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समकालीन कहानी के केंद्र में इस बार: नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी। सारा रॉय की कहानी परिणय । विनीता परमार की कहानी : तलछट की बेटियां

यह चौथा आदमी कौन है? ■नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी नर्मदेश्वर की एक कहानी "चौथा आदमी" परिकथा के जनवरी-फरवरी 2020 अंक में आई थी ।आज उसे दोबारा पढ़ने का अवसर हाथ लगा। नर्मदेश्वर, शंकर और अभय के साथ के कथाकार हैं जो सन 80 के बाद की पीढ़ी के प्रतिभाशाली कथाकारों में गिने जाते हैं। दरअसल इस कहानी में यह चौथा आदमी कौन है? इस आदमी के प्रति पढ़े लिखे शहरी मध्यवर्ग के मन में किस प्रकार की धारणाएं हैं? किस प्रकार यह आदमी इस वर्ग के शोषण का शिकार जाने अनजाने होता है? किस तरह यह चौथा आदमी किसी किये गए उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ होता है ? समय आने पर किस तरह यह चौथा आदमी अपनी उपयोगिता साबित करता है ? उसकी भीतरी दुनियाँ कितनी सरल और सहज होती है ? यह दुनियाँ के लिए कितना उपयोगी है ? इन सारे सवालों को यह छोटी सी कहानी अपनी पूरी संवेदना और सम्प्रेषणीयता के साथ सामने रखती है। कहानी बहुत छोटी है,जिसमें जंगल की यात्रा और पिकनिक का वर्णन है । इस यात्रा में तीन सहयात्री हैं, दो वरिष्ठ वकील और उनका जूनियर विनोद ।यात्रा के दौरान जंगल के भीतर चौथा आदमी कन्हैया यादव उन्हें मिलता है जो वर्मा वकील स

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

हिंसा की जमीन पर शांति की तलाश : साहित्यिक कहानियों की दुनिया और पटाखा फ़िल्म

जब किसी मुद्रित कहानी पर फिल्म बनती है और वह पर्दे पर आकार लेती है तो मुद्रित कहानी और फिल्म में बदलाव अवश्यंभावी हो जाता है ।कहानी पाठकीय मनोभावों और वैचारिक जरूरतों के मद्देनजर लिखी जाती है जिस पर लेखक का एकाधिकार होता है पर जब वही कहानी फिल्म का आकार ग्रहण करती है तो उसे बाजार की जरूरतों के अनुसार अपने भीतर बहुत कुछ समाहित करना होता है । कहानी का शीर्षक 'दो बहनें' से पटाखा में बदल जाने की घटना को भी हम इसी संदर्भ में देख सकते हैं । राजस्थान के मित्र चरण सिंह पथिक जी की कहानी जो छह सात वर्ष पूर्व समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हुई थी ,उस पढ़ी हुई कहानी के अंश अभी भी जेहन में हैं और जब इस फिल्म को देखकर लौटना हुआ तो कहानी और फिल्म में हुए आंशिक बदलाव को भी देखने समझने का अवसर हाथ लगा। करीब 25-30 साल पहले जब प्रेमचंद की कहानियों पर किरदार और तहरीर जैसे सीरियल के रूप में लघु फिल्म बने और उनका दूरदर्शन पर प्रसारण किया गया तब भी उन्हें बहुत गौर से मैंने देखा था। चूँकि वे छोटे-छोटे आधे घण्टे की फ़िल्म हुआ करती थीं और बाजार की जरूरतों के बजाए दर्शकों की वैचारिक जरूरतों पर अधिक ध्

उनकी सबसे बड़ी खूबी है कि वे आपका विकल्प नहीं ढूंढते (किताब : प्रिय ओलिव)

■ क्या पेट्स हमें जीवन जीना सिखाते हैं पेट्स को लेकर अलग-अलग समय में अलग-अलग किस्म के अनुभव मेरे पास संचित होते रहे हैं । एक अनुभव का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी समझ रहा हूं । एक बार एक सज्जन आए थे मेरे घर । पढ़े लिखे हैं और स्कूल में व्याख्याता के रूप में उनकी तैनाती है। मेरे घर में पेट्स टोक्यो को देखकर कहने लगे कि घर में डॉगी कभी नहीं पालना चाहिए । घर में जितने भी पूजा पाठ होते हैं उनका फल इनके रहने से घर वालों को नहीं मिल पाता। कोई दीगर बात अगर वे करते, मसलन इस संदर्भ से जुड़ी परेशानियों का जिक्र करते तो बात हजम भी होती। उनकी बातें घोर अवैज्ञानिक बातें थीं और पेट्स के प्रति घृणा से भी भरी हुई थीं। अगर आपके जीवन में प्रेम है, आप लोगों से,अपने परिजनों से प्रेम करते हैं तो इस तरह किसी जानवर से घृणा नहीं कर सकते । उनकी बातें मुझे असंवेदनशील सी महसूस हुईं। उनके मन में पेट्स को लेकर एक किस्म का पूर्वाग्रह था जो बिना अनुभव के दूर नहीं हो सकता था ।पेट्स को पालने से कुछ परेशानियाँ जरूर होती हैं पर इसके बावजूद उनके प्रति घृणा का भाव उचित नहीं लगता। पेट्स हमारी संवेदना को जगाते हैं, पेट्स हमारी

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

'सुबह सवेरे' न्यूज मेगेज़ीन भोपाल एवं इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी: 'उम्मीद' ■रमेश शर्मा

■कहानी : उम्मीद  मनुष्य के जीवन में इतने प्रश्न हैं कि धरती इन प्रश्नों का भार उठाते हुए अपने एकांत में कराहती भी होगी । धरती का कराहना हम सुन नहीं पाते अन्यथा हम सुनकर चकित होते । संभव है करूणा से भर उठते । चारों तरफ प्रश्नों का एक झुण्ड है। घर के बाहर प्रश्न ,घर के भीतर प्रश्न। सोते-जागते हर समय प्रश्न ही प्रश्न । हालात ऐसे हो चुके कि कहीं टहलने निकलो तो भी प्रश्न पीछे दौड़ते चले आते हैं । लगता है जैसे उन्हें भी घर से बाहर निकल कर घूमना पसंद हो।  इस घटना को घटित हुए बहुत दिन नहीं हुए जब मिश्रा जी अपने डॉगी टोक्यो को साथ लेकर कालोनी की सूनी सडकों पर टहलने निकले थे । उस दिन उनके सामने मोहल्ले की एक लड़की बतियाते हुए अपनी ही रौ में बेसुध चली जा रही थी । उसकी बातचीत के दरमियान आवाज़ की तीव्रता कुछ इस कदर तेज थी कि सुनकर उन्हें याद आया....., एक प्रश्न दिमाग में उठने लगा .... इसका नाम कहीं भुलेनी तो नहीं? यह सोचकर ही मिश्रा जी के दिमाग में एक और प्रश्न घूमने लगा कि उन्हें आखिर कब और कैसे पता चला कि उसका नाम भुलेनी है? उन्होंने दिमाग में बहुत जोर डाला पर ऎसी कोई जानकारी चलकर उनके पास नहीं आ सक

जीवन के पूर्वाद्ध में घटी अच्छी बुरी घटनाओं से मुक्ति और नए रास्तों के पुनर सृजन का संदेश : गोविंद निहलानी की फ़िल्म दृष्टि

बहुत दिनों बाद 1990 में बनी गोविंद निहलानी की फ़िल्म "दृष्टि" दोबारा देखी। इस फ़िल्म को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला हुआ है । डिम्पल कपाड़िया और शेखर कपूर के किरदार, विवाह बन्धनों में बंधे मध्यवर्गीय भारतीय स्त्री-पुरूषों के जीवन की कहानियों को ही साफगोई से अभिब्यक्त करते हैं । स्त्री पुरूषों के पारिवारिक जीवन में घटित हो रही हर घटना/परिघटना को सही नजरिए और खुलेपन के साथ देख पाने की दृष्टि पर केंद्रित यह फ़िल्म वैवाहिक जीवन के एक विमर्श की तरह भी है जो मनुष्य की भीतरी दुनियाँ का खाका भी खींचकर सामने रखती है।  स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन में न जाने कितने उतार-चढ़ाव, अच्छे बुरे दिन आते जाते रहते हैं। संबंधों को बचाए रखने के लिए न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं।लड़ाई झगड़े ,प्रेम मोहब्बत , नोंक झोंक , मस्ती यायावरी जैसी न जाने कितनी बातें जीवन में होती हैं। ये सब जीवन के विविध रंग हैं जिनसे मिलकर जीवन आकार ग्रहण करता है। कोई भी फिल्म देखिये तो  जीवन के इतने सारे रंगों में से कुछ न कुछ रंग  फिल्म के भीतर दिखाई पड़ जाते हैं । दृष्टि फ़िल्म में भी स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन से जु

उदय प्रकाश की कहानी अंतिम नींबू बहुत कुछ कहना चाहती है

इंडिया टुडे के 10 जून 2020 अंक में उदय प्रकाश जी की कहानी अंतिम नींबू पढ़ने का अवसर मिला । कहानी थोड़ी लंबी जरूर है  पर यह अपनी रोचकता में, हर घड़ी बदलती नई-नई परिस्थितियों से उपजे नए नए रहस्यों में ,जो जिज्ञासा उत्पन्न करती है वह इस कहानी की खूबी है। तेजी से बदलती परिस्थितियों के बावजूद हर घटना एक दूसरे से जुड़ी रहकर  कहानी को  एक सूत्र में बांधे रखती है। कहानी में किस्सागोई की ताजगी है, साथ ही भाषाई कलात्मकता और घटित प्रसंगों का चमत्कार भी है। इस कोरोना काल में चीन के वुहान शहर से निकले वायरस का प्रसंग जिस अर्थ और रूप आकार में कहानी में ध्वनित होता है वह पाठक को चमत्कृत करता है। साथ ही विश्व की तमाम राजनीतिक परिस्थितियां ध्वनित होने लगती हैं। एक वायरस जो इन दिनों भाषा के भीतर, हिंसक लोगों के भीतर गाली गलौज के रूप में घुस गया है वह भी उतना ही खतरनाक है जितना की वुहान शहर से निकला वायरस । और यह वायरस जिससे भाषा दिनों दिन मर रही है यह राजनीति की ही देन है । कहानी के अंतिम पैराग्राफ को देखिए जहां सारी बातें स्पष्ट होने लगती हैं- "अगर आप कहीं विनायक दत्तात्रेय को कहीं मास्क लगाए भटकत

"जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की।आशुतोष को उनके शब्दों के साथ अलविदा..

  "जीवन में सबसे ज्यादा मैंने प्रतीक्षा ही की है। बड़े होने की, खुद अकेले कहीं निकल जाने की, दुनिया बदलने की, किसी के प्यार की। आज भी यह बदस्तूर जारी है। लेकिन कभी निराश नहीं हुआ। सच तो यह है कि आज भी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा हूँ। दुनिया के बदलने की, उसके आने की। जब भी चिड़ियों को तिनकों को चोंच में लेकर उड़ते देखता हूँ, बच्चों को किलकते देखता हूँ, लगता है मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। बड़ी उम्र की कमर झुकी वयस्का स्त्री को जब आज सुबह-सुबह काम पर निकलते देखा तो लगा दुनिया को बदलना ही होगा।" ये प्रोफेसर आशुतोष के आखिरी शब्द हैं । अपने मृत्यु के छः दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर यह लिखा था। इन शब्दों को पढ़कर ही उन्हें कुछ हद तक जाना समझा जा सकता है कि वे कितने संवेदनशील, कितने सुलझे हुए, कितने परिपक्व और चेतना संपन्न  इंसान थे।यह सब उन्होंने लिखने भर के लिए लिखा था, जैसा कि आजकल ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर करते हैं,ऐसा भी नहीं है। एक उम्रदराज और कमर झुकी बूढ़ी स्त्री को काम पर जाते हुए देखकर उन्हें भीतर से जो तकलीफ पहुंची  वही शब्दों के रूप में बाहर निकल कर आई। तब उस स्त्री क

पंकज स्वामी की कहानी गणितज्ञ, रश्मि शर्मा की कहानी : "और वही ख्वाहिश" देवेश पाथ सरिया की कहानी: लेनेट और वह तस्वीर , सोनल की कहानी चस्का पर कुछ टिप्पणियां

 ■पंकज स्वामी रचित एक नए कलेवर की कहानी "गणितज्ञ" ---------------------------------- पंकज स्वामी गम्भीर कथाकार हैं, पहल के सहायक संपादक भी रहे हैं। परिकथा जनवरी फरवरी २०२१ अंक में   उनकी कहानी "गणितज्ञ" पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा महसूस हो सकता है कि यह कहानी बहुत सहज और सरल कहानी है।कई बार ऐसा भी लग सकता है कि यह कहानी है भी या नहीं। पर कहानी जब खत्म हो जाती है तब उसका असर हमारे भीतर धीरे धीरे होने लगता है। दरअसल कुछ कहानियां विमर्श की मांग करती हैं । कुछ कहानियों पर बौद्धिक हो जाने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है। पर इन सबके बावजूद कहानी अपने डेस्टिनेशन पर जब पहुंचती है तो अपना समग्र प्रभाव मन पर छोड़ने लगती है। गणितज्ञ कहानी भी मेरी नजर में कुछ इसी किस्म की कहानी है जिसमें  गणितज्ञ और वैज्ञानिक परितोष कुमार के माध्यम से समाज के नजरिए को मापा गया है। समाज किस सतहीपन में जीता है यह कहानी उसे दमदारी से सामने रखती है। आज का यह समाज परितोष कुमार जैसे महान बुद्धिजीवी, गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक का सम्मान करना तो नहीं जानता पर उनके पुत्र रवि तोष कुमार जो कि एक प्रसिद्ध कोचिंग इंस्टि