सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गजेन्द्र रावत की कहानी फंगस




गजेन्द्र रावत लम्बे समय से कहानियाँ लिख रहे हैं । उनकी कहानियों में जीवन से जुड़ी वो छोटी-छोटी बातें अचानक दृश्यमान हो उठती हैं जिनमें मनुष्य की भीतरी दुनियां की परतें उधड़कर सामने आती हैं । ऐसा लगता है जैसे मनुष्य देखते-देखते भीतर से नंगा हो उठा है । पद प्रतिष्ठा के सहारे ही जीवन की नैय्या को पार लगाने वाला आदमी पद के जाते ही किस तरह भीतर से कुंठित होकर मृत हो जाता है इस कहानी में गजेन्द्र उसे शिद्दत से उठाते हैं । रिटायर होने के बाद भी आई.ए.एस. जैसे ओहदे से मिली बुरी आदतें आदमी का पीछा नहीं छोड़तीं और इन्हीं बुरी आदतों के चलते उसकी कुंठा उसे भीतर से गलाने लगती है जैसे उसकी समूची मनुष्यता पर फफूंद चढ़ गयी हो । गजेन्द्र जी की कई कहानियों को पढ़ने के बाद लगा कि उनकी कहानियों पर सघन रूप में बातचीत होनी चाहिए । गजेन्द्र जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है । 

उनकी आंखों पर भारी-मोटा चश्मा था। चश्में के बाहर से दोनों आँखें काँच की छोटी-छोटी डिब्बियों में बंद पानी के बुलबुले-सी कांपती प्रतीत होती थी। जरूर उन्हें किसी  की भी आकृति धुंधली, टिमटिमाती-सी दिखाई देती होगी ?बस अनुमान भर हो पाता होगा सामने वाले की शख्सियत और नैन-नक्श का !.........मगर वे ध्वनि, रंग और जिस्म की गंध से आँकते होंगे रूप-सौंदर्य,नजाकत और अदाओं की बारीकियों को।.....पर उन्हें तब गजब की समझ हासिल हो जाती जब किसी हसीना के गोरे मरमरी हाथों को छू लेने का मौका लग जाता।

       एक खासियत थी उनमें, उनका निचला होंठ अक्सर कुछ यूं अनियंत्रित हो जाता कि बंद अवस्था में भी भीतर का तरल दोनों कोनो से बहकर ठुड्डी तक पहुँच जाता। इसीलिए वे हर वक्त एक मुट्ठी में टिशू पेपर दबाए रहते और जब देखो होठों के कोने रगड़-रगड़ कर साफ करते रहते।
      हाँ, एक और बात, उनकी आवाज में अजीब-सी लड़खड़ाहट थी और उसे छिपाने का एक कारगर तरीका भी उन्होंने इजात कर लिया था। वे बोलते वक्त वाक्य के तीन-चार टुकड़े कर देते और फिर बड़े ही सधे हुए अंदाज़ में दंभ के साथ दोहराते, मैं,मैं ......... कैबिनेट सेक्रेटरी........हूँ ........रिटायर्ड़ ! ’’ वे नजरों को सामने वाले के चेहरे पर फोकस करते हुए फिर बोलते, वी॰ आई॰......... पी॰ वार्ड में ........दाखिल हूँ। ’’ फिर पलभर चुप रहते लेकिन सुनने वाले कि प्रतिक्रिया से पहले ही कह देते,“ मैं एम....के.....श्रीवास्तव .........तुम मिथलेश कहो ! ’’
     कोई भी होता उनकी तरफ देखता और सोचता, ......बुजुर्ग है........बेचारा ! .......वी॰ आई॰ पी॰ वार्ड में है .......नाम कैसे लें ! ......बहुत सोच-विचार कर मि॰ मिथलेश कह पाता या मौका पाकर इधर-उधर हो जाता।   
      आज दोपहर के खाने के बाद एक-डेढ़ बजे ही मि॰ मिथिलेश सो गये थे। अभी घंटे भर ही सोये होंगे कि कैजुल्टी से रोने-पिटने कि डरावनी आवाजों ने उनकी नींद खोल दी। मुंह से निकली सप-सप कि अजीब ध्वनि के साथ उन्होंने बड़े ही बेशऊर ढंग से हथेली को कसकर होंटों पर रगड़ दिया। इस प्रक्रिया में उनका हाथ चिपचिपे तरल से सन गया। उनकी ठुड्डी अभी भी करवट सोते हुए रिसे थूक से गीली थी। अचानक नींद खुलने से उनकी धड़कने तेजी से चल रही थी। नींद कि खुमारी के बाबजूद विस्मय भरी उनकी आँखों की पुतलियाँ कमरे में हर तरफ घूम रही थी और दोनों हाथ होंट, ठुड्डी और जबड़ों पर चल रहे थे। दरअसल वे कमरे के बाहर से उठती चिखों से सहम गये थे। थोड़ी देर तक बेचैनी बनी रही फिर कहीं जाकर तेज चलती साँसे सामान्य हो पाई। कुछ देर बाद वे उल्टा हाथ बढ़ाकर चश्मा आँखों पर रखते हुए बड़बड़ाए, ये स्साला.... कौन....रो रहा ...है ?” हाथ का सहारा लेकर ऊंचे खिसक कर बैठ गये, तकिये के नीचे हाथ डालकर मोबाएल में टाइम देखते हुए फुसफुसाए, पौने तीन .... इतना.... पर.... वो....होगी ! कहीं भी जाने का मन नहीं था पर न जाने कौन सा अदृश्य दबाव चैन नहीं लेने दे रहा था। बेचेनी बरबस हूक-सी उठ रही थी और यहाँ से निकालने के लिये उकसा रही थी। आखिर रहा नहीं गया। उन्होंने माधव को पुकारा, वो नहीं आया। देर तक घंटी बजाई फिर कहीं जाकर वो आया और दरवाजे पर खड़ा होकर बोला, हूँ ....
      माधव यूं तो सेक्युर्टी गार्ड था, अस्पताल के आफ़िसरों ने उसे मि॰ मिथिलेश वी॰ आई॰ पी॰ मरीज के लिए रख छोड़ा था। वही उनके सभी काम देखा करता था। नर्सस रूम से तो कभी-कभी कोई बुखार, ब्लड-प्रैशर देखने आ जाता था।  
      चलना है.......! मि॰ मिथिलेश बोले।
      कहाँ चलना है ?” खीजकर माधव बोला।
      किचन.......में !
      कुछ काम है क्या ?.......वहाँ तो छुट्टी हो चुकी होगी।
      नहीं......अभी तो......तीन.... वे धीमे से बोले।
      कोने में पड़ी व्हीलचेयर को खींच कर बैड से सटा कर माधव सोचने लगा……. बुड्ढा छोटी-छोटी लड़कियों से मिलने की कोशिश करता है .......स्साला.......ठरकी !
      मि॰ मिथलेश को बैठाकर बड़े ही बेमन से माधव व्हीलचेयर को धकेलने लगा। केजुयल्टी के सामने अभी भी रोने-चिल्लाने का शोर बना हुआ था। आगे पहुँच कर व्हीलचेयर और माधव की चप्पलों की ध्वनि एक लय के साथ आती रही। वे दोनों चुप थे। इस चुप्पी का फायदा उठाते हुए मि॰ मिथलेश किचन में हुई पिछली मुलाक़ात की याद में खो गए...........शीशे के बने कमरे से शैफाली बाहर आई थी। उजली सफ़ेद पोशाक में, मानों परी हो ! गंभीर लेकिन मृदुल आवाज़ में वो बोली थी, अरे, अरे आगे कहाँ जा रहे हो .........आगे किचन है !’’
      माधव ने वहील चेयर रोक दी थी।
      मि॰ मिथलेश टिशू पेपर से होंठ साफ करते हुए बोले थे, मैं वी॰ आई॰ पी॰........ वार्ड में........हूँ। ’’
     वो तल्ख होकर बोली थी, वी॰ आई॰ पी॰ .........?’’
     हाँ, मैं वी॰ आई॰ पी॰ ....... पेशेंट हूँ .....’’ मि॰ मिथलेश ने अपनी आँखें उसके गोरे चेहरे पर स्थिर कर दी थी।
        पर, आगे कहाँ जा रहे हो ? ’’
        मैं दरअसल ........आप ही से ....... ’’
        क्या बात है ? ’’
        मैं देखना चाहता था जो किचिन चला रही है ........इतना उम्दा खाना .........  वो कैसी ........होगी ? ’’ उन्होंने महीन शब्दजाल बुनना शुरू कर दिया था ।
        मैं, मैं ..... ’’
        अरे यह क्या ? तुम्हारे हाथ में ये ओडिनरी सा मोबाइल ? ......ये .....तुम पर ......शोभा नहीं देता । ’’
        बड़ी हैरानी से शैफाली उन्हें देखती रही ।
        मि॰ मिथलेश जेब से मोबाइल निकालते हुए बोले, ये देखो ........ सैमसंग .......यहाँ आओ .......मैं रिटायर्ड़ कैबिनेट सेक्रेटरी ......हूँ ...क्या नाम है ....तुम्हारा ? ’’
        शैफाली के गालों पर लाली तैर गई थी। उसने सिर झुका लिया कुछ देर चुप रहने के बाद धीमे से बोली थी, शैफाली ! ’’
        ब्यूटीफुल ! .....मेरी भतीजी का......नाम....भी...... शैफाली है ! ’’

        ........तभी एक खटके के साथ वहील चेयर रुक गई। माधव का तल्ख संवाद सुनाई दिया, लो आ गई किचिन ! ’’
       इतने भर से यादों का सिलसिला टूट गया।
       सामने काँच का पारदर्शी कमरा था एकदम खाली ! एक नाउम्मीदी-सी उनके चेहरे पर फैल गई। चश्मे के भीतर आँखों में कंपन शुरू हो गया।
      माधव वहील चेयर से हटकर दीवार के सहारे खड़ा था। ........ यहाँ तो कोई नहीं है ! ’’ वो रूखा-सा बड़बड़ाया, मैंने तो पहले ही कहा था .......’’
      देख अंदर ......कमरे में होगा कोई ? .......जा ....भीतर जा ! ’’
      ...... ये खपती मानने वाला नहीं है .......माधव ने सोचा और धीरे से कदम उठाया लेकिन फिर झिझककर रुक गया।
     अबे, जा न......
     माधव थोड़ा और आगे बढ़ा और फिर खड़ा हो गया, कहना क्या है ?”
     बस, तू.....बाहर ......बुला ले !
     माधव भीतर चला गया। 
     मि॰ मिथलेश व्हीलचेयर पर बैठे-बैठे होंठों पर चमक रहे तरल को साफ करने लगे।
........भीतर है शायद ! उन्होंने सोचा।
     थोड़ी ही देर में माधव बाहर आ गया और वहील चेयर के साथ खड़ा होकर धीमे से बोला, बिजी है, काम कर रही है .....’’
       बस, दो मिनट .......बोल जा ! ’’ मि॰ मिथलेश की आवाज में थिरकन स्पष्ट महसूस हो रही थी।
      मैडम, काम कर रही हैं .......मैं, मैं ...... ’’ माधव का सिर न में हिलता रहा।
      दो मिनट .....’’ उन्होंने उँगलियों से दो का इशारा भी किया।
      पैर पटकता हुआ माधव काँच के कमरे से जुड़े कमरे के भीतर चला गया।थोड़ी ही देर में माधव फिर चुप-चाप आकर बाहर दीवार के सहारे खड़ा हो गया। मि॰ मिथलेश इस से पहले कुछ सवाल करते सामने से शैफाली को आता देख चुप हो गए।
     मैं थोड़ी बिज़ी हूँ .....’’ शैफाली बाहर पहुँचकर बोली। उसने हल्का गुलाबी सूट पहना हुआ था जिसके रिफ्लेकशन से उसका रंग भी गुलाबी हुआ जा रहा था।
    मि॰ मिथलेश हैरान रह गए। क्षणभर के लिए वे सब भूल गए। बस सम्मोहित से उसे देखते रह गए। फिर कुछ संभलकर बोले, अब भी कुछ कर रही हो ? ’’
    पिछले दिसंबर में मेरी सात दिन की सेलेरी कट गई थी ....बस उसे ही रिलीज़ करवाने के लिए एप्लिकेशन लिख रही थी ......’’ शैफाली के हाथ में अभी भी पेन था और चेहरे पर उठकर आने की झुंझलाहट शेष थी।
    बस ....इतनी सी ..... बात ! ......कौन ....करेगा .....रिलीज़ ......? ’’
    अकाउंट ऑफिस से लगेगी ! ’’ 
    तो तुम्हारा ... काम ....हुआ समझो ....... ’’
    वो कैसे ? ’’ शैफाली विस्मित-सी वहील चेयर में बैठे मि॰ मिथलेश का चेहरा देखने लगी।
    अरे तुम्हारा, एम॰ एस॰ ........मेरा काम ........मना नहीं .....कर सकता ...... मैं ........ कैबिनेट सेक्रेटरी ...... सेवनटी वन के बैच का .....आई॰ ए॰ एस॰ हूँ। ......मैं कह दूंगा ..... बस ..... काफी है ......फिकर मत ....करो ....हमने देश चलाया है .....ये तो एक मामूली बात है। ’’
    एप्लिकेशन ? ’’
    हाँ .....दे दो......मुझे..... मैं अकाउंट ऑफिस में मिल लूँगा ’’ कुछ देर मि॰ मिथलेश उसके चेहरे की तरफ देखते रहे फिर दोबारा बोले, अब तो थोड़ी देर बात कर लो .......तुम ....अपना हाथ दिखा रही थी न ?.....मैंने कीरो ..... को पढ़ा है .......’’
    नहीं, नहीं अभी तो बिल्कुल टाइम नहीं है ! .......सिस्टर डेनिसन का फोन आया था .......कैब आ गई होगी, क्या टाइम हुआ होगा ? ’’ शैफाली चारों ओर देखती हुई बोली।
    .....अभी ....तो ....’’ मि॰ मिथलेश हकलाते हुए बस इतना ही बोल पाए। 
    अचानक ही सामने की सीढ़ियाँ उतरते हुए सिस्टर डेनिसन उनके पास तक आ पहुंची और बोली, क्यों शैफी आज चलना नहीं है ......? ’’
    नहीं सिस्टर .......चलो चलो ! ’’ शैफाली भीतर बैग लेने चली गई।
    सिस्टर ने माधव को दीवार से सटे देखा तो बोली, तू यहाँ क्या कर रहा है ? ’’
    सिस्टर इनको लाया हूँ .......’’
    सिस्टर मैं ....वी॰ आई॰ पी॰ ...पेशेंट हूँ ....’’ मि॰ मिथलेश धीरे-धीरे दोहराने लगे थे पर जैसे ही शैफाली कंधे पर बैग टाँगे आई तो सिस्टर डेनिसन बाहर जाने वाले कॉरीडोर में तेजी से बिना कुछ सुने आगे बढ़ गई।
    किचिन से उठती रोटियाँ सिकने की खुशबू कॉरीडोर के अंत तक उनका पीछा करती रही।
    मि॰ मिथलेश ने टिशू पेपर से होठों को साफ किया। उनके चेहरे पर निराशा फैल गई। कुछ देर वे बिना हिले-डुले सिर झुकाकर बैठे रहे। थोड़ी देर में माधव चुपचाप वहील चेयर को धकेलता हुआ वी॰ आई॰ पी॰ रूम की तरफ चल दिया।

    इधर, कैब में बैठते ही सिस्टर डेनिसन बोली, वहील चेयर पर कौन था ? ’’
    वो ! .....यहाँ दाखिल है। ’’
    हाँ, मैं जानती हूँ पर तुम्हारे यहाँ क्यों आया था ? ’’ सिस्टर डेनिसन का स्वर सख्त था।
    बस ऐसे ही .....
    नहीं, नहीं शैफी तुम नहीं जानती पहले हम एक फ़ीमेल स्टाफ इसके पास भेजते थे उसने हमें बताया कि बहुत ऊट-पटांग बोलता है, बात-बात पर हाथ पकड़ लेता है ..... फिर जाके ये सिक्यूरिटी गार्ड को इसकी देख-रेख पर लगाया है। .....ये तो बहुत ही ..... सिस्टर डेनिसन कैब में ही धीरे-धीरे उसके कान में बोले जा रही थी।
    शैफाली हैरान-सी उनकी तरफ देखते हुए बोली, ....पर कहता तो बेटी-बेटी है !
   यही वो स्टाफ कह रही थी कि पहले तो बेटी-बेटी करता है.....ठीक नहीं है बुड्ढा ! सिस्टर बोली।
    वे दोनों गंभीर और चुप हो गई। बाकी सवारियाँ थोड़ी देर तक उनकी तरफ देखती रही फिर अपने में व्यस्त हो गई। अब कैब सड़क पर तेजी से दौड़ रही थी।

    मि॰ मिथलेश की अजीब सनक के कारण माधव को दोपहर में उन्हें वहील चेयर पर अगले तीन दिन तक लगातार किचिन तक लाना पड़ा। तीनों ही दिन शैफी बाहर नहीं आई। हर बार वहील चेयर लौटा लानी पड़ी।
    मि॰ मिथलेश के लिए यह घटनाक्रम बेहद हैरानी और आक्रोश पैदा करने वाला था। उन्हें बहुत ठेस पहुंची। ......वी॰ आई॰ पी॰ ......के ....साथ .....ये सुलूक ! ....एक अदनी-सी .....डाएटीशियन ......ये हिम्मत ! ढेरों ऐसी बातें मि॰ मिथलेश के दिमाग में कौंधने लगी। उन्होंने निश्चय किया ....मैं भी छोडूंगा नहीं .....नौकरी करना .....सिखा....दूंगा ....तू अभी ......ब्यूरोक्रेट की ...पावर नहीं ...जानती ....तूने किससे ....पंगा .......लिया है ?
      उसी शाम मि॰ मिथलेश बड़े ही उद्दिग्न बेड पर बैठे थे। हवा में ठंडक थी लिहाजा कंबल ओढ़ लिया था। वहीं माधव भी बेड से सटे पेशेंट लॉकर को साफ कर रहा था। फलों के छिलके, कागज और गंदी स्ट्रौ उसने एक पोलीथिन में इकट्ठे कर लिए, लॉकर की सतह पर उसने पुराना अखबार बिछा दिया और उसपर कोका-कोला की बोतल, काँच के दो गिलास और चश्में का कवर करीने से रख दिया।
      कमरे के बाहर खाने की ट्रॉली की आवाज़ सुनकर मि॰ मिथलेश का ध्यान बंटा, वे माधव की तरफ घूमते हुए बोले, जा देख .....क्या है ...आज ?”
      लॉकर के पास से माधव ने गिलास, कटोरी और प्लेट ली और बेड की परिक्रमा करता हुआ कमरे के बाहर चला गया। थोड़ी देर में लौटा तो उसके हाथ में प्लेट पर रखा एक उबला अंडा, कटोरी भर सब्जी, तीन चपाती और एक सेब था। उसने प्लेट पेशेंट लॉकर के ऊपर रख दी।
     ये क्या है ?” मि॰ मिथलेश थोड़ा-सा आश्चर्य चकित होकर सेब को अपने हाथ में उठाते हुए बोले।
     सेब और क्या ! माधव इस अप्रत्याशित प्रश्न से खीजकर बोला।
     मि॰ मिथलेश थोड़ी देर सेब को उँगलियों में फंसा कर अपने चहरे के सामने घुमाते रहे फिर मुस्करा कर बोले, ताज़ा सेब !.....इसे लो ....नीचे लॉकर में रख दो ।’’
      नीचे ! फल है खा लीजिये । माधव चकित-सा उनकी तरफ देखता रहा।
      हाँ, हाँ.....नीचे रख दो .....बंद कर दो... उनकी आवाज में झल्लाहट थी।
      माधव ने मुंह बनाकर सेब को लॉकर के भीतर लुड़का दिया और गुस्से से ढक्कन बंद कर दिया।

      चार दिन बाद सर्जरी के डॉक्टर उनकी रिपोर्ट्स देखकर बोल गये कि कल दोपहर बाद डिस्चार्ज ले लेना, अभी शुगर बढ़ी हुई है खैर कंट्रोल हो जाएगी तो नई रिपोर्ट के साथ हफ्ते भर बाद दिखा देना। जब से डॉक्टर ने डिस्चार्ज के लिए कहा था तभी से मि॰ मिथलेश को हड़बड़ी लग गई भई, माधव.....सब बांध ले......नीचे, ऊपर .....देख कुछ रह न जाय।.....हाँ, नीचे लॉकर ....में सेब रखा था न,....निकाल तो उसे।
      क्या ?” माधव के मुंह से निकला और यह कहते-कहते वो बेड के पास ही बैठ गया। वो भूल चुका था। वो लॉकर के भीतर रखे सेब को बाहर ले आया, ओ हो ! ये तो सड़ रहा है !
      हाँ दिखा, दिखा ?” मिथलेश बोला।
        माधव ने सेब उनके हाथ में दे दिया। वे फिर उस बासी सेब को उँगलियों पर घुमाते-घुमाते बोले, ये ठीक है.....एक तरफ फंगस दूसरी तरफ पिलपिला।’’
       नीचे बैठे माधव ने संदिग्ध होकर उसकी तरफ देखा तो उसके मुंह से हैं ’’ की ध्वनि बाहर आई, आँखों में एक आश्चर्य उभर आया।
      कल एम॰ एस॰ के पास चलेंगे......ठीक है ! मद्धम-सी आवाज़ में मि॰ मिथलेश बोले, इसे अंदर ही रख दे।’’
      फैंक दूँ , सड़ गया है ........
     नहीं, नहीं भई......काम का है किचन से आया है न।’’
     माधव ने सेब लॉकर के भीतर लुढ़का दिया और बड़बड़ाया ! भला ये किस काम का ?”.........फिर किचन से आया है......पर सोचने लगा।
     अगले दिन वहील चेयर पर बैठ कर वे माधव से बोले, चल भई एम॰ एस॰ ऑफिस।’’
     माधव वहील चेयर धकेलता कमरे के बाहर आ गया तो मि॰ मिथलेश बोले, रुक रुक......लॉकर में रखा सेब तो ले आ.......
     सेब ! अब ?......” वो भीतर चला गया। थोड़ी देर में एक छोटा-सा लिफाफा हाथ में ले आया और बिना कुछ कहे व्हीलचेयर को धकेलने लगा।
    सुपरिटेंडेंट के कमरे में पूर्व केबिनेट सेक्रेटरी ने बड़ी शालीनता से कहना शुरू किया, सुपरिटेंडेंट साहब, आपका अस्पताल बहुत अच्छा है,…… सभी डिपार्टमेन्ट एवन हैं....सिर्फ किचिन को छोड़कर......
      क्यों सेक्रेटरी साहब, क्या हो गया है किचन को ?”
      एक बात बताइये.... क्या फंगस लगा फल.... किसी भी मरीज...... के लिए फायदेमंद हो सकता है ?.....वो भी मेरे जैसे... बूढ़े मरीज के लिए.... जिसका शुगर.... इतना हाई रहता हो..... बड़े ही तयशुदा ढंग से मि॰ मिथलेश ने कहा।
     ये क्या फरमा रहे हैं आप ?” आश्चर्यजनक तरीके से सुपरिन्टेंडेंट ने कहा।
     कल शाम किचन से.....मेरे लिए फंगस लगा....एक सेब भेजा गया....वो मैंने आपको दिखाने..... के लिए रखा है।’’
     कहाँ है दिखाओ.....मैं सस्पेंड करूंगा जो भी जिम्मेदार होगा.....’’ एम॰ एस॰ बोला।
    मि॰ मिथलेश ने बाहर आवाज़ दी, माधव,……वो सेब एम॰ एस॰ साहब को.... दिखाना जरा।......वो वही लड़की है डॉक्टर साहब ......क्या नाम था उसका......शैफाली !’’
     माधव भीतर आया और लिफाफे से सेब निकालकर सुपरिन्टेंडेंट साहब के हाथ में देकर बाहर चला गया।
     सुपरिन्टेंडेंट ने उंगलियों पर सेब को घुमाया और हँसते हुए कहा, सेक्रेटरी साहब आप को बड़ी गलतफहमी हुई है ये तो ताज़ा सेब है......कम से कम डेढ़ सौ रुपए किलो का सेब है......लीजिये खाइये इसे......
     ताज़ा ! दिखाना ! मि॰ मिथलेश ने सेब अपने हाथों में लिया तो दंग रह गए, सेब एकदम ताज़ा था, उन्होंने पुकारा, माधव ! ’’
     माधव भीतर नहीं आया।
     सेब मि॰ मिथलेश के हाथ में था, आश्चर्य, झेंप और खीज उनके चेहरे पर। वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर आँखों की पुतलियाँ इधर-उधर घुमाने लगे। हड़बड़ी में होठों से बहते तरल को टिशू पेपर से रगड़ने लगे और फिर  वहील चेयर को  स्वयं हाथ से  घुमाते हुए बाहर की तरफ निकलते-निकलते मुंह ही मुंह में बड़बड़ाए, स्साले...... छोटे लोग !
  
     सुपरिन्टेंडेंट बड़ी हैरानी से व्हीलचेयर को बाहर जाता देखता रहा।

परिचय 
----------------
गजेन्द्र रावत
जन्म 25 अक्टूबर 1958 (उत्तराखंड)
विज्ञान स्नातक
प्रकाशन (तीन कहानी संग्रह)
  1. बारिश ठंड और वह
  2. धुआँ-धुआँ तथा अन्य कहानियाँ
  3. लकीर
हिन्दी की सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर कहानियों का प्रकाशन
पुरस्कार – कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार 2009॰
संप्रति  स्वतन्त्र लेखन
संपर्क डब्ल्यू ॰ पी॰ 33 सी, पीतम पुरा, दिल्ली-110034
मो॰ 09971017136 


                                      

                   

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

परिधि शर्मा की कहानी : मनीराम की किस्सागोई

युवा पीढ़ी की कुछेक   नई कथा लेखिकाओं की कहानियाँ हमारा ध्यान खींचती रही हैं । उन कथा लेखिकाओं में एक नाम परिधि शर्मा का भी है।वे कम लिखती हैं पर अच्छा लिखती हैं। उनकी एक कहानी "मनीराम की किस्सागोई" हाल ही में परिकथा के नए अंक सितंबर-दिसम्बर 2024 में प्रकाशित हुई है । यह कहानी संवेदना से संपृक्त कहानी है जो वर्तमान संदर्भों में राजनीतिक, सामाजिक एवं मनुष्य जीवन की भीतरी तहों में जाकर हस्तक्षेप करती हुई भी नज़र आती है। कहानी की डिटेलिंग इन संदर्भों को एक रोचक अंदाज में व्यक्त करती हुई आगे बढ़ती है। पठनीयता के लिहाज से भी यह कहानी पाठकों को अपने साथ बनाये रखने में कामयाब नज़र आती है। ■ कहानी : मनीराम की किस्सागोई    -परिधि शर्मा  मनीराम की किस्सागोई बड़ी अच्छी। जब वह बोलने लगता तब गांव के चौराहे या किसी चबूतरे पर छोटी मोटी महफ़िल जम जाती। लोग अचंभित हो कर सोचने लगते कि इतनी कहानियां वह लाता कहां से होगा। दरअसल उसे बचपन में एक विचित्र बूढ़ा व्यक्ति मिला था जिसके पास कहानियों का भंडार था। उस बूढ़े ने उसे फिजूल सी लगने वाली एक बात सिखाई थी कि यदि वर्तमान में हो रही समस्याओं का समाधान

हान कांग को साहित्य का नोबल पुरस्कार और विजय शर्मा का आलेख बुकर साहित्य और शाकाहार

कोरिया की सबसे बडी और मशहूर किताब की दुकान का नाम है "क्योबो" जिसमें तेईस लाख किताबें सजी रहती हैं। इस पुस्तक भंडार की हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से सूनी है। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा है "साहित्य के नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित"। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ है। कोरियाई साहित्य प्रेमियों की उस इच्छा को वहां की लेखिका हान कांग ने आज पूरा किया है। इस वर्ष 2024 में साहित्य का नोबल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। जब उन्हें 2015 में बुकर पुरस्कार मिला था तो उन पर प्रख्यात लेखिका विजय शर्मा ने एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। उस आलेख को आज उन्होंने सोशल मीडिया पर साझा किया है। इस आलेख को पढ़कर कोरियाई उपन्यासकार  हान कान्ग  के लेखन के सम्बंध में हमें बहुत कुछ जानने समझने के अवसर  मिलते हैं। उनका आलेख यहाँ नीचे संलग्न है- बुकर, साहित्य और शाकाहार विजय शर्मा इस साल 2015का मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। यह पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ के इंग्लिश अनुवाद के लिए मिला है। असल

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

कहानी : तोहफा : परिधि शर्मा / KAHANI:TOHAFA : PARIDHI SHARMA

    परिधि की कहानी तोहफा छत्तीसगढ़ में औद्योगिकरण से उपजी भीषण समस्याओं की ओर इशारा करती है। उद्योगों से निकले गर्म राख के निदान की ओर उद्योगों के मालिकों का कोई ध्यान नहीं रहता क्योंकि इसके समुचित निदान में बहुत अधिक खर्च होने की संभावना बनी रहती है। उद्योगों के मालिक गर्म राख को जहां जगह मिलती है वहीं डंफ कर देते हैं । छत्तीसगढ़ में खेल के मैदान और किसानों की जमीनें भी इससे बर्बाद हो रही हैं क्योंकि वहां भी जोर जबरदस्ती यह गर्म राख आए दिन डंफ कर दिया जाता है। तोहफा कहानी में जन्म से अंधी एक लड़की बबली भी इसी गर्म राख से जलने का शिकार होती है । बच्चे मैदान में खेल रहे होते हैं। उनकी आवाज सुनकर जन्म से अंधी लड़की बबली भी एक लाठी के सहारे मैदान की तरफ बढ़ती है और गर्म राख से झुलस कर उसकी मृत्यु हो जाती है । इस मृत्यु पर नोटिस लेने वाला गांव में कोई नहीं मिलता। उद्योग मालिकों के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठती । यहां तक कि लड़की के पिता की ओर से भी चुप्पी साध ली जाती है क्योंकि फेक्ट्री का मैनेजर लड़की के पिता के घर आकर अपने बिरूद्ध बन रही सारी परिस्थितियों को पैसे के बल पर मैनेज कर लेता है।

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

असमर्थ युग के समर्थ लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं"

मैक्सिम गोर्की असमर्थ युग के समर्थ लेखक के रूप में पहचाने जाते हैं। जन्म के समय अपनी पहली चीख़ के बारे में मैक्सिम गोर्की ने एक जगह स्वयं लिखा है- 'मुझे पूरा यकीन है कि वह चीख घृणा और विरोध की चीख़ रही होगी।' इस पहली चीख़ की घटना 1868 ई. की 28 मार्च की 2 बजे रात की है लेकिन घृणा और विरोध की यह चीख़ आज इतने वर्ष बाद भी सुनाई दे रही है।मैक्सिम गोर्की ऐसे क्रांतिकारी और युगद्रष्टा लेखक थे जिन्होंने लेखन के माध्यम से ऐसा रच दिया कि आजतक कोई रच नहीं पाया। जीते जी उन्हें जो कीर्ति मिली , जो सम्मान मिला वह किसी अन्य को नहीं मिल पाया।   पीड़ा और संघर्ष उनकी रचनाओं का मुख्य कथानक है। यह सब उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता बढ़ई थे जो लकड़ी के संदूक बनाया करते थे । उनकी माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के बिरूद्ध विवाह किया था। यह दुर्भाग्य रहा कि मैक्सिम गोर्की सात वर्ष की आयु में ही  अनाथ हो गए। वे माँ की ममता से वंचित रह गए।  माँ की ममता की लहरों से वंचित हुए गोर्की को वोल्गा की लहरों द्वारा ही बचपन से संरक्षण मिला। शायद इसलिए उनकी 'शैलकश' और अन्य कृतियों में वोल्गा का सजीव चित्र