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प्रीति प्रकाश की कहानी : राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए

प्रीति प्रकाश की कहानी 'राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए' को वर्ष 2019-20 का राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है, इसलिए जाहिर सी बात है कि इस कहानी को पाठक पढ़ना भी चाहते हैं | हमने उनकी लिखित अनुमति से इस कहानी को यहाँ रखा है | कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि यह कहानी एक संवेदन हीन होते समाज के चरित्र के दोहरेपन, ढोंग और उसके एकतरफा नजरिये को  किस तरह परत दर परत उघाड़ती चली जाती है | समाज की आस्था वायवीय है, वह सच के राम जिसके दर्शन किसी भी बच्चे में हो सकते हैं  , जो साक्षात उनकी आँखों के सामने  दीन हीन अवस्था में पल रहा होता है , उसके प्रति समाज की न कोई आस्था है न कोई जिम्मेदारी है | "समाज की आस्था एकतरफा है और निरा वायवीय भी " यह कहानी इस तथ्य को जबरदस्त तरीके से सामने रखती है | आस्था में एक समग्रता होनी चाहिए कि हम सच के मूर्त राम जो हर बच्चे में मौजूद हैं , और अमूर्त राम जो हमारे ह्रदय में हैं , दोनों के प्रति एक ही नजरिया रखें  | दोनों ही राम को इस धरती पर उनकी जन्म भूमि  मिलनी चाहिए, पर समाज वायवीयता के पीछे जिस तरह भाग रहा है, उस भागम भाग से उपजी संवेदनहीनता को यह कहानी जीवंत तरीके से सामने रखती है | प्रीति प्रकाश का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है | 

राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए 

   

"अभी माथा गरम है".

आकि हमर हाथ ठंडा है?“

दोनों हाथों  को रगड़कर गरम किया बादामी ने. फिर से लड़की के

माथे पर हाथ रखा

"ना,बोखार है अभी.

स्वीकृति में सर हिलाया बादामी ने. थोड़ी देर वैसे ही बैठी रही फिर बेटी के सर

पर से तो हाथ हटा लिया पर चेहरे पर से नजरे नहीं हटाई. तभी तो सब उसे

भटकसुनकहते. भटकसुनमतलब जिसे अगल-बगल की कोई सुधि नहीं हो बादामी

भी जहां देखने लगती, बस देखती रहती. कुछ पूछो तो भी जवाब नहीं देती अपनी

धुन में खोई रहती. अभी भी जाने कितनी देर से बेटी का चेहरा देख रही थी

और जाने कितनी देर और देखती अगर गुदरी में सोया बच्चा नहीं कुनमुनाता. बच्चे

की आवाज सुन बादामी उसकी तरफ मुड़ गई. बच्चा इतने सारे कपड़ो में लिपटा था

कि कोई दूर से देखे तो समझे कि कपड़े का ही छोटा सा ढेर है. बादामी ने बच्चे के

शरीर पर हाथ रखा और उसे थपथपाना शुरू कर दिया,

,

सुत जा हो...

हमर सोनवा हो...

पर बच्चे पर इस लोरी का कोई असर न हुआ. धीरे-धीरे, रोते-रोते वह जोर-जोर

से रोने लगाआऊ

आऊ आऊ.

भुखु लाग गया का हो...?“

आई, आई हमर राजा जी हो...

बादामी ने बच्चे को गोद में उठा लिया और कलेजे से साट लिया. जब तक बादामी

ब्लाउज के बटन खोलती तब तक बच्चा ब्लाउज ही पीने लगा.जल्दी जल्दी बादामी ने

उसका मुंह अपने सूखे स्तन से लगा लिया. बच्चा सुडुप-सुडुप आवाज करके दूध पीने लगा

 

बच्चे के चुप होने से निश्चिन्त बादामी अब

बाहर देखने लगी. बादामी को बाहर देखना

उतना ही अजीब लगता जैसे बाहर वालों को

उसका घर देखना . बादामी

देखती, ”जाने कितनी लंबी

सड़क, कहां से आती...कहां जाती. चमकती

गाड़ियां, कार, जीप, ऑटो, मोटरसाइकिल

और म्युनिसिपैलिटी की कचरा उठाने वाली

भयंकर गाड़ी भी. सज-धज के जल्दी-जल्दी

आते-जाते लोग, सारे अजनबी चहरे, कोई

पहचान नहीं आता. कभी-कभी बादामी को

लगता कि वह किसी को पहचान रही है पर

जब वो मुस्कुराते हुए उसके पास जाती तो

सामने वाला अजीब नजर से देखता और

फिर बादामी की हिम्मत ही न होती कि

कुछ पूछे. दिन भर हल्ला-गुल्ला रहता और

फिर रात को धीरे-धीरे सन्नाटा हो जाताढि

बरी जला देती बादामी तब. फिर भी उसे

डर लगता. राधा को और जोर से कलेजे से

चिपका लेती.

सड़क पर आते-जाते लोग देखते,

म्युनिसिपैलिटी की नाली, उस पर टूटी

स्लैब, उस पर प्लास्टिक तान के रहती है

पगली. पगली के खोपचे में शहर भर का

कबाड़ इकट्ठा रहता है. मोटरी गठरी, लुगरी,

पोलोथीन, चट्टी बोरा और न जाने क्या-क्या , जाने

कहां से इतना गंदा कपड़ा ले आती है

पहनने के लिए. कभी-कभी पगली के साथ

एक लड़की रहती छह-सात साल की, और

अब एकदम छोटा बच्चा भी दिख रहा था

आजकल. कहीं बच्चा चोरी करने का काम

तो नहीं करती. दिन भर वही खोपचे में बैठे

रहती जब वो नहीं बैठे रहती तब लड़की बैठे

रहती, जैसे रखवाली कर रही हो अपने

ताजमहल की. कभी कभी सीलवड की तसली

में रोड के किनारे ही डभकता भात और फिर

पता नहीं क्यों लोग उसके बारे में सोचते

ही नहीं. एक अजीब-सी वितृष्णा होने

लगती.

दूध पीते-पीते बच्चा सो गया. बादामी

 

ने उसे फिर वहीं सुलाकर गुदरी ओढ़ा दी . मैली-

कुचैली गुदरी में बालक का शरीर ढक

गया बस चांद-सा मुखड़ा दिखता रहाबादामी

ने उंगली पर दिन गिने. आज

तेरहवां दिन था बालक को जन्म लिए. ना

ढोल बजा, ना बतासे बंटे, ना ही नए कपड़े

आए. किसी और घर में जन्म लिया होता

तो आज दूसरी ही रौनक होती. अपनी-

अपनी किस्मत. कितना सुन्दर चेहरा है , अगर

बड़की मेमसाहेब के हाथ में दे दो तो

सब कहेंगे कि उन्हीं का जाया है. पैर फैला

लिए बादामी ने. बाहर शीतलहरी चल रही

है. पैर पर ठंडी हवा लगने लगी तो बादामी

ने पैर अंदर कर लिए.

मां को सर्दी लग जाए तो बेटे को भी

लग जाएगी.

बड़की मेमसाहेब ने कहा था. पर कब

तक उकड़ू बैठे रहें. ठीक से बैठने की जगह

भी तो नहीं है घर में. बादामी को रोना आने

लगा. गांव में कितनी जगह थी न. जब वो

राधा की उम्र की थी तो ऐसी ठंडी में दिन

भर घूर के पास ही बैठी रहती, उसी घूर में

शकरकंद पकाते, आलू पकाते, टमाटर पकाते,

मटर पकाते और फिर सब मिलकर खाते.

यहां शहर में घूर कहां. खूब ठंडा होता तो

कोई दुकानदार एक पोलोथीन का बोरा और

दूसरा कचरा बटोरकर माचिस लगा देता,

ओतने से आड़ हो जाता है. प्लास्टिक बड़ी

जल्दी आग पकड़ता है और प्लास्टिक पर

पानी का भी असर नहीं होता है. शहर में

सबसे अच्छी चीज ये प्लास्टिक ही तो है लेकिन

देखो न बिना प्लास्टिक के किसी

का काम भी नहीं चलेगा और सब जुलूस

बना कर कहते हैं कि प्लास्टिक हटाओ .बादामी

को हंसी आ गई. उस दिन

स्कूली बच्चे हाथ में तख्ती लेकर बादामी के

घर के सामने से गुजरेबंद

करो,बंद करो.

प्लास्टिक का प्रयोग बंद करो

कोई एक माइक में बोलता और सब

 

उसकी बात दोहराते. पहले तो बादामी को

कुछ समझ में नहीं आया. और जब समझ

में आया तो उसे लगा कि सब उसका घर

तोड़ने आ रहे है. वही बैठे-बैठे हिंदी में बोली

बादामी उ लोग से

बताओ कोई, ई कौनो बात हुआ.

प्लास्टिक ना रहे तो बारीश में भीजे का,

घाम में पाके का सब कोई. आ सामान कहां

रखे. भागो अपना ढढ कमंडल लेके. बुझा

गया उ लोग को. सब भाग गए. लेकिन

लडिका जात, उसी तरह चिलाते चिलाते

गए.

जाने कितनी बार बादामी ने यह कहानी

राधा को सुनाई है और राधा को भी न जाने

कितना रस आता इस बेकार कहानी मेंदोनों

मां-बेटी पहले खूब हंसते और फिर

राधा उसी समय किसी प्लास्टिक की थैली

में हवा भरके बलून बना के उड़ाने लगती .बादामी

ने अब बच्चे को सुला दिया

और राधा की तरफ मुड़ गई. राधा अभी भी

बेहोश-सी सोई थी .राधा

को देखते-देखते बादामी ने फिर

से उसके माथे पर हाथ रखा. माथा उसी

तरह तप रहा था. बादामी ने बेटी के सर पर

प्यार से हाथ फेरा और फिर माथा चूम

लिया. राधा ने थोड़ी पलकें  खोलीं और फिर

मूंद ली. फिर मुंह चलाने लगी जैसे कुछ खा

रही हो. बादामी को याद आया कि राधा ने

तो सुबह से कुछ नहीं खाया है. घर में कुछ

खाने के लिए है भी नहीं. बादामी झट से

खड़ी हो गई. साड़ी ठीक की, उलझे बालों 

को मोड़ा और ऊनी चादर उठा के ओढ़ ली चलते-

चलते एक बार बेटे को देखा. गुदरी

में सोया बच्चा बहुत सुंदर लग रहा था. घर

से बाहर निकलकर फिर बादामी अचानक

से मुड़ी. वापस अंदर आई. बच्चे को चुम्मी

दी. गर्मी में सोया बच्चा मां के ठंडे होठों से

जरा-सा परेशान हुआ. थोड़ा कुनमुनाया बादामी

ने फिर से उस पर हाथ रखासूत,

बाबू, सूत

जा

तानी दीदी खातिर दवाई ले आव

तानी.

बड़की मेमसाहेब से पैसा मांग के ले

आव तानी.

उनका से कहेम...

और बादामी को समझ ही नहीं आया

कि वह क्या कहेगी. उसे तो ठीक से बात

करने ही नहीं आती. तभी तो सब उसे

बगड़ी, पगली और न जाने क्या-क्या कहते

हंै. पर बड़की मेमसाहेब और लोग की तरह

नहीं है. स्कूल में पढ़ाती है, बहुत समझदार

है. तभी तो बिना कहे उसकी सब बातंे

समझ जाती है. उस दिन जब झाड़ू लगाने

झुकी बादामी तो जैसे झुका ही न जाए.

ढोल जैसा पेट बीच में आ जाए. तब

बड़की मेमसाहेब ने कहा, ”कल से आने

की जरूरत नहीं है. घर रहो और अपना

ध्यान रखो.

फिर बिना मांगे उस महीना का हिसाब

कर दिया और पांच सौ और दिया. कहा कि

ठीक हो जाना तब ही आना. छोटा-छोटा

कपड़ा-लत्ता भी दिया और मोजा भीबबुआ

के मोजा पहिनईने बानी नू?“

बादामी ने याद करने की कोशिश की पर

उसे याद नहीं आयाअच्छा,

चादर के भीतरी बा, ठंडा ना

लागी.

यही सब सोचते-सोचते बादामी बड़ी

मेमसाहेब के घर पहुंच गई. बड़ी मेमसाहेब

के दरवाजे पर बहुत भीड़ थी. शायद मंझली

दीदी को देखने लड़के वाले आए थे. शायद

क्या, वही थे. मंझली दीदी साड़ी पहन के

बैठी थी. राधा भी तो कभी-कभी बादामी की

फटी साड़ी फ्राॅक के ऊपर लपेट लेतीकहती

अब हमहु मां बन गइनी. पागल

लड़की!

बड़की मेमसाहेब उसे देखकर बहुत

खुश हुई. सब काम पड़ा था. बादामी ने चाय

बनाई. कितनी अच्छी लगती है न इलायची

की महक. बड़की मेमसाहेब ने ही बताया

 

था, ‘यह इलायची है, यह दालचीनी है आज

कितने दिन बाद बादामी चाय पिएगी अभी

कहां फुर्सत है. सारे प्लेट तो जूठे पड़े

हैं. सब धोकर ठीक से पोंछ भी दिया. उसी

में मिठाई जा रही है. सारी मिठाइयों के नाम

भी तो बड़ी मेमसाहेब ने ही बताया था,

रसगुल्ला, चमचम. एक दिन एक बर्फी भी

दी थी. पर बादामी ने जीभ पर रखी भी नहीं ,ले

जाकर राधा को खिला दी. बेचारी उसको

भी तो कुछ अच्छा खाने को नहीं मिलता मझली दीदी की शादी तय हो जाएगी तो वो

बड़ी मेमसाहेब से मिठाई मांगेगी. अरे चाय

तो ठंडी हो गई. कोई बात नहीं मंझली दीदी

को देखने लड़के वाले रोज-रोज थोड़े ही आते

हैं?

दो घंटे बाद जब बादामी चलने लगी

तो बड़की मेमसाहेब ने बुलायाबादामी,

कैसी हो?“ बड़की मेमसाहेब

ने मुस्कुराते हुए पूछाठीक

बानी बड़की मेमसाहेब.और

बादामी को याद ही नहीं रहा की उसे भर पेट

खाना खाए बहुत दिन हुए, कि रघुआ के

जनम के समय हस्पताल में जो टाका पड़ा

था वो अभी भी बहुत दुखता है, कि आठ

महीने पहिले उसका पति उसे स्टेशन पर

छोड़कर जो भागा तो आज तक उसका पता

नहीं चल पाया है. पर बादामी ने फिर से

 

कहा

ठीक बानी हम.

और बताओ, बेटा हुआ कि बेटी?“

बेटा बा मेमसाहेब, साफ...गोर, दपदप

बबुआ.

नाम क्या रखा है?“

रघु नाम रखा...था...है... कईसन नाम

है...मेमसाहेब?“

ये दो वाक्य बादामी ने दो मिनट में

कहे. मेमसाहेब सबर से उसे सुन रही थीनाम

तो बहुत अच्छा है बादामी रानी.

मेमसाहेब ने ठिठोली की तो मानो

दुनिया भर की खुशी मिल गई बादामी को.

घर लौटते समय वह यही सोचने लगी कि

कितनी अच्छी है ना बड़की मेमसाहेब. आज

तक किसी ने बादामी से उसके बेटे के बारे

में नहीं पूछा था. बड़की मेमसाहेब ने पूछा चलते

समय सौ रुपया भी दिया कहा कि

बबुआ के नाम पर नेग है, महीना से अलग.

एक पोलोथीन में पुलाव दिया. सब्जी खतम

हो गई थी. क्या हो गया? बादामी को तो

पुलाव ऐसे ही बहुत अच्छा लगता है. राधा

को क्या कम अच्छा लगता है? घर चलते

चलते रस्ते में बादामी ने फिर सोचा कि

आज से दलिद्र भगा देना है. राधा के बाबू

को गए आठ महीने हो गए. तब से एक

बार भी वो ठीक से तैयार नहीं हुई. आज

मंझली दीदी कितनी सुंदर लग रही थी न?

वह भी तो पहले कितनी संुदर लगती थी,

राधा के बाबू देखते तो देखते रह जाते थेनहीं

आज से फिर अच्छा से रहेगी. टाइम पर

मेमसाहेब के घर भी जाएगी और अपने घर

भी खाना बनाएगी. कल से राधा को भी

स्कूल भेजेगी.

भेजेगी न बादामी रानी? और बादामी

को फिर से हंसी आ गई. चलते-चलते

दवाई दुकान पर रुक गई. सर्दी, खासी,

बुखार की दवाई ले ली. जाते ही राधा को

खिला देगी. खिलाएगी न बादामी रानी?

और बादामी फिर हंसने लगी

 

इस धुंध में कुछ उतना साफ नहीं दिख

रहा था. दिन भर उसी तरह धुंध थी. बादामी

ने दोनों हाथ रगड़कर नाक को गर्मी दी.

स्कार्फ के फीते कसकर बांधे. लो आ गया

बादामी रानी का घर. पर इस बार बादामी

को हंसी नहीं आई. घर से चार कदम दूर

बबुआ का गुदरा पड़ा था...बादामी ने फिर

से देखाμहा-हा, उसकी ही गुदरी है. थोड़ा

और दूर बबुआ का मोजा रोड पर पड़ा था .बादामी

जल्दी से खोपचे में घुसी और उतने

ही तेजी से बाहर भागी. मोजा के आगे पीछे

देखा. इधर-उधर दौड़ भाग करके देखा. खाली

गुदरी ही उठा के झार के देखा. फिर से

खोपचे में जाके राधा को खिसका के देखा.

एक-एक सामान, एक-एक कपड़ा उठा के

देखा. पर जिसको देखना चाह रही थी वो तो

कहीं दिखाई ही नहीं दिया. बादामी को लगा

कि उसका कान गरम हो गया, पूरा शरीर

अचानक से ठंडा पड़ने लगा, खून जमने

लगा. दिमाग सुन्न पड़ गया. पहले सिसकी

शुरू हुई लेकिन जैसे जैसे खोज आगे बढ़ती

गई आंसुओं की धार और रुदन का स्वर तेज

होता गया. फिर एक जोर का क्रंदन वातावरण

में फैल गयाअरे

हमर बबुआ.

तू कहां गईल हो.

तू कहां बाड हो...

हमर बबुआ के, के ले गईल हो...

हमर सोनवा के रोवाईयो नइखे सुनाई

देत हो...

सब दौड़े. पान वाला, चाय वाला, आते

जाते लोग और कुछ स्कूली बच्चे भी .देखा ...पगली पर भूत सवार है. सब सामान

उठा उठा के बाहर फेंक रही है. बटुली,

चूल्हा, गुदरा, गठरी मोटरी. पुलाव का पोलोथीन

भी वही पड़ा है, आधा फटा पोलोथीन. अब

तक के शोरगुल से राधा जग गई थी. फटी

फटी आंखों से मां को देख रही थी. बादामी

ने झकझोरकर राधा से पूछा

बबुआ कहां बा?

 

“”रे डइनिया बोल ना, कहवा बा

बबुआ.

राधा ने कुछ नहीं कहा. भटकसुन मां

की भटकसुन बेटी पुलाव की थैली देख रही

थी. एकटक, लगातार. जाने कहां से एक

कुत्ता आके अचानक से थैली की तरफ बढ़ा

और तीन दिन से बुखार में पड़ी लड़की में

जाने कहां से उतनी तेजी आ गई. भागकर

उसने थैली उठा ली. कुत्ता वहीं आसपास

मंडराने लगा फिर सड़क पर पड़ा बच्चे की

गुदरी को सूंघने लगा. जाने बादामी को क्या

सूझा वो तेजी से बाहर निकली. जहां गुदरा

पड़ा था वहां से एक कदम पर खुला नाला

था. बादामी ने नाले में झांका और धम्म से

बैठ गई.

"हे राम जी, ई का हो गैल हो.

निकाल लोगन हो...

बबुआ के बचाव लोगन हो...

सबने नाली में झांक के देखा. लाल रंग

की फूली शर्ट दिखी. स्कूल के लड़के डंडा ले

आए. नाली में डाल के, शर्ट में फंसा के

खींचा. थोड़ी देर पहले का मानव शिशु जिसे

गुदरी में लिटाया था अब डंडे पर टंगा थाबच्चे

को जमीन पर रखा गया. पूरा फूल

गया था. बादामी ने आंचल से जल्दी-जल्दी

मुंह पोंछा, हाथ पोंछे, पैर पोंछा . बच्चा नहीं

हिला. फिर आंचल से ही मुंह में से पाक

निकाला. फिर नाक में से. बच्चा नहीं

हिला. वो फूल गया था. शायद बहुत देर से

पानी में गिरा था. बादामी ने जल्दी से उसका

मुंह अपने स्तन से लगाया. अब भी बच्चे ने

कोई हरकत नहीं की. बादामी ने अब उसे

जोर से झकझोरा. पर पत्थर भी कहीं रोता हैबच्चा

उसी तरह निस्पंद रहा.

एक महिला ने बादामी के हाथ से

बच्चा ले लिया. जमीन पर लिटा दिया . बादामी

ने विरोध नहीं किया, अजीब से

आवाज से रोने लगी. गिलिर-बिलिर. जैसे

सारे शब्द उससे दूर भाग गए हों , जैसे अब

दुनिया में कुछ बचा ही न हो. ऐसा रुदन

कि पत्थर का भी कलेजा फट जाए. बबुआ

को जमीन पर पड़ा देख और मां को रोता

देख जाने राधा को कितना समझ आया,

खाना छोड़ वो भी वहीं आके बैठ गई और मां

के सुर में सुर मिलाकर रोने लगी .अब

तक भीड़ जमा हो गई थी. कानाफूसी

शुरू हो गई

कैसी पागल औरत है?“

भगवान ऐसे लोग को औलाद क्यों देता है?“

कितना सुंदर बच्चा था.

बेटा था.

कैसे बर्दाश्त हो रहा है, भटकसुन-सा बैठी है.

वहीं  कुत्ता पास आकर फिर कुछ सूंघने

लगा. शायद पुलाव. कुत्ते की आवाज सुनकर

राधा रोना छोड़कर भागकर फिर से खोपचे में

आ गई. पुलाव की थैली उठाकर खाने लगी अकेली.

बच्ची के हाथ में पुलाव देखकर

कुत्ता उसकी तरफ बढ़ा. कुत्ते ने जैसे थैली

को मुंह लगाया राधा चिल्लाने लगी. लोगों

ने कुत्ते को भगा दिया. पोलोथीन की थैली

अब तक कि खींचतान में बहुत फट गई

थी. राधा ने चादर के नीचे से अखबार का

टुकड़ा निकाला और उस पर पुलाव रख खाने

लगी. अब तक बाहर भीड़ बहुत कम हो

चुकी थी. पूरा पुलाव खाने के बाद राधा ने

फिर मां को देखा. वह अभी भी बच्चे को

देख रही थी. एक जम्हाई लेने के बाद राधा

ने अखबार के टुकड़े को ऊपर उठाया और

उसपर लिखे अक्षर मिला मिलाकर पढ़ने

लगी-

"आकार रा म राम, क ओकार को,

न म जनम, भ...भ म दिरघई मी भमी, राम

को जनम भमि...

म हरषाई मि ल न दिरघई नी, मिलनी,

च आकार चा, ह हरषई हि ए, मिलनी

चाहिए...

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प्रीति प्रकाश तेजपुर विश्वविद्यालय आसाम में हिन्दी बिषय की शोधार्थी हैं 

संपर्क:    preeti281192prakash@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर और सार्थक कहानी के लिए बधाई । अनुग्रह ने अच्छी रचनाओं का चयन किया है
    रामकुमार सिंह
    दमोह मध्यप्रदेश

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी कहानी। राधा के हिज्जे निरीहता को एकाएक व्यापक और गहरा संदर्भ दे देते हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं
  3. एक सशक्त कहानी । बदामी के माध्यम से उस समूचे वर्ग के जीवन-संघर्ष की,उस यथार्थ की हृदयविदारक प्रस्तुति ।
    लेखिका को बहुत बधाई 💐

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं
  4. प्रीति प्रकाश जी की कहानी में स्त्री सम्वेदना ,माँ का दर्द और गरीबी को जैसे तोला-तोला नाप कर रखा गया है ।न कहीं कम न कहीं ज़्यादा।एक भी शब्द कहानी में बढ़ा नहीं सकते और एक भी शब्द निकालने की गुंजाइश नहीं । हर्फ़-हर्फ़ में मानवता की प्रज्वलित सम्वेदना को पिरोया गया है ।लेखिका को बधाई शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कल्पना मनोरमा जी , आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

      हटाएं
  5. एक शानदार कहानी जो हंस कथा सम्मान से भी नवाजा गया था | प्रीति प्रकाश को हार्दिक बधाई |

    जवाब देंहटाएं
  6. आपने कहानी पर अपनी प्रतिक्रया दी | शुक्रिया आपका |

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर कहानी। प्रीति को बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

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कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

कोइलिघुगर वॉटरफॉल तक की यात्रा रायगढ़ से

    अपने दूर पास की भौगौलिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानने समझने के लिए पर्यटन एक आसान रास्ता है । पर्यटन से दैनिक जीवन की एकरसता से जन्मी ऊब भी कुछ समय के लिए मिटने लगती है और हम कुछ हद तक तरोताजा भी महसूस करते हैं । यह ताजगी हमें भीतर से स्वस्थ भी करती है और हम तनाव से दूर होते हैं । रायगढ़ वासियों को पर्यटन करना हो वह भी रायगढ़ के आसपास तो झट से एक नाम याद आता है कोयलीघोघर! कोयलीघोघर ओड़िसा के झारसुगड़ा जिले का एक प्रसिद्द पिकनिक स्पॉट है जहां रायगढ़ से एक घंटे में सड़क मार्ग की यात्रा कर बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है । शोर्ट कट रास्ता अपनाते हुए रायगढ़ से लोइंग, बनोरा, बेलेरिया होते ओड़िसा के बासनपाली गाँव में आप प्रवेश करते हैं फिर वहां से निकल कर भीखमपाली के पूर्व पड़ने वाले एक चौक पर जाकर रायगढ़ झारसुगड़ा मुख्य सड़क को पकड लेते हैं। इस मुख्य सड़क पर चलते हुए भीखम पाली के बाद पचगांव नामक जगह आती है जहाँ खाने पीने की चीजें मिल जाती हैं।  यहाँ के लोकल बने पेड़े बहुत प्रसिद्द हैं जिसका स्वाद कुछ देर रूककर लिया जा सकता है । पचगांव से चलकर आधे घंटे बाद कुरेमाल का ढाबा पड़ता है , वहां र

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज  ■रमेश शर्मा ------------------------------------------------------------- इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का

परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है। उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में