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समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

अख़्तर आज़ाद की कहानी लकड़बग्घा और तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन पर टिप्पणियाँ

जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आती होंगी कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। (हंस जुलाई 2023 अंक में अख्तर आजाद की कहानी लकड़बग्घा पढ़ने के बाद एक टिप्पणी) -------------------------------------- हंस जुलाई 2023 अंक में कहानी लकड़बग्घा पढ़कर एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। लॉकडाउन में मजदूरों के हजारों किलोमीटर की त्रासदपूर्ण यात्रा की कहानियां फिर से तरोताजा हो गईं। दास्तान ए कमेटी के सामने जितने भी दर्द भरी कहानियां हैं, पीड़ित लोगों द्वारा सुनाई जा रही हैं। उन्हीं दर्द भरी कहानियों में से एक कहानी यहां दृश्यमान होती है। मजदूर,उसकी गर्भवती पत्नी,पाँच साल और दो साल के दो बच्चे और उन सबकी एक हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। कहानी की बुनावट इन्हीं पात्रों के इर्दगिर्द है। शुरुआत की उनकी यात्रा तो कुछ ठीक-ठाक चलती है। दोनों पति पत्नी एक एक बच्चे को अपनी पीठ पर लादे चल पड़ते हैं पर धीरे-धीरे परिस्थितियां इतनी भयावह होती जाती हैं कि गर्भवती पत्नी के लिए बच्चे का बोझ उठाकर आगे चलना बहुत कठिन हो जाता है। मजदूर अगर बड़े बच्चे का बोझ उठा भी ले तो उसकी पत्नी छोटे बच्चे का बोझ उठाकर चलने में पूरी तरह असमर्थ हो च

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्दित करें।

बंधु पुष्कर की कविताएं

बंधु पुष्कर की कविताएं , इधर  युवाओं द्वारा रची जा रही कविताओं से थोड़ी भिन्नता लिए हुए सामने आती हैं।ये कविताएँ भिन्न इस अर्थ में हैं कि इनमें बदलते समय के साथ बह जाने की आकुलता नहीं दिखाई देती। उनकी कविताओं में अपने समय को ठहरकर देखने का न केवल संयम है बल्कि इस संयम में भाव और विचार की सम्यक जुगलबंदी भी है। पूरी दुनिया में आज जीवन के जरूरी मूल्यों को पीछे छोड़कर बाज़ारू समय के साथ भागने की एक होड़ सी मची है। ऐसे समय में भी जीवन के परंपरागत मूल्यों की पहचान कराने के साथ साथ बन्धु पुष्कर की कविताएं उन्हें बचाए रखने का आग्रह करती हैं। 'मेरे शहर के लड़के पतंगबाज़ नहीं रहे' जैसी उनकी कविता इन्हीं संदर्भों को स्थापित करती है। प्रेम को नई तरह से देखने का नज़रिया भी एक वैचारिक तरलता के साथ उनकी कविताओं में विद्यमान है।  इन कविताओं में जीवन एवं इतिहास बोध भी दबे पांव आते हैं और एक जीवंत सा संवाद स्थापित करते हैं। बंधु पुष्कर की इन कविताओं को पढ़कर जीवन में बहुत पीछे छूट गयी चीजों की स्मृतियां मन के भीतर चलकर भी आने लगती हैं और एक हलचल सी मचाती हैं। एक कोमल सी वैचारिक तरलता होते हुए भी इन कवित

सीमा राजोरिया एवं हरिओम राजोरिया का इप्टा रायगढ़ द्वारा सम्मान

'रंग अजय : राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव' 2024 छत्तीसगढ़ इप्टा रायगढ़ इकाई द्वारा आज 2 जनवरी से आरंभ हो गया। इस अवसर पर इप्टा रायगढ़ द्वारा रंगमंच के क्षेत्र में दिया जाने वाला 13वां शरद चंद्र बैरागकर आठले सम्मान मध्यप्रदेश इप्टा के रंगकर्मी हरिओम राजोरिया एवं सीमा राजोरिया दोनों को संयुक्त रूप से दिया गया।  मंच पर रविंद्र चौबे ,मुमताज भारती एवं आशा त्रिपाठी की उपस्थिति रही। युवराज सिंह आज़ाद एवं रविन्द्र चौबे ने मिलकर रायगढ़ में चली आ रही रंगमंच से जुड़ी गतिविधियों को बहुत बेहतर तरीके से सबके सामने रखा और इप्टा की भूमिका को रेखांकित किया। शरद चंद्र बैरागकर के संबंध में भी बहुत जरूरी बातें युवराज ने रखी।  रायगढ़ शहर के विभिन्न सांस्कृतिक जन संगठनों  जिनमें  गुड़ी, रिटायर्ड बैंकर्स क्लब, साईं शरण हाउसिंग सोसाइटी, शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी मेमोरियल ट्रस्ट, खेल संघ रायगढ़, जिला बचाओ संघर्ष मोर्चा, सद्भावना सांस्कृतिक सेवा समिति, उत्कल सांस्कृतिक सेवा समिति, राष्ट्रीय कवि संगम एवं काव्य वाटिका, ट्रेड यूनियन कौंसिल, छत्तीसगढ़ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता सहायिका संघ इत्यादि प्रमुख हैं,    के साथ साथ जनव

Blooming Buds स्कूल रायगढ़ का एनुअल कल्चरल मीट 2023-24 ने जाते दिसम्बर को यादगार बनाया

दिसम्बर रहा Blooming Buds School रायगढ़ के इन प्यारे प्यारे बच्चों के नाम "प्रेम के बिना ज्ञान टिकेगा नहीं। लेकिन प्यार अगर पहले आता है तो ज्ञान का आना निश्चित है।"  - जॉन बरोज़ स्कूल के आयोजनों में शरीक होना भला कौन पसंद न करे।आयोजन में छोटे बच्चों की कला प्रतिभा से रूबरू होना हो फिर तो क्या कहने। तो जाते साल के आखरी महीने दिसम्बर की एक बहुत खूबसूरत सी शाम मेरे हिस्से आयी, जब गुलाबी ठंड के बीच लोचन नगर स्थित Blooming Buds School Raigarh के एनुअल कल्चरल मीट में स्कूल प्रबंधन के सौजन्य से बतौर मुख्य अतिथि मुझे शामिल होने का अवसर मिला। 23 दिसम्बर शाम 5 से 6.30 के मध्य छोटे छोटे, प्यारे प्यारे बच्चों के पेरेंट्स की भरपूर उपस्थिति थी।उनमें भरपूर उत्साह था। एक हेल्दी और सकारात्मक वातावरण से पॉलिटेक्निक ऑडिटोरियम श्रोताओं की भरपूर उपस्थिति लिए हुए गुलज़ार हो उठा था। श्रीमती जागृति प्रभाकर मेडम , जो स्कूल संचालन में डायरेक्टर की भूमिका का निर्वहन करती हैं, उनके निर्देशन में विद्यालय के सम्मानित टीचर्स द्वारा बच्चों के माध्यम से जो प्रस्तुतियाँ करवायीं गईं,उन नृत्य कला की प्रस्तुतियों न

दिव्या विजय की कहानी: महानगर में एक रात, सरिता कुमारी की कहानी ज़मीर से गुजरने का अनुभव

■विश्वसनीयता का महासंकट और शक तथा संदेह में घिरा जीवन  कथादेश नवम्बर 2019 में प्रकाशित दिव्या विजय की एक कहानी है "महानगर में एक रात" । दिव्या विजय की इस कहानी पर संपादकीय में सुभाष पंत जी ने कुछ बातें कही हैं । वे लिखते हैं - "महानगर में एक रात इतनी आतंकित करने वाली कहानी है कि कहानी पढ़ लेने के बाद भी उसका आतंक आत्मा में अमिट स्याही से लिखा रह जाता है।  यह कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हम कैसे सभ्य संसार का निर्माण कर रहे जिसमें आधी आबादी कितने संशय भय असुरक्षा और संत्रास में जीने के लिए विवश है । कहानी की नायिका अनन्या महानगर की रात में टैक्सी में अकेले यात्रा करते हुए बेहद डरी हुई है और इस दौरान एक्सीडेंट में वह बेहोश हो जाती है। होश में आने पर वह मानसिक रूप से अत्यधिक परेशान है कि कहीं उसके साथ बेहोशी की अवस्था में कुछ गलत तो नहीं हो गया और अंत में जब वह अपनी चिंता अपने पति के साथ साझा करती है तो कहानी की एक और परत खुलती है और पुरुष मानसिकता के तार झनझनाने लगते हैं । जिस शक और संदेह से वह गुजरती रही अब उस शक और संदेह की गिरफ्त में उसका वह पति है जो उसे बहुत प्

समकालीन कहानी के केंद्र में इस बार: नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी। सारा रॉय की कहानी परिणय । विनीता परमार की कहानी : तलछट की बेटियां

यह चौथा आदमी कौन है? ■नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी नर्मदेश्वर की एक कहानी "चौथा आदमी" परिकथा के जनवरी-फरवरी 2020 अंक में आई थी ।आज उसे दोबारा पढ़ने का अवसर हाथ लगा। नर्मदेश्वर, शंकर और अभय के साथ के कथाकार हैं जो सन 80 के बाद की पीढ़ी के प्रतिभाशाली कथाकारों में गिने जाते हैं। दरअसल इस कहानी में यह चौथा आदमी कौन है? इस आदमी के प्रति पढ़े लिखे शहरी मध्यवर्ग के मन में किस प्रकार की धारणाएं हैं? किस प्रकार यह आदमी इस वर्ग के शोषण का शिकार जाने अनजाने होता है? किस तरह यह चौथा आदमी किसी किये गए उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ होता है ? समय आने पर किस तरह यह चौथा आदमी अपनी उपयोगिता साबित करता है ? उसकी भीतरी दुनियाँ कितनी सरल और सहज होती है ? यह दुनियाँ के लिए कितना उपयोगी है ? इन सारे सवालों को यह छोटी सी कहानी अपनी पूरी संवेदना और सम्प्रेषणीयता के साथ सामने रखती है। कहानी बहुत छोटी है,जिसमें जंगल की यात्रा और पिकनिक का वर्णन है । इस यात्रा में तीन सहयात्री हैं, दो वरिष्ठ वकील और उनका जूनियर विनोद ।यात्रा के दौरान जंगल के भीतर चौथा आदमी कन्हैया यादव उन्हें मिलता है जो वर्मा वकील स

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

हिंसा की जमीन पर शांति की तलाश : साहित्यिक कहानियों की दुनिया और पटाखा फ़िल्म

जब किसी मुद्रित कहानी पर फिल्म बनती है और वह पर्दे पर आकार लेती है तो मुद्रित कहानी और फिल्म में बदलाव अवश्यंभावी हो जाता है ।कहानी पाठकीय मनोभावों और वैचारिक जरूरतों के मद्देनजर लिखी जाती है जिस पर लेखक का एकाधिकार होता है पर जब वही कहानी फिल्म का आकार ग्रहण करती है तो उसे बाजार की जरूरतों के अनुसार अपने भीतर बहुत कुछ समाहित करना होता है । कहानी का शीर्षक 'दो बहनें' से पटाखा में बदल जाने की घटना को भी हम इसी संदर्भ में देख सकते हैं । राजस्थान के मित्र चरण सिंह पथिक जी की कहानी जो छह सात वर्ष पूर्व समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हुई थी ,उस पढ़ी हुई कहानी के अंश अभी भी जेहन में हैं और जब इस फिल्म को देखकर लौटना हुआ तो कहानी और फिल्म में हुए आंशिक बदलाव को भी देखने समझने का अवसर हाथ लगा। करीब 25-30 साल पहले जब प्रेमचंद की कहानियों पर किरदार और तहरीर जैसे सीरियल के रूप में लघु फिल्म बने और उनका दूरदर्शन पर प्रसारण किया गया तब भी उन्हें बहुत गौर से मैंने देखा था। चूँकि वे छोटे-छोटे आधे घण्टे की फ़िल्म हुआ करती थीं और बाजार की जरूरतों के बजाए दर्शकों की वैचारिक जरूरतों पर अधिक ध्

उनकी सबसे बड़ी खूबी है कि वे आपका विकल्प नहीं ढूंढते (किताब : प्रिय ओलिव)

■ क्या पेट्स हमें जीवन जीना सिखाते हैं पेट्स को लेकर अलग-अलग समय में अलग-अलग किस्म के अनुभव मेरे पास संचित होते रहे हैं । एक अनुभव का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी समझ रहा हूं । एक बार एक सज्जन आए थे मेरे घर । पढ़े लिखे हैं और स्कूल में व्याख्याता के रूप में उनकी तैनाती है। मेरे घर में पेट्स टोक्यो को देखकर कहने लगे कि घर में डॉगी कभी नहीं पालना चाहिए । घर में जितने भी पूजा पाठ होते हैं उनका फल इनके रहने से घर वालों को नहीं मिल पाता। कोई दीगर बात अगर वे करते, मसलन इस संदर्भ से जुड़ी परेशानियों का जिक्र करते तो बात हजम भी होती। उनकी बातें घोर अवैज्ञानिक बातें थीं और पेट्स के प्रति घृणा से भी भरी हुई थीं। अगर आपके जीवन में प्रेम है, आप लोगों से,अपने परिजनों से प्रेम करते हैं तो इस तरह किसी जानवर से घृणा नहीं कर सकते । उनकी बातें मुझे असंवेदनशील सी महसूस हुईं। उनके मन में पेट्स को लेकर एक किस्म का पूर्वाग्रह था जो बिना अनुभव के दूर नहीं हो सकता था ।पेट्स को पालने से कुछ परेशानियाँ जरूर होती हैं पर इसके बावजूद उनके प्रति घृणा का भाव उचित नहीं लगता। पेट्स हमारी संवेदना को जगाते हैं, पेट्स हमारी