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डॉ. नीरज वर्मा की कहानी वार्ड 24

नीरज वर्मा एक ऐसे युवा कथाकार हैं जिनकी कहानियों को, लोकजीवन में डूबे पात्रों के बीच संवाद की किस्सागोई एक नया सौन्दर्य प्रदान करती है।उनकी कहानियों में आस पड़ोस के समाज की ज्वलंत समस्याएं, इस किस्सागोई के संवादों में इस तरह स्वाभाविक तौर पर आती हैं कि कभी ये हमें हास्य के साथ थोड़ी गुदगुदाती हैं तो कभी तीक्ष्णता लिए हमें भीतर से कचोटती हुईं सोचने पर विवश करती हैं । मनुष्य में विवेक के स्तर पर सोचने समझने का जो एक धरातल है, उस धरातल को आज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याएं दिनोंदिन बंजर करने पर किस तरह आमादा हैं , यहाँ प्रस्तुत नीरज वर्मा की कहानी 'वार्ड 24' उसकी एक बानगी है। नीरज वर्मा की ज्यादातर कहानियां मनुष्य के विवेक के उस बंजर होते धरातल पर हस्तक्षेप करती हुईं  , उसे पुनः पुनः हरा करने की कोशिश करती हैं । यहाँ प्रस्तुत 'वार्ड 24' कहानी राजनीति के वर्तमान दाँव पेंच को जिस तरह निर्वस्त्र करती हुई हमारे सामने रखती है, ऊपर वर्णित उपरोक्त कथन का यह प्रमाण भी है ।हंस में पूर्व प्रकाशित उनकी 'पत्थर' कहानी भी  नर्सिंग होम से जुड़े आज के प्रचलित व्यापार की अंदरूनी भयावहता को सामने रख अपना लोकधर्मी रूप गढ़ती है।कहानी का आज यह धर्म भी होना चाहिए कि वह विचलन की राह पर चल पड़े समाज को रास्ता दिखाए , इस अर्थ में नीरज की कहानियाँ अपना सही धर्म निभा रही हैं ।घटनाओं की महीन बुनावट और पात्रों के बीच संवाद की जीवन्तता उनकी कहानियों  की एक ख़ास विशेषता है जो उन्हें पठनीय बनाती हैं । नीरज जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है।




'वार्ड  24'

       ‘‘राम-राम गुप्ता भईया’’....‘‘राम-राम भाई’’....खपच्चियों से बंधे ठेले में चारों ओर केला के गुच्छों को ठूंस -ठूंस कर भरते हुए गुप्तेश्वर ने सिर हिला कर कलीम का अभिवादन स्वीकार किया था। ‘‘अरे फुग्गी भाई कहां चल दिए’’.......‘‘अब जानते तो हो भाई मियां की दौड़ मस्ज़िद तक’’ ‘‘काम के बिना किसका पेट भरने वाला है।’’ कलीम सबका हाल समाचार लेता आगे बढ़ ही रहा था, तभी पीछे से कर-कराती हुई आवाज उसके सिर पर गिरी थी..... ‘‘आज कल बार-बार केबल काहे काट देता है’’? ‘‘एक भी सिरियल पूरा नहीं देखने देता है।’’ ‘‘आना अबकी पैसा लेने तब बताती हूं।’’ अपने मोटे ग्लास वाले चश्मे के नीचे से झांकते हुए बिन्नी की अम्मा कुड़-कुड़ाई थी। ‘‘उसी काम में लगा हूं अम्मा थोड़ा सबर करो, कुछ देर में सब  ठीक हो जाएगा।’’ ऐसा कोई दिन नहीं होगा जब मोहल्ले की औरतें चैनल को ले कर कलीम की थुक्का फज़िहत न करती हों। लेकिन वह बत्तीसी निकाल कर सब का क्रोध ठंडा करवा देता, और चाय-चुक्कड़ पी कर निकल लिया करता। कुछ बूढ़ी औरतें तो मुसल्ले को चाय पिलाने के लिए  बहुओं पर कुड़ कुड़ाया भी करती थीं।

     मोहल्ले के पूर्वी भाग वाले बरगद की तिकोनी शाख पर लाल मुंह वाला लंगूर सूरज आ कर बैठता उससे पहले ही लोग मुंह में दातुन की कूंची दबाए, कंधे पर गमछी टांगे, लोटा लिए आपस में बतकुच्चन करते झुरमुट की ओर निकल लिया करते थे। उनमें से कुछ तो कंधे पर पेट टांगे दिन की शुरुवात की ओर सरक रहे होते थे। तिकोनी गली में सड़क के दोनों ओर टेढ़े-मेढ़े मकान ऐसे खड़े थे मानो किसी की शव यात्रा में जाने के लिए मौन पंक्तिबद्ध हों। उन उदास घरों के बीच एक महल की अकड़ देखते बनती थी। हवेली की शान बनी रहे इसलिए उसके सामने कोटा पत्थर से नाली को ढंक दिया गया था। पर मातमी सूरत वाले घरों का इतना सौभाग्य कहां ! उनके सामने काले गेजेदार पानी की धारा  छल-छलाती रहती थी। जहां निवास करने वाले एक से एक अनाम रहवासी गुच्छों की शक्ल में उड़ा करते। नाली से उड़ने वाला भभका अगर नसिका द्वार से सीधे प्रवेश कर जाए तो एक बारगी हूल आ जाए, लेकिन वहां बसने वाले इसके अभ्यस्त थे। वो लोग तो गली में बड़े चाव से फेरी लगाने वाले  ठेले पर खड़े हो कर चाट फुलकी का आनन्द ले लिया करते थे। ऐसा नहीं था कि वहां के लोग बाकी भारत से कटे हुए लोग थे। गली की चेतना का आभास टी.वी. पर चीखते चिल्लाते बाबाओं से लगाया जा सकता था, जो भारत विकास का सूर अलाप रहे  होते थे। वैसे इन सब के बीच मोहल्ले में आज अलग बयार चल रही थी। गली जहां खतम होती है, वहां लगभग सत्तर साल पुराने कुआं की जगत पर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। मोहल्ले के एक मात्र हवेली के मालिक बबन दुबे के चेहरे पर चिन्ता की लकीर तैर रही थी। नीले रंग की चरखानी लूंगी और झक्क सफेद बनियान में दुबे जी मुखिया वाले अंदाज में नज़र आ रहे थे।

   मोहल्ले का तो समीकरण ही बदल गया था। जिसका सपने में भी अनुमान नहीं था अचानक उसकी घोषणा सुन कर लोगों को धक्का लगा था। वार्ड पार्षद की सीट पिछड़ों के लिए आरक्षित क्या हुई लोगों में हल-चल मच गई थी। कहां तो दुबे जी पिछले पांच बरस से मूंछो पर ताव दिए ताल ठोंक रहे थे, ‘‘अबकी चाहे जो हो जाए पैसों  का परनाला ही क्यों न खोलना पड़ जाए पार्षदी तो हमारी ही होगी।’’ अनेकों पुल पुलिया सड़क आदि के ठेकेदार दुबे जी थे भी दबंग। कहते हैं, कमर में हमेशा देशी कट्टा लटकाए फिरते हैं। भारी भरकम बूलेट में लद कर निकलते तो अच्छे-अच्छों का पेशाब सटक जाता था। मोहल्ले की बेटी बहुरिया आड़ कर लिया करती थीं। पर सारा किया धरा धूल में मिल गया था। नये सीमांकन में वार्ड नम्बर 24 को पिछड़ों के लिए आरक्षित कर दिया गया था। बात हवा में तैर रही थी कि, ‘‘कर्पूरी साव और जगधारी कलवार की सारी कारस्तानी है’’ काना-फुसी तो यह थी कि, सारा खेल दुलारे बहु के लिए रचा गया  है। कर्पूरी साव दुलारे बहु से देवर भौजाई का रिश्ता रखते हैं, सो तोहफे में जोड़ जूगाड़ करके वार्ड को पिछड़ों के लिए आरक्षित करवा दिया।

उन्हे इसका कोई तोड़ नज़र नहीं आ रहा था। इस लिए अपने  समर्थकों की आपात कालीन मीटिंग बुलाई थी। ‘‘महराज सब कर्पूरी साव का खेला है दुलारे की घर वाली को सपोर्ट करने के लिए ही खेल रचा गया है।’’एक ने टुकड़ा लगाया था।

   ‘‘बात तो ठिकई कह रहे हो, अब ससूरा इत्ता समय भी नहीं है कि,कोर्ट में चैलेंज किया जाए।’’ ‘‘ अपोजिट भले खेल रचा है लेकिन चुनाव मैदान में दुलारे के भीतर हम अपना चोंच नहीं घुसेड़े न तो हम भी मर्दाना के जामल नहीं होंगे साला कुत्ता के जामल होंगे’’।  बबन दुबे की मूंछे गुस्से से फड़फड़ा रही थीं।

     ‘‘इसका का उपाय रचा जाए हुजूर’’ उकड़ू बैठे मानिक महतो ने अपनी जिज्ञासा उछाली थी।

 ‘‘तोड़ क्या होगा?’’ ‘‘दुलारे बहु को उठवा लो।’’ ‘‘स्साली को नचावल जाएगा।’’ दुबे जी का चम्मच सा दिखने वाला सुरेन्दर ठाकुर पान से रची अपनी टेढ़ी मेढ़ी खिस्से निकाल कर हो-हो वाली हंसी हंसा था।

कुएँ के पास गहमा गहमी देख कर रजिन्दर भी मुंगफली भरे अपने ठेले के साथ रुक गया था। वैसे उसका उद्देश्य व्यवसाय न हो कर माहौल का जायजा लेना भर था। लगे हाथ कुछ बिक जाए तो कोई बुराई भी नहीं थी।

‘‘इऽऽऽ स्साला पंडितो होना आज के जुग में गरहे है।’’ ‘‘नौकरी करे जाओ तो नीच जाति का  आरक्षण, राजनीति करो तो  इ खेला’’ कन्हाई जबान खोला ही था कि, दुबे जी की लील जाने वाली नज़र देख कर पैंट गीला नहीं किया बस.......‘‘स्साला का बोला रे कबाड़ी।’’  ‘‘पानी की टंकी देख रहा है ना’’, ‘‘एकर उपर से फेंक देंगे फिर स्साला रहबे नहीं करेगा तो कहां से सांस लेगा और कहां से... ’’ दुबे जी का फिल्मी डायलाग सुन कर वहां बैठे सभी लोग एक साथ खी-खी करके हंस दिए थे।  बात कुछ ज्यादा ही गंभीर थी। लोग अपनी-अपनी राय अपनी -अपनी  योग्यता अनुसार रख रहे थे। सब विचार कर ही रहे थे , तभी अपने पुराने पैंथर में मुर्गे की डलिया बांधे मेवा लाल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। पैंथर में बंधे डलिया के भीतर कुछ मुर्गे अपनी पूरी ताकत से एक दूसरे को नोच खसोट रहे थे। उनमें  से फार्म वाले कुछ सफेद मुर्गे, मुर्दा से पड़े हुए थे। हालाकि लूट पाट हिंसा बालात्कार के बीच कमजोर आदमी ऐसे ही पड़ा रहता है। वैसे भी लोकतंत्र के लिए यह सब आम बात है। लोक तंत्र के आम आदमी की हद अपने लिए किकियाने तक ही है। मुर्गे की कांव-कांव, कचर-कचर के मध्य मेवा लाल ने अपनी जिज्ञासा उछाली थी, लेकिन बबन दुबे की नशीली आंखो पर नज़र पड़ते ही सटक कर वहीं पर उकड़ू बैठ गये थे। वहां पर घोर मंथन चल रहा था।

  ‘‘भईया नामांकन की आखरी तारीख के विषय में कुछ पता है।’’ एक थोड़े पढ़े लिखे कह सकते हैं, समझदार हरिहर बाबू ने तकनिकी विषय पर बात की दिशा को मोड़ा था।

     ‘‘अब समय कहां है।’’ ‘‘अब कुछ तो सोचना ही पड़ेगा, वर्ना पांच साल झाल पीटने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा।’’ पांडे जी के चेहरे पर चिंता तैर रही थी। 

    अभी चर्चा चल ही रही थी कि  सूरज सर पर तबला बजाने लगा था। कुछ को ठेला फेरी के लिए भी विलंब हो रहा था, इस लिए धीर-धीरे लोग वहां से सरकने लगे। जनसमूह को खिसकता देख बबन दुबे के सामने सभा भंग करने के अलावा कोई चारा शेष न था। सभा तो बेनतीजा ही समाप्त हो रही थी पर भीड़ देख कर बबन दुबे को अपने सामर्थ्य  का पता चल गया था। कहते हैं न सत्ता सामर्थ्यवान के घर की चाकरी होती है। ‘‘ बबन दुबे ने हरिहर बाबू को कनखियाया, चलिए हरिहर बाबू इस विषय पर ठंडा दिमाग से विचार किया जाएगा।’’

          ठेकेदारी का कुछ काम निपटाने के बाद दुबे जी की कोठी पर कुछ सेलेक्टेड लोगों  की मीटिंग बुलाई गई थी। कोठी के बाहरी हिस्से में विदेशी नस्ल के पौधों का शानदार बगीचा था। जिनकी सेवा के लिए दो माली मुस्तैद थे। वहां छुई-मुई से कुछ देशी गुलाब भी सकुचाए खडे थे। विशाल कहलाने वाले बरगदों को भी बोनसाई करके दुबे जी ने अर्दली बना लिया था। गमले में उगने वाला सेव मोहल्ले वालों के लिए कौतुक का विषय था। बगीचा सुन्दर हो भी क्यों न मोहल्ले के लोग पीने के पानी के लिए भले हा-हा कार मचा रहे हों पर बबन दुबे के बगीचे में लगे देशी, विदेशी पौधे शान से नहाते हुए इतराया करते थे।

    प्रायः आलीशान बगीचे के बीच लगे मखमली गद्दे वाले झूले  में पसर कर दुबे जी जीवन सुख भोगा करते थे। कई बार तो वहीं पड़े-पड़े अपने स्मार्ट फोन से ठेकेदारी का काम निपटा लिया करते। पर आज सब कुछ लोकतांत्रिक था। बबन दुबे खास अंदाज में बाध वाली खटिया पर अधलेटे थे वहीं उनके अगल बगल लगी पांच सात कुर्सियों में मोहल्ले के कुछ खास लोग आसनस्थ थे। रानी  और टॉमी कुछ बखेड़ा न खड़ी कर दें इस लिए उन्हे किनारे बांध दिया गया था। 

          ‘‘कर्पूरी साव ने तो सारा खेल बिगाड़ कर रख दिया दुबे जी’’ ‘‘मेरी समझ से तो उसने आपको रोकने के लिए ही सारा गणित लगाया है।’’ महेश्वर सिंह ने बात की शुरुवात की थी।

‘‘आप ठीक कह रहे है’’‘‘बबन बाबू इस बार नगर पालिका अध्यक्ष के मजबूत दावेदार थे।’’ ‘‘अब परेशानी यह है कि, आधा से अधिक वार्ड तो पिछड़ों, एस.सी और एस.टी. के लिए रिजर्व कर दिया गया है।’’ ‘‘जिन वार्डो में सामान्य कोटा है भी, वहां रिस्क ज्यादा है।’’ क्योंकि चुनावी ध्रुवी करण में वहीं के लोगों में सिर फुट्टौव्वल हो रहा है।’’ ‘‘अगर रिस्क लिया भी जाए और परिणाम उल्टा हो जाए तो’’ युवा लेकिन समझदार कहे जाने वाले रफीक ने अपनी समझ का पिटारा खोला था।

  ‘‘बाबू साहब हम लोगों के तो सारे किए धरे पर पानी फिर गया।’’ ‘‘और नहीं तो चार सौ लोगों का नाम जुड़वाया गया था।’’ ‘‘जो दुबे भईया के लिए एक दम सालिड वोट था।’’

    ‘‘चुप रहो यार यह सब हल्ला नहीं किया जाता।’’ ‘‘दुलारे तक बात पहुंच गई तो नया बखेड़ा खड़ा हो जाएगा।’’

      ‘‘बात तो सहिए कह रहे हैं भईया।’’ ‘‘लेकिन जो बात होनी थी सो तो हो गई।’’ ‘‘अब इसका कोई तोड़ तो निकालना ही पड़ेगा।’’

  ‘‘हम तो कह रहे हैं अब ए सब पचड़ा रहने ही दिया जाए।’’ ‘‘इससे हमारा कोई खाना खर्चा तो चलेगा नहीं फिर काहे सिर दर्द मोल लें।’’ ‘‘अब कोई मेयर बने हमारा का बिगड़ेगा,’’ ‘‘हमारा संबंध तो सीधे राजधानी से है,’’ ‘‘ठेकेदारी तो वैसे ही चलेगी जैसे चलती है।’’ दुबे जी अचानक बैक फुट पर आ गये थे।

 ‘‘बात उसकी नहीं है दुबे जी बात अब आन की है,’’ ‘‘अगर यूंही छोड़ दिया जाएगा तो लोगों का हौसला बुलंद हो जाएगा।’’ ‘‘अब लड़ाई तो फारवर्ड और बैकवर्ड का है।’’ ‘‘लाख पांच लाख के लिए पीछे मत हटिए।’’ ‘‘आप नहीं लड़ेंगे तो कहिए हम खर्चा करेंगे।’’ ‘‘लेकिन कैंडिडेट हमारा अपना आदमी होगा।’’ सचिता सिंह ने ललकारा था।

‘‘बात पैसे की नहीं है।’’ ‘‘पांच क्या हम तो दस खर्च कर दें लेकिन बात भी तो बने।’’ ‘‘यहां तो ऐसा पेंच फंसा है कि, हमारे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है।’’

‘‘इसमें समझना क्या है?’’ ‘‘लोहा को लोहा ही काटता है।’’ ‘‘हम चुनाव लड़ नहीं सकते हैं, लड़वा तो सकते हैं न।’’ ‘‘पिछड़ा के खिलाफ पिछड़ा,’’ ‘‘लेकिन हमारा अपना आदमी’’ ‘‘क्यों आप सब सहमत हैं कि, नहीं।’’ सचिता सिंह ने उपस्थित लोगों की मंशा जाननी चाही तो सबने लगभग एक स्वर में अपनी सहमति जताई थी।

  ‘‘आप लोग बात तो ठीक कह रहे हैं।’’ ‘‘लेकिन आज की तारीख में विश्वास किस पर किया जाए।’’ ‘‘किसी पर दांव  खेला भी जाए तो क्या भरोसा वो आपका अपना  होगा।’’ समय समाज को देखते हुए दुबे जी की शंका निर्मूल नहीं थी लेकिन लोगों का दबाव था और बात भी आन की थी।

‘‘होगा काहे नहीं’’ ‘‘मान लीजिए कोई बेईमानी करेगा भी तो कितने दिन’’ ‘‘पांच साल ही न फिर बच के कहां जाएगा बच्चू।’’ ‘‘पहले दांव का घोड़ा तो तैयार कीजिए काम कैसे निकालना है हम लोग देखेंगे न’’ विनोद सिन्हा आवेश में आ गये थे......‘‘देखिए लाला जी का ताव’’ ‘‘इक्कीस लाला मिल कर एक मूली नहीं उखाड़ पाए और ए चले हैं’’......सुकेश मिश्रा ने मसखरी की तो सिन्हा जी पिनक गये थे। ‘‘यही सब हम को अच्छा नहीं लगता’’ ‘‘अरे आप तो सच मान लिए मैं तो बस मजाक  कर रहा था।’’ ‘‘बबन भईया खुद ही इतना पावर फुल हैं कि अच्छे- अच्छे सटक जाते हैं ।’’

‘‘अरे यार मसखरी का समय नहीं है।’’ ‘‘हम लोग यहां कुछ गंभीर विचार करने बैठै हैं ।’’ ‘‘एक बात गांठ बान्ध लीजिए जनता बहुत होशियार हो गई है।’’ ‘‘बाहु बल और धन बल से चुनाव जितना आसान नहीं रह गया है।’’ ’’आदमी के आंत की थाह नहीं लगती।’’ ‘‘मुंह पर कुछ कहेगा पेट में कुछ रहेगा।’’ ’’किसका क्या कबार लीजिएगा।’’

     ‘‘बात को भटकाइए मत भाई,’’ ‘‘बबन भईया अगर तेतरी देवी को खड़ा कर दिया जाए तो कैसा रहेगा’’ सचिता बाबू ने अपने विचार रखे थे। ‘‘ना...ना तेतरी तो ठीक है पर उसका लड़का गिरहकट है।’’ ‘‘एकदम फांदे बाज’’ ‘‘अभी कुछ दिन पहले चरस मामले में पकड़ाया था।’’ ‘‘मैं ही तो टी.आई. से कह कर मामला रफा-दफा किया ,नहीं तो चालान हो ही गया था।’’

‘‘आप लोग कहते तो हमारा भतीजा भी ठीक ही था।’’ विनय चौरसिया धीरे से अपनी दावेदारी प्रस्तुत किए थे।’’ लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया तो चुप हो गये। उम्मीदवार चयन समिति की बैठक लगभग दो घंटे चली लेकिन  नतीजा कुछ नहीं निकला। शाम होते तक मोहल्ले  में पर्याप्त हलचल मच गई थी। दुलारे और दुलारे बहु शक्ति प्रदर्शन वाली मुद्रा में लगभग बीस पच्चीस की भीड़ के साथ निकल पड़े थे। झक्क सफेद पायजामा कुर्ता में निकले दुलारे बाबू के चेहरे से सरलता टपक रही थी। सिर पर आंचल डाले दुलारे बहु बड़े बुजुर्गो का पैर छू कर लोगों  का दिल जीतने का प्रयास कर रही थी। विनम्रता की पराकाष्ठा ही कही जा सकती है,बबन बाबू विरोधी दल के हैं, यह जानते हुए भी दुलारे युगल उनसे आशीर्वाद लेने पहुंचे थे। ‘‘भईया अब हमारी इज्जत आपके हाथों में ही है।’’ ‘‘आप अपना आशीर्वाद दीजिए, आप चाहेंगे तो हमको जीतने से कोई नहीं रोक सकेगा।’’

 ‘‘ठीक ही कह रहे हो’’ दुबे जी मूंछो के नीचे से हंसे थे। पूरा शहर चुनावी रंग में रंग गया था। उम्मीद्वार अपने द्वारा किए गये नेकी को भूनाने में लगे हुए थे। किसी ने लोगों को राशन कार्ड बनवाने में मदद की थी, तो कोई वृद्धा पेंशन दिलवाया था। लोगों ने वादे भी बढ़ चढ़ कर किये। कुछ लोग जीतने के बाद घरों मे नल लगवाने की बात कर रहे थे। तो कोई युवाओं  को उद्योग विभाग की मदद से ऋण दिलाने की बात कर रहा था। किसी ने गली-गली में नाली खुदवाने की बात की, तो कोई विवाह आदि में होने वाली परेशानियों को देखते हुए सामुदायिक भवन बनवाने पर आमादा था। बिजली का खम्भा, स्कूल भवन की मरम्मत, स्मार्ट कार्ड, जैसे ढेरों लोक लुभावन वादों से प्रत्याशी एक दूसरे का मन मोहने में लगे थे। नामांकन की तिथि घोषित होते ही दुलारे युगल लगभग साठ समर्थको की भीड़ लेकर ढोल नगाड़ों के साथ पर्चा भरने गये थे।

    दुबे जी और उनकी उम्मीद्वार चयन समिति के लोग तीन दिन की कड़ी मशक्कत के बाद एक नाम पर सहमत होते दिखे थे। दर असल उन लोगों ने उम्मीदवारी पर ही चर्चा नहीं की थी। प्रत्याशी चुनाव जीत जाए, उनकी चिन्ता यह भी थी। यही कारण था कि, सबसे पहले उन लोगों ने तीन हजार सात सौ चौतीस की जनसंख्या वाले वार्ड का सांख्यिकी विश्लेषण किया था। जहां सुढ़ीबनिया,कायस्थ,बाम्हन,कलारों के अलावा मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। मुसलमानों  की अधिकता को देखते हुए प्रत्याशी मुसलमान कौम का हो इस बात पर ही जोर दिया गया था।

      दुबे जी के उम्मीदवार चयन समिति ने गंभीर मंथन के बाद एक ऐसे उम्मीदवार के चयन पर बल दिया था जिसकी मुस्लिम समुदाय में अच्छी खासी पकड़ हो, लेकिन वह व्यक्ति हुकूम का गुलाम बन कर दुबे जी के आगे पीछे घूमने के लिए भी एक पैर पर तैयार रहे। कुल मिला कर चुनाव में ट्वेंटी-ट्वेंटी की साझेदारी हो। बहुत मशक्कत के बाद जिस नाम पर सहमति बनी थी, उस पर दुबे जी थोड़ा असहमत थे। पर मौके की नजाकत को देखते हुए उससे बढ़िया नाम हो ही नहीं सकता था।

     केबल आपरेटर होने की वजह से कलीम की पहुंच लग-भग सभी घरो में थी, तभी तो सबकी नज़र में वही श्रेष्ठ दावेदार  था। इसलिए आनन फानन में रात को करीब साढ़े सात बजे कलीम के ठीहे पर ही बैठक रखी गई। दरवाजे पर बजबजाती नाली में लगातार पानी बहने की वजह से एक अजीब किस्म की सड़ान्ध महक हवा में पसर रही थी। मच्छरों की तो मानो दावत चल रही हो। कलीम के घर की बाहरी दीवारों पर प्लास्टर नहीं होने की वजह से दीवारों र्के इंट कुछ मिलने की उम्मीद में दांत निकाले भिखारी से दिख रहे थे। बगल के ओसारे में लेड़ी गिराती बकरियां मिमियाते हुए अपने होने का अहसास दिला रही थीं ।

      ‘‘देखिए कलीम जी वैसे तो हमारा मन चुनाव-उनाव के चक्कर में पड़ने का एक दम नहीं है।’’ ‘‘पर भईया लोग की ज़िद के आगे हम हारे हैं।’’ ‘‘इन सब का मानना है कि, मोहल्ले के सबसे योग्य कैंडिडेट आप ही हैं।’’ ‘‘हम तो कह रहे हैं कि, दुलारे भी अपना ही आदमी है पर सब हैं कि ज़िद ठाने बैठे हैं।’’ ‘‘कहते हैं कि, आटा चक्की चलाने वाला पार्षदी क्या करेगा ?’’ ‘‘आप को तो पता ही होगा,’’ ‘‘अपना वार्ड पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित हो गया है।’’ ‘‘इस लिए सबने आपको ही चुनाव लड़वाने का मन बनाया है।’’ दुबे जी ने कलीम के आगे सीधे सपाट लहजे में अपनी बात रखी थी।  बबन दुबे प्रायः कलीम को कलीमवा, मियां आदि कह कर संबोधित किया करते थे। मोहल्ले में जन्मे, पले, बढ़े, मुन्नवर कबाड़ी के बेटे को इसका बुरा  भी नहीं लगता था। पर आज अपने नाम के साथ आप सुन कर कलीम घबरा गया था। उसके सामने हलाल से पहले की बकरी का चेहरा तैर गया था।

 कलीम के आगे एक साथ बीस जोड़ी आँखों  में जिज्ञासा तैर गई थी। लेकिन अकबकाहट उसके चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी....‘‘चुनाव मैं कहां भईया’’ ‘‘काहे मजाक कर रहे हैं’’...‘‘मैं एक मामूली केबल आपरेटर’’...‘‘यहां खाने के तो लाले पड़े हैं’’ ‘‘और आप चुनाव लड़ने के लिए कह रहे हैं।’’

‘‘तुम दुनियां की फिकर काहे कर रहे हो, कलीम भाई जब बबन भईया कह रहे हैं तो कुछ सोच समझ कर ही ना कह रहे होंगे।’’ लवकेश पांडे ने बबन दुबे की ओर से बात आगे बढ़ाई थी।

  ‘‘देखो कलीम बेटा नगर पालिका चुनाव में हमारा मोहल्ला पिछड़ों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।’’ ‘‘ पक्का मान लो यह सब जान बूझ कर बबन बाबू को रोकने के लिए किया गया है।’’ ‘‘इस लिए हम लोगों ने तय किया है कि,बबन बाबू चुनाव लड़ नहीं सकते तो क्या ?’’ लड़वा तो सकते हैं न,’’ ‘‘इसलिए सब की राय बनी है, हमारा अपना आदमी वार्ड पार्षद का चुनाव लड़े और आटा चक्की चलाने वाले को पार्षद बनने से रोके’’ इसके लिए तुम ही सबसे योग्य आदमी लगे।’’

‘‘आपका कहना तो ठीक है चचा,’’ ‘‘लेकिन चुनाव-सुनाव ताकत वालों का खेल है’’...‘‘यहां तो फूटी कौड़ी नहीं है,’’ मुझे तनिक सोचने का मौका भी तो दीजिए’’ अब्बा से सलाह तो ले लेता कलीम थोड़ा अन्यमनस्क हुआ था।

 ‘‘अब तुम भी ज्यादा भाव न खाओ कलीम मियां किस्मत तुम्हारे घर चल कर आई है और तुम हो कि,’’..... ‘‘रही मुन्नव्वर भईया की बात तो बबन भईया की बात वो नहीं टालेंगे’’ लवकेश पांड़े ने सपाट लहजे में कलीम को समझाया था।

 ‘‘अरे भाई तुम चिन्ता काहे करते हो।’’ ‘‘तुम्हे तो बस दुल्हा बन कर घोड़ी चढ़ना है।’’ समधियौज करने के लिए तो बबन भईया तैयार ही हैं।’’ गुड्डन मिस्त्री  ने होंठ खीच कर खैनी गलियाते हुए जब अपनी बात उछाली तो वहां बैठे लोग ठहा-ठह हंस पड़े थे। कलीम  के दरवाजे पर रात एक बजे तक महफिल जमी रही। चाय चुक्कड़ के कई दौर चले, कौन सी गाड़ी में चढ़ कर नामांकन भरने जाना है। आगे-आगे कितनी गाड़ियां चलेंगी, पीछे कितनी गाड़ियां होंगी। कौन सी बैंड पार्टी होगी, आदि,आदि सभी विषयों पर विस्तृत चर्चा के बाद बबन भईया अपने दल-बल के साथ वहां से चले गये थे। कलीम को आज अपने आप पर गर्व हो रहा था। उसकी रात आंखो में कटी थी। कभी चुनाव लड़ने की फूरफूरी से देह गन-गना जाती, तो कभी अजीब सी चिन्ता तारी हो जाती थी। कुल मिला कर आज का सूरज चिंता और उत्साह के मिश्रण में घुला हुआ था। बदलाव की आंधी अंतः स्थल को झक-झोर रही थी। बादलों के मध्य फंसा मरियाया सा दरिद्र सूरज आज जब निकला तो घर के बाहर वाली नाली वैसी ही उफान मार रही थी। बकरियों की मिनमिनाहट से वैसे ही वातावरण में कोलाहल भर रही थी। घर के बाहरी दीवरों र्के इंट वैसे ही दांत निकाले खड़े थे। उन सब के मध्य कुछ नया था तो, एक सपना जो वहां की हवा में तैर रहा था।

        दिन के बारह बजे होंगे बबन भईया झक्क सफेद कुर्ता-पायजामा की जोड़ी ले कर कलीम के घर पंहुचे थे। आज कलीम का नामांकन भरने जाना था। पुराने माडल के खुले जीप में काफिला सजाया गया। एक दम नेता वाले अंदाज में कलीम को जीप के सामने खड़ा किया गया । बबन दुबे बगल वाली सीट में बैठे। जीप से ले कर कलीम तक को गेंदे के फूल से लादा गया। जीप के पीछे बोनान्जा और होण्डा सीटी जैसी गाड़ियों का काफिला सजा। जिसके पीछे लगभग पचास मोटर सायकल की रैली निकाली गई। कलीम के पास खुद को शहंशाह कहने का पूरा कारण था। मतवाली भीड़ ‘‘बबन भईया जिन्दा बाद’’, ‘‘जीतेगा भई जीतेगा कलीम मियां जीतेगा’’ के नारे लगाते हुए निर्वाचन कार्यालय पहुंची तो सारा वतावरण बबनमई हो गया था। कलीम का सीना चौड़ा हुआ जा रहा था, हो भी क्यों नहीं  यह नसीब भी तो बिरलों को ही मिलता है।

         वार्ड क्रमांक 24 में चुनावी माहौल गर्मा गया था। दुलारे बहु ने पहले सिर पर आंचल रख कर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लिया। बाद में मुकाबला तगड़ा होता देख पल्लू कमर में खूंस गई थी। रिक्शे पर प्रचार का भोंपा लगातार गला फाड़ रहा था। घर-घर संपर्क के लिए एक-एक घरों में दो-दो तीन-तीन बार जाया जाने लगा। कलीम बबन दुबे का आदमी था, और दुबे जी की पकड़ प्रदेश स्तर तक थी। इस लिए मोहल्ले में प्रदेश स्तरीय नेताओं ने भी सभाएं की........अगर चुनाव में कलीम बाबू जीत गये तो मोहल्ले के सभी घरों में एकल बत्ती कनेक्शन करा दिया जाएगा। कोई भी गरीब परिवार ऐसा नहीं रह जाएगा, जिसके घर में एकल बत्ती कनेक्शन न हो, या उसका गरीबी रेखा के नीचे वाला कार्ड न बने।

       चुनाव जातीय उन्माद फैलाता है तो कभी-कभी एकता की नजी़र भी पेश करता है। बबन दुबे के निर्देशन में चल रही चुनाव की तैयारी में इसे देखा जा सकता था। दुबे जी के सड़क किनारे वाले खाली पड़े दुकान में चुनाव कार्यालय बना कर, पूरे मोहल्ले को बैनर पोस्टर से ढंक दिया गया था। हिन्दु हो या मुसलमान मोहल्ले के सभी नंग धड़ंग बच्चों  के गले में कलीम के नाम की माला दिख रही थी। प्रचार रिक्शा मोहल्ले भर में गला फाड़ते ऐसे दौड़ रहे थे। उन्हे तो दम मारने की फुर्सत न थी।

    दुलारे की आटाचक्की ही उसका चुनाव कार्यालय था, जहां दिन भर कार्यकर्ताओं की भीड़ लगी रहती। प्रचार में दुलारे ने कलीम की जाति को आधार बना कर खूब कटाक्ष किया था। कर्पूरी साव भी दूलारे की बहु को जिताने के लिए एंड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे।

    उस रात फटे दूध से छितराए बादलों के बीच से झांकता चांद सहमा-सहमा सा लग रहा था।  कर्पूरी साव दुलारे के कुछ खास लोगों के साथ जीत की रणनीति बनाने के लिए दुलारे के पीछे वाली बाड़ी में बैठे थे। मरियायी बल्ब की पीली रोशनी में चारो ओर कुछ कुर्सियां लगी हुई थीं । सभा के मध्य भाग में टेबल पर रखे बोतल का कट देख कर शराब के मंहगे होने का अनुमान लगाया जा सकता था। झक्क सफेद सिफॅान की साड़ी में लिपटी दुलारे बहु कर्पुरी साव को देख कर तिरछा के मुस्कुरा देती थी। सिल्की होने की वजह से साड़ी का पल्लू बार-बार सरक जाता था। जिसे बचाने का कोई खास प्रयास भी दुलारे बहु के द्वारा नहीं किया जा रहा था। वैसे कर्पुरी साव उस पर कुछ तव्वज्जो नहीं दे रहे थे। हां उन्होने दुलारे के उपर तंज जरुर कसा था......‘‘उमर के साथ-साथ भउजी कुछ ज्यादा चटक होती जा रहीं हैं।’’ दुलारे ने उनकी बातों को महत्व तो नहीं दिया लेकिन चेहरे का रंग स्याह जरुर हो गया था। चुनाव अपने पक्ष में करने के लिए उपस्थित लोगों ने अपने-अपने विचार रखे थे। कुछ ने चुनाव के ठीक एक दिन पहले दारु और मुर्गा बंटवाने को कहा। लेकिन गुड्डन ने जो बात कही उसे सुन कर उपस्थित लोगों के रोंगटे खडे़ हो गये थे।

    ‘‘कहिए तो एक झटके में पासा पलट कर रख दें’’.....गुड्डन तिरछी हंसी हंसा था।

‘‘ऐसा कौन सा तीर धरे बैठै हो’’ ...‘‘और देखो हमारे सामने ढेर भांजा न करो एक भद्दी सी गाली देते हुए नशे के शुरुर में कर्पुरी साव पिनक गये थे।’’                                                                           

‘‘सरकार आप आदेश तो करिए। ’’ ‘‘हवा का रुख भी बदल जाएगा और किसी को कानों कान खबर भी नहीं होगी।’’

‘‘अब कहोगे भी,’’......इस बार दुलारे ने मीठी झिड़की दी थी।

 ‘‘हुजूर छोटका को लड़की हुई थी।’’ ‘‘बरही किया तो रात का पुलाव बच गया।’’ ‘‘डाल दिया हमारी हिरनिया के आगे वो भी भूखी थी।’’ ‘‘ दबा कर खा ली हुजूर फिर क्या, रात भर भी नहीं टिक सकी’’ ‘‘पेट फूल गया बेचारी का और राम नाम सत हो गया। ’’ ‘‘उसका का छः दिन का बछड़ा दिन भर गला फाड़ता रहता है।’’ ‘‘बिन मां के कमजोर हो गया है।’’ ‘‘कसाई पीछे पड़ा है।’’ ‘‘अगर कुछ-काम आप ही लोग कर देते तो, भोले का सेवक भोले के काम आ जाता।’’ ‘‘फिर कलीम भी मुसलमान है’’.....‘‘.देखिए कैसे उसके खिलाफ हवा तैयार होती है।’’  गुड्डन की बात सुन कर वहां बैठे लोग भीतर से गनगना गये थे। एक विजय सोनवानी ही था जिसकी आंखे चमक उठी थीं......‘‘वाह उस्ताद....वाह’’ ‘‘क्या दिमाग पाई है आपने।’’ ‘‘मोहल्ला क्या पूरे शहर के मुस्सल्लों का सुपड़ा साफ हो जाएगा।’’.विजय चहका था।

   ‘‘चोप्प स्साला‘‘.....‘‘बोला सो बोला’’ कर्पूरी साव भड़क गये थे।  उनका तो नशा हिरन हो गया था। ‘‘तुम लोगों को पता है, क्या बात कर रहे हो?’’ ‘‘जानते हो पूरे शहर में कितने घर जलेंगे,’’ ‘‘कितने बच्चों की लाशें  दहक उठेगीं।’’‘‘चुनाव लड़ने चले हो कि साम्प्रदायिक दंगा फैलाने।’’‘‘दुलारे बाबू ऐसे चुनाव नहीं जीता जा सकता।’’‘‘आज जो बात हुई सो हुई’’- ऐसे लोगों से दूर ही रहें तो बेहतर होगा वर्ना आप समझें ’’......कर्पूरी साव एक झटके में उठ कर चले गये थे।

      मोहल्ले में चुनाव प्रचार चरम पर था....बबन दुबे का लगभग पांच लाख साफ हो गया था। गरीब महिलाओं को साड़ी तो पुरूषों को धोती और कंबल बंटवाए गए। लेकिन बाहर से तो माहौल बबन दुबे के पक्ष में मज़बूत दिख रहा था, पर हिन्दु मतों में भीतर घात होने की आशंका नजर आ रही थी। मुंह पर तो लोग बबन दुबे की तारीफ करते नहीं थकते थे, लेकिन पीठ पीछे कलीम को चुनाव में खड़ा करने के मुद्दे पर मुख़ालफत करते भी नज़र आ रहे थे। प्रारंभिक गणना के अनुसार मोहल्ले में मुसलमान मतदाताओं की संख्या ही जीत के लिए पर्याप्त थी। लेकिन सभी मुस्लिम मतदाताओं में भी एकता कम ही दिख रही थी। एक तो दुलारे की पुरानी पैठ थी। दूसरा कुछ सुन्नी मतदाता सिया होने की वजह से कलीम से खार खाए बैठै थे। बहुत मेहनत के बावजूद भी हवा पूरी तरह से काबू में होती नहीं दिख रही थी। बबन दुबे कुछ ऐसा करने के फिराक में थे जो हवा का रुख ही बदल दे। इस विषय पर दिन निकले सचिता बाबू के साथ चुनाव कार्यालय में बैठ कर चर्चा कर ही रहे थे, तभी गुड्डन और विजय लल्लन बाबू के पैर के नीचे उकड़ू बैठ गये ।‘‘कैसे रे रंगा बिल्ला तुम लोग यहां क्या कर रहे हो’’ बबन दुबे ने दोनों को संदेह भरी नजर से देखा था। ‘‘इन दोनों से सम्हल कर ही रहिएगा दोनों दुलारे के टोही विमान हैं।’’ सचिता बाबू ने भी बबन दुबे का समर्थन किया था।

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है साहब हम गरीब लोग कबाड़ बेच कर पेट चलाने वाले आपका क्या अहित करेंगे।’’ ‘‘और बबन भईया का कम एहसान है कि, उनके विषय में गलत सोचेंगे गुड्डन रिरियाया था।’’

‘‘वो सब तो ठीक है।’’ ‘‘पर तुम लोग तो दुलारे के आदमी हो,’’ ‘‘कल ही ना गला फाड़ रहे थे जन-जन के प्यारे हमारे दुलारे।’’

‘‘गरीब किसी का आदमी नहीं होता है साब जी’’ ‘‘वो तो सिर्फ पेट का आदमी होता है।’’

‘‘अब ज्यादा पहेली बुझा कर हमारा भेजा न खाओ’’, ‘‘जो भी कहना है जल्दी  कहो’’ बबन दुबे  पिनक गए थे।

‘‘भईया वैसे तो हम लोग कम अक्ल हैं।’’ ‘‘छोटी मुंह बड़ी बात, हम तो कह रहे थे, टंटा ही खतम कर दिया जाए न रहे बांस न बजे बांसूरी।’’

‘‘क्या मतलब है जी तुम्हारा?’’ ‘‘कहना क्या चाहते हो?’’......बबन दुबे चौंके  थे।

‘‘नहीं साहब हमारा वो मतलब नहीं है,’’ ‘‘कुछ काम हो जाए तो’’...बीड़ी के सुट्टे लेते हुए गुड्डन ने जो आइडिया दिया  सच में धांसू था। बात ही बात में जो मामला तय हुआ उसने विरोधी खेमे में भूचाल ला दिया था। वैसे लोक तंत्र में जीत के लिए यह सब आम बात है। बचाव की जिम्मेदारी तो प्रत्याशी की होती है..... रात के लगभग साढ़े बारह बजे दुलारे की जीप में देशी शराब की पेटी ऐसे छुपाई गई, जिसकी दुलारे को भनक तक नहीं लगी। दुलारे बाबू जब चुनाव प्रचार के लिए निकले तो वही हुआ जो बबन दुबे चाहते थे। मतदाताओं को शराब बांटने के जुर्म में दुलारे गिरफ्तार कर लिये गये । विपक्षी कमजोर तो पड़ा, लेकिन सहानुभूति की लहर सी चल निकली थी। पासा उल्टा पड़ता दिख रहा था। सहानुभूति और सत्ता के बीच संघर्ष का अपना अलग लोकतांत्रिक इतिहास है। सत्ता सुन्दरी जितनी सुन्दर है उसे पाना उतना ही कठिन।

      काल के इस दौर में लोकप्रियता ईमानदारी से नहीं प्रलोभन से मिलती है। बीही बाड़ी में जाफ़रानी खुशबू वाला गोस्त अच्छे अच्छों का ईमान डिगा रहा था। दावते तक़रीर में लज़ीज बिरियानी का लुफ्त लोग छक कर ले रहे थे। ‘‘अमा मिया इतना लजीज मटन बिरियानी आज तक नहीं खाया’’ ‘‘थोड़ा और सालन देना’’ कादिर भाई खिस्से निकालते हुए प्लेट आगे बढ़ाए थे....‘‘अरे चचा आप भी नाहक खिंचाई कर रहे हैं।’’ ‘‘कितनी बिरियानी खा कर हजम कर लिए होंगे ’’......‘‘दो भई कलीम खां साहब को’’...बबन दुबे कहते हुए आगे बढ़ गये थे। वैसे तो यह दावत मुस्लिम मतदाताओं  को रिझाने के लिए था, लेकिन इसे तक़रीर का शक्ल दिया गया था। जाहिर है तक़रीर है तो मुस्लिम आवाम ही हिस्सा लेगी। दावत के अंत में  ज़कात के नाम पर पुरुषों को कंबल और महिलाओं को साड़ी बांटी गयी। बबन दुबे एक किनारे कुर्सी पर बैठ गये थे जहां लोग कतारों में आ रहे थे। तभी इमाम के नेतृत्व में कुछ लोग आगे बढ़े.थे....‘‘महराज हमारा विश्वास है आपकी शागिर्दी में कलीम अच्छा काम करेगा।’’ ‘‘हमने अंजुमन कमेटी में उसी को वोट देने का फैसला भी लिया है’’.....‘‘लेकिन’’....‘‘लेकिन क्या बात है?....बबन दुबे थोड़ा़ सकपकाए थे। ‘‘बबन बाबू  आपकी फज़ल से मोहल्ले में सब कुछ तो है’’, ‘‘लेकिन एक ही समस्या है जो आप चाहें तो पूरी कर सकते हैं।’’

‘‘हां-हां कहिए न....।’’

‘‘दुबे जी हम लोगों  को रोज़ा नमाज़ की बड़ी परेशानी हो जाती है।’’ ‘‘मस्ज़िद इतना दूर है कि अज़ान भी  सुनाई नहीं देता।’’ ‘‘अल्लाह की फज़ल से शौकत बाबू ने मदरसा के लिए जगह दे दिया है।’’ ‘‘जिससे बच्चों को दिन-ए-इलाही की तालिम के  लिए राहत हो गयी है।’’ ‘‘अगर आप चाहें तो मोहल्ले में एक मस्ज़िद भी बन सकता है।’’ ‘‘अल्लाहताला की मेहरबानी से आपको कोई कमी भी नहीं है। ’’ मोहल्ले भर के चचा, ज़हुर भाई जब बोल रहे थे तो उनकी हाजी दाढ़ी थर-थरा रही थी।

 ‘‘चचा आप एक दम सही कह रहे हैं।’’ ‘‘लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूं ?’’ ‘‘मैं आपका मतलब नहीं समझ पाया’’ बबन दुबे थोड़ा सकते में आ गये थे।

‘‘हज़रत चौगड्डे पर आपकी जमीन का एक टुकड़ा है।’’ ‘‘वहां लोग कचड़ा फेंकते हैं।’’ ‘‘अगर आप उसे कमेटी के नाम कर देते तो’’...‘‘वैसे वोट के लिए यह कोई सौदा नहीं  है।’’ ‘‘यदि ऐसा हो जाए तो आने वाली नस्ल आपको हमेशा याद रखेगी।’’ ‘‘बात धीरे-धीरे  वहां मौजु़द लोगों के बीच फैली तो काना-फुसी भी होने लगी थी। सब एक स्वर में बोलने लगे। बात मज़हब की आई तो कलीम भी सब की हां में हां मिलाने लगा। धर्म को मुद्दा बनने में ज्यादा समय नहीं लगता है। चारों ओर से दबाव बनने लगा। बबन दुबे दिक्कत में फंस गये, उनकी स्थिति सांप छछूदंर वाली हो गयी थी। न उगलते बन रहा था न निगलते, उगलो तो अंधा निगलो तो कोढ़ी.......।

 ‘‘भईया छोटा सा दांव है खेलने में कोई हर्ज नहीं होगा’’.......‘‘इन लोगों ने यदि चाह लिया तो जीत से कोई रोक नहीं सकता।’’ चारों ओर से दबाव बनता देख बबन दुबे ने भू खंड दान करने की घोषणा कर दी थी। बात यहां तक बढ़ी की आनन-फानन में बैठक बुला कर इस विषय में गंभीर चर्चा की गई और जमीन अंजुमन कमेटी के नाम से रजिस्टर्ड करा लिया गया।

  चुनाव के दिन भारी मात्रा में मतदान हुआ, अंत में जीत बबन दुबे की ही हुई....कलीम चुनाव जीत गया था। वह अब बबन दुबे का खास मुलाजिम था। वैसे उसके भीतर भी परिवर्तन दिखने लगा था। अब वो जहां भी जाता गुड्डन, लल्लन, फुग्गी, उसके आगे पीछे नज़र आते थे। प्रायमरी स्कूल के अध्यापक वेतन पत्रक पर हस्ताक्षर कराने के लिए दस बार दरवाजे की मिट्टी कोड़ते तब कहीं जा कर उनका काम होता। उचित मूल्य की चारों सरकारी दुकान वाले दो सौ रु नियमित कलीम की नज़र किया करते। मोहल्ले की काली गेजेदार नालियों  की बज-बजाहट समय के साथ बढ़ गई थी। कीचड़ से सना हुआ सूरज जब वार्ड क्रमांक 24 में निकल रहा होता तो उसकी मुलाकात अज़ान करने के लिए हड़बड़ी में दौड़ते  उंचे पांयचे वाले मुवज्ज़ीन से जरुर होती। अज़ान से कुछ लोगों की नींद में खलल पड़ती तो कुछ लोग उसी बहाने उठ कर हाजत के लिए निकल पड़ते थे।



परिचय

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जन्म-05-05-1974 

संप्रति- छ.ग.शासन के विद्यालय में व्याख्याता।

शिक्षा-एम.ए.हिन्दी एवं संस्कृत,डी.एड. पी-एच.डी.।

प्रकाशन-  हंस, कथादेश, साम्य, वसुधा, उद्भावना, कथाबिंब, युग तेवर,परतीपलार, प्रतिश्रुति,पूर्वापर, आदि पत्रिकाओं में एक से अधिक बार कहानी प्रकाशित वर्तमान में कई कहानियां स्वीकृत । आकाशवाणी अम्बिकापुर से नियमित रचना पाठ ,दूरदर्शन रायपुर से एक से अधिक  बार  साक्षात्कार प्रसारित और चर्चित। अभी तक बीस कहानियां राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित।

संपादन-साहित्यिक पत्रिका ‘लौ’, ‘‘नया सबेरा’’ ‘‘प्रतिबिम्ब’’‘‘अक्षर दीप’’ आदि का संपादन और सह संपादन।

प्रकाशित पुस्तकः- ‘‘हिन्दी का सांस्कृतिक भूगोल’’ 

हंस में प्रकाशित कहानी ‘पत्थर’के लिए तिलौथु सासाराम बिहार के कालेज राधा-शंता से सम्मानित।

संपर्क- डा.नीरज वर्मा मायापुर ,अम्बिकापुर सरगुजा छ.ग.497001

मो.- 9340086203/8109895593




 

                                                                                                              


 

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कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना