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जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

'सुबह सवेरे' न्यूज मेगेज़ीन भोपाल एवं इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी: 'उम्मीद' ■रमेश शर्मा

■कहानी : उम्मीद  मनुष्य के जीवन में इतने प्रश्न हैं कि धरती इन प्रश्नों का भार उठाते हुए अपने एकांत में कराहती भी होगी । धरती का कराहना हम सुन नहीं पाते अन्यथा हम सुनकर चकित होते । संभव है करूणा से भर उठते । चारों तरफ प्रश्नों का एक झुण्ड है। घर के बाहर प्रश्न ,घर के भीतर प्रश्न। सोते-जागते हर समय प्रश्न ही प्रश्न । हालात ऐसे हो चुके कि कहीं टहलने निकलो तो भी प्रश्न पीछे दौड़ते चले आते हैं । लगता है जैसे उन्हें भी घर से बाहर निकल कर घूमना पसंद हो।  इस घटना को घटित हुए बहुत दिन नहीं हुए जब मिश्रा जी अपने डॉगी टोक्यो को साथ लेकर कालोनी की सूनी सडकों पर टहलने निकले थे । उस दिन उनके सामने मोहल्ले की एक लड़की बतियाते हुए अपनी ही रौ में बेसुध चली जा रही थी । उसकी बातचीत के दरमियान आवाज़ की तीव्रता कुछ इस कदर तेज थी कि सुनकर उन्हें याद आया....., एक प्रश्न दिमाग में उठने लगा .... इसका नाम कहीं भुलेनी तो नहीं? यह सोचकर ही मिश्रा जी के दिमाग में एक और प्रश्न घूमने लगा कि उन्हें आखिर कब और कैसे पता चला कि उसका नाम भुलेनी है? उन्होंने दिमाग में बहुत जोर डाला पर ऎसी कोई जानकारी चलकर उनके पास नहीं आ सक

जीवन के पूर्वाद्ध में घटी अच्छी बुरी घटनाओं से मुक्ति और नए रास्तों के पुनर सृजन का संदेश : गोविंद निहलानी की फ़िल्म दृष्टि

बहुत दिनों बाद 1990 में बनी गोविंद निहलानी की फ़िल्म "दृष्टि" दोबारा देखी। इस फ़िल्म को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला हुआ है । डिम्पल कपाड़िया और शेखर कपूर के किरदार, विवाह बन्धनों में बंधे मध्यवर्गीय भारतीय स्त्री-पुरूषों के जीवन की कहानियों को ही साफगोई से अभिब्यक्त करते हैं । स्त्री पुरूषों के पारिवारिक जीवन में घटित हो रही हर घटना/परिघटना को सही नजरिए और खुलेपन के साथ देख पाने की दृष्टि पर केंद्रित यह फ़िल्म वैवाहिक जीवन के एक विमर्श की तरह भी है जो मनुष्य की भीतरी दुनियाँ का खाका भी खींचकर सामने रखती है।  स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन में न जाने कितने उतार-चढ़ाव, अच्छे बुरे दिन आते जाते रहते हैं। संबंधों को बचाए रखने के लिए न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं।लड़ाई झगड़े ,प्रेम मोहब्बत , नोंक झोंक , मस्ती यायावरी जैसी न जाने कितनी बातें जीवन में होती हैं। ये सब जीवन के विविध रंग हैं जिनसे मिलकर जीवन आकार ग्रहण करता है। कोई भी फिल्म देखिये तो  जीवन के इतने सारे रंगों में से कुछ न कुछ रंग  फिल्म के भीतर दिखाई पड़ जाते हैं । दृष्टि फ़िल्म में भी स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन से जु

उदय प्रकाश की कहानी अंतिम नींबू बहुत कुछ कहना चाहती है

इंडिया टुडे के 10 जून 2020 अंक में उदय प्रकाश जी की कहानी अंतिम नींबू पढ़ने का अवसर मिला । कहानी थोड़ी लंबी जरूर है  पर यह अपनी रोचकता में, हर घड़ी बदलती नई-नई परिस्थितियों से उपजे नए नए रहस्यों में ,जो जिज्ञासा उत्पन्न करती है वह इस कहानी की खूबी है। तेजी से बदलती परिस्थितियों के बावजूद हर घटना एक दूसरे से जुड़ी रहकर  कहानी को  एक सूत्र में बांधे रखती है। कहानी में किस्सागोई की ताजगी है, साथ ही भाषाई कलात्मकता और घटित प्रसंगों का चमत्कार भी है। इस कोरोना काल में चीन के वुहान शहर से निकले वायरस का प्रसंग जिस अर्थ और रूप आकार में कहानी में ध्वनित होता है वह पाठक को चमत्कृत करता है। साथ ही विश्व की तमाम राजनीतिक परिस्थितियां ध्वनित होने लगती हैं। एक वायरस जो इन दिनों भाषा के भीतर, हिंसक लोगों के भीतर गाली गलौज के रूप में घुस गया है वह भी उतना ही खतरनाक है जितना की वुहान शहर से निकला वायरस । और यह वायरस जिससे भाषा दिनों दिन मर रही है यह राजनीति की ही देन है । कहानी के अंतिम पैराग्राफ को देखिए जहां सारी बातें स्पष्ट होने लगती हैं- "अगर आप कहीं विनायक दत्तात्रेय को कहीं मास्क लगाए भटकत

"जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की।आशुतोष को उनके शब्दों के साथ अलविदा..

  "जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की। आज भी यह बदस्तूर जारी है। लेकिन कभी निराश नहीं हुआ। सच तो यह है कि आज भी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। दुनिया के बदलने की, उसके आने की। जब भी चिड़ियों को तिनकों को चोंच में लेकर उड़ते देखता हूँ, बच्चों को किलकते देखता हूँ, लगता है मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। बड़ी उम्र की कमर झुकी वयस्का स्त्री को जब आज सुबह-सुबह काम पर निकलते देखा तो लगा दुनिया को बदलना ही होगा।" ये प्रोफेसर आशुतोष के आखिरी शब्द हैं । अपने मृत्यु के छः दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर यह लिखा था। इन शब्दों को पढ़कर ही उन्हें कुछ हद तक जाना समझा जा सकता है कि वे कितने संवेदनशील, कितने सुलझे हुए, कितने परिपक्व और चेतना संपन्न  इंसान थे।यह सब उन्होंने लिखने भर के लिए लिखा था, जैसा कि आजकल ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर करते हैं,ऐसा भी नहीं है। एक उम्रदराज और कमर झुकी बूढ़ी स्त्री को काम पर जाते हुए देखकर उन्हें भीतर से जो तकलीफ पहुंची  वही शब्दों के रूप में बाहर निकल कर आई। तब उस स्त्री क

पंकज स्वामी की कहानी गणितज्ञ, रश्मि शर्मा की कहानी : "और वही ख्वाहिश" देवेश पाथ सरिया की कहानी: लेनेट और वह तस्वीर , सोनल की कहानी चस्का पर कुछ टिप्पणियां

 ■पंकज स्वामी रचित एक नए कलेवर की कहानी "गणितज्ञ" ---------------------------------- पंकज स्वामी गम्भीर कथाकार हैं, पहल के सहायक संपादक भी रहे हैं। परिकथा जनवरी फरवरी २०२१ अंक में   उनकी कहानी "गणितज्ञ" पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा महसूस हो सकता है कि यह कहानी बहुत सहज और सरल कहानी है।कई बार ऐसा भी लग सकता है कि यह कहानी है भी या नहीं। पर कहानी जब खत्म हो जाती है तब उसका असर हमारे भीतर धीरे धीरे होने लगता है। दरअसल कुछ कहानियां विमर्श की मांग करती हैं । कुछ कहानियों पर बौद्धिक हो जाने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है। पर इन सबके बावजूद कहानी अपने डेस्टिनेशन पर जब पहुंचती है तो अपना समग्र प्रभाव मन पर छोड़ने लगती है। गणितज्ञ कहानी भी मेरी नजर में कुछ इसी किस्म की कहानी है जिसमें  गणितज्ञ और वैज्ञानिक परितोष कुमार के माध्यम से समाज के नजरिए को मापा गया है। समाज किस सतहीपन में जीता है यह कहानी उसे दमदारी से सामने रखती है। आज का यह समाज परितोष कुमार जैसे महान बुद्धिजीवी, गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक का सम्मान करना तो नहीं जानता पर उनके पुत्र रवि तोष कुमार जो कि एक प्रसिद्ध कोचिंग इंस्टि

अनघा जोगलेकर सीमा शर्मा और प्रीति प्रकाश की कहानियों पर टिप्पणियाँ और समाज की एक मैली सी तस्वीर

चित्र रानी दरहा करमागढ़ ■अनघा जोगलेकर की कहानी 'ऐ जमूरे! ..हाँ उस्ताद' पढ़ते हुए  ------------------------------------ हंस जून 2021 अंक में अनघा जोगलेकर की कहानी "ऐ जमूरे!... हाँ उस्ताद" पढ़कर उस पर कुछ लिखने के लिए कहानी के कथ्य ने एक तरह से मन को प्रोवोक किया। ऐसा तब होता है जब कोई कहानी अन्दर से हमें विचलित करने लगती है । दंगाई पृष्ठभूमि और उससे उपजे हालातों को बयाँ करती यह कहानी  कभी दंगा का सामना न करने वाले लोगों को भी उन दृश्यों के इतना निकट ले जाती है जैसे वे स्वयं भी उन दृश्यों के हिस्से हों । दंगाई हालातों और  कर्फ्यू के दरमियान किसी के दरवाजे पर मटके में पानी मांगने गयी कोई प्यासी अबोध बच्ची जब पुलिस की गोली का शिकार होकर सामने खून से लथपथ पड़ी हो  और आप उसके चश्मदीद हों तो आपकी भीतरी दुनियां में किस तरह के मानवीय संवेग पैदा होंगे ? उस पर पुलिस पिस्तौल तानकर  ये कहे  कि इस लड़की को मना किया गया था .... नहीं मानी ! अन्दर जाइए नहीं तो आपको भी इस लडकी की तरह  गोलियों से भून देंगे तब ?  कहानी मन के भीतर एक कशमशाहट पैदा करती है कि झुग्गियों से निकल कर पानी मांगने गय

प्रकृति के सुरक्षा गार्ड के रूप में लोक आस्था ■ करमागढ़ की यात्रा से जुड़ा संस्मरण

करमागढ़ की यात्रा : दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित यात्रा संस्मरण ■रमेश शर्मा ~~~~~~~~~~~~~~~~~ दुर्गा नवमी का दिन था। जगह जगह शहर के पंडालों में माँ दुर्गा विराजी हुई थीं । आज के दिन देवी दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ शहरों में बढ़ जाती है । ऐसे में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर की भीड़भाड़ से 25 किलोमीटर दूर करमागढ़ के घने जंगलों में बसन्त और ऋतु के साथ मैं और प्रतिमा भी शाम के लगभग 3 बजे यात्रा पर निकल पड़े । रास्ते में पालीघाट की घुमावदार हरी भरी पहाड़ियां मिलीं । पालीघाट की घुमावदार हरी भरी पहाड़ियों से गुजरते हुए मुझे बस्तर की केशकाल घाटी याद हो आयी। बस्तर की पहाड़ियों में जिस तरह ऊँचे ऊंचे ,घने ऊगे पेड़ बहुत पास-पास खड़े दिखाई देते हैं यहाँ भी वही नजारा दिखा । एकबारगी मुझे लगा कि मैं बस्तर के सुकमा और बीजापुर के जंगलों में आ गया हूँ । पाली घाट की पहाड़ियों के नीचे गहरी खाईयां और हरा भरा घना जंगल । समूचे दृश्य ने हमारा मन मोह लिया। पालीघाट से निकल कर हमारी कार और पंद्रह मिनट सड़क पर दौड़ती रही । कुछ समय बाद ही हम करमागढ़ में पहुँच गए थे ।  वहां भी रजवाड़ों के समय से माँ दुर्गा का प्राचीन मं

गांधी दर्शन युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे

  साहित्य की आँखों से गांधी दर्शन को समझना   --  रमेश शर्मा  ---------------------------------------------- गांधी के जीवन दर्शन को लेकर जब भी बातचीत होती है तो हम उसे बहुत सैद्धांतिक, परम्परागत और सतही तरीके से आज की पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं । और बात चूंकि बहुत सैद्धांतिक और परम्परागत होती है, इसलिए आज की पीढ़ी उसे उस तरह आत्मसात नहीं करती जिस तरह से उसे किया जाना चाहिए ।   दरअसल गांधी के जीवन दर्शन को लेकर सैद्धांतिक और किताबी चर्चा न करके अगर हम उनकी जीवन शैली को लेकर थोड़ी प्रेक्टिकल बातचीत करें तो मेरा अपना मानना है कि उनके जीवन दर्शन को नयी पीढ़ी तक हम थोड़ा ठीक ढंग से संप्रेषित कर पाएंगे।   गांधी जी की जीवन शैली की मुख्य मुख्य बातों को भी हमें ठीक ढंग से समझना होगा। दरअसल गांधी दर्शन का जिक्र जब भी होता है तो सत्य, अहिंसा, करूणा, दया, प्रेम, त्याग, धार्मिक-सौहाद्र इत्यादि जो बातें हैं वो उठने लगती हैं । इन बातों पर जब हमारी नजर जाती है तो हमें लगता है कि गांधी जी बहुत आदर्शवादी थे और उनके आदर्श को आत्मसात कर पाना संभव नहीं है । जबकि ऐसा नहीं है । भले ही गांधी बाहर से बह