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भाषा का राजनीतिकरण किसी भाषा के साथ न्याय नहीं है

 

भाषा तभी तक बची रहेगी जब तक कि उस भाषा का साहित्य बचा रहे | राजनीति और संचार क्रांति के इस महायुग में आज साहित्य ही मानवीय संवेदना के प्रसार का एक मात्र बचाखुचा माध्यम रह गया है, ऐसे में हिन्दी भाषा में साहित्य लिखने-पढने की परम्परा को बचाए रखने की जरूरत है |

हिन्दी भाषा को लेकर हर वर्ष एक उथल पुथल सी मची रहती है | इस उथल पुथल में गंभीरता कम और सतहीपन अधिक होता है | अन्य भाषाओं खासकर अंग्रेजी के विरोध से शुरू हुआ यह अभियान चौदह सितम्बर सुबह से शुरू होकर, शाम के आते आते कहीं अँधेरे में गुम हो जाता है | हिन्दी भाषा ऐसे अभियानों से कितनी समृद्ध हो पाती है, कितनी नहीं यह बहस का कोई मुद्दा नहीं है | ऎसी बहसों से कुछ हासिल भी होना नहीं है | हर क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप इस वर्ष एक नए अभियान की शुरूवात हुई है  "STOP HINDI IMPOSITION". यह भी एक उसी तरह का अभियान है जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूँ | दरअसल राजनीति ने हर जगह जब अपने पाँव पसारे हैं तो भला कोई भाषा भी उससे अछूती कैसे रह सकती है | कोई भी भाषा एक समूची संस्कृति को अपने साथ बहाकर लाती है , उस संस्कृति में हमारे समय की न जाने कितनी प्रतिछवियां होती हैं जिसे राजनीति की आँखों से न कभी देखा जा सकता है न कभी महसूसा जा सकता है | हिन्दी भाषा ऐसे अभियानों से कभी भी लोकप्रिय या अलोकप्रिय नहीं हुई| अगर वह आज पूरी दुनियां में लोकप्रिय हुई है तो उसके पीछे उसकी मिठास , सरलता, सहजता और संप्रेषण की सघनता है | हिन्दी भाषा की सहजता ही इसे कहा जाय कि वह अन्य भाषाओं के साथ अपना तादात्म्य आसानी से बिठा लेती है | हर संस्कृति से आत्मसात्मीकरण स्थापित कर लेने की सहज प्रवृति अगर मेरे जैसे मनुष्य के भीतर आज विकसित हुई है तो उसके लिए मैं हिन्दी भाषा को ही उसका श्रेय देता हूँ | नेशनलिज्म से हिंदी को जोड़कर देखने की प्रवृति जो कुछ हलकों में आज हम देख सुन रहे हैं, उस प्रवृति पर मेरा कभी विश्वास नहीं रहा | हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सेतु की तरह फलते फूलते देखने पर मेरा हमेशा विश्वास रहा है, हिन्दी अगर न होती तो अन्य भाषाओं के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो उठता| इसलिए सभी भारतीय भाषाओं को एक लेकर एक समन्वयवादी दृष्टि रखने से ही हिन्दी अधिक पुष्ट होगी |

हिन्दी को समृद्ध करने में राजनीतिक अभियान कभी कारगर साबित नहीं हुए | उसे तो मिलकर समृद्ध किया है हमारे लेखकों और सुधि पाठकों ने ही, जो निरंतर इस दिशा में सक्रिय हैं  | उन हिन्दी के संपादकों को भी इस अवसर पर शिद्दत से याद करने की जरूरत महसूस होती है जिन्होंने अथक परिश्रम और संघर्ष से लघु पत्रिकाओं को निरंतर प्रकाशित कर उन्हें हिन्दी के पाठकों तक पहुंचाया है और जिसे पाठकों का भी प्यार मिला है | हिन्दी भाषा को बचाने और समृद्ध करने में इन सभी लोगों की जो भूमिका है, हिन्दी के बहाने दरअसल उस भूमिका को याद कर उसे सम्मानित करने का यह दिवस है |

भाषा तभी तक बची रहेगी जब तक कि उस भाषा का साहित्य बचा रहे | राजनीति और संचार क्रांति के इस महायुग में आज साहित्य ही मानवीय संवेदना के प्रसार का एक मात्र बचाखुचा माध्यम रह गया है, ऐसे में हिन्दी भाषा में साहित्य लिखने-पढने की परम्परा को बचाए रखने की जरूरत है |

रमेश शर्मा  

(14 सितंबर 2020 हिंदी दिवस)

 

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