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संजय मनहरण सिंह की कविताएँ


यह ख्याल ही नाकाफी है कि मिट्टी मेरी देह आत्मा इक चिड़िया
संजय मनहरण सिंह अपनी कविता की इस पंक्ति के माध्यम से वह कहना चाहते हैं जो जीवन में कहीं अनकहा छूट जाता है .जीवन को जीते हुए हर आदमी अमूमन यही सोचता है कि एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा तो क्यों न उसे थोड़ा जी लिया जाए . संजय उससे इतर एक उम्मीद के चश्मे से जीवन को देखना चाहते हैं. उनकी कविताओं में हर जगह यह उम्मीद मानवीय संवेदना के साथ तरल होकर बहती हुई दिखाई पड़ती है जहां जीवन को समग्रता में देखने की एक बेचैनी साथ-साथ बहती है . उनकी कविताओं में जीवन की त्रासदियाँ , त्रासदियों की तरह आख्यानित होकर शोर नहीं करतीं बल्कि जीवन के भीतर ही भीतर इस तरह घुली मिली सी लगती हैं कि उनकी स्वाभाविकता कविता में बची रहती है . संजय जीवन के कठोर अनुभव से उपजी उम्मीद के कवि हैं . उनकी कविताओं में यह उम्मीद उबड़ खाबड़ होते हुए भी जीवन को देखने समझने की एक नयी दृष्टि के साथ दृश्यमान होती है . संजय का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है .     

1.
सबसे पुरानी याद के सबसे नये पन्ने पर
मेरे लिखे को कोई मिटाता है बेवजह
और अंत मे छोड़ देता है चुम्बन सा कोई निशान
एक बहुत सयानी कंपकंपी दौड़ जाती है भीतर
देह के मुहाने तक
कि किसी भी तरह यह फरेब बना रहे
जब मरना जरूरी हो तब हँसना मना ना रहे
इंद्रियों मे बजबजाते चाहतों के केंचुए
रात की करवटों को करते उर्वर
ताकि पनप सके ढेर सारी चुप्पी
और आलिंगन का उन्माद
यह ख्याल ही नाकाफी है कि मिट्टी मेरी देह, आत्मा इक चिड़िया
वह बड़ी नजाकत से लिपट जाती है मेरी छाती से
मानो खोज रही हो अपना कोई स्वप्न
रेहन पर रखा उसका कोई भरोसा।

2.
कोई अपने भीतर पसरी रात में टहलता है स्मृति की लाठी के सहारे
बहुत दूर जाकर भी नहीं जा पाता कहीं भी
सिसकियों की झूठी नजदीकी और शोकाकुल स्पर्श
कि तुम नहीं हो कहीं
कि अकेलापन घिर रहा है चमड़ी पर अभी
वह जो शपथ अपने खून से था लथपथ
कहाँ है उसके थक्के
करवट बदल लेने के सिवाय और कौन सा गुनाह है मेरे नाम !

3.
किसी पत्थर मे दबे रखे अनंत आकृतियों ने
हर चोट पर अपनी झलक दी
यह जो मूरत है असंख्य असह्य पीड़ा का ढेर है
जब वह छेनी और हथौड़े से वार कर रहा था
तब वह अपनी हथेली पर पत्थर उकेर रहा था
ईश्वर तो उसने मजाक में कहा था।

4.
किसी तितली ने जब अपने पंखों के रंगों से
अपनी उड़ान मे लिखा तुम्हारा नाम आकाश
और कोई बादल लजा सी गयी
कि बारिश उसका अंत
और कोई वृक्ष उड़ने की चाहत मे खड़ा रहा ताउम्र
टहनियों मे चीखते रहे सारे पत्ते
उनके विलाप मे भीगती रही छांव
तो कौन है जो अंधेरा घोल रहा है रगों में
किसने हथेली पर रोप दिया है नन्हा स्पर्श
दूर होने की वजह ही बेवजह थी
फिर
ना जाने क्यों इक गौरेय्या फुदक फुदक कर सो गयी है भीतर अभी
और मन के घोसलें मे छुटी पड़ी है
तुम्हारी खामोशी, चुम्बन और दुख का कंकाल !

5.
साजिशें तो इतनी हैं कि होना भी एक गुनाह
वसीयत मिली भी तो कोरी और सफेद
जो स्याही और जज्बात मेरे पुरखे बरत रहे थे तब
उनके हिसाब का कुछ बचा ही नहीं
ये जो मुस्कुराने की अदा ओढ़ रखी है तुमने
यही जल्द झुर्रियों मे बदल जायेगा रकीब
झंडा बुत सजदा बचा सकेगा
ये जो चोट उबल रही हमारी रगों मे
किसी दिन लौट आयेगी हमारे गुस्से की पुकार पर
तब टैंक, बंदूक और सत्ता बचा नहीं पायेगी
तुम्हारा चेहरा हमारी थूक से
आक थू !

6.
जिस जमीन ने मांगा पसीना
और आकाश हमारी जान
उनके बीच जो गढ़ा है लोकतंत्र पूरखों ने
उसके दांत, नाखून और लपलपाती जीभ
उतर रहे हैं सपनों में
इस लहुलूहान भरोसे का क्या करूँ माई लार्ड
क्या अपनी खाली आंतों का फंदा बना झूल जाऊँ
या दरवाजा खोल अपनी जेलों का मैं खुद आऊँ
नंबरों मे बदल हमें गायब कर नहीं सकता
अपना ही देश हूँ तेरे भूगोल से परे
ठीक तेरी करवट के पीछे खड़ी है हमारी टोली
कभी तो उतरेगा ये नशा हमारी खामोशी का
कभी तो हम खुद शर्मिंदा होगें अपने करतूतों पर
अपने बच्चों के उपहास से बचने के सिवाय
क्या बचा है अभी !

7.
क्या जीभ रखना भी ऐश्वर्य हो गया है अब
और भूख गैर जमानती अपराध
खेतों मे क्यों कोई ना कोई उतार रहा है परिजनों की लाश
शापिंग स्वर्ग में तुम्हें सच मे नहीं सुनाई देती किसी के रोने की आवाज
इतनी निष्ठुर है लेवाइस की जैकेट
कि सिहरता भी नहीं मिडिल क्लास
मेरी त्वचा का रंग गरीब है
और मेरी आत्मा के करीब है
छत्तीसगढ़ की जेलों मे बंद
गोंड, हलबा, मुरिया जान लो
निर्दोष होना भी इक गुनाह है अब की बार !

परिचय
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संजय मनहरण सिंह
प्रकाशन- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं (कथादेशवागर्थविपाशा,

परिकथाकथाक्रममाध्यमपक्षधरसाक्षात्कारमधुमती आदि) में कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। 

कथादेश कहानी प्रतियोगिता में सम्मानित।
विपाशा कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त।
पता- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा।



 























टिप्पणियाँ

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