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अनघा जोगलेकर सीमा शर्मा और प्रीति प्रकाश की कहानियों पर टिप्पणियाँ और समाज की एक मैली सी तस्वीर

चित्र रानी दरहा करमागढ़ ■अनघा जोगलेकर की कहानी 'ऐ जमूरे! ..हाँ उस्ताद' पढ़ते हुए  ------------------------------------ हंस जून 2021 अंक में अनघा जोगलेकर की कहानी "ऐ जमूरे!... हाँ उस्ताद" पढ़कर उस पर कुछ लिखने के लिए कहानी के कथ्य ने एक तरह से मन को प्रोवोक किया। ऐसा तब होता है जब कोई कहानी अन्दर से हमें विचलित करने लगती है । दंगाई पृष्ठभूमि और उससे उपजे हालातों को बयाँ करती यह कहानी  कभी दंगा का सामना न करने वाले लोगों को भी उन दृश्यों के इतना निकट ले जाती है जैसे वे स्वयं भी उन दृश्यों के हिस्से हों । दंगाई हालातों और  कर्फ्यू के दरमियान किसी के दरवाजे पर मटके में पानी मांगने गयी कोई प्यासी अबोध बच्ची जब पुलिस की गोली का शिकार होकर सामने खून से लथपथ पड़ी हो  और आप उसके चश्मदीद हों तो आपकी भीतरी दुनियां में किस तरह के मानवीय संवेग पैदा होंगे ? उस पर पुलिस पिस्तौल तानकर  ये कहे  कि इस लड़की को मना किया गया था .... नहीं मानी ! अन्दर जाइए नहीं तो आपको भी इस लडकी की तरह  गोलियों से भून देंगे तब ?  कहानी मन के भीतर एक कशमशाहट पैदा करती है कि झुग्गियों से निकल कर पानी मांगने गय

प्रकृति के सुरक्षा गार्ड के रूप में लोक आस्था ■ करमागढ़ की यात्रा से जुड़ा संस्मरण

करमागढ़ की यात्रा : दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित यात्रा संस्मरण ■रमेश शर्मा ~~~~~~~~~~~~~~~~~ दुर्गा नवमी का दिन था। जगह जगह शहर के पंडालों में माँ दुर्गा विराजी हुई थीं । आज के दिन देवी दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ शहरों में बढ़ जाती है । ऐसे में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ शहर की भीड़भाड़ से 25 किलोमीटर दूर करमागढ़ के घने जंगलों में बसन्त और ऋतु के साथ मैं और प्रतिमा भी शाम के लगभग 3 बजे यात्रा पर निकल पड़े । रास्ते में पालीघाट की घुमावदार हरी भरी पहाड़ियां मिलीं । पालीघाट की घुमावदार हरी भरी पहाड़ियों से गुजरते हुए मुझे बस्तर की केशकाल घाटी याद हो आयी। बस्तर की पहाड़ियों में जिस तरह ऊँचे ऊंचे ,घने ऊगे पेड़ बहुत पास-पास खड़े दिखाई देते हैं यहाँ भी वही नजारा दिखा । एकबारगी मुझे लगा कि मैं बस्तर के सुकमा और बीजापुर के जंगलों में आ गया हूँ । पाली घाट की पहाड़ियों के नीचे गहरी खाईयां और हरा भरा घना जंगल । समूचे दृश्य ने हमारा मन मोह लिया। पालीघाट से निकल कर हमारी कार और पंद्रह मिनट सड़क पर दौड़ती रही । कुछ समय बाद ही हम करमागढ़ में पहुँच गए थे ।  वहां भी रजवाड़ों के समय से माँ दुर्गा का प्राचीन मं

गांधी दर्शन युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे

  साहित्य की आँखों से गांधी दर्शन को समझना   --  रमेश शर्मा  ---------------------------------------------- गांधी के जीवन दर्शन को लेकर जब भी बातचीत होती है तो हम उसे बहुत सैद्धांतिक, परम्परागत और सतही तरीके से आज की पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं । और बात चूंकि बहुत सैद्धांतिक और परम्परागत होती है, इसलिए आज की पीढ़ी उसे उस तरह आत्मसात नहीं करती जिस तरह से उसे किया जाना चाहिए ।   दरअसल गांधी के जीवन दर्शन को लेकर सैद्धांतिक और किताबी चर्चा न करके अगर हम उनकी जीवन शैली को लेकर थोड़ी प्रेक्टिकल बातचीत करें तो मेरा अपना मानना है कि उनके जीवन दर्शन को नयी पीढ़ी तक हम थोड़ा ठीक ढंग से संप्रेषित कर पाएंगे।   गांधी जी की जीवन शैली की मुख्य मुख्य बातों को भी हमें ठीक ढंग से समझना होगा। दरअसल गांधी दर्शन का जिक्र जब भी होता है तो सत्य, अहिंसा, करूणा, दया, प्रेम, त्याग, धार्मिक-सौहाद्र इत्यादि जो बातें हैं वो उठने लगती हैं । इन बातों पर जब हमारी नजर जाती है तो हमें लगता है कि गांधी जी बहुत आदर्शवादी थे और उनके आदर्श को आत्मसात कर पाना संभव नहीं है । जबकि ऐसा नहीं है । भले ही गांधी बाहर से बह

ज्ञान प्रकाश विवेक, तराना परवीन, महावीर राजी और आनंद हर्षुल की कहानियों पर टिप्पणियां

◆ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी "बातूनी लड़की" (कथादेश सितंबर 2023) उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।  ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी। लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है। अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है। लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा

ग्राम उत्थान, सामाजिक समरसता,लोकचेतना और गांधी जी का शिक्षा दर्शन

गांधी जी के शैक्षिक दर्शन में जाने से पूर्व उनके मूल दर्शन को समझने की कोशिश  करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि उनका उद्देश्य अंग्रेजों की राजनैतिक दासता से मुक्ति के साथ साथ स्वतंत्रता के उपरान्त देशज परम्पराओं का नवीनीकरण करते हुए शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर भी देश को प्रगति के पथ पर ले जाना था, इसके केंद्र में ग्राम उत्थान उनका प्रमुक्ष ध्येय था। स्वतंत्रता आन्दोलन के समूचे इतिहास पर नजर डालें और उसका एक सम्यक विवेचन करें तो यह बात ध्यातब्य है कि जहां अन्य लोग हिंसा /अहिंसा किसी भी  साधन के माध्यम से जहां केवल और केवल अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहते थे वहीं गांधी की दृष्टि उनसे कहीं ब्यापक थी । वे स्वतंत्रता के साथ साथ उस स्वतंत्रता के मूल्यों की रक्षा हेतु लोकसमाज में शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर एक पूर्व तैयारी भी चाहते थे ताकि देश में जब पुनर्सृजन की कहानी लिखी जाए तो ये पूर्व तैयारियां देश की उन्नति के लिए लिखी गई उस कहानी को पुख्ता करें । उनकी यह दृष्टि ही उन्हें दूसरों से अलग करती है। गांधी इस बात को जानते थे कि किसी भी देश और उसकी समाज ब्यवस्था क

दैनिक न्यूज़ मेगेज़ीन 'सुबह सवेरे' भोपाल एवम इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी ■ अधूरी चिठ्ठी , लेखक-रमेश शर्मा

■ अधूरी चिठ्ठी  ------------------------------------------------------------------- सड़क के किनारे अपने कदमों को बढाता हुआ वह चल रहा था । थका-मांदा उदास । मन में विचार आ-जा रहे थे। यह क्रम है कि खत्म ही नहीं हो रहा था । इस अजनबी शहर ने उदासी और हताशा के सिवाय उसे आज तक कुछ दिया ही नहीं। फिर भी यहाँ से जाने को उसका मन आखिर क्यों नहीं होता ? यह एक अजीब सा सवाल था जो चलते-चलते उसके मन में उठने लगा था । वह जाना भी चाहे तो आखिर कहाँ जाए ? जाने के लिए कोई जगह भी तो नियत हो। उसके मन में उपजे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। जवाब के फेर में पड़े बिना ही वह चला जा रहा था। फरवरी का महीना। आसमान में धूप खिली हुई।एक बात अच्छी घट रही थी कि देह पर पड़ने वाली धूप की आंच देह को भली लग रही थी।सुबह के दस बज रहे होंगे जब इस तरह सडकों पर वह भटक रहा था।  नज़र उठाकर उसने इधर उधर देखा ....सड़क किनारे रखे कचरे के डिब्बे पर चढ़कर बच्चे खेल रहे थे। उनकी देह पर मैले कुचैले कपड़े न जाने कब से पड़े थे । उनके लिए यह सिर्फ खेल भर नहीं था । खेल के साथ साथ वे अपनी जरूरत की चीजें भी वहां ढूँढ़ रहे थे।उसने गौर से देखा ...एक बच्चा ब्

शिक्षा, समाज, साहित्य और बच्चा : समग्रता में देखने के लिए स्वस्थ नज़रिए की ज़रूरत【4 नवम्बर 2023, दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित आलेख】

  ■समाज की नज़र से बच्चों को देखने का नज़रिया कितना सही ■हिंदी कहानियों के जरिये एक जरुरी विमर्श की कोशिश --------------------------------------------------------------------- समाज की नजर में बच्चा कौन है ? उसे कैसा होना चाहिए ?जब इस तरह के सवालों पर बहुत गहराई में जाकर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है तो इसका जवाब बहुत आसानी से हमें नहीं मिलता । सीधे तौर पर तो कतई नहीं कि हम किसी किताब में इसका कोई बना बनाया जवाब ढूँढ लें । आम तौर पर बच्चे की प्रतिछवि आम लोगों के मनो मष्तिष्क में जन्म से लेकर चौदह साल तक की छोटी उम्र से अंतर्संबंधित होकर ही बनती है । इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चे का सम्बन्ध सीधे सीधे उसकी छोटी उम्र से होता है । यह धारणा आदिकाल से पुष्ट होती चली भी आ रही है । "समाज की नजर में बच्चा" को लेकर मेरा यह जो विमर्श है दरअसल आदिकाल से चली आ रही इसी धारणा को जीवन की कसौटी पर परीक्षण किए जाने के इर्द गिर्द ही केन्द्रित है । इस परीक्षण की प्रविधियां क्या हों? कि इसे  बेहतर तरीके से समझा जा सके, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है जो हमारे साथ साथ चलता है । इस सवाल का जवाब कुछ हद तक हिंदी

सुबह सवेरे अखबार में प्रकाशित कहानी: रेस्तरां से लौटते हुए

छुट्टी का  दिन था । वीकली ऑफ । उनके लिए छुट्टी का दिन याने मौज मस्ती का दिन। खाना पीना घूमना ।  एक ने कहा 'चौपाल जायेंगे , वहां लंच लेंगे ।'  'नहीं यार चौपाल नहीं , आज नारियल नेशन जायेंगे ।' - दूसरे ने झट से उसकी बात काटते हुए कह दिया  । दोनों की बातें सुनकर तीसरे ने हँसते हुए कहा 'तुम लोग भी न..... वही घिसी पिटी जगह ! अरे जीवन में जायका बदलने की भी सोचो , किसी नयी जगह की बात करो , ये क्या उसी जगह बार बार जाना ।'  तीसरे की बात सुनकर दोनों हक्का बक्का उसकी ओर देखने लगे थे ।उन दोनों को लगा कि यह सच बोल रहा है । पर  पहले ने बदलाव शब्द सुनकर आहें भरी और कहने लगा .... हमारे जीवन में बदलाव कहाँ है दोस्त ! वही रोज रोज का घिसा पिटा काम । सुबह हुई नहीं कि बीबी को नींद से जगाओ, टिफिन तैयार करवाने के लिए कहो। फिर बाथ रूम में जाकर हबड़ तबड़ नहाकर निकलो । कपड़े पहनो और भाग लो कम्पनी की बस पकड़ने। यार अब तो लगता है जैसे इसी रूटीन पर चलते चलते जिन्दगी के ऊपर जंग की एक परत जम गयी है । यह सब कहते कहते उसके चेहरे से नीरसता का भाव टपक पड़ा ।  दूसरा ज्यादा सोचता नहीं था । मानो उसकी सोच

30 अक्टूबर पुण्यतिथि पर डॉ राजू पांडे को याद कर रहे हैं बसंत राघव "सत्यान्वेषी राजू पांडेय के नहीं होने का मतलब"

डॉक्टर राजू पांडेय शेम शेम मीडिया, बिकाऊ मीडिया, नचनिया मीडिया,छी मीडिया, गोदी मीडिया  इत्यादि इत्यादि विशेषणों से संबोधित होने वाली मीडिया को लेकर चारों तरफ एक शोर है , लेकिन यह वाकया पूरी तरह सच है ऐसा कहना भी उचित नहीं लगता ।  मुकेश भारद्वाज जनसत्ता, राजीव रंजन श्रीवास्तव देशबन्धु , सुनील कुमार दैनिक छत्तीसगढ़ ,सुभाष राय जनसंदेश टाइम्स जैसे नामी गिरामी संपादक भी आज मौजूद हैं जो राजू पांंडेय को प्रमुखता से बतौर कॉलमिस्ट अपने अखबारों में जगह देते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता जन सरोकारिता और निष्पक्षता से परिपूर्ण रही है।  आज धर्म  अफीम की तरह बाँटी जा रही है। मेन मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाकर, उसे मशीनीकृत किया जा रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में राजनीतिक अधिकारों, नागरिक आजादी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के क्षेत्र में गिरावट महसूस की जा रही है। राजू पांंडेय का मानना था कि " आज तंत्र डेमोक्रेसी  इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील हो चुकी है ,जहां असहमति और आलोचना को बर्दाश्त नहीं किया जाता और इसे राष्ट्र विरोधी गतिविधि की संज्ञा दी जाती है।" स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि व्याधियो