जसिंता केरकेट्टा की कविताएं दो दो हाथ करने को तैयार लगती हैं jasinta kerketta ki kavitayen do do hath karne ko taiyar lagti hain
जसिंता केरकेट्टा एक चर्चित कवयित्री हैं। उनके लिए कविता कोई फैशन नहीं बल्कि संघर्ष का औजार है । आदिवासी समाज की तरक्की के लिए जमीन से जुड़ी रहकर काम करने वाली जसिंता की पहचान एक ईमानदार एक्टिविस्ट के रूप में भी है। उनकी कविता की भाषा जितनी सहज और सरल है ठीक उसके उलट कविता की अर्थवत्ता वैचारिक स्तर पर उतनी ही मारक और उतनी ही गंभीर है। सत्ता और सामाजिक व्यवस्था के प्रतिरोध में दो-दो हाथ करने को तत्पर जसिंता की कविताएं व्यवस्था के बदलाव के लिए सतत संघर्ष की जमीन तैयार करने के लिए भी प्रतिबद्ध लगती हैं। शब्दों को भी संघर्ष के लिए हथियार की तरह बरता जा सकता है, जसिंता केरकेट्टा की कविताओं को पढ़कर यह एहसास दिल की गहराईयों में शनैःशनैः उतरने लगता है।
ईश्वर और बाजार जसिंता केरकेट्टा का तीसरा कविता संग्रह है। यह संग्रह राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह से कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत हैं-
1.
ईश्वर और बाजार
लोग
ईश्वर को राजा मानते रहे
और राजा
में ईश्वर को ढूंढ़ते रहे
राजा ने
खुद को एक दिन
ईश्वर का
कारिंदा घोषित कर दिया
और प्रजा
की सारी सम्पत्ति को
ईश्वर के
लिए
भव्य
प्रार्थना-स्थल बनाने में लगा दिया
उसके नाम
पर बाजार सजा दिया
भूखी
असुरक्षित बेरोजगार पीढ़ियां
अपने
पुरखों की सम्पत्ति
और
समृद्धि वापस मांगते हुए
उन भव्य
प्रार्थना-स्थलों के दरवाजों पर
अब सिर
झुकाए बैठी हैं
आदमी के लिए
ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता
बाजार से होकर क्यों जाता है?
स्त्रियों का ईश्वर
पिता और
भाई की हिंसा से
बचने के
लिए मैंने बचपन में ही
मां के
ईश्वर को कसकर पकड़ लिया
अब कभी
किसी बात को लेकर
भाई का
उठा हाथ रुक जाता
तो वह
सबसे बड़ा चमत्कार होता
धीरे-धीरे
हर हिंसा हमारे लिए
ईश्वर
द्वारा ली जा रही परीक्षा बन गई
और दिन
के बदलने की उम्मीद
बचे रहने
की ताकत
मैं
ईश्वर के सहारे जीती रही
और मां
ईश्वर के भरोसे मार खाती रही
मैं बड़ी
होने लगी
और मां
बूढ़ी होने लगी
हम दोनों
के पास अब भी वही ईश्वर था
मां की
मेहनत का हिस्सा
अब भी
भाई छीन ले जाता
और शाम
होते ही पिता
पीकर उस
पर चिल्लाते
वे कभी
नहीं बदले
न मां के
दिन कभी सुधरे
मैंने
ऐसे ईश्वर को विदा किया
और खुद
से पूछा
सबके
हिस्से का ईश्वर
स्त्री
के हिस्से में क्यों आ जाता है?
क्यों
उसके पास सबसे ज्यादा ईश्वर हैं
और उनमें
से एक भी काम का नहीं?
वह
जीवन-भर सबको नियमित पूजती है
फिर पूजे
जाने और हिंसा सहने के लिए
ताउम्र
बुत बनकर क्यों खड़ी रहती है?
मेरे ईश्वर की हत्या
बीमारी
की हालत में अकेली
कई दिनों
तक खाट पर पड़ी रही
मैंने
याद किया ईश्वर को
पर एक
पुराना मित्र दौड़ा चला आया
गोद में
उठाकर मुझे अस्पताल पहुंचाया
कई दिनों
तक भूखी जब भटकती रही शहर में
मोड़ पर
दुकान वाले भैया बहुत दिनों तक
देते रहे
आटा उधार में
पड़ोस की
दीदी कटोरी-भर सब्जी
पहुंचा
जाती थी अक्सर
मेरी नाक
तक खुशबू पहुंचाने से पहले
मैंने
देखा मेरा ईश्वर मेरे इर्द-गिर्द रहता है
एक दिन
वे आए
जिन्होंने
ईश्वर को कभी नहीं देखा
वे ईश्वर
के नाम पर
करने लगे
हत्या मेरे ईश्वर की
जो मेरे
इर्द-गिर्द ही रहता था।
लोग मरते रहे, सिर्फ ईश्वर बचा रहा
राजा
क्या चाहता था
अपने
राज्य का विस्तार
वह
सरहदों के पार जाता
और खुद
को लोगों का ईश्वर बताता
जब
राजाओं का गढ़ ढहने लगा
तब कुछ
चालाक लोग उठे और
उन्होंने
ईश्वर को राजा घोषित किया
अपने
राज्य की मजबूती के लिए
वे
सरहदों के पार गए ईश्वर के नाम पर वे उधर मुड़े
जिधर लोग
नाचते-गाते और पेड़ों को पूजते थे
सूरज
घड़ी की तरह आकाश में लटकता था
और चांद
तारीखों में बदल जाता था
उनके पास
पहाड़ थे और पहाड़ों में सोना
मगर वे
बीमारियों से डरते थे
वे इनके
बीच
एक ऐसा
ईश्वर लेकर आए
जो लोगों
की गांठ से
बची-खुची
कमाई निकालने में
उनकी मदद
करने लगा
भूख और
दु:ख से छुटकारा पाने की
मन्नत
मांगते लोगों ने देखा
उनके
पहाड़ों से निकले सोने से
राजा का
मंदिर चमक रहा था
बदले में
कुछ लोगों के हाथ में सिक्के थे
जो उनके
हाथ का हुनर खोने की कीमत थी
जिनके
पास कुछ नहीं बचा
उनके पास
ईश्वर के होने का भरम था
और जिनके
पास पैसे बहुत थे
उन्होंने
ईश्वर को छोड़ दिया
अब ईश्वर
उनके किसी काम का नहीं रहा
एक दिन
एक आदमी को
भूख से
तड़प रहे
अपने
नन्हें बच्चे के लिए दूध खरीदना था
पर उसकी
गांठ के पैसे गायब थे
उसने
रात-भर ईश्वर को पुकारा
पर सुबह
बच्चे को मरा हुआ पाया
आस्थावान
लोगों ने कहा
ईश्वर ने
तुम्हारी सुनी उसे मुक्ति मिली
उसने कहा-
उसे
मुक्ति नहीं दूध चाहिए था
तिलमिलाकर
उठा आदमी
और दर्द
से चीखने लगा
उस दिन
पहली बार
वह ईश्वर
के खिलाफ था
राजा और
राज्य के खिलाफ था
ईश्वर को
मानने वाले गुस्से में थे
उन्होंने
उसे चौराहे पर जिन्दा जला दिया
यह कहते
हुए कि उनका ईश्वर राजा है
और
राजाओं के खिलाफ बोलने का हश्र यही है
एक दिन
राजाओं के गढ़ ध्वस्त हो गए
पर
उन्होंने ईश्वर को राजा बनाए रखा
हर सदी
में अपना गढ़ बचाए रखा।
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सम्मान : एशिया इंडिजिनस पीपुल्स पैक्ट, थाईलैंड की ओर से इंडिजिनस वॉयस ऑफ़ एशिया का ‘रिकॅग्निशन अवॉर्ड’, ‘यूएनडीपी फ़ेलोशिप’, ‘प्रेरणा सम्मान’, ‘रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार’, ‘अपराजिता सम्मान’, ‘जनकवि मुकुटबिहारी सरोज सम्मान’ से सम्मानित। ‘वेणु गोपाल स्मृति सम्मान’ और ‘डॉ. रामदयाल मुंडा स्मृति सम्मान’ के लिए चयनित।
संप्रति : वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता के साथ झारखंड के आदिवासी गाँवों में सामाजिक कार्य और कविता सृजन।
बहुत धारदार कविताएं जो आज के समय में व्यवस्था पर सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। बहुत सहज ढंग से इन कविताओं को कह देने के बाद भी उसका असर मन को विचलित करता है। ऐसी कविताएं अनुभव से ही जन्म लेती हैं। जसिंता को हार्दिक बधाई।
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