ग्रामीण समाज में नई चेतना का स्थापन ग्रामीण समाज का जिक्र आते ही हमारे मनो मस्तिष्क में रिश्तों की सहजता और लोगों का भोलापन सहज रूप से घर करने लगता है | यह कुछ हद तक सच के करीब भी है पर शहरीकरण और बाजार की घुसपैठ ने इस समाज में भी समय के साथ विकृतियाँ उत्पन्न की हैं | कथाकार शोभनाथ शुक्ल जी का नवीनतम उपन्यास 'अंगूठे पर वसीयत' ग्रामीण समाज के भीतर पसरतीं जा रहीं अनपेक्षित विकृतियों के अनेकानेक रंगों को घटनाओं के माध्यम से चलचित्र की भांति रखता चला जाता है |ग्रामीण समाज में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर घटित होने वाली घटनाओं का विवरण कुछ इस तरह सिलसिलेवार मिलता है कि उपन्यास के साथ हम एक जिज्ञासु पाठक की हैसियत से जुड़ते हैं और फिर आगे बढ़ने लगते हैं |उपन्यास का केन्द्रीय पात्र 'रामबरन गरीब' समाज के उस आदमी का प्रतिनिधित्व करता है जो समाज में फैली विसंगतियों को लेकर चिंतातुर है| सामाजिक वर्ग भेद जैसी विसंगतियों से बाहर निकल समाज की बेहतरी जैसी सोच रखना, यूं तो मानवीय चेतना से संपन्न व्यक्ति का गुण है जिसकी दुर्लभता से आज का समाज चिंतन के स्तर पर लगातार विपन्न होत...