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भाषा का राजनीतिकरण किसी भाषा के साथ न्याय नहीं है

  भाषा तभी तक बची रहेगी जब तक कि उस भाषा का साहित्य बचा रहे | राजनीति और संचार क्रांति के इस महायुग में आज साहित्य ही मानवीय संवेदना के प्रसार का एक मात्र बचाखुचा माध्यम रह गया है, ऐसे में हिन्दी भाषा में साहित्य लिखने-पढने की परम्परा को बचाए रखने की जरूरत है | हिन्दी भाषा को लेकर हर वर्ष एक उथल पुथल सी मची रहती है | इस उथल पुथल में गंभीरता कम और सतहीपन अधिक होता है | अन्य भाषाओं खासकर अंग्रेजी के विरोध से शुरू हुआ यह अभियान चौदह सितम्बर सुबह से शुरू होकर, शाम के आते आते कहीं अँधेरे में गुम हो जाता है | हिन्दी भाषा ऐसे अभियानों से कितनी समृद्ध हो पाती है, कितनी नहीं यह बहस का कोई मुद्दा नहीं है | ऎसी बहसों से कुछ हासिल भी होना नहीं है | हर क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप इस वर्ष एक नए अभियान की शुरूवात हुई है   "STOP HINDI IMPOSITION" . यह भी एक उसी तरह का अभियान है जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूँ | दरअसल राजनीति ने हर जगह जब अपने पाँव पसारे हैं तो भला कोई भाषा भी उससे अछूती कैसे रह सकती है | कोई भी भाषा एक समूची संस्कृति को अपने साथ बहाकर लाती है , उस संस्कृति में हमारे

इला सिंह की कहानी 'अम्मा'

इतने   खराब   हालातों   में   भी   वो   दिल   की   हमेशा   अमीर   रहीं   इला सिंह जीवन की अनदेखी अनबुझी सी रह जाने वाली अमूर्त सी घटनाओं को भी कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से हैं| अम्मा कहानी में भी एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशीलता , धीरज और उसकी उदारता को सामान्य सी घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह उन्होंने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति हमारा ध्यान आकर्षित करती है | अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग हैं पर अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है | कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री के ऐसे रंग ही एक घर की खूबसूरती को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं |कहानी यह कहने में सफल है कि घर और समाज की धुरी अम्मा जैसी स्त्री के ऊपर ही टिकी है | कथादेश के किसी पूर्व अंक में प्रकाशित इस कहानी की लेखिका इला सिंह जी का अनुग्रह के इस मंच पर स्वागत है |   अम्मा  “ आज हमसे खाना नही बनेगा भाई !” भाभी ने रोटी सेकते - सेकते झटके से आटे की परात अपने आगे से सरका दी और झल्लाते हुए लक