कबरा पहाड़ के शैलाश्रय जिन्हें देखकर मनुष्य और पुरातन सभ्यता के अंतरसंबंधों को आज भी किसी न किसी रूप में यहाँ आकर हम महसूस करते हैं
कबरा पहाड़ को मैं बचपन से देखते आ रहा हूँ क्योंकि हमारे गाँव जुर्डा से लगे गजमार पहाड़ी श्रृंखला का यह एक अभिन्न हिस्सा है । मैं लगभग 8 से 10 साल का रहा हूंगा जब एक नेपाली बाबा यहां पहाड़ की तलहटी पर झोपड़ी बनाकर रहते थे। लोगों को जब पता चला तो गांव के गांव उठकर उनके दर्शन के लिए चल पड़ते थे ।उनमें मैं भी एक था जो वहां चलकर गया था।
'कबरा' शब्द छत्तीसगढ़ी का शब्द है, जिसे हिन्दी अर्थ में धब्बेदार शब्द से हम जोड़ सकते हैं। यह मझोले और छोटे ऊँचाई के सघन वृक्षों और झाड़ियों से ढंका बलुआ पत्थरों का विस्तृत पहाड़ है । यह पहाड़ वनस्पतियों के हरे-भरे केनवास में जगह-जगह उभरे बलुआ चट्टानों की वजह से दूर से देखने पर हमारी आँखों में धब्बेदार दिखाई देता है। संभवतः पहाड़ का यह नाम इसी वजह से ही कबरा पड़ा होगा । यद्यपि हमारे गाँव के पुराने लोग इसे आज भी ‘गजमार पहाड़’ के नाम से ही पुकारते हैं । कबरा पहाड़ उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व में धनुषाकार में फैला हुआ है। इसका उत्तर-पश्चिमी छोर रायगढ़ के पहाड़ मंदिर से ही आरंभ हो जाता है । रायगढ़ शहर के पूर्वी क्षेत्र में इसी गजमार पहाड़ी श्रृंखला के ऊपर पहाड़ मंदिर स्थित है जो नगर का एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है। वहीं इस श्रृंखला का दक्षिण-पूर्वी हिस्सा ओड़िशा के प्रसिद्ध हीराकुंड बाँध के मुहाने पर बसे घुनघुटापाली नामक गाँव में समाप्त हो जाता है। यहाँ स्थित कदमघाट में घण्टेश्वरी देवी का मंदिर भी है जो एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है।
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ नगर से पूर्व दिशा में 13 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम पंचायत लोइंग आता है | यहाँ 1980 में मेरी पूर्व माध्यमिक की शिक्षा पूरी हुई थी | इसी लोइंग ग्राम पंचायत अंतर्गत एक आश्रित ग्राम भोजपल्ली आता है जहाँ से कबरा पहाड़ लगभग सटा हुआ है|
यहां पढ़ते समय भी हम लोग कबरा पहाड़ कभी-कभार जाया करते थे।
उल्लेखनीय है कि 1972 के पहले भोजपल्ली गाँव का नाम भेजरापाली हुआ करता था। छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्य के सीमा से लगे होने के कारण इस क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी और उड़िया दोनों भाषाओं को बोलने वाले लोग मौजूद हैं । भोजपल्ली गाँव के पश्चिम में आमा तालाब है और ठीक उसके पीछे चित्रित शैलाश्रय वाला कबरा पहाड़। आमा तालाब के अंतिम छोर पर जंगली बेल, झुरमुटों और कंटीली झाड़ियों से होकर गुज़रती पथरीली पगडंडी पर चलते हुए लगभग 2000 फुट की ऊँचाई पर चित्रित शैलाश्रय तक पहुँचा जा सकता है। खड़ी चढ़ाई और दुर्गम पैदल रास्ता बच्चों और बुजुर्गों के लिए फिलहाल आज भी अनुकूल नहीं है।
लगभग 100 मीटर चौड़े और 5-10 मीटर गहरे प्रागैतिहासिक काल के इस शैलाश्रय की ऊँचाई , उसकी चौड़ाई की लगभग आधी ही होगी। पहाड़ की बाहर की ओर झुकी दीवार पृथ्वी सतह के सापेक्ष 70 डिग्री का कोण बनाती हुई लगती है, जिससे इसके छतरी होने जैसा आभास ही नहीं होता और बिना किसी कृत्रिम प्रकाश के शैलाश्रय के चित्रों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
शैलाश्रय की दीवार पर 25-30 फुट की ऊँचाई तक चित्रों का अंकन देखा जा सकता है। ऊँचाई पर बने प्रागैतिहासिक काल के चित्रों को देखकर उन्हें बनाने वालों की कठोर श्रम साधना का अनुमान सहज रूप से किया जा सकता है। इतनी ऊँचाई पर निर्मित चित्रों के आस-पास ऐसा कोई चट्टानी आधार भी नहीं है, संभव है कि तत्कालीन मानव ने ऊँचाई पर चित्रकारी के लिए सीढ़ी का उपयोग किया हो।
इस शैलाश्रय में जंगली जीव, जलीय जीव, सरीसृप और कीट-पतंगों के साथ ही भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार की रेखाकृतियों का अंकन है।यहाँ के चित्रों में जटिल रेखांकन जैसे सर्पिल ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज रेखाएं, त्रिकोण आकृति, 36 आरियों वाले पहिये (जो अनुष्ठानिक भी हो सकते हैं), के अलावा जंगली पशु जैसे लकड़बग्घा, हिरण, साही, नीलगाय और बारहसिंगा; जलीय जीव जैसे कछुवा, मछली, केंचुवा; पक्षियों में मोर; सरीसृप में गोह अथवा छिपकली; कीट पतंगों में तितली और मकड़ी एवं नाचते हुए मानवपंक्ति तथा ताड़ वृक्ष का अंकन उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में यहाँ के पहाड़ी जंगल में भालू, लोमड़ी, लकड़बग्घा, गोह, सर्प आदि विचरते हुए दीख जाते हैं। हिरण, बारहसिंघा और मोर के अनुकूल यहाँ का जंगली पर्यावरण अब नहीं रहा इसलिए यहाँ ये सब दिखाई नहीं देते |
पहाड़ की दीवारों पर उकेरे गए अधिकांश चित्र लाल और कुछेक भूरे रंग के हैं। लाल रंग के चित्र पूरी तरह से भरे हुए हैं, जबकि भूरे रंग वाले चित्रों में केवल रेखांकन की प्रधानता देखी जा सकती है। विविध आकार-प्रकार एवं विषयों के चित्रण के साथ ही यहाँ भिन्न-भिन्न काल खण्डों में निर्मित चित्र भी हैं। इन चित्रों के आकार, प्रारूप, संयोजन की कला एवं बनाने की कला के आधार पर विद्वान इस स्थान पर मध्यपाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक मानवीय गतिविधियों के सुचारू रूप से संपन्न होने के प्रमाण स्वीकार करते हैं। कई स्थानों पर पूर्ववर्ती काल के चित्रों पर ही परवर्ती काल के चित्रों को ओवरलेपिंग (आरोपित)किया गया है। कुछ कम अक्ल पर्यटकों के द्वारा शैलचित्रों पर अपना नाम लिख दिये जाने से इस प्राचीन धरोहर स्थल का मौलिक स्वरूप बुरी तरह प्रभावित होता गया है इस कारण वर्तमान में शैलचित्रों की संख्या का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है । अनुमानतः शैल चित्रों की संख्या 100 से 125 के आसपास हो सकती है।
हमारे गाँव के आसपास के गांवों के स्थानीय लोगों में कबरा पहाड़ शैलाश्रय और उसमें बने चित्रों को लेकर कई रोचक बातें प्रचलित हैं। गाँव के वयोबृद्ध बुजुर्ग श्री त्रिलोचन गुप्ता कहते हैं कि कबरा पहाड़ के चित्रों को गाँव वाले देवी देवताओं का चित्र मानते हैं और प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा होली को वहाँ रात भर विविध अनुष्ठान जैसे पूजा पाठ , कीर्तन एवं नामयज्ञ (हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे।।) का निरन्तर गान होता है, जिसमें आस-पास के चार छः गाँव यथा लोइंग, जुरडा, विश्वनाथपाली, कोटरापाली,महापल्ली, कोसमपाली के लोग भी शामिल होते हैं। पूजा-अनुष्ठान में महिला-पुरूष समान रूप से भाग लेते हैं । होली के अलावा नवरात्रि और महाशिवरात्रि के अवसर पर भी लोग वहाँ जाकर पूजा करते हैं। इस क्षेत्र में दूसरी जनश्रुति यह है कि यहाँ उनके पूर्वजों का इतना धन (खजाना) गड़ा हुआ है कि उससे पूरे संसार को ढाई दिन तक खाना खिलाया जा सकता है। यहाँ मधु मक्खियों की फ़ौज भी दिखाई पड़ती है जिनके बारे में लोग कहते हैं कि ये पूर्वजों के बनाये इन चित्रों और खजाने की रक्षा करती हैं | यह भी लोग कहते हैं कि गाँव वालों को कभी-कभी रात में शैलाश्रय स्थल पर अचानक प्रकाश और चमक दिखाई पड़ती है। यह भी मान्यता है कि गाँव के लोगों की कोई कीमती वस्तु या पशुधन खो जाता है तो वे कबरापाट देवता से उसके मिल जाने की विनती भी करते हैं जिससे खोई हुई वस्तु मिल जाती है और फिर पूजा पाठ कर प्रसाद चढ़ाया जाता है।
कबरा पहाड़ के शैलाश्रय को लेकर गाँव में कुछ नियम कायदे भी हैं। आज भी यह लोक मान्यता है कि उस स्थान पर नशा करना, धूम्रपान करना, जूते-चप्पल पहनकर जाना, रजस्वला स्त्री का जाना और अशुद्धि यथा किसी परिवार में किसी के जन्म या मृत्यु के दौरान उनके वहां जाने की सख्त मनाही है और जो नहीं मानकर, अपवित्र होकर वहाँ जाते हैं तब मधुमक्खियाँ उन्हें काटकर भगा देती हैं तथा उसके साथ अनिष्ट होता है।
रायगढ़ नगर के नजदीक होने के कारण यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या अधिक होती है |कई बार यहाँ विदेशी पर्यटकों का भी आना हुआ है। यहाँ आकर एक बात जो मुझे आज भी बुरी लगती है वह यह कि कुछ लोगों ने शैलचित्रों पर पेंट , कोयला, चाक इत्यादि से अपना नाम लिख दिया है । इस तरह की हरकतों से प्राचीन धरोहर को निश्चय ही क्षति पहुंची है । वन विभाग के जिम्मेदार अफसरों ने स्थल को सुरक्षित करने के लिए तारों की बाड़ भी लगवाई थी ताकि आने वाले पर्यटक दूर से ही इन चित्रों का अवलोकन करें और उन्हें हाथ न लगा सकें।आज की हालत यह है कि इन तार के बाड़े को भी लोग उखाड़ कर ले गये हैं जो कि दुर्भाग्य जनक वाकया है |
कबरा पहाड़ से जुड़ी उपरोक्त मान्यताओं के साथ ही शैलाश्रय के बीचों-बीच हाल ही में बने एक चबूतरे पर रखे पत्थर को आसपास के गाँव वालों द्वारा शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है | लोगों की आस्था के नज़रिए से इसे देखें तो कबरा पहाड़ का यह शैलाश्रय भले ही शासन प्रशासन की नज़र में अब अनुपयोगी हो गया हो, या आज का आदमी उस आदिम चित्रकारी को भले ही भूल चुका हो, पर कई सदियों और कई पीढ़ियों से चले आ रहे मनुष्य और पुरातन सभ्यता के अंतरसंबंधों को आज भी किसी न किसी रूप में यहाँ आकर हम महसूस करते हैं।
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कबरा पहाड़ के शैलचित्रों एवं उससे जुड़ी हुई किंवदंतियों को लेकर कई नयी जानकारी प्राप्त हुई। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी, धन्यवाद🙏🙏
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ सरकार का सरंक्षण मिलना चाहिए, म. प्र. के भीम बेटका मे गया हूँ इस तरह के शिलालेख हैं कबरा पहाड़ को दर्शनीय स्थल बनाया जा सकता है|
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