीं मनोजदा..।' मदन बाबू हिनहिनाए।
'यार, तुम्हें कुछ नहीं करना है। इंस्टिट्यूट में हमारे लोग हैं, सब संभाल लेंगे।'
सरकारी सहायता प्राप्त एक ख्यात होम्यो इंस्टिट्यूट से छः माह का क्रैश कोर्स ! मदन बाबू को एससी कोटे में एडमिशन के साथ साथ न केवल फीस में, एग्जाम के पास मार्क्स में भी भारी छूट मिल गयी। छः माह की पूर्णाहुति पर इंस्टिट्यूट से डॉक्टर बन जाने का सनद-पत्र पाने में कोई कठिनाई नहीं आयी। एनजीओ की कृपा से सब कुछ आसानी से मैनेज हो गया। कुछ दिनों बाद कोलकाता की बस्ती वाली बाड़ी ( घर ) के सामने वाले रूम में जो रोड की ओर खुलता था, मदन बाबू चैम्बर खोल कर बैठ गए। बाहर साइनबोर्ड का सलीब टंग गया -" डॉ मदन माझी ! एक्यूट और क्रोनिक रोग विशेषज्ञ !" भाग्य ने साथ दिया। आसपास कामगार, मजूर और निम्न वर्ग के लोगों की बस्ती थी ! कुछ तो किताबें देख कर और कुछ अनुभव से, ईलाज चलने लगा। सस्ते इलाज के लोभ में मरीज आने लगे। कुछ ठीक हुए, कुछ नहीं भी हुए होंगे। जो ठीक हुए उनसे प्रचार मिला और प्रैक्टिस सरपट दौड़ने लगी। चार पांच साल में खासी पूंजी जमा हो गयी।
आर्थिक स्थिति मजबूत हुई तो मन में नयी खुराफातें मेढक सी उछाल मारने लगीं। धन तो खूब कमा लिया, लेकिन इज्जत ..! इज्जत तो दो कौड़ी की ही रही न ! नाम के साथ कमबख्त 'माझी' सरनेम जो जुड़ा है। माझी..यानी एस सी ! हंह ! एस. सी. वाले से कोई संभ्रांत परिवार क्यों कर दोस्ती रखना चाहेगा ? कोटे से बने डॉक्टर के पास वैसे भी अच्छे लोग ईलाज के लिए नहीं आते। उदासी के ऐसे ही बैचेन क्षणों में अचानक भटनागर की याद कौंध गयी। तुरंत फोन मिलाया और हिचकते हकलाते मन की गांठ खोल दी कि किसी उपाय से 'माझी' सरनेम को इरेज करके वहां कोई सवर्ण टाईटिल चिपकायी जा सकती है क्या। सुनकर भटनागर जी ठहाका लगा कर हंस पड़े -' अरे मोशाय, मैंने कहा था न हमारे लिए कोई काम असंभव नहीं। बहुमुखी सेवा प्रदान करता है हमारा संगठन। पैकेज पर ! हमारे धुरंधर इतिहासज्ञ और ज्योतिर्विदों को तुम्हारी दस पंद्रह पीढ़ियों के इतिहास को खंगाल कर दुरुस्त करने में चुटकी भर समय लगेगा।..!'
'सच ..?' मदन बाबू के बदन में ऊपर से नीचे तक रोमांचक खुशी सरसरा गयी।
'नहीं तो क्या झूठ ?' घनी मूंछों के नीचे आत्मविश्वास भरी मुस्कुराहट पसरी थी -'लगता है तुम मीडिया की ख़बरों को नहीं देखते। अरे, हमारे लोगों के गहन शोध ने ही साबित किया कि सीता विश्व की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी थी और महाभारत काल में इंटरनेट मौजूद था। तभी संजय कुरुक्षेत्र के युद्ध का आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को घर बैठे सुना सके। गणेश का सर काट देने के बाद उनके धड़ पर हाथी का सर शिवजी ने यूंही थोड़े ही चेप दिया ? प्लास्टिक सर्जरी मौजूद थी उस समय ! जब हम देश के इतिहास-पुराण का पुनर्लेखन कर सकते हैं तो..तो तुम्हारा काम तो मामूली है यार !'
महीने भर में एनजीओ के विशेषज्ञों ने मदन बाबू की पिछली दस पीढ़ियों के इतिहास का तिया- पांचा बांच कर फतवा दिया कि उनके पुरखे मूल रूप से 'मुखर्जी' थे। उच्च कुल के शुद्ध ब्राह्मण ! बहुत पहले पड़ोस में एक माझी परिवार रहता था। 'माझी' का मतलब होता है पार ले जाने वाला नाविक। पार.. यानी भव सागर के पार ! अजीब से देवत्व की आभा फूटती है इस शब्द से। इसी से प्रेरित होकर पुरखों ने मुखर्जी की जगह 'माझी' लिखना शुरू कर दिया। वैसे भी माझी और मुखर्जी हिज्जे व उच्चारण के स्तर पर काफी करीब हैं। मदन बाबू की जाति के उत्स को पूरी प्रमाणिकता के साथ 'मुखर्जी' से जोड़ कर दस्तावेज बनें और कोर्ट की मुहर लग जाने के बाद मदन बाबू ने नाम के साथ 'मुखर्जी' की कलंगी लगानी शुरू कर दी। इस ऐतिहासिक बदलाव के कुछ दिनों बाद ही उन्होंने पुरानी बस्ती को अलविदा कह दिया और मुख्य शहर से दूर नैहाटी के औद्योगिक नगर में आ बसे।
सवर्ण होते ही उनके भीतर एक किस्म के जातीय श्रेष्ठता का भाव अंखुआने लगा। चाल में अकड़ आ गयी। वस्त्र भी पहले के ढीले ढाले की जगह आधुनिक संभ्रांत परिवार के से हो गये। 'माझी' रहते हमेशा 'मनसा माई' कुलदेवी बनी रहीं, अब सवर्ण होते ही 'मां दुर्गा' की उपासना करने लगे। चैम्बर में मरीज से पहले नाम पूछते। लेबर टाइप मरीज आमतौर पर सरनेम सहित पूरा नाम बता देते। कोई होशियार मरीज यदि अधूरा नाम बताता तो फनफना उठते कि वे जाति पांति में विश्वास तो नहीं करते, पर प्रिस्क्रिप्शन पर लिखने के लिए सरनेम जानना जरूरी है। मरीज यदि एससी एसटी होता तो छूने से यथासंभव परहेज करते और जरूरी बात पूछपाछ कर दूर से ही दवा दे देते। रात को अक्सर सपने में भटनागर जी प्रगट हो जाते। भटनागरजी की खोपड़ी में भरा बोधिसत्व ओवरफ्लो होकर टप टप मदन बाबू के जेहन में टपकने लगता -'वत्स, एससी एसटी वालों को भगवान ने बनाया ही है ऊंची जाति की सेवा करने के लिए। तुलसी बाबा ने कहा है, शुद्र ताड़न के अधिकारी होते हैं। उन लोगों से कुछ खरीदो तो तब तक पैसे देने की जरूरत नही जब तक तगादे का दबाब तीन चार परत चढ़ कर भारी नहीं हो जाए। उन्हें ताडना देकर हम वैदिक परंपरा का निर्वाह ही करेंगे। बस हाव भाव से और छोटे मोटे न्याय देकर अपनी श्रेष्ठता का रौब कायम रखो।'
पत्नी आधुनिक विचारों वाली महिला थी। हल्के से विरोध करती कि इस तरह एससी वालों से कितना परहेज रख सकेंगे। हमारे अधिकांश दैनिक कामों में उन्हीं का योगदान रहता है। ये दूध वाला, रिक्शावाला, सब्जीवाला आदि अधिकांश एससी एसटी ही तो हैं। जिससे हम माछ खरीदते हैं वो बकुल बाऊरी दलित है।' मदन बाबू पत्नी को डपट देते। माछ घर लाने पर उसे शुद्ध जल से धोते हैं कि नहीं ! धोने से वह 'ठीक' हो जाता है। सूखी चीजें उनके स्पर्श से 'खराब' नहीं होतीं। पत्नी समझ गयी कि पतिदेव पूरी तरह दक्षिणी शहर वाले भटनागर जी के सम्मोहन में फंसे हुए हैं। कुछ भी कहना बेअसर होगा। इस सम्मोहन का ही जादू था कि मदन मुखर्जी बकुल का बकाया देने से कतरा रहे थे। माछ बाजार जाते तो बकुल की गुमटी से दूर अन्य जगहों से खरीददारी करते। उस दिन अपनी कोठी के सामने वाली चाय-पकौड़ी की दुकान में बकुल को बैठे देख चुके थे। समझ गए कि तगादा के किये ही आया होगा ससुर ! उपेक्षा से मुस्कुराए और 'शुद्र ताड़न के अधिकारी' जैसे आप्त वचन को स्मरण करते निरपेक्ष भाव से अपने काम मे लगे रहे।
बकुल बाऊरी सीट तलाशता चार बोगी पार कर गया। पांचवी बोगी में यद्यपि सीटें तो सारी भरी हुईं थीं पर बीच के गलियारे में यात्री कम थे। तनिक झुककर उसने खिड़की के बाहर के नजारे पर नजर डाली। थोड़ी देर पहले एक झोंक बरसात हो चुकी थी। आकाश के विस्तृत 'रामलीला ग्राउंड' में बादलों के छौने कबड्डी खेलने में ब्यस्त थे। शीतल हवा के झौंके खिड़कियों की राह घुसपैंठ करते बदन से टकराये तो पोरों में दुबकी उमस भरी थकान स्खलित होने लगी। थकान हटी तो खाली हुई जगह में घर की देहरी पर प्रतीक्षारत सोना दोनों मृगशावकों के साथ झूमती प्रकट हो गयी। सोना को देख कर उसका मन रोमांच से भींग उठा। होंठ मस्ती में गुनगुनाने लगे - ' ओ गो सोन-माछ आमार..आमी तोमाके भालो बासी...( ऐ मेरी सोन मछली, मैं तुम्हें खूब प्यार करता हूँ..) !
तभी बकुल की निगाहें आगे की बर्थ पर बैठे व्यक्ति पर पड़ी। वह चौंक गया। अरे..मदन बाबू ..! व्यक्ति की पीठ उसकी ओर थी। पीछे के धड़ और खोपड़ी की बनावट से मदन बाबू लग रहे थे। उसका कालेज धक धक कर उठा। तेजी से रेंगता हुआ आगे तक चला आया। मदन बाबू ही थे। सुखद आश्चर्य से उछल कर दिल कंठ में आ गया। कोठी तक जाकर भी पैसे नही मांग पाया था उस दिन। आज अच्छा मौका मिला है। एक दम पास बैठे हैं वे। अकेले भी हैं ! उधारी मांगने से नहीं चुकेगा। उसे सचमुच पैसों की दरकार भी है। दो एक दिन में महाजन को पेमेंट करना है। नहीं तो साख पर आंच आएगी और माल नहीं मिलेगा। डॉक्टर बाबू सज्जन पुरुष हैं। डॉक्टरी पेशे में हजार तरह की ब्यस्तताएँ होतीं हैं। भूल गए होंगे। याद दिलाते ही पैसा हथेली में धर देंगे।
ट्रैन खटर खट का शोर मचाती रफ्तार से गंतव्य की ओर दौड़ रही थी। बकुल आमने सामने की दोनों बर्थ के पास ऐसे कोण में आ खड़ा हुआ कि डॉक्टर मुखर्जी की नजर स्वयमेव उस पर आ गिरे। नजर मिली नहीं कि दुआ सलाम होना ही है और उसका काम आसान हो जाएगा।
लेकिन डॉक्टर बाबू की पलकें रफ्तार से दौड़ती ट्रैन के हिचकोलों से झपकीं हुईं थीं। बकुल ने हसरत भरी नजरों से डॉक्टर बाबू का मुआयना किया। तस्सर सिल्क का कुर्ता और कलफ लगी झक्क सफेद धोती ! ललाट पर चंदन का छोटा सा टीका ! दाएं हाथ की चारों अंगुलियों में कीमती रत्न जड़ी अंगूठियां ! संभ्रांत भेष भूषा का आतंक बकुल की धमनियों में केंचुए सा सरसरा गया।
तभी ट्रैन किसी स्टेशन पर झटके से रुकी तो जैसे मंदिर के कपाट खुलते हैं, मदन बाबू की पलकें खुल गयीं। पलकें खुलीं तो बकुल संवाद सूत्र जोड़ने की गरज से हड़बड़ा कर किंकिया उठा -''नमस्कार डॉक्टर बाबू..!' मदन बाबू चौकने का सफल अभिनय करते उस पर उड़ती सी नजर डाले। सफल अभिनय इसलिए कि दोनों नेत्र बेशक झपके हुए थे, तीसरे नेत्र की 'संजय-दृष्टि' से बकुल को बर्थ के पास खड़े देख चुके थे। पर अनजान बनने का ढोंग करते आंखें मूंदे रहे। बकुल बाऊरी से इस तरह ट्रैन में मुठभेड़ हो जाएगी, सोचा भी न था। उसे देख कर मन ही मन चौकन्ने हो गए। निश्चित रूप से बकुल बकाया पैसे के लिए तगादा करेगा। लेकिन अभी उसे पैसे देने का मन नहीं है। शुद्र-सवर्ण थ्योरी की भटनागरजी की व्याख्या के अनुसार चूंकि शुद्र ताड़न के अधिकारी होते हैं, उनका बकाया तब तक नहीं देना है जब तक तगादे का दबाब तीन चार परत चढ़ कर भारी न हो जाय। तगादा तो अभी शुरू ही नहीं हुआ ! मदन बाबू ने मुस्कुरा कर कंधे झटके और बकुल के अभिवादन पर थोबड़ा ऊपर उठा कर हिनहिना दिए - 'कैसा है रे बकुल ? आजकल सोना दुकान पर नहीं बैठती !'
'नहीं सर, पेट से है न.. इसलिए - ' कहते हुए बकुल तनिक शरमा गया। फिर मन ही मन 'मनसा माई' का ध्यान करता उधारी की बात करने वाला ही था कि मदन बाबू के सामने बैठा यात्री उनकी अंगूठियों को देख कर इस कदर चुंधियाया कि व्यंग्य का टप्पा लेकर बीच मे कूद पड़ा -'की मोशाय ( ओ महाशय ).. इतनी सारी अंगूठियां ! वंडरफुल ! ज्योतिष पर बड़ा विश्वास करते हैं आप तो ?'
'बिल्कुल ! मैं ही नहीं, सारा विश्व विश्वास करता है..! सिर्फ मुठ्ठी भर लेफ्ट बुद्धिजीवियों को छोड़ कर..!' मदन बाबू फनफनाए। बकुल की ओर से हट कर उनका ध्यान यात्री पर केंद्रित हो गया था। ले हलुआ ! इस भले मानुष को अभिये बीच मे टपकना था ! कुछ देर रुक नही सकते थे ! बातचीत का सूत्र जुड़ने के पहले ही टूट गया, ईस्स !
'हाहाहा..' - यात्री हंसा -'ज्योतिष में न तो विज्ञान है, न ही लॉजिक ! सिर्फ कल्पना की हवा हवाई उड़ान ! यहाँ पृथ्वी को ग्रह नहीं माना जाता। सूर्य स्थिर नहीं चलायमान है। चंद्रमा उपग्रह की जगह ग्रह ! राहु केतु भी ग्रह हैं ज्योतिष में ! इतना घालमेल फिर भी विश्वास कर रहे !'
'अधूरे ज्ञान से ऐसे ही उटपटांग निष्कर्ष निकलेंगे।' मदन बाबू की भृकुटि तन गयी -'ज्योतिष का संबंध मात्र उन्हीं ग्रहों व नक्षत्रों से है जिनके पाश में जन्म के साथ ही बंध जाता है जीवन। ज्योतिष धार्मिक और वैदिक परंपरा का भौतिक विस्तार है बंधु ! मैक्समूलर जैसे विद्वान ने यूंही नहीं कहा कि मॉडर्न साइंस जहां खत्म होता है ज्योतिष वहीं से शुरू होता है, बूझे ?'
'सच सच बताइये, इन रत्नों को पहनने से फायदा हुआ.. ?' यात्री ने व्यवहारिक सवाल के साथ फिर कोंचने का प्रयास किया मुखर्जी बाबू को। कोंच में उपहासात्मक हंसी का छौंक डला था।
'बेशक बहुत.. !' मदन बाबू चहक कर गर्व भाव से बोले -'सारे रत्नों से खूब लाभ मिल रहा। ये पन्ना तो कल ही लिया। तीस हजार का है ! धन-बैभव और 'अच्छे दिनों' का निश्चित योग बनाता है।
' बकुल की आंखें विस्मय से चौड़ी हो गईं। तीस हजार बनाम बारह सौ का द्वंद्व धमाल मचाने लगा जेहन में। और अच्छे दिन.. ! कुछ समय पहले जोर शोर से डुगडुगी पीटी गयी थी कि अच्छे दिन बस आने वाले ही हैं। पड़ोसियों की देखा देखी वह भी कई दिनों तक कोठरी का दरवाजा चौबीसों घंटे खुला रखा रहा कि पता नहीं अच्छे दिन ससुर किस वक्त आ टपके दरवाजे पर ! आएं और दरवाजा बंद मिला तो लौट न जाएं। पर.. पर सब कुछ फुस्स हो गया। सरकार यदि अच्छे दिनों को लेकर वाकई गंभीर है तो मदन बाबू की बात मान कर एक एक पन्ना सारे गरीबों व दलितों में बंटवा क्यों नहीं देती !! पीडीएस के मार्फत !!
अब..अब क्या किया जाय.! डॉक्टर बाबू और यात्री के बीच बातचीत रबर की तरह खिंची जा रही थी। बातचीत के बीच में रुपये मांग बैठना ठीक रहेगा ? न ! कतई नहीं। मन ही मन ठान लिया कि जैसे ही बातचीत खत्म होगी, शर्म-संकोच छोड़ कर सामने हाथ फैला देगा।
डॉक्टर बाबू का प्रवचन ज्योतिष को पार करके वेद पुराण उपनिषद धर्म और आस्था को अपनी जद में ले चुका था -'हमने अपने गौरवशाली अतीत को, अपने धर्म ग्रंथों को और वैदिक परंपराओं को भूला दिया। तभी देश उन्नति नही कर पा रहा। नयी सरकार ने इनका महत्व समझा है। आपकी सूचना के लिए बता दूं कि चुनिंदा विश्वविद्यालयों में जल्द ही ज्योतिष शास्त्र, भूत विज्ञान और वेद पुराणों की पढ़ाई शुरू होने जा रही है।' डॉक्टर साहब के संभ्रांत पहरावे, तिलक-अंगूठियों की चमक और बुलंद आवाज का रौब चील की तरह फड़फड़ा रहा था डिब्बे के उस हिस्से में। एक झपाका हुआ और सामने बैठे यात्री को लगा मानो मध्ययुग का कोई बिगड़ैल तानाशाह निरीह जनता के बीच फासीवादी जुमलों की गूगलियाँ उछाल रहा है। जनता मन ही मन तिलमिलाती हुयी है पर विरोध में तन कर खड़े होने का साहस नहीं संजो पा रही।
पंद्रह मिनट निकल गए। आधे से ज्यादा दूरी तय हो चुकी थी। गंतव्य बस आने वाला ही था पर दोनों की बातचीत का ओरछोर नहीं दिख रहा था। एक अजीब सी बैचेनी से दिमाग सांय सांय करने लगा बकुल का। पर इस बार वसूली-अभियान के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह कमर कस चुका था वह। चाहे जो हो आज पैसे मांग कर रहेगा। इंतजार था तो सिर्फ मदन बाबू और यात्री के बीच की बात के खत्म होने का।
इस बेमौसम के इंतजार ने थोड़ी देर के लिए उसे अंतर्मुखी कर दिया। अंतर्मुखी होकर भीतर उतरते ही आंगन में मृग शावकों के साथ सोना प्रगट हो गयी... भरतनाट्यमी मुद्रा लेकर ! बकुल सारे तनाव भूल गया। तबीयत हरी हो गयी। इस हरेपन को और गाढ़ा करने के लिए उसे 'टॉनिक' की तलब हुई। पैंट की पॉकेट से लिलिपुटी डिबिया निकाला। छोटी सी डिबिया के एक ओर खैनी और दूसरी ओर चूना ! चुटकी भर खैनी और चूना हथेली पर रख कर दाएं अंगूठे से पूरे लय में मसलने लगा। बंद होंठों के भीतर 'आमी तोमाके भालो बासी..' की पंक्ति गौरैया सी फुदक रही थी। मसलने के फलस्वरूप टॉनिक की देह से कसैली गंध फूटी तो यात्रियों के साथ साथ मदन बाबू भी इस गंध से आलोड़ित हुए बिना नहीं रह सके। टॉनिक उनकी बड़ी कमजोरी थी और दुर्भाग्य से डिबिया घर पर छूट गयी थी। बहुत देर से मन को जज्ब किये हुए थे। गंध रंध्रों में घुसी तो संयम दरकने लगा। चोर नजरों से बकुल की ओर देखा। बकुल की आंखें ढलकी हुईं थीं और अंगूठा हथेली के बीच कलात्मकता के साथ थिरक रहा था।
ट्रैन नैहाटी के आउटर में प्रवेश करने लगी। गंतव्य सामने आ पहुंचा था। पटरियां बदलने से खटर खट की जोर आवाज हुई तो बकुल की आंखें 'खुल जा सिम सिम..' की मानिंद खुल गईं। यात्री जा चुका था और मदन बाबू चोर नजरों से उसकी ओर देख रहे थे। फिर एक अजूबा घटा। रामानन्द सागर की 'रामायण' सीरियल में दिखाए राम रावण युद्ध को याद करें ! दोनों ओर से तीर चलते हैं ...सूं$$$..... ! बीच में आकर टंन्न से टकरा जाते हैं !
नजरें मिलते ही बकुल के भीतर देर से श्लथ पड़े साहस की कढ़ी में उबाल आया -' डॉक्टर बाबू, थोड़ा पैसा बाकी था माछ का.. !' उसी पल के सौंवे हिस्से में मदन बाबू भी आवाज में अभिजात्य का छौंक लगा कर हिनहिना दिए -' ऐ बकुल भाई, थोड़ा सा टॉनिक देगा..?'
मानो दो तीर विपरीत दिशा से आकर टकराये हों...टन्न !
हमेशा अबे-तबे करके पुकारने वाले मदन बाबू के मुंह पर 'बकुल भाई..' ! निमिष मात्र में बकुल के मन में जमा बैचेनी का कुहासा छंट गया। कढ़ी का उबाल भी शिथिल हो कर नीचे बैठ गया। बारह सौ की छोटी सी रकम के लिए डॉक्टर मदन मुखर्जी जैसे बड़े आदमी को इतने यात्रियों के सामने जलील करने की बात सोच भी कैसे सका वह ..छी: ! अच्छा हुआ उसकी बात नहीं सुन सके वे। स्वयं को धिक्कारते हुए चहक कर बोला -' हाँ हाँ सर..लीजिए न..!' फिर हथेली की सारी खैनी को उनकी हथेली के 'श्री चरणों' में अर्पित कर दिया। टॉनिक ग्रहण करते हुए एक क्षण को मुखर्जी बाबू सकपकाए कि दलित की छुई हुई चीज कैसे लें। तभी भटनागरजी की बात याद आ गयी कि सूखी बस्तु उनके स्पर्श से खराब नहीं होती। लेकिन चूना तो गीला था ! तो मसलने से सूख नहीं गया क्या ! खैनी ली और पलक झपकते यात्रियों की भीड़ में सुराख बना कर गुम हो गए।
मुखर्जी बाबू के अंतर्धान होते ही बकुल जैसे नींद से चौंका हो.. अरे, कहाँ गायब हो गए डॉक्टर साहब ? बकाया की बात याद नही आयी उन्हें ? सोचा था, खैनी लेने के बाद बकाया स्वयं ही पहल करके दे देंगे। ज्जा साला..इससे तो बेहतर होता कि तगादा कर ही डालता।
लेकिन कल महाजन को पेमेंट देना है। नहीं दिए तो मछली नहीं मिलेगी। फिर क्या बेचेगा..कद्दू ? कैसे जुटेंगे पैसे ! बकुल का चेहरा लटक गया। गाड़ी प्लेटफॉर्म पर लग गयी थी। भारी कदमों से गेट की ओर बढ़ने लगा। गिद्ध दृष्टि उचक उचक कर भीड़ में मुखर्जी बाबू को तलाश रही थी। मुखर्जी बाबू तो नही दिखे पर..पर आंखों आगे एक झपाका हुआ और लगा जैसे मृग शावकों के साथ सोनमाछ बाहर खड़ी मुस्कुरा रही हो- ओ गो.. पैमेंटेर चिंता केनो कोरछो.. ( ऐ जी, पेमेंट की चिंता क्यों कर रहे ) ? न होगा तो मेरी पायल बेच देना न। बकुल बाऊरी के होंठों पर मुस्कान खिल आयी। बच्चे जैसी भोली मुस्कान ! बेफिक्री से सिर को झटक दिया। कल का कल देखा जाएगा। राग भैरवी में 'आमी तोमाके भालो बासी...' गुनगुनाता गेट की ओर लपक गया।
उस वक्त उसके जेहन में सिर्फ और सिर्फ सोन माछ व मृगशावक थे और डॉक्टर बाबू व उन पर चढ़ी उधारी की बात दूर दूर तक कहीं भी नहीं थी।
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बढ़िया कहानी।टिप्पणी के साथ कहानी का प्रस्तुतिकरण भी अच्छा है। विमर्श से ही कहानियों पर चर्चा को आगे ले जाया सकता है। राजी जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंकहानी विमर्श पर केंद्रित अनुग्रह के पोस्ट पठनीय होते हैं।यह कहानी भी हमें उसी विमर्श की ओर ले जाती है जिसके केंद्र में मनुष्यता को बचाने की चेतावनी है। सुन्दर प्रस्तुति।
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