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परिधि शर्मा की कहानी "एक साधारण आदमी की मौत"



  • कहानी "एक साधारण आदमी की मौत"  में छत्तीसगढ़ के जनजीवन का जीवंत चित्रण है।आज भी वहां की बड़ी आबादी सब्जियों के लघु व्यापार में संलग्न है और इस लघु व्यापार में संलग्न लोग जो मुख्यतः श्रमिक वर्ग से आते हैं, वहां से गुजरने वाली लोकल पैसेंजर गाड़ियों का उपयोग करते हैं।ये लोकल गाड़ियां ऐसे श्रमिक वर्ग के लिए जीवन रेखा की तरह हैं जिसमें कोई संभ्रांत आदमी कभी बैठ जाए तो वह इन श्रमिकों के प्रति तिरस्कार का भाव व्यक्त करने से नहीं रह पाता। कहानी में वर्गभेद को लेकर एक महीन सी रेखा लेखिका ने खींचने की कोशिश करी है। 
  • मूलतः व्यक्ति अपने बचपन या किशोरावस्था में मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण रहता है। इस कहानी में प्रशांत नामक युवक के चरित्र से भी लगता है कि कभी वह भी अपने बचपन और अपनी किशोरावस्था में मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण रहा होगा पर जैसे-जैसे जीवन में वह आगे बढ़ता है, नौकरी करने के उपरांत  सुख सुविधाओं से लैस होकर अपना जीवन जीने लगता है तो दूसरों के प्रति सोचने समझने , उनकी चिंता करने के लिए उसके जीवन में कोई जगह नहीं है। जीवन की आपाधापी में वह खुद में ही सिमट कर अपना जीवन जीने लगता है। फिर अचानक माखन कुमार बारीक नामक एक साधारण से आदमी की मृत्यु के बाद , जिसका संबंध उसके बचपन और उसकी किशोरावस्था से है और जो उसके स्कूल के दिनों में उसके स्कूल का माली भी था , उसके भीतर लगभग सुप्त हो चुकी संवेदना अचानक उसे भीतर से कचोटने लगती है। अपनी नौकरी में व्यस्त रहते हुए भी बार-बार माखन कुमार बारिक की मौत उसे बेचैन करती है।इस बहाने यह कहानी मनुष्य के भीतर मरती हुई संवेदना के पुनर स्थापन की बात करती है।  
  • सुख सुविधा से जीवन यापन करने वाले व्यक्ति के मन में भी दूसरों के प्रति संवेदना जैसे मानवीय मूल्यों के प्रति एक आस्था होनी चाहिए , इस कहानी को पढ़ने के बाद हमारे भीतर इस तरह के विचार उत्पन्न होते हैं। कहानी की भाषा और शिल्प की बनावट सहज होते हुए भी कलात्मकता और सम्प्रेषण से परिपूर्ण है।


कहानी :  एक साधारण आदमी की मौत

【परिधि शर्मा】

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शाम को देखकर लग रहा था कि अब ढली तब ढली। प्रमोद ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो पाया कि ट्रेन किसी नदी के ऊपर बने पुल पर से गुजर रही थी। एक बार के लिए उसे लगा कि वह रोप वे में बैठा है। धड़ धड़ की आवाज अचानक बेहद तेज हो गई। नीचे लगभग सूख चली नदी थी जो जल प्रदूषण का अच्छा खासा प्रदर्शन कर रही थी। धड़ धड़ की आवाज कुछ ही पलों बाद नार्मल हो गई । वह रोप वे से उतर कर दोबारा ट्रेन में आ बैठा । सफर कुछ लंबा था इसलिए थोड़ा बहुत समय काटने के लिए वह चलते-चलते स्टेशन से अखबार खरीद लाया था । अखबार के एक पन्ने पर उसकी नजर गई। कोई लोकल न्यूज़ था। पन्ने के एक कोने में थोड़ी जगह घेरे हुए । खबर के साथ एक तस्वीर लगी थी जिससे वृद्ध दंपति की मुस्कुराती आंखें बाहर झांक रही थीं। दोनों सावधान की मुद्रा में खड़े थे। बूढ़े ने कमर से घुटनों तक सफेद मटमैली धोती पहन रखी थी और उसका पेट कुछ अंदर को धंस गया था । बुढ़िया ने एक भूरी सूती साड़ी लपेट रखी थी। वही छत्तीसगढ़िया स्टाइल में ।काफी खुश नजर आ रहे थे दोनों । तस्वीर के ऊपर काले काले अक्षरों में लिखा था "जंगली हाथियों के चंगुल से बाल-बाल बचे पति-पत्नी।" दोनों पति-पत्नी के चेहरे से संतोष साफ झलक रहा था । उनके ठीक पीछे हाथियों द्वारा ढहा दी गई उनकी झोपड़ी के टूटे-फूटे अंश थे। उनका घर टूट चुका था फिर भी वे खुश थे क्योंकि वे बच गए थे और उनका फोटो खींचा जा रहा था । 


"किसी पत्रकार की करामात होगी"- वह मन ही मन मुस्कुराया। 

तभी उसे याद आया कि जाते-जाते मां उससे कुछ कह रही थी पर ट्रेन चलने लगी थी और शोरगुल में वह सुन नहीं पाया था। क्या कह रही होगी मां? होगा कुछ। मां का तो काम ही यही है। जब देखो कुछ ना कुछ हिदायत देती रहती है। खाना ठीक से खाना---- फलाना-- ढिकाना । ये औरतों को तो लगता है बस रोना धोना और चिंता करना ही आता है और अचानक उसे  उसी के बिल्डिंग की अंजू याद आ गई जिससे पंजा लड़ाओ  प्रतियोगिता में वह दो बार हार चुका था और सबके सामने उसकी फट गई थी। साली अंजू मोटी पता नहीं कितना खाती है, सांड कहीं की! वह खीझ सा गया। 


तभी ट्रेन रुकी। बिलासपुर स्टेशन था। ट्रेन रुक रुक कर रुकी। एक दो तीन  और ये लगा ढक्कास ! चार झटके खा कर रुकी ट्रेन। और उसके रुकते ही यात्रियों का एक झुंड उस में घुसा। आखिर कौन थे ये यात्री? आखिर थे कौन? कोई मंत्री नहीं, कोई फिल्म वाले नहीं, कोई डाकुओं का गैंग नहीं बल्कि ये वे यात्री थे जो हर रोज सब्जी मंडी में सब्जियां बेचते थे । सबसे पहले एक बुढ़िया अंदर घुसी। हरी सूती साड़ी में लिपटी एक बुढ़िया। वही छत्तीसगढ़िया देहाती स्टाइल । और वह घुसी तो अपने साथ एक नीम के फूलों से भरी बोरी अंदर घसीटते हुए, जिसके छिद्रों से कुछ सफेद फूल बाहर झांक रहे थे। उस बुढ़िया के पीछे पीछे दो और औरतें अंदर घुसीं और सीधे प्रमोद के सामने वाली सीट पर विराजमान हो गयीं। उनके पीछे पीछे एक आदमी घुसा। लूंगी को घुटनों तक मोड़कर पहने इस आदमी की आंखें नींद के मारे लाल थीं। वह आते ही प्रमोद के बगल में बैठ गया। धम्म! उसके पीछे पीछे और भी लोग आए जो उन्हीं की मंडली के जान पड़ रहे थे । और देखते देखते पूरे डिब्बे में बदबू फैल गई। पसीने की गंध की। श्रमिकों के गंध की। अचानक से एक साथ आ घुसने वाले इन रोज के यात्रियों के गंध की। कुछ समय बाद ट्रेन चलने लगी। छुक छुक छुक। रेलगाड़ी। छुक छुक। डिब्बे की शांति दुम दबाकर कहीं भाग गई थी। उसकी जगह औरतों की तेज आवाजों ने ले ली थी। शुद्ध छत्तीसगढ़िया देहाती औरतें। धुर देहाती भाषा वाली। डिब्बे में संसद भवन जैसा वातावरण छा गया। इस बीच सामने बैठी औरत ने अपने झोले से कुछ निकाला। ब्रेड का एक पैकेट और फिर एक प्लेट। और फिर दो टमाटर और एक हरी मिर्च और नमक के एक पैकेट से थोड़ा नमक। प्रमोद ने कनखियों से देखा। टमाटरों को नमक के साथ प्लेट में मसल दिया गया। मिर्च का भी यही हश्र हुआ। उसे बड़ा अजीब सा लगा जब उसने दो औरतों को टमाटर के झोल में डुबो डुबोकर ब्रेड खाते देखा । उनकी बगल में बैठी एक बुढ़िया ककड़ी खा रही थी। 

"कहां आ फंसे यार"- सांस लेने के लिए वह खिड़की के बाहर देखने लगा । ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। उसकी आंख लगने लगी। वह सोने ही वाला था कि ट्रेन रुकने लगी। एक दो तीन  और ये  लगा ढक्कास ! वह झुंझलाता हुआ सीधे बैठ गया । "अच्छी भली तो चल रही थी अब क्या हो गया?" कोई स्टेशन तो नहीं है यहां कि इस ड्राइवर ससुरे को ट्रेन रोकने की पड़ी है । आखिर यह थी तो भारत की लोकल छाप पैसेंजर ट्रेन । वह मन ही मन खुद को कोस्टा रहा। थोड़ा जल्दी आता तो एक्सप्रेस में बैठकर आता। अब घिसट घिसट कर चलना तो पड़ेगा ही। 


बाहर हल्ला मचा था। पता चला जंजीर खींच दी गई थी। वजह  यह थी कि  किसी आदमी ने चलती ट्रेन से छलांग लगा दी थी और उसकी लाश खून से लथपथ होकर बगल की पटरी पर पड़ी थी। काफी समय भी लग सकता था । आखिर वह पुलिस केस था । पुलिस केस है, यही सोचकर वह अपनी जगह से टस से मस भी ना हुआ। उसे लेना देना भी क्या था? पुलिस उम्मीद से पहले आ गई। मामला आनन-फानन में निपटाया गया और ट्रेन चल पड़ी। प्रमोद को तो जल्दी से घर पहुंचना था । कौन मरा कौन जिया इससे उसका क्या वास्ता! वह काफी परेशान हो गया । एक तो इन सब्जी वालों ने डिब्बे में घुसकर सारा माहौल खराब कर दिया था, ऊपर से ट्रेन थी कि जल्दी चलने का नाम ही नहीं ले रही थी। 


खैर किसी तरह मर मर के पहुंच ही गए.. अरे वहीं जहां पहुंचना था। रात के करीब 10:30 बजने को आए थे। मेन गेट अंदर से बंद था। उसने बाहर से खटखटाया। टनटन। मानो उसने कोई सवाल पूछा। अंदर से फौरन जवाब आया - भौं भौं! झबरीले काले बालों वाला विदेशी नस्ल का जेरी जो कि सभी का चहेता था अचानक सतर्क हो गया था । कुछ ही देर में चौकीदार ने आकर गेट खोल दिया और वह अपने कमरे की तरफ ऐसे लपका मानो उसे अभी अभी पता चला था कि कमरे में चोर घुस आए हैं । खैर कमरे में कोई चोर ओर नहीं था ।एवरीथिंग वास एज सेफ एज इट यूज्ड टू बी । 


खाना वह स्टेशन के हॉटेल से खाकर आया था। जूते उतार कर सीधे पलंग में जा धंसा। ना मुंह धोना ना हाथ। उसके बाद उठा तो सीधे अगली सुबह ।वह भी कुछ देर से। 


जल्दी-जल्दी दफ्तर पहुंचना था। ये ब्रश किया ।ये नहाया धोया। ये कपड़े पहने और हो गए तैयार । नाश्ता तो खैर बाहर भी किया जा सकता था तो फटाफट भग लिए मियां ऑफिस को ।


ऑफिस में फिर से वही जाने पहचाने चेहरे, जाना पहचाना काम, जानी पहचानी दिनचर्या ! सामने बैठा मेहता न्यूज़पेपर पलट रहा था। दुआ सलाम करके वह भी आ गया। गप्पेबाजी चालू हो गई ।अखबार का लोकल पन्ना पलटते ही उसे जानी पहचानी सी खबर मिल गई। किसी युवक ने चलती ट्रेन से कूद कर खुदकुशी कर ली थी । कोई पचास साल का बुड्ढा था या कहो जवान था। अज्ञात कारणों से उसने खुदकुशी की थी ।उसका नाम पढ़ कर एक बार तो उसे याद ही नहीं आया फिर अचानक लगा कि शायद वह उसे जानता है । "माखन कुमार बारिक" थोड़ा अजीब सा नाम था । वह शायद हंसा भी करता था इस नाम पर कभी। धीरे-धीरे याद आता गया । जब वह मां मरियम की प्रतिमा के बगल में उगाए गेंदे के फूल चुरा रहा था उसे इसी माखन कुमार बारिक ने पकड़ लिया था और फिर छोड़ भी दिया था और उसे फूल चुराने की इजाजत भी दे दी थी । हालांकि चर्च के आगे पीछे ढेरों खूबसूरत फूल सलीके से लगे हुए थे पर वे सभी फूल चर्च को घेरकर खड़ी बाउंड्री के उस पार से भी बड़ी आसानी से देखे जा सकते थे और चर्च के सामने बनी मां मरियम की बगल के पीले पीले गेंदे अपेक्षाकृत छिपे हुए थे। पर फिर भी बदकिस्मती से वह पकड़ा गया था और उसे पकड़ा था स्कूल के माली माखन कुमार बारिक ने । पर शुकर था कि वह माली भला निकला। वरना सिस्टर के पास, अरे वही उनके स्कूल की प्रिंसिपल मैडम , उसके पास ले जाने पर मार मार के वह उसकी चमड़ी लाल कर देती। सुना था कि वह नशेड़ी भी थी। उसके बारे में स्कूल के बच्चे यह खुसर फुसर भी करते रहते कि वह खरगोश का मांस खाती थी। उनके स्कूल के पार्क में फुदक रहे सफेद सफेद खरगोश जो कि बाहर से मंगाए जाते थे अचानक कैसे गायब हो जाते ? इसका राज वह खूब जानती होगी। वैसे थी वह बड़ी खूंखार ! किसी बच्चे को मारना होगा तो अच्छी खासी छड़ी मंगवाती और अच्छी खासी से उसका मतलब होता कि वह छढ़ी मजबूत तो हो पर कांटेदार भी हो। बड़ी सनकी थी वह बुड्ढी। 


उस खड़ूस औरत का ख्याल आते ही वह एक बार के लिए डर गया। एक बार के लिए ही सही। पर डर तो गया। पता नहीं किस तरह की औरत थी वह, हर किसी से नफरत करती थी इसलिए हर किसी को नापसंद भी थी। उस माखन कुमार बारिक को भी जो प्रायः उससे बिना वजह डांट खाता रहता। गेंदे तोड़ने से उसने प्रमोद को संभवतः इसलिए मना नहीं किया होगा क्योंकि शायद वह उस बुढ़िया से बदला लेना चाहता था और वह अच्छी तरह से जानता था कि उस औरत के पास ले जाने पर वह प्रमोद की क्या हजामत बनाती। 


खैर उसी दिन से माखन कुमार से उसकी अच्छी खासी दोस्ती हो गई थी। पर उस दोस्ती को तो एक जमाना बीत गया था। विद्यालय छोड़े तो उसे कई वर्ष बीत चुके थे और अब तो वह डिग्री लेकर अच्छी नौकरी भी करने लगा था । 


माखन कुमार शराब पीता हो, ऐसा उसने कभी सुना नहीं था। दिल का भी वह काफी अच्छा था ।बागवानी भी बड़ी अच्छी कर लेता था पर उसने आत्महत्या कैसे कर ली? भगवान जाने क्या हुआ होगा? अखबार में तो कुछ खास बताया नहीं गया था और वह खुद जाकर तहकीकात करे इसकी कोई गुंजाइश नहीं थी । उसकी रोजमर्रा की जिंदगी में क्या कम समस्याएं हैं जो वह उस माखन कुमार की खैर ले । फिर पुलिस के पचड़े में पड़ गया तो? पर एक प्रश्न फिर भी था जो उसके मन में उथल-पुथल मचा रहा था । आखिर उसने आत्महत्या क्यों की होगी? मेहता के आसपास और लोग भी जमा हो गए थे ।बड़े साहब को आता देख सब अपने-अपने काम में लगने लगे। वह भी फटाक से उठकर अपने काम में लग गया। 


फिर भी एक प्रश्न था उसके मन में जो उसके गले में सुई की तरह चुभ रहा था। आखिर उसने आत्महत्या क्यों की होगी? इस प्रश्न के जवाब में उसके पास आखिर था ही क्या? सिर्फ इतना ही तो कि उसे इन सब से क्या ?आखिर ऐसे कितने ही मरने वाले हैं और जब आदमी एक दिन में बदल सकता है तो इतने वर्षों में माखन कुमार भी तो बदल गया होगा।  हो सकता है कि उसने पीना शुरु कर दिया हो ---- हो सकता है कि उसने विद्यालय की नौकरी छोड़ दी हो और बेरोजगार हो गया हो---- हो सकता है उसने जुआ खेलते हुए किसी का बहुत सारा कर्ज ले लिया हो । कुछ भी हो सकता है । आखिर वह क्यों इसकी फिक्र करे? उसने विभिन्न तर्कों से खुद को कुछ हद तक संतुष्ट तो कर लिया पर कुछ तो था कि उसे इसके बावजूद भी काफी अजीब अजीब सा लग रहा था। 


शायद इसलिए क्योंकि वह उसी ट्रेन में सफर कर रहा था जिस ट्रेन से माखन कुमार ने कूदकर जान दी थी। शायद इसलिए भी कि माखन कुमार को आखरी दफा देख पाने के अवसर को वह खो आया था । शायद इसलिए भी क्योंकि माखन कुमार ने एक बार फिर उसे विद्यालय के दिन याद दिला दिए थे। शायद इसलिए भी कि वह फिर कभी विद्यालय के चर्च के सामने खड़ी मां मरियम की मूर्ति की बगल के पीले गेंदे नहीं चुरा पाएगा और फिर कभी उसे स्कूल का माली आ कर नहीं पकड़ेगा। शायद इसलिए भी कि आज उसने जिंदगी और मौत के चेहरों को जरा और करीब से देखा था । शायद इसलिए भी कि उसमें बचपन की वह कोमलता लौट आई थी जिसके बल पर वह माखन कुमार बारिक और खुद में भेदभाव नहीं कर पाता था । शायद इसलिए भी कि जीवन की आपाधापी में उसकी मर चुकी संवेदना उस वक्त पुनः जीवित हो उठी थी । 


खैर इतना सोचने का वक्त उसके पास नहीं था। उसे तो अपने काम में लग जाना था। उसी जानी पहचानी दिनचर्या को पूरा करना था । भागना था। दौड़ना था। दोस्तों मित्रों के साथ गप्पें लड़ाना था। और फिलहाल तो शाम के पांच बजे तक ऑफिस में बैठे-बैठे ढेरों काम निपटाना था। वह काम में लग तो गया पर फिर भी क्या तो था कि उसे सारा दिन काफी अजीब अजीब सा लगता रहा।

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92 , श्रीकुंज , बोईरदादर,  रायगढ़  (छत्तीसगढ़)

टिप्पणियाँ

  1. कहानी पढ़ने के बाद लगा कि माखन कुमार बारीक जैसे साधारण आदमी की मौत को लेकर हम आज कितने उदासीन होकर रह गए हैं। कथा लेखिका ने मनुष्य की उस उदासीनता को जगाने की कोशिश की है। मरती हुई संवेदना को लेकर यह कहानी संवाद करती है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस कहानी ने भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर प्रभावित किया है।

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  2. परिधि की लिखी यह कहानी तेजी से सुप्त होती जा रही मानवीय संवेदना को कुरेदने वाली कहानी है। कहानी मार्मिकता से भरपूर है जो अपने को एकसुर में पढ़वा लेती है। कहानी का भाषा शिल्प भी उम्दा है

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परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन ।  विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चे हुए पुरस्कृत रायगढ़। 16 दिसम्बर। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्व विधायक रामकुमार की स्मृति में उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर शहर के अनेक संस्थानों में आयोजन हो रहे हैं। इसी कड़ी में जन्म शताब्दी आयोजन समिति के सहयोग से स्वामी आत्मानन्द शासकीय उ मा वि चक्रधरनगर में भी बच्चों के लिए स्लोगन,निबंध एवं भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। इन प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चों को पुरस्कृत करने के लिए सोमवार 16 दिसम्बर को स्कूल में एक गरिमामय आयोजन सम्पन्न हुआ ।  मुख्य अतिथि नगर निगम पार्षद पंकज कंकरवाल, विशिष्ट अतिथि नगर निगम पार्षद कौशलेश मिश्र , वरिष्ठ रंगकर्मी अनुपम पाल एवं पूर्व विधायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामकुमार के परिवार से सुनील कुमार अग्रवाल की उपस्थिति में बच्चों ने अपनी स्पीच कला का बखूबी प्रदर्शन किया। स्लोगन प्रतियोगिता अंतर्गत कनिष्ठ वर्ग में शगुफ्ताह  प्रथम,नन्दिता मेहर द्वितीय एवं रितिका पाऊले तृतीय स्थान पर रहीं।क्षमा देवांगन को ...

फादर्स डे पर परिधि की कविता : "पिता की चप्पलें"

  आज फादर्स डे है । इस अवसर पर प्रस्तुत है परिधि की एक कविता "पिता की चप्पलें"।यह कविता वर्षों पहले उन्होंने लिखी थी । इस कविता में जीवन के गहरे अनुभवों को व्यक्त करने का वह नज़रिया है जो अमूमन हमारी नज़र से छूट जाता है।आज पढ़िए यह कविता ......     पिता की चप्पलें   आज मैंने सुबह सुबह पहन ली हैं पिता की चप्पलें मेरे पांवों से काफी बड़ी हैं ये चप्पलें मैं आनंद ले रही हूं उन्हें पहनने का   यह एक नया अनुभव है मेरे लिए मैं उन्हें पहन कर घूम रही हूं इधर-उधर खुशी से बार-बार देख रही हूं उन चप्पलों की ओर कौतूहल से कि ये वही चप्पले हैं जिनमें होते हैं मेरे पिता के पांव   वही पांव जो न जाने कहां-कहां गए होंगे उनकी एड़ियाँ न जाने कितनी बार घिसी होंगी कितने दफ्तरों सब्जी मंडियों अस्पतालों और शहर की गलियों से गुजरते हुए घर तक पहुंचते होंगे उनके पांव अपनी पुरानी बाइक को न जाने कितनी बार किक मारकर स्टार्ट कर चुके होंगे इन्हीं पांवों से परिवार का बोझ लिए जीवन की न जाने कितनी विषमताओं से गुजरे होंगे पिता के पांव ! ...