गजेन्द्र रावत लम्बे समय से कहानियाँ लिख रहे हैं । उनकी कहानियों में जीवन से जुड़ी वो छोटी-छोटी बातें अचानक दृश्यमान हो उठती हैं जिनमें मनुष्य की भीतरी दुनियां की परतें उधड़कर सामने आती हैं । ऐसा लगता है जैसे मनुष्य देखते-देखते भीतर से नंगा हो उठा है । पद प्रतिष्ठा के सहारे ही जीवन की नैय्या को पार लगाने वाला आदमी पद के जाते ही किस तरह भीतर से कुंठित होकर मृत हो जाता है इस कहानी में गजेन्द्र उसे शिद्दत से उठाते हैं । रिटायर होने के बाद भी आई.ए.एस. जैसे ओहदे से मिली बुरी आदतें आदमी का पीछा नहीं छोड़तीं और इन्हीं बुरी आदतों के चलते उसकी कुंठा उसे भीतर से गलाने लगती है जैसे उसकी समूची मनुष्यता पर फफूंद चढ़ गयी हो । गजेन्द्र जी की कई कहानियों को पढ़ने के बाद लगा कि उनकी कहानियों पर सघन रूप में बातचीत होनी चाहिए । गजेन्द्र जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है ।
उनकी आंखों पर
भारी-मोटा चश्मा था। चश्में के बाहर से दोनों आँखें काँच की छोटी-छोटी डिब्बियों
में बंद पानी के बुलबुले-सी कांपती प्रतीत होती थी। जरूर उन्हें किसी की भी आकृति धुंधली, टिमटिमाती-सी दिखाई देती होगी ?बस अनुमान भर हो
पाता होगा सामने वाले की शख्सियत और नैन-नक्श का !.........मगर वे ध्वनि, रंग और जिस्म की गंध से आँकते होंगे रूप-सौंदर्य,नजाकत
और अदाओं की बारीकियों को।.....पर उन्हें तब गजब की समझ हासिल हो जाती जब किसी
हसीना के गोरे मरमरी हाथों को छू लेने का मौका लग जाता।
एक खासियत थी उनमें, उनका निचला होंठ अक्सर कुछ यूं अनियंत्रित हो जाता कि बंद अवस्था में भी
भीतर का तरल दोनों कोनो से बहकर ठुड्डी तक पहुँच जाता। इसीलिए वे हर वक्त एक मुट्ठी
में टिशू पेपर दबाए रहते और जब देखो होठों के कोने रगड़-रगड़ कर साफ करते रहते।
हाँ, एक और बात, उनकी आवाज में अजीब-सी लड़खड़ाहट थी और उसे छिपाने का एक कारगर तरीका भी
उन्होंने इजात कर लिया था। वे बोलते वक्त वाक्य के तीन-चार टुकड़े कर देते और फिर
बड़े ही सधे हुए अंदाज़ में दंभ के साथ दोहराते, “ मैं,मैं ......... कैबिनेट सेक्रेटरी........हूँ
........रिटायर्ड़ ! ’’ वे नजरों को सामने वाले के चेहरे पर फोकस करते हुए फिर
बोलते, “ वी॰ आई॰......... पी॰ वार्ड
में ........दाखिल हूँ। ’’ फिर पलभर चुप रहते लेकिन सुनने वाले कि प्रतिक्रिया से
पहले ही कह देते,“ मैं एम....के.....श्रीवास्तव .........तुम
मिथलेश कहो ! ’’
कोई भी होता उनकी तरफ देखता और सोचता, ......बुजुर्ग है........बेचारा ! .......वी॰ आई॰ पी॰ वार्ड में है
.......नाम कैसे लें ! ......बहुत सोच-विचार कर मि॰ मिथलेश कह पाता या मौका पाकर
इधर-उधर हो जाता।
आज दोपहर के खाने के बाद एक-डेढ़ बजे ही मि॰
मिथिलेश सो गये थे। अभी घंटे भर ही सोये होंगे कि कैजुल्टी से रोने-पिटने कि
डरावनी आवाजों ने उनकी नींद खोल दी। मुंह से निकली सप-सप कि अजीब ध्वनि के साथ उन्होंने
बड़े ही बेशऊर ढंग से हथेली को कसकर होंटों पर रगड़ दिया। इस प्रक्रिया में उनका हाथ
चिपचिपे तरल से सन गया। उनकी ठुड्डी अभी भी करवट सोते हुए रिसे थूक से गीली थी।
अचानक नींद खुलने से उनकी धड़कने तेजी से चल रही थी। नींद कि खुमारी के बाबजूद
विस्मय भरी उनकी आँखों की पुतलियाँ कमरे में हर तरफ घूम रही थी और दोनों हाथ होंट, ठुड्डी और जबड़ों पर चल रहे थे। दरअसल वे कमरे के बाहर से उठती चिखों से
सहम गये थे। थोड़ी देर तक बेचैनी बनी रही फिर कहीं जाकर तेज चलती साँसे सामान्य हो पाई।
कुछ देर बाद वे उल्टा हाथ बढ़ाकर चश्मा आँखों पर रखते हुए बड़बड़ाए, “ ये स्साला.... कौन....रो रहा ...है ?” हाथ का सहारा लेकर ऊंचे खिसक कर बैठ गये, तकिये के
नीचे हाथ डालकर मोबाएल में टाइम देखते हुए फुसफुसाए, “ पौने तीन .... इतना.... पर.... वो....होगी !” कहीं
भी जाने का मन नहीं था पर न जाने कौन सा अदृश्य दबाव चैन नहीं लेने दे रहा था।
बेचेनी बरबस हूक-सी उठ रही थी और यहाँ से निकालने के लिये उकसा रही थी। आखिर रहा
नहीं गया। उन्होंने माधव को पुकारा, वो नहीं आया। देर तक
घंटी बजाई फिर कहीं जाकर वो आया और दरवाजे पर खड़ा होकर बोला,
“ हूँ ....”
माधव यूं तो सेक्युर्टी गार्ड था, अस्पताल के आफ़िसरों ने उसे मि॰ मिथिलेश वी॰ आई॰ पी॰ मरीज के लिए रख छोड़ा
था। वही उनके सभी काम देखा करता था। नर्सस रूम से तो कभी-कभी
कोई बुखार, ब्लड-प्रैशर देखने आ जाता था।
“चलना
है.......!” मि॰ मिथिलेश बोले।
“ कहाँ चलना है
?” खीजकर माधव बोला।
“
किचन.......में !”
“कुछ काम है
क्या ?.......वहाँ तो छुट्टी हो चुकी होगी।”
“नहीं......अभी
तो......तीन....” वे धीमे से बोले।
कोने में पड़ी व्हीलचेयर को खींच कर बैड से
सटा कर माधव सोचने लगा……. बुड्ढा छोटी-छोटी लड़कियों से मिलने की
कोशिश करता है .......स्साला.......ठरकी !
मि॰ मिथलेश को बैठाकर बड़े ही बेमन से माधव
व्हीलचेयर को धकेलने लगा। केजुयल्टी के सामने अभी भी रोने-चिल्लाने का शोर बना हुआ
था। आगे पहुँच कर व्हीलचेयर और माधव की चप्पलों की ध्वनि एक लय के साथ आती रही। वे
दोनों चुप थे। इस चुप्पी का फायदा उठाते हुए मि॰ मिथलेश किचन में हुई पिछली
मुलाक़ात की याद में खो गए...........शीशे के बने कमरे से शैफाली बाहर आई थी। उजली
सफ़ेद पोशाक में, मानों परी हो ! गंभीर लेकिन मृदुल आवाज़ में
वो बोली थी, “ अरे, अरे आगे कहाँ जा रहे हो .........आगे किचन है !’’
माधव ने वहील चेयर रोक दी थी।
मि॰ मिथलेश टिशू पेपर से होंठ साफ करते हुए
बोले थे, “ मैं वी॰ आई॰
पी॰........ वार्ड में........हूँ। ’’
वो तल्ख होकर बोली थी, “ वी॰ आई॰ पी॰ .........?’’
“ हाँ, मैं वी॰ आई॰ पी॰ ....... पेशेंट हूँ .....’’ मि॰ मिथलेश ने अपनी आँखें
उसके गोरे चेहरे पर स्थिर कर दी थी।
“ पर, आगे कहाँ जा रहे हो ? ’’
“ मैं दरअसल
........आप ही से ....... ’’
“ क्या बात है ? ’’
“ मैं देखना
चाहता था जो किचिन चला रही है ........इतना उम्दा खाना ......... वो कैसी ........होगी ?
’’ उन्होंने महीन शब्दजाल बुनना शुरू कर दिया था ।
“ मैं, मैं ..... ’’
“ अरे यह क्या ? तुम्हारे हाथ में ये ओडिनरी सा मोबाइल ? ......ये
.....तुम पर ......शोभा नहीं देता । ’’
बड़ी हैरानी से शैफाली उन्हें देखती रही ।
मि॰ मिथलेश जेब से मोबाइल निकालते हुए
बोले, “ ये देखो ........
सैमसंग .......यहाँ आओ .......मैं रिटायर्ड़ कैबिनेट सेक्रेटरी ......हूँ ...क्या
नाम है ....तुम्हारा ? ’’
शैफाली के गालों पर लाली तैर गई थी। उसने
सिर झुका लिया कुछ देर चुप रहने के बाद धीमे से बोली थी, “ शैफाली ! ’’
“ ब्यूटीफुल !
.....मेरी भतीजी का......नाम....भी...... शैफाली है ! ’’
........तभी एक खटके के साथ वहील चेयर
रुक गई। माधव का तल्ख संवाद सुनाई दिया, “ लो आ गई किचिन ! ’’
इतने भर से यादों का सिलसिला टूट गया।
सामने काँच का पारदर्शी कमरा था एकदम खाली
! एक नाउम्मीदी-सी उनके चेहरे पर फैल गई। चश्मे के भीतर आँखों में कंपन शुरू हो
गया।
माधव वहील चेयर से हटकर दीवार के सहारे खड़ा
था। “ ........ यहाँ तो कोई नहीं है ! ’’ वो रूखा-सा
बड़बड़ाया, “ मैंने तो पहले ही कहा था
.......’’
“ देख अंदर
......कमरे में होगा कोई ? .......जा ....भीतर जा ! ’’
...... ये खपती मानने वाला नहीं है
.......माधव ने सोचा और धीरे से कदम उठाया लेकिन फिर झिझककर रुक गया।
“अबे, जा न......”
माधव थोड़ा और आगे बढ़ा और फिर खड़ा हो गया, “ कहना क्या है ?”
“ बस, तू.....बाहर ......बुला ले !”
माधव भीतर चला गया।
मि॰ मिथलेश व्हीलचेयर पर बैठे-बैठे होंठों
पर चमक रहे तरल को साफ करने लगे।
........भीतर है शायद
! उन्होंने सोचा।
थोड़ी ही देर में माधव बाहर आ गया और वहील
चेयर के साथ खड़ा होकर धीमे से बोला, “ बिजी है, काम कर रही है .....’’
“ बस, दो मिनट .......बोल जा ! ’’ मि॰ मिथलेश की आवाज में थिरकन स्पष्ट महसूस
हो रही थी।
“ मैडम, काम कर रही हैं .......मैं, मैं ...... ’’ माधव का सिर
न में हिलता रहा।
“ दो मिनट
.....’’ उन्होंने उँगलियों से दो का इशारा भी किया।
पैर पटकता हुआ माधव काँच के कमरे से जुड़े
कमरे के भीतर चला गया।थोड़ी ही देर में माधव फिर चुप-चाप आकर बाहर दीवार के सहारे
खड़ा हो गया। मि॰ मिथलेश इस से पहले कुछ सवाल करते सामने से शैफाली को आता देख चुप
हो गए।
“ मैं थोड़ी
बिज़ी हूँ .....’’ शैफाली बाहर पहुँचकर बोली। उसने हल्का गुलाबी सूट पहना हुआ था
जिसके रिफ्लेकशन से उसका रंग भी गुलाबी हुआ जा रहा था।
मि॰ मिथलेश हैरान रह गए। क्षणभर के लिए वे सब
भूल गए। बस सम्मोहित से उसे देखते रह गए। फिर कुछ संभलकर बोले, “ अब भी कुछ कर रही हो ? ’’
“ पिछले दिसंबर
में मेरी सात दिन की सेलेरी कट गई थी ....बस उसे ही रिलीज़ करवाने के लिए एप्लिकेशन
लिख रही थी ......’’ शैफाली के हाथ में अभी भी पेन था और चेहरे पर उठकर आने की
झुंझलाहट शेष थी।
“ बस ....इतनी
सी ..... बात ! ......कौन ....करेगा .....रिलीज़ ......? ’’
“ अकाउंट ऑफिस
से लगेगी ! ’’
“ तो तुम्हारा
... काम ....हुआ समझो ....... ’’
“ वो कैसे ? ’’ शैफाली विस्मित-सी वहील चेयर में बैठे मि॰ मिथलेश का चेहरा देखने लगी।
“ अरे तुम्हारा, एम॰ एस॰ ........मेरा काम ........मना नहीं .....कर सकता ...... मैं
........ कैबिनेट सेक्रेटरी ...... सेवनटी वन के बैच का .....आई॰ ए॰ एस॰ हूँ।
......मैं कह दूंगा ..... बस ..... काफी है ......फिकर मत ....करो ....हमने देश
चलाया है .....ये तो एक मामूली बात है। ’’
“ एप्लिकेशन ? ’’
“ हाँ .....दे
दो......मुझे..... मैं अकाउंट ऑफिस में मिल लूँगा ’’ कुछ देर मि॰ मिथलेश उसके
चेहरे की तरफ देखते रहे फिर दोबारा बोले, “ अब तो थोड़ी देर बात कर लो .......तुम ....अपना हाथ दिखा रही थी न ?.....मैंने कीरो ..... को पढ़ा है .......’’
“ नहीं, नहीं अभी तो बिल्कुल टाइम नहीं है ! .......सिस्टर डेनिसन का फोन आया था
.......कैब आ गई होगी, क्या टाइम हुआ होगा ? ’’ शैफाली चारों ओर देखती हुई बोली।
“ .....अभी
....तो ....’’ मि॰ मिथलेश हकलाते हुए बस इतना ही बोल पाए।
अचानक ही सामने की सीढ़ियाँ उतरते हुए सिस्टर
डेनिसन उनके पास तक आ पहुंची और बोली, “ क्यों शैफी आज चलना नहीं है ......? ’’
“ नहीं सिस्टर
.......चलो चलो ! ’’ शैफाली भीतर बैग लेने चली गई।
सिस्टर ने माधव को दीवार से सटे देखा तो बोली, “ तू यहाँ क्या कर रहा है ?
’’
“ सिस्टर इनको
लाया हूँ .......’’
“ सिस्टर मैं
....वी॰ आई॰ पी॰ ...पेशेंट हूँ ....’’ मि॰ मिथलेश धीरे-धीरे दोहराने लगे थे पर
जैसे ही शैफाली कंधे पर बैग टाँगे आई तो सिस्टर डेनिसन बाहर जाने वाले कॉरीडोर में
तेजी से बिना कुछ सुने आगे बढ़ गई।
किचिन से उठती रोटियाँ सिकने की खुशबू
कॉरीडोर के अंत तक उनका पीछा करती रही।
मि॰ मिथलेश ने टिशू पेपर से होठों को साफ
किया। उनके चेहरे पर निराशा फैल गई। कुछ देर वे बिना हिले-डुले सिर झुकाकर बैठे
रहे। थोड़ी देर में माधव चुपचाप वहील चेयर को धकेलता हुआ वी॰ आई॰ पी॰ रूम की तरफ चल
दिया।
इधर, कैब में
बैठते ही सिस्टर डेनिसन बोली, “ वहील
चेयर पर कौन था ? ’’
“ वो !
.....यहाँ दाखिल है। ’’
“ हाँ, मैं जानती हूँ पर तुम्हारे यहाँ क्यों आया था ? ’’
सिस्टर डेनिसन का स्वर सख्त था।
“ बस ऐसे ही
.....”
“ नहीं, नहीं शैफी तुम नहीं जानती पहले हम एक फ़ीमेल स्टाफ इसके पास भेजते थे उसने
हमें बताया कि बहुत ऊट-पटांग बोलता है, बात-बात पर हाथ पकड़
लेता है ..... फिर जाके ये सिक्यूरिटी गार्ड को इसकी देख-रेख पर लगाया है। .....ये
तो बहुत ही .....” सिस्टर डेनिसन कैब में ही धीरे-धीरे उसके
कान में बोले जा रही थी।
शैफाली हैरान-सी उनकी तरफ देखते हुए बोली, “....पर कहता तो बेटी-बेटी है !”
“ यही वो स्टाफ
कह रही थी कि पहले तो बेटी-बेटी करता है.....ठीक नहीं है बुड्ढा !” सिस्टर बोली।
वे दोनों गंभीर और चुप हो गई। बाकी सवारियाँ
थोड़ी देर तक उनकी तरफ देखती रही फिर अपने में व्यस्त हो गई। अब कैब सड़क पर तेजी से
दौड़ रही थी।
मि॰ मिथलेश की अजीब सनक के कारण माधव को
दोपहर में उन्हें वहील चेयर पर अगले तीन दिन तक लगातार किचिन तक लाना पड़ा। तीनों
ही दिन शैफी बाहर नहीं आई। हर बार वहील चेयर लौटा लानी पड़ी।
मि॰ मिथलेश के लिए यह घटनाक्रम बेहद हैरानी
और आक्रोश पैदा करने वाला था। उन्हें बहुत ठेस पहुंची। ......वी॰ आई॰ पी॰ ......के
....साथ .....ये सुलूक ! ....एक अदनी-सी .....डाएटीशियन ......ये हिम्मत ! ढेरों
ऐसी बातें मि॰ मिथलेश के दिमाग में कौंधने लगी। उन्होंने निश्चय किया ....मैं भी
छोडूंगा नहीं .....नौकरी करना .....सिखा....दूंगा ....तू
अभी ......ब्यूरोक्रेट की ...पावर नहीं ...जानती ....तूने किससे ....पंगा
.......लिया है ?
उसी शाम मि॰ मिथलेश बड़े ही उद्दिग्न बेड पर
बैठे थे। हवा में ठंडक थी लिहाजा कंबल ओढ़ लिया था। वहीं माधव भी बेड से सटे पेशेंट
लॉकर को साफ कर रहा था। फलों के छिलके, कागज और गंदी
स्ट्रौ उसने एक पोलीथिन में इकट्ठे कर लिए, लॉकर की सतह पर
उसने पुराना अखबार बिछा दिया और उसपर कोका-कोला की बोतल,
काँच के दो गिलास और चश्में का कवर करीने से रख दिया।
कमरे के बाहर खाने की ट्रॉली की आवाज़ सुनकर
मि॰ मिथलेश का ध्यान बंटा, वे माधव की तरफ घूमते हुए बोले, “ जा देख .....क्या है ...आज ?”
लॉकर के पास से माधव ने गिलास, कटोरी और प्लेट ली और बेड की परिक्रमा करता हुआ कमरे के बाहर चला गया।
थोड़ी देर में लौटा तो उसके हाथ में प्लेट पर रखा एक उबला अंडा, कटोरी भर सब्जी, तीन चपाती और एक सेब था। उसने
प्लेट पेशेंट लॉकर के ऊपर रख दी।
“ ये क्या है ?” मि॰ मिथलेश थोड़ा-सा आश्चर्य चकित होकर सेब को अपने हाथ में उठाते हुए
बोले।
“ सेब और क्या
!” माधव इस अप्रत्याशित प्रश्न से खीजकर बोला।
मि॰ मिथलेश थोड़ी देर सेब को उँगलियों में फंसा
कर अपने चहरे के सामने घुमाते रहे फिर मुस्करा कर बोले, “ताज़ा सेब !.....इसे लो ....नीचे लॉकर में रख दो ।’’
“ नीचे ! फल है
खा लीजिये ।” माधव चकित-सा उनकी तरफ देखता रहा।
“ हाँ, हाँ.....नीचे रख दो .....बंद कर दो...” उनकी आवाज
में झल्लाहट थी।
माधव ने मुंह बनाकर सेब को लॉकर के भीतर
लुड़का दिया और गुस्से से ढक्कन बंद कर दिया।
चार दिन बाद सर्जरी के डॉक्टर उनकी
रिपोर्ट्स देखकर बोल गये कि कल दोपहर बाद डिस्चार्ज ले लेना, अभी शुगर बढ़ी हुई है खैर कंट्रोल हो जाएगी तो नई रिपोर्ट के साथ हफ्ते भर
बाद दिखा देना। जब से डॉक्टर ने डिस्चार्ज के लिए कहा था तभी से मि॰ मिथलेश को
हड़बड़ी लग गई “ भई, माधव.....सब बांध
ले......नीचे, ऊपर .....देख कुछ रह न जाय।.....हाँ, नीचे लॉकर ....में सेब रखा था न,....निकाल तो उसे।”
“ क्या ?” माधव के मुंह से निकला और यह कहते-कहते वो बेड के पास ही बैठ गया। वो भूल
चुका था। वो लॉकर के भीतर रखे सेब को बाहर ले आया, “ ओ हो ! ये तो सड़ रहा है !”
“ हाँ दिखा, दिखा ?” मिथलेश
बोला।
माधव ने सेब उनके हाथ में दे दिया। वे फिर
उस बासी सेब को उँगलियों पर घुमाते-घुमाते बोले, “ ये ठीक है.....एक तरफ फंगस दूसरी तरफ पिलपिला।’’
नीचे बैठे माधव ने संदिग्ध होकर उसकी तरफ
देखा तो उसके मुंह से “ हैं ’’ की ध्वनि बाहर आई, आँखों में एक आश्चर्य उभर आया।
“ कल एम॰ एस॰
के पास चलेंगे......ठीक है !” मद्धम-सी आवाज़ में मि॰ मिथलेश
बोले, इसे अंदर ही रख दे।’’
“ फैंक दूँ , सड़ गया है ........”
“ नहीं, नहीं भई......काम का है किचन से आया है न।’’
माधव
ने सेब लॉकर के भीतर लुढ़का दिया और बड़बड़ाया ! “ भला ये किस
काम का ?”.........फिर किचन से आया है......पर सोचने लगा।
अगले दिन वहील चेयर पर बैठ कर वे माधव से
बोले, “ चल भई एम॰ एस॰
ऑफिस।’’
माधव वहील चेयर धकेलता कमरे के बाहर आ गया
तो मि॰ मिथलेश बोले, “रुक रुक......लॉकर
में रखा सेब तो ले आ.......”
“ सेब ! अब ?......” वो भीतर चला गया। थोड़ी देर में एक छोटा-सा लिफाफा हाथ में ले आया और बिना
कुछ कहे व्हीलचेयर को धकेलने लगा।
सुपरिटेंडेंट के कमरे में पूर्व केबिनेट सेक्रेटरी
ने बड़ी शालीनता से कहना शुरू किया, सुपरिटेंडेंट
साहब, “आपका अस्पताल बहुत अच्छा है,…… सभी डिपार्टमेन्ट एवन हैं....सिर्फ किचिन को छोड़कर......”
“ क्यों
सेक्रेटरी साहब, क्या हो गया है किचन को ?”
“ एक बात
बताइये.... क्या फंगस लगा फल.... किसी भी मरीज...... के लिए फायदेमंद हो सकता है ?.....वो भी मेरे जैसे... बूढ़े मरीज के लिए.... जिसका शुगर.... इतना हाई रहता
हो.....” बड़े ही तयशुदा ढंग से मि॰ मिथलेश ने कहा।
“ ये क्या फरमा
रहे हैं आप ?” आश्चर्यजनक तरीके से सुपरिन्टेंडेंट ने कहा।
“ कल शाम किचन
से.....मेरे लिए फंगस लगा....एक सेब भेजा गया....वो मैंने आपको दिखाने..... के लिए
रखा है।’’
“ कहाँ है दिखाओ.....मैं
सस्पेंड करूंगा जो भी जिम्मेदार होगा.....’’ एम॰ एस॰ बोला।
मि॰ मिथलेश ने बाहर आवाज़ दी, “माधव,……वो सेब एम॰ एस॰ साहब
को.... दिखाना जरा।......वो वही लड़की है डॉक्टर साहब ......क्या नाम था
उसका......शैफाली !’’
माधव भीतर आया और लिफाफे से सेब निकालकर
सुपरिन्टेंडेंट साहब के हाथ में देकर बाहर चला गया।
सुपरिन्टेंडेंट ने उंगलियों पर सेब को
घुमाया और हँसते हुए कहा, “ सेक्रेटरी साहब आप
को बड़ी गलतफहमी हुई है ये तो ताज़ा सेब है......कम से कम डेढ़ सौ रुपए किलो का सेब
है......लीजिये खाइये इसे......”
“ ताज़ा !
दिखाना !” मि॰ मिथलेश ने सेब अपने हाथों में लिया तो दंग रह
गए, सेब एकदम ताज़ा था, उन्होंने पुकारा, “ माधव ! ’’
माधव भीतर नहीं आया।
सेब मि॰ मिथलेश के हाथ में था, आश्चर्य, झेंप और खीज उनके चेहरे पर। वे किंकर्तव्यविमूढ़
होकर आँखों की पुतलियाँ इधर-उधर घुमाने लगे। हड़बड़ी में होठों से बहते तरल को टिशू पेपर
से रगड़ने लगे और फिर वहील चेयर को स्वयं हाथ से घुमाते हुए बाहर की तरफ निकलते-निकलते मुंह ही
मुंह में बड़बड़ाए, “ स्साले...... छोटे
लोग !”
सुपरिन्टेंडेंट बड़ी हैरानी से व्हीलचेयर को बाहर
जाता देखता रहा।
परिचय
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गजेन्द्र रावत
जन्म 25 अक्टूबर 1958 (उत्तराखंड)
विज्ञान स्नातक
प्रकाशन –
(तीन कहानी संग्रह)
- बारिश ठंड और वह
- धुआँ-धुआँ तथा अन्य कहानियाँ
- लकीर
हिन्दी की सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में निरंतर कहानियों का
प्रकाशन
पुरस्कार – कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार 2009॰
संप्रति – स्वतन्त्र लेखन
संपर्क –
डब्ल्यू ॰ पी॰ – 33 सी, पीतम पुरा, दिल्ली-110034
मो॰ – 09971017136
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