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कहानी संग्रह "उस घर की आंखों से" की समीक्षा- बसंत राघव

युवा लेखक कवि  बसंत राघव छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर में रहते हैं । उनके पिता स्व. डॉ बलदेव जो एक प्रसिद्ध लेखक रहे और अपने लेखन के माध्यम से साहित्य जगत को जाते जाते बहुत कुछ दे गए, की उस परंपरा को बसंत राघव बखूबी निभा भी रहे हैं। वे रचनात्मक लेखन के लिए लगातार फेसबुक में सक्रिय रहते हैं।  सबलोग, संवेद, जनचौक,समता मार्ग जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उनके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं।मुद्रित पत्रिकाओं की बात करें तो परिकथा, रचना उत्सव,मानवी,  सुसंभाव्य, देशबन्धु जैसी पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेख एवम उनकी रचनाएं निरंतर प्रकाशित भी होती आ रही हैं।



उन्होंने कहानी संग्रह 'उस घर की आंखों से' पर एक समीक्षकीय टिप्पणी लिखी है जो हाल ही में परिकथा के नए अंक मार्च अप्रैल 2023 में प्रकाशित हुई है।


मनुष्यता को हर हाल में बचाए रखने की मुहिम 

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रमेश शर्मा के अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। "उस घर की आँखों से" उनका तीसरा कहानी संग्रह है। इसमें छोटी-बड़ी करीबन अठारह कहानियां संग्रहित हैं। अधिकांश कहानियों का रचना समय 2020-2021 है। कहानियों का वातावरण देश काल से उपजी वर्तमान समय की बिषम परिस्थितियों से नाभिनाल बद्ध है।

निर्मम होता समय,निर्मम होती मनुष्यता, निर्मम होती राजनीति के बीच कोरोना काल से उपजी पीड़ा का मार्मिक चित्रण ज्यादातर कहानियों में हुआ है। मर्मस्पर्शी चित्रों से सराबोर संग्रह की कहानियां हमें सोचने को मजबूर करती हैं | कहना न होगा कि मानवीय मूल्यों के इस ह्रास का कारण तलाशने और हमारे अन्दर मर रही मनुष्यता को एक बार फिर से जगाने की कहानीकार की विनम्र कोशिश इस संग्रह के माध्यम से हम तक पहुँचती है। इससे पूर्व उनका पहला कहानी संग्रह "मुक्ति" और दूसरा कहानी संग्रह " एक मरती हुई आवाज" भी काफी चर्चित रहे हैं एवं पाठकों द्वारा सराहे गये हैं । उनके इस तीसरे कहानी संग्रह का शीर्षक " उस घर की आँखों से" पाठकों के मन में कौतूहल पैदा करता है और पढ़ने के लिए अपनी ओर आकर्षित भी करता है।



यह कहानी जीवन में व्याप्त सुख और दुःख के बीच चीजों को देखने के नजरिये पर केन्द्रित है | सुख में जो चीजें अच्छी लगती हैं , जीवन में दुःख का समावेश होने पर कई बार वही चीजें तकलीफ पहुंचाने लगती हैं | सुखनाथ के घर से समुद्र को देखने का जो सुख है वही सुख सुखनाथ के समुद्र में डूब जाने पर उसकी पत्नी के लिए तकलीफ देह है | यह कहानी जीवन के इस कठोर दर्शन से रूबरू कराती है| कथा लेखन के क्षेत्र में किसी कथाकार के जीवन से जुड़ी उसकी खुद की पृष्ठभूमि का भी एक अहम् रोल होता है | जहां तक मैं जानता हूँ , अपनी घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण रमेश शर्मा को गांव, शहर और महानगरों से जुड़ी जीवन शैली का पर्याप्त अनुभव है। गांव में जन्म लेकर युवावस्था तक वहां जीवन गुजारना और फिर शहर आकर नौकरी करना उनके अनुभव को विस्तार देते हैं | यह विस्तार उनके भीतर के कथाकार को समृद्ध करता है | इस अनुभविक विस्तार के कारण उनकी कहानियों में भिन्न भिन्न लोगों के बीच रिश्तों का जो भूगोल है, उसकी व्यापकता को एक बड़ा स्पेस मिलता है | कोरोना को हम सबने बहुत करीब से देखा है और जिया भी है, ऐसे में कहानीकार का संवेदनशील मन इनसे अछूता कैसे रह सकता है। साम्यवादी और प्रगतिशील विचारधारा के करीब होने के कारण रमेश शर्मा की कहानियों के कथ्य समसमायिक त्रासदपूर्ण घटनाओं के भी अत्यंत करीब हैं।उनकी कहानियों में कपोल कल्पनाओं के पंख नहीं हैं बल्कि वास्तविकता से जूझने की ललक उनमें अधिक है। रमेश शर्मा की कहानियों के पात्रों में मनोविश्लेषणात्मकता एवं यथार्थपरकता दोनों साथ साथ चलती हैं।

उनकी कहानियों के पात्र हमारे आसपास के ही हाड़-मांस से बने साधारण लोग हैं, जिनका देश के राजनीतिक सामाजिक बदलाव से गहरा सरोकार है। संग्रह की कहानियों की घटनाएं हमें वर्तमान को और करीब से जानने पहचानने का अवसर प्रदान करती हैं। उनकी कहानियां तेजी से बदलते परिवेश,और उससे उपजी हुई समस्याओं को पाठकों के सम्मुख बड़े ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं। आज के युवाओं का राजनीति की ओर अत्यधिक झुकाव को हम कतई सही नहीं ठहरा सकते।

नारेबाजी, झंडे, बैनर हिंसक आंदोलन से युवाओं की प्रतिभा का ह्रास स्वभाविक है, राजनेता इन्हें एक टूल्स की तरह प्रयोग में लाते हैं। कथाकार की चिंता के मूल में यह बात दिखाई देती है ।कथाकार अपनी कहानी "सोमेंद्र बहादुर उर्फ एस बी की हवाई यात्रा" के माध्यम से युवाओं को राजनीति में अंधभक्ति से दूर रहने की सीख देते नजर आते हैं। उनका मानना है " राजनीति तो बस मौकों का खेल है।" उनकी कहानियों में जीवन राग, मानव संघर्ष, अधूरा प्रेम,अतृप्त इच्छाएं, स्वाभिमान ,मानवीय मूल्य ,नशा और आधुनिकता से उपजी स्वार्थपरता ,स्त्री-पुरूष के जटिल होते संबंध, शिक्षा जिसमें संस्कार कम अर्थोपार्जन पर ज्यादा जोर देती अंग्रेजी शिक्षा के विरोध का स्वर, इत्यादि बिषय कथ्य के रूप में मुखरित हुए हैं । उनकी कहानियों में जनविरोधी सरकारों की नाकामयाबी, उनकी जुमलेबाजी और मीडिया के साथ गठजोड़ कर जनता को झूठे सपने दिखाने से उपजी घटनाओं का एक मार्मिक आख्यान है जो पाठकों को सोचने पर मजबूर कर सकती है | संग्रह की कहानियों 'रिजवान तुम अपना नोट बुक लेने कब आओगे?', 'मृत्यु का श्राप',और 'जैसे किसी ने उसके प्रेम की हत्या कर दी हो' में कोरोना काल से उपजा दुःख और एकान्तिक अवसाद ही नहीं, सरकार की नाकामियों के कारण ऑक्सीजन की कमी से मरते हुए लोग, लॉकडाउन से हजारों-हजार पलायन करते मजदूरों की तकलीफें, बेरोजगार हो चुके युवा, नौकरी में बचे हुए लोगों को अपनी नौकरी जाने का रात दिन का डर ,व्यापार में घाटे से व्यापारी व्दारा आत्महत्या करने की घटना , मरा हुआ शासन-प्रशासन और मरी हुई सरकारों का सम्पूर्ण लेखाजोखा दर्ज है जो हमारी आँखों के सामने हौलनॉक दृश्य रचता है ।

ये दृश्य जीवन की वास्तविकताओं के इतने करीब हैं कि मन को काल्पनिकता के भाव छू ही नहीं पाते |रमेश शर्मा का उद्देश्य खाली कहानी लिखना भर नहीं है, वे समय के बदलते परिवेश में जन्मी समस्याओं को रेखांकित कर उसके समाधान की दिशा में एक चेतना का संचार करते हुए भी नजर आते हैं । उनके इस उद्यम से कहानियों की लयात्मकता या गति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी कहानियां हमें आने वाले बेहतर समय के लिए आश्वस्त करती हैं। इस संग्रह की कहानियों के माध्यम से वे एक ऐसे अन्वेषी कथाकार के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं जिनको आम लोगों के दुःख-दर्द और समस्याओं की चिंता हमेशा बनी रहती है।

उनकी कहानियों के पात्रों की भीतरी दुनियां में मानवीय दुर्बलताएं, दुःख-दर्द, नैतिकता, डर, अधूरे प्रेम की कश्मकश, एवं कर्तव्यबोध जैसे सभी मानवीय घटक विद्यमान हैं। कुलमिलाकर उनकी कहानियां वर्तमान समय और समाज की त्रासदी से उपजी कभी न खत्म होने वाली पीड़ा के दस्तावेज हैं । चरित्र-चित्रण के नजरिए से उनकी कहानियां स्वाभाविक, चित्रात्मक बन पड़ी हैं। संवाद की दृष्टि से देखें तो संग्रह की कहानियों में संवाद योजना पात्रानुकूल, संक्षिप्त एवं कथा को आगे बढाने में सहायक हैं ।

दिलचस्प संवादों के कारण कहानियां मारक बन गयी हैं। यहां पर एक उदाहरण देखिए.... *"टीवी मत देखा करो सर! टीवी में बुनियादी मुद्दों से भटकाने वाली बातें प्लांट होकर अधिक आ रही हैं।

टीवी खोलो कि वही लव जेहाद, हिन्दू मुस्लिम, फलाना-ढिकाना!"( कहानी : वह उस्मान को जानता है) * ये सरकार भी कितनी गंदी है,छीः ! इस पंक्ति को एक ग्यारह साल की बच्ची ने अपने नोटबुक में गणित, भाषा और विज्ञान की जगह चस्पा कर दिया था।" (कहानी :रिजवान तुम अपना नोटबुक लेने कब आओगे?) *"नींद के साथ -साथ देह को तो और भी चीजों की जरूरत पड़ती है। मसलन नींद,भोजन,... और भी बहुत कुछ!

सारी चीजें एक साथ गुथीं हुईं नहीं लगती तुम्हें।"(कहानी : तोहफे में मिली थोड़ी सी नींद) *" अब तो दो करोड़, तीन करोड़, पाँच करोड़...इनसे ही परिभाषित होने लगे हमारे घर! कितना कुछ बदल गया इन बीस सालों में! प्रेम और रिश्तों की खुश्बू न जाने कहाँ उड़ गए। हम मिले भी तो घर की एक नयी परिभाषा के साथ!

कहते- कहते सिरी की आँखें एकाएक नम हो उठीं!( कहानी : घर) रमेश शर्मा की कहानियां आज की कहानियां हैं इसलिए उनकी भाषा में आधुनिक शब्द विन्यास वातावरण को जीवंत कर देते हैं। कहानियों की भाषा प्रांजल, सरल, भावानुकूल, एवं व्यावहारिक है। संग्रह में अंग्रेजी एवं तकनीकी शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया गया है। कहानी के भाषा शिल्प की दृष्टि से देखें तो उनकी भाषा शैली समकालीन कहानियों की भाषा शैली की तरह ही समर्थ,रोचक और संप्रेषण कला से युक्त है।

संग्रह की पहली कहानी " वह उस्मान को जानता है" एक मनुष्य के अपनी ही दुनियां के भीतर सिमट कर रह जाने की कथा है- " राघव आज के औसत आदमी का प्रतिनिधित्व करता है। वह कम्पनी के लिए मुनाफे का मशीन है, जिसे हमेशा अपनी नौकरी चले जाने का डर सताता रहता है। छुट्टी का दिन है, बच्चे बाहर घूमने की जिद्द कर रहे हैं, तभी दरवाजे में किसी 93 नंबर वाली पड़ोस की मेहजबीन की दस्तक होती है। राघव और उसकी पत्नी दोनों हैरान और परेशान हो जाते हैं।

गुलाब के पौधे को देखकर उसे याद आने लगता है कि आफिस के गनीराम ने गीली मिट्टी और प्लास्टिक की पन्नी में गुलाब का एक पौधा उसे दिया था, और राघव ने अपने बच्चे के जन्मदिन पर उसे गमले में रोपा था। राघव को आज अचानक उस गुलाब को देखकर गनीराम और उसकी बेटी की याद हो आती है, कैसे उसकी बेटी के साथ तेज बारिश में रास्ते में गैंगरेप हुआ था, कैसे गनीराम की बर्बरता पूर्ण हत्या कर दी गई थी । उस्मान एक ऐसा पात्र है जो पत्रकारिता के पेशे को पूरी ईमानदारी के साथ करता है और एक मनुष्यता की मिसाल पेश करता है। उस्मान की रिपोर्टिंग और सक्रियता की वजह से दोषियों को सजा मिलती है।

गुलाब के उन जिंदा फूलों ने राघव के भीतर मर चुकी कई कई चीजों को आज फिर से जिंदा कर दिया था। क्या कभी उसने सोचा कि गनीराम और उसकी बेटी के मर जाने के बाद गनीराम की अकेली पत्नी का क्या हुआ? कभी उससे मिलकर उसकी सुध लेने की कोशिश की ? जो गनीराम राघव के घर परिवार की खैर-खबर उससे नित्य पूछ लेता था, क्या उसके भलमनसाहत का कभी ख्याल आया।

उस्मान से भी तो वह दोबारा मुलाकात नहीं कर सका । वह छत पर से दूर-दूर तक नजर फेरता है, उसे जले हुये घर दिखाई देते हैं । उसमें से एक घर उस्मान का भी है जिसे वह जानता पहचानता है। थोड़ी देर बाद वह फिर स्वार्थी होने लगता है, सोचने लगता है अपने छुट्टी का दिन भला कौन बर्बाद करे..।

वह तेजी से छत की सीढ़ियां उतरने लगता है।पड़ोस की महजबीन जा चुकी है।कहानी का अन्त और चरमोत्कर्ष कहानी के केन्द्रीय पात्र के व्दारा अपने मनुष्य होने पर उस समय ज्यादा शर्म महसूस करने लगता है, जब पत्नी के व्दारा,हिन्दू मुस्लिम दंगे में उस्मान के मौत की खबर सुनता है। दूसरी कहानी " रिजवान तुम अपना नोटबुक लेने कब आओगे'?" कोरोना त्रासदी से उपजी घटनाओं का मार्मिक चित्रण है। इसमें पलायन करते मजदूरों का छोटी बच्ची सुम्मी के जीवन के माध्यम से मार्मिक चित्रण है। कोरोना काल में सरकार की नाकामयाबी, पलायन करते मजदूर, कोरोना से माँ की मौत, क्वारेंटाइन सेंटर में सांप के काटने से पिता की मौत के बाद, अनाथ हुई 11 वर्षीया सुम्मी के व्दारा झोपड़ीनुमा गुमटी में बर्तन मांजने जैसी घटना और उसकी डायरी में लिखी बातें हमें अन्दर से झकझोर कर रख देती हैं ।

सुम्मी की डायरी के माध्यम से यह दारुण कथा कई सवाल छोड़ जाती है | तीसरी कहानी"तोहफे में मिली थोड़ी सी नींद" स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलताओं पर केंद्रित है । देह को नींद की जरूरत होती है, और नींद को देह की। लेकिन नींद तो मन से आती है।दिमाग नींद को पास आने नहीं देता। कहानी में स्त्री की अतृप्त इच्छाओं की पड़ताल की गई है।

मिसेस नौटियाल गांव से शादी होकर रायपुर शहर आती है,सच्चे प्रेम और सहानुभूति के अभाव में वह अन्दर ही अन्दर अपने भीतर कहीं गुम होने लगती है। पति पर स्त्री का आदी है,वह अक्सर देर रात घर वापस आता है, मिसेस नौटियाल अपने को नितांत अकेली महसूस करती है, उसकी देह की भूख की व्याकुलता उसे रात-रात भर सोने नहीं देती । वह आधी रात को घर से निकल कर पास ही के मैदान के एक कोने में अकेली बैठी रहती है। उसके अपार्टमेंट के वॉचमेन और मैदान पर स्थित शैक्षिक अनुसंधान परिषद के वॉचमेन उसे टकटकी लगाए देखते रहते हैं।

एक रात बारिश से बचने के लिए मिसेज नौटियाल अनुसंधान परिषद के मेन गेट की ओर दौड़ पड़ती है, उसे देखकर ,न चाहते हुए भी वहां का वॉचमेन मेन गेट का दरवाजा खोल देता है और अपने छः बाई छः की खोली में मिसेस नौटियाल को बैठने के लिए अपनी प्लास्टिक की कुर्सी देकर स्वयं वहीं जमीन पर उकड़ू बैठ जाता है। वॉचमेन परिवार वाला है, परिवार से दूर रहकर भी वह परिवार के प्रति अपनी जवाबदेही को अच्छी तरह समझता है। बातों बातों में मिसेस नौटियाल की दिलचस्पी वॉचमेन की ओर बढ़ने लगती है। मिसेस नौटियाल को वॉचमेन की बातों में प्रेम की अनुभूति होती है।

इस मीठी सी, चाहे -अनचाहे संवाद के बाद वॉचमेन की उस नजर के भार को मिसेस नौटियाल अपने मन और अपनी देह पर अपने जीवन के बचे हुए दिनों मे हमेशा महसूस करती रहीं! पता नहीं उस नजर में ऐसा क्या था कि उसने मिसेस नौटियाल को उनके जीवन के बाकी बचे हुए दिनों के लिए थोड़ी सी नींद तोहफे में दे दी थी।इस कहानी की सम्प्रेषणीयता जबर्दस्त है। कहानी 'जो फिर कभी नहीं लौटते' एक आत्मकेंद्रित, स्वार्थी, एवं कर्त्तव्य विमुख पति/पिता की कहानी है जो अपनी पत्नी का तो परित्याग कर ही चुका है साथ ही साथ अदालती आदेश के बावजूद वह अपनी बेटी से भी किसी तरह पिंड छुडाना चाहता है और वह इसमें कामयाब भी हो जाता है | आज के समय में रिश्तों के बीच जन्मी संवेदनहीनता का चरम उत्कर्ष इस कहानी में दिखाई पड़ता है जो सोचने को विवश करता है | " अधूरी बातचीत "कहानी अत्यंत संवेदनशील होने के कारण पाठकों के अन्तःस्थल में अपनी अमिट छाप छोड़ती है।इसमें कोविड वार्ड में एक डॉक्टर के अन्दर परिवार से सदा के लिए दूर होने का डर तो है ही इसमें दो पात्र ऐसे भी हैं जिनकी मृत्यु कोविड से हो जाती है । हॉस्पिटल के कमरे में रखी दो लाशें आपस में बातें कर रही हैं | लाश नं.

एक ( पुरूष )कहने लगता है - "मैं जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जाता था, पर मरने में समय से पहले ही मेरा नंबर आ गया।" उसे इस बात का अफसोस है कि वह जरूरी काम समय पर नहीं कर सका, और कल पर टालता रहा। लाश नं. दो (पुरूष) को चिंता है कि उसके नहीं होने पर डिलीवरी के समय उसकी पत्नी को डॉक्टर के पास कौन ले जाएगा? वह बच्चा भी कितना अभागा है बेचारा, बाप का चेहरा भी नहीं देख पाया।

बच्चे को लेकर देखे गये उन सपनों का क्या होगा? "घर" शीर्षक अक्षत और सिरी की अधूरी प्रेम कहानी है।दोनों बीस साल बाद अचानक राजस्थान के जयपुर के मानसरोवर के पॉश एरिया में मिलते हैं |दोनों के पास मंहगी-मंहगी कारें हैं । अक्षत के व्दारा घर के बारे में पूछे जाने पर सिरी भावुक हो जाती है। वह अक्षत को बताती है कि उसके पास भी अक्षत की तरह कई शहरों में अलग-अलग महंगे मकान तो हैं, लेकिन उसके बावजूद वह नाखुश है और अपने को नितांत अकेली महसूस करती है।वह अक्षत से यह भी कहने से नहीं चूकती ' याद है अक्षत!

हम दोनों ने मिलकर एक सपना देखा था, कभी उस सपने में ईट गारों की जगह प्रेम और रिश्तों की खुशबू से उस घर की दीवारें खड़ी होनी थी, कितना सुंदर सपना था वह! लबालब प्रेम से भरा हुआ। अक्षत उदास होकर सिरी से कहता है, सिरी अमीरी में जीवन बिताना तुम्हारा सपना रहा, और यही हमारे अलग होने का कारण बना। मैं भी तुम्हें ठीक से विश्वास नहीं दिला सका कि आगे चलकर मैं तुम्हें वह जीवन दे सकता हूँ, मेरी हिम्मत नहीं हुई।

उस वक्त मुझे लगता था कि अमीर बनना दुनिया में कितना कठिन काम है। सचमुच आज लगता है घर की वह परिभाषा कहीं गुम हो गयी है सब कुछ सपना बनकर रह गया है । दोनों अन्त में भावुक हो जाते हैं। लेकिन नैतिकता और कर्तव्य बोध उन्हें एक बार फिर एक नहीं होने देता।

इन कहानियों का रसास्वादन आप इन कहानियों को आद्योपांत पढ़कर ही कर सकते हैं। "खाली जगह" इस संग्रह की सबसे उत्कृष्ठ कहानी है, शिल्प और भाषा दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठतम। कहानी में गरीब पिता रामेश्वर की बेटी फूलमती... का समय और पैसे के अभाव के कारण उचित इलाज नहीं हो पाता और उसकी मौत हो जाती है, कहानी इतनी मार्मिक बन पड़ी है कि पाठक गण अपने आंसू नहीं रोक पाते | भाषायी सौंदर्य और शब्दचित्र के कारण गद्य का लालित्य कहानी को अप्रतिम और संग्रहणीय बना देता है।

इस कहानी में इमरजेंसी फीस के रूप में अधिक रकम लेकर पेशेंट को देखने की जो एक नयी परम्परा विकसित हुई है उसका जिक्र है | इस परम्परा का शिकार गरीब लोग होते हैं जिनके पास इमरजेंसी फीस के लिए पैसे नहीं होते और उनका समय पर इलाज नहीं हो पाता | "राजा की बारात" कहानी एक ही भावभूमि पर दो अलग अलग कहानियों को साथ जोड़कर लिखी गयी है, एक कहानी पिता की है जो पुलिस विभाग में होने के बावजूद स्वभाव से मुलायम और इंसानियत पर विश्वास रखता है। लेकिन उसे अपनी इंसानियत की भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है।दूसरी कहानी बेटी की है जो अपने जाँघों की हड्डियों के दर्द से पीड़ित है जिसे अपने इलाज से ज्यादा अपने बचपन के घनिष्ठ दोस्त से मिलने की बेताबी है लेकिन इन सबके बीच राजा की बारात है। यह कहानी "राजा की बारात" से उपजी समस्याओं से हमें रुबरु कराती है। बेनर-पोस्टर, टेंट लगाने के चक्कर में कई दिनों तक शहर की बिजली चली जाती है ,शहर के सड़कों पर आनेजाने में बंदिशें लगाई जाती हैं ।

भले ही कोई जरूरत मंद व्यक्ति गन्तव्य तक समय पर न पहुंच पाये, या फिर कोई मरीज अस्पताल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दे, परीक्षार्थी परीक्षा से वंचित रह जाएं , इससे राजा (मुख्य मंत्री जी) को कोई फर्क नहीं पड़ता। एस.पी और डी.एम का सख्त निर्देश रहता है कि जब मुख्यमंत्री का काफिला गुजरे तो एक परिंदा भी सड़क के ऊपर से न गुजरने पाए। लेकिन एक जरूरतमंद बीमार बूढ़े को अस्पताल तक जाने देने के दया भाव की कीमत पुलिस पिता को अपनी नौकरी की बर्खास्तगी से चुकानी पड़ती है। उसी तरह उसकी लड़की जो डाँ निंशात को मन ही मन पसंद भी करती है ,जिससे बहुत दिनों बाद इलाज के बहाने वह मिलना भी चाहती है पर उसके मिलने की तमन्ना एवं इलाज की जरुरत भी मुंख्यमंत्री के काफिले और जिंदाबाद के नारों में दम तोड़ देती है।

"रुतबे की दीवार "कहानी अफसरशाही के ऊपर करारा तंज हैं। कैसे कोई व्यक्ति अफसर बन जाने के बाद अपने आसपास रुतबे की दीवार खड़ा करता है, अपने अधीनस्थ महिला कर्मचारियों पर बुरी नजर रखता है, रिश्वतखोरी को अपना धर्म समझता है। वहीं रिटायर्ड होने के वक्त अपने खड़े किये गए रुतबे की दीवार के ढह जाने से अपने को नितांत अकेला, उपेक्षित, छोटा और हताशा के भाव से भर जाता है, उद्देश्य की दृष्टि से कहानी पूर्ण रूप से सफल है। रमेश शर्मा की कहानियों से गुजरते हुए हमें महसूस होता है कि हम अपने ही किन्हीं पुराने अनुभवों से गुजर रहे हैं ।

संग्रह की सभी कहानियों का उद्देश्य एक ही है... मनुष्यता को हरहाल में बचाए रखना! इस तरह संग्रह की कहानियां एक दूसरे से गुंथी हुई अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ती हैं। 

कहानी संग्रह : उस घर की आँखों से लेखक : रमेश शर्मा प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, c-515, बुद्ध नगर, इन्द्रपुरी, नयी दिल्ली मूल्य : 150 रूपये

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बसन्त राघव (युवा कवि एवं समीक्षक) मकान न.30, पंचवटी नगर, बोईरदादर, कृषि फार्म रोड़ रायगढ़ (छत्तीसगढ़) मो. 8319939396

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गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

प्रीति प्रकाश की कहानी : राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए

प्रीति प्रकाश की कहानी 'राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए' को वर्ष 2019-20 का राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है, इसलिए जाहिर सी बात है कि इस कहानी को पाठक पढ़ना भी चाहते हैं | हमने उनकी लिखित अनुमति से इस कहानी को यहाँ रखा है | कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि यह कहानी एक संवेदन हीन होते समाज के चरित्र के दोहरेपन, ढोंग और उसके एकतरफा नजरिये को  किस तरह परत दर परत उघाड़ती चली जाती है | समाज की आस्था वायवीय है, वह सच के राम जिसके दर्शन किसी भी बच्चे में हो सकते हैं  , जो साक्षात उनकी आँखों के सामने  दीन हीन अवस्था में पल रहा होता है , उसके प्रति समाज की न कोई आस्था है न कोई जिम्मेदारी है | "समाज की आस्था एकतरफा है और निरा वायवीय भी " यह कहानी इस तथ्य को जबरदस्त तरीके से सामने रखती है | आस्था में एक समग्रता होनी चाहिए कि हम सच के मूर्त राम जो हर बच्चे में मौजूद हैं , और अमूर्त राम जो हमारे ह्रदय में हैं , दोनों के प्रति एक ही नजरिया रखें  | दोनों ही राम को इस धरती पर उनकी जन्म भूमि  मिलनी चाहिए, पर समाज वायवीयता के पीछे जिस तरह भाग रहा है, उस भागम भाग से उपजी संवेदनहीनता को

कोइलिघुगर वॉटरफॉल तक की यात्रा रायगढ़ से

    अपने दूर पास की भौगौलिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानने समझने के लिए पर्यटन एक आसान रास्ता है । पर्यटन से दैनिक जीवन की एकरसता से जन्मी ऊब भी कुछ समय के लिए मिटने लगती है और हम कुछ हद तक तरोताजा भी महसूस करते हैं । यह ताजगी हमें भीतर से स्वस्थ भी करती है और हम तनाव से दूर होते हैं । रायगढ़ वासियों को पर्यटन करना हो वह भी रायगढ़ के आसपास तो झट से एक नाम याद आता है कोयलीघोघर! कोयलीघोघर ओड़िसा के झारसुगड़ा जिले का एक प्रसिद्द पिकनिक स्पॉट है जहां रायगढ़ से एक घंटे में सड़क मार्ग की यात्रा कर बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है । शोर्ट कट रास्ता अपनाते हुए रायगढ़ से लोइंग, बनोरा, बेलेरिया होते ओड़िसा के बासनपाली गाँव में आप प्रवेश करते हैं फिर वहां से निकल कर भीखमपाली के पूर्व पड़ने वाले एक चौक पर जाकर रायगढ़ झारसुगड़ा मुख्य सड़क को पकड लेते हैं। इस मुख्य सड़क पर चलते हुए भीखम पाली के बाद पचगांव नामक जगह आती है जहाँ खाने पीने की चीजें मिल जाती हैं।  यहाँ के लोकल बने पेड़े बहुत प्रसिद्द हैं जिसका स्वाद कुछ देर रूककर लिया जा सकता है । पचगांव से चलकर आधे घंटे बाद कुरेमाल का ढाबा पड़ता है , वहां र

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज  ■रमेश शर्मा ------------------------------------------------------------- इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का

परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है। उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में