ब तौर आलोचक प्रभात त्रिपाठी किसी कविता के पास, किसी कहानी के पास या किसी उपन्यास के पास उसी अन्वेषण धर्मिता के साथ जाते हैं जिस तरह कि वे स्वयं की रचना के पास जाते हैं - आलोचक नंद किशोर आचार्य
आयोजन में बोलते हुए आलोचक नंदकिशोर आचार्य |
किसी रचना में उनके लिए सहमति असहमति के बिंदु हो सकते हैं पर ये सहमति/असहमति विचारों को लेकर नहीं है, उनकी ये सहमति/असहमति कलात्मक उत्कृष्ठता को लेकर हो सकती है। संवेदनात्मक अन्वेषण की प्रक्रिया ही उनके लिए उनका अपना लेखन है, और यही उनके लिए उनकी आलोचना भी है, और यही उनके लिए रिश्ते भी हैं । जीवन के रिश्ते। रिश्ता तभी रिश्ता है जब वह आपको एलीवेट करे।प्रभात के साथ जिनका भी रिश्ता रहा है उनमें से ऐसा कोई नहीं होगा जिसने उनके साथ रहकर अपने को एलीवेटेड न महसूस किया हो। रिश्ता तभी रिश्ता है जब वह आपको, आपके व्यक्तित्व को ऊंचाइयों तक लेकर जाए । प्रभात के मामले में यह रिश्ता जीवन के साथ-साथ साहित्य को लेकर भी है।
प्रभात को लेकर कई बार अजीब तरह के सवाल लोगों के माध्यम से सामने आते हैं कि प्रभात प्रमुखतः कवि हैं? , प्रमुखतः आलोचक हैं? , प्रमुखतः उपन्यासकार हैं? कि प्रमुखतः कहानीकार हैं? ये एक अजीब तरह का सवाल है । ये प्रमुखतः क्या होता है भाई ? इस सवाल को यदि इस तरह से करें कि
अज्ञेय क्या हैं ? नाटककार हैं कि आलोचक हैं कि कवि हैं कि कहानीकार हैं ?
मुक्तिबोध क्या हैं ? कवि हैं कि कहानीकार हैं कि उपन्यासकार हैं ?
निराला क्या हैं ? प्रसाद क्या हैं ?
ये अजीब सी बात लगती है कि ये होगा तो ये नहीं होगा।
एक समग्र जीवन दृष्टि के लिए आपको सभी विधाओं में प्रवेश करना होता है अगर आप कर सकते हैं तो।
हर विधा का एक वैशिष्ट होता है । जो अन्वेषण आप कविता में कर पाते हैं वह अन्वेषण आप कहानी या उपन्यास में नहीं कह पाते । जो अन्वेषण आप कहानी या उपन्यास में कर पाते हैं वह अन्वेषण आप कविता में नहीं कर पाते। हर विधा की एक सीमा होती है। हर कला का एक सामर्थ्य होता है। आप जितना विस्तार में जाएंगे उतना ही अधिक अन्वेषण कर पाएंगे । प्रभात को लेकर भी ये सवाल लोग करते हैं । मेरे बारे में भी इसी तरह के सवाल लोग करते हैं कि आप मूलतः आलोचक हैं कि कवि हैं, तो मैं कहता हूँ कि मैं मूलतः मनुष्य हूँ ।विश्लेषण की सुविधा के लिए हम अलग अलग विधाओं को लेकर जरूर बात कर लेते हैं । एक खंड में हम कहानी पर बात कर लेते हैं, एक खंड में हम कविता पर बात कर लेते हैं, एक खंड में हम उपन्यास पर बात कर लेते हैं कि ओवरआल पिक्चर क्या बन रहा है ।प्रभात को लेकर जो पिक्चर बनता है , जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि वे एक अन्वेषण कर्त्ता हैं । अन्वेषण धर्मिता को लेकर उनकी आवाजाही अलग अलग विधाओं में होती रहती है। कभी कविता लिखते लिखते कहानी लिखना शुरू कर देते हैं , कभी उपन्यास लेखन की ओर चले जाते हैं।ये रचनाकार के बस में नहीं है। रचनाकार तय नहीं कर सकता कि उसका अनुभव, उसकी अन्वेषण धर्मिता उसे कहाँ ले जाएगी । अगर वह जान ले तो फिर लिखना कैसा ? यह अभिव्यक्ति की प्रक्रिया नहीं बल्कि मुख्यतः यह तो जानने की प्रक्रिया है। हमारी अपनी परम्परा में जो ऋषि रहे हैं वे कवि भी रहे हैं । वे सृष्टा नहीं बल्कि दृष्टा रहे हैं। वे देखने वाले रहे हैं । यह देखना ही जानना है , अनुभूति है।कविता अनुभूति की प्रक्रिया ही है जो कि है । कविता हमें कहीं नहीं ले जाती, वह हमें उसी अनुभूति में ले जाती है। यह अनुभूति की प्रक्रिया ही ज्ञान से जोड़ती है । यहाँ जो ज्ञान है वह विचारों वाला ज्ञान नहीं है बल्कि जानने का एक अवसर है । यहाँ ज्ञान का अर्थ अनुभूति से है विचारों से नहीं । अनुभूति न कराकर अगर कोई कविता किसी ख़ास आइडिया में रिड्यूस हो रही है तो फिर वह कविता कमजोर हो जाती है । प्रभात की कविताओं में मैंने ऐसा कहीं नहीं पाया | प्रभात की बहुत सी अच्छी कविताएं अनुभूति की कवितायेँ हैं, वे किसी ख़ास आइडिया में रिड्यूस नहीं होतीं। प्रभात की कविता में अनुभव को किसी ख़ास आइडिया में बदलते हुए मैंने कहीं नहीं देखा। यह अनुभव तो पाठक के मन में स्वयं जागृत होना चाहिए ।प्रभात की कविता में यह बात परिलक्षित होती है । कवि कर्म की एक बड़ी चुनौती यह है कि कविता में सबकुछ को समझा देने के लोभ से कवि कैसे बचे। प्रभात इस चुनौती पर खरे उतरते हैं।
प्रभात की एक कविता ...... मैं मरा नहीं झरा हूँ / मौसम की पुकार में .../ हवा के आकार की तरह है मेरा प्यार।
इस कविता की व्याख्या नहीं की जा सकती । इस कविता को किसी विचार में आप रिड्यूस नहीं कर सकते , इसकी केवल अनुभूति कर सकते हैं।दरअसल ये पुनर्जन्म की कविता है । कविता और कला में बातें इसी तरह व्यक्त होती हैं ।
प्रभात के उपन्यासों में भी यही बातें हैं ।उनके दो उपन्यास अनात्मकथा और किस्सा बेसिर पैर नए शिल्प विधान के साथ हिन्दी में दो अलग तरह के उपन्यास हैं ।इनमें नए प्रयोग हैं । अनात्मकथा अनात्म होते जा रहे समाज के साथ अनात्म होते जा रहे मनुष्य की कथा है।उपन्यास अनात्मकथा हर जगह आत्म क्षरण की कथा है।किस्सा बेसिर पैर, बेसिर पैर होते जा रहे मनुष्य की कथा है , बेसिर पैर होते जा रहे शहर की कथा है , बेसिर पैर होते जा रहे समाज की कथा है। इन उपन्यासों में भी किसी आइडिया या विचार को स्थापित करने की बात कहीं नहीं है बल्कि इनमें अपने साथ-साथ समाज को जानने की एक प्रक्रिया निहित है।
इस तरह मैं कह सकता हूँ कि प्रभात अपनी रचना में अपने को जानने के लिए अन्वेषण कर्त्ता के रूप में ही जाते हैं ।
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【 सामग्री संकलन : मोबाइल रिकार्डिंग के आधार पर रमेश शर्मा द्वारा संग्रहित 】
काफी महत्वपूर्ण बातें उनके वक्तब्य से उभरकर सामने आई हैं।प्रभात त्रिपाठी पर केंद्रित इस वक्तब्य के माध्यम से हिंदी आलोचना को एक नई दिशा मिल सकती है। यह आयोजन जरूर शानदार रहा होगा।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअनुग्रह की ओर से बहुत अच्छी सामग्रियों का प्रकाशन हो रहा है।यह आलेख पढ़कर साहित्य की मूलधारा से जुड़ने का अवसर मिला। बहुत प्रभावी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंप्रभात त्रिपाठी जी की बहुत सी रचना मैंने पढ़ी हैं। वे एक बेहतरीन साहित्यकार है ।उनकी रचना धर्मिता पर इस तरह का आयोजन बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी ओर से त्रिपाठी जी को बधाई और आप सब को बहुत सारी शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंउर्मिला आचार्य जगदलपुर